ترجمة سورة البروج

Tajik - Tajik translation

ترجمة معاني سورة البروج باللغة الطاجيكية من كتاب Tajik - Tajik translation.

БУРУҶ


Қасам ба осмон, ки дорандаи бурҷҳост

ва қасам ба рӯзи мавъуд

ва қасам ба шоҳидидиҳанда ва он чӣ ба он шоҳидӣ диҳанд,

ки соҳибони уҳдуд ба ҳалокат расиданд.

Оташе афрӯхта аз ҳезумҳо

он гоҳ ки бар канори он оташ нишаста буданд

ва бар он чӣ бар сари мӯъминон меоваранд, шоҳид буданд.

Ва ҳеҷ айбе дар онҳо наёфтанд, ҷуз он ки ба Худои ғолиби лоиқи ситоиш имон оварда буданд,

он Худое, ки фармонравоии осмонҳову замин аз они Ӯст ва бар ҳар чизе нозир аст.

Албатта онон, ки мардону занони мӯъминро шиканҷа карданд ва тавба накарданд, азоби ҷаҳаннам ва азоби оташ барои онҳост.

Барои касоне, ки имон овардаанд ва корҳои шоиста кардаанд, биҳиштҳоест, ки дар он наҳрҳо ҷорист ва он комёбии бузургест!

Ба азоб гирифтани Парвардигори ту сахт аст.

Ӯст, ки нахуст меофаринад ва пас аз марг зинда месозад.

Ӯ бахшояндаву дӯстдоранда аст.

Ӯст соҳиби арши бузург.

Ҳар чиро ирода кунад, ба анҷом мерасонад.

Оё достони лашкарҳоро шунидаӣ?

Лашкарҳои Фиръавну қавми Самуд,

Оре, онон, ки роҳи куфр пеш гирифтаанд, ҳамчунон дар дурӯғбарорӣ ҳастанд;

ва Худо аз ҳама сӯ бар онҳо иҳота дорад.

Бале, ин Қуръони маҷид аст

дар лавҳи маҳфуз!
سورة البروج
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سورة (البُرُوج) من السُّوَر المكية، وقد افتُتحت ببيان قدرة الله عز وجل وعظمتِه، ثم جاءت على ذكرِ قصة (أصحاب الأخدود)، وهم قومٌ فتَنوا فريقًا ممن آمن بالله، فجعلوا أُخدودًا من نار لتعذيبهم؛ وذلك تثبيتًا لقلوب الصحابة على أمرِ هذه الدعوة، وأن اللهَ - بعظمتِه وسلطانه - الذي أقام السماءَ والأرض صاحبَ البطش الشديد معهم وناصرُهم، وكان صلى الله عليه وسلم يقرأ هذه السورةَ في الظُّهر والعصر.

ترتيبها المصحفي
85
نوعها
مكية
ألفاظها
109
ترتيب نزولها
27
العد المدني الأول
22
العد المدني الأخير
22
العد البصري
22
العد الكوفي
22
العد الشامي
22

* سورة (البُرُوج):

سُمِّيت سورة (البُرُوج) بهذا الاسم؛ لافتتاحها بقوله تعالى: {وَاْلسَّمَآءِ ذَاتِ اْلْبُرُوجِ} [البروج: 1]؛ وهي: الكواكبُ السيَّارة.

* كان صلى الله عليه وسلم يقرأ في الظُّهر والعصر بسورة (البُرُوج):

عن جابرِ بن سَمُرةَ رضي الله عنه: «أنَّ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم كان يَقرأُ في الظُّهْرِ والعصرِ بـ{وَاْلسَّمَآءِ وَاْلطَّارِقِ}، {وَاْلسَّمَآءِ ذَاتِ اْلْبُرُوجِ}، ونحوِهما مِن السُّوَرِ». أخرجه أبو داود (٨٠٥).

1. قصة (أصحاب الأخدود) (١-٩).

2. التمييز بين الطائعين والعاصين (١٠-١١).

3. مشيئة الله تعالى، ونَفاذُ قُدْرته (١٢-٢٢).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (9 /90).

يقول ابن عاشور: «... ضرب المثَلِ للذين فتنوا المسلمين بمكة بأنهم مثلُ قوم فتَنوا فريقًا ممن آمن بالله، فجعلوا أخدودًا من نار لتعذيبِهم؛ ليكون المثلُ تثبيتًا للمسلمين، وتصبيرًا لهم على أذى المشركين، وتذكيرًا لهم بما جرى على سلَفِهم في الإيمان من شدة التعذيب الذي لم يَنَلْهم مثلُه، ولم يصُدَّهم ذلك عن دِينهم.

وإشعار المسلمين بأن قوةَ الله عظيمةٌ؛ فسيَلقَى المشركون جزاءَ صنيعهم، ويَلقَى المسلمون النعيمَ الأبدي والنصر.
والتعريض للمسلمين بكرامتهم عند الله تعالى.
وضرب المثلِ بقوم فرعون، وبثمود، وكيف كانت عاقبة أمرهم لمَّا كذبوا الرسل؛ فحصلت العِبرة للمشركين في فَتْنِهم المسلمين، وفي تكذيبهم الرسولَ صلى الله عليه وسلم، والتنويه بشأن القرآن». "التحرير والتنوير" لابن عاشور (30 /236).