ترجمة سورة البروج

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة البروج باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

शपथ है बुर्जों वाले आकाश की!
शपश है उस दिन की, जिसका वचन दिया गया!
शपथ है साक्षी की और जिसपर साक्ष्य देगा!
खाईयों वालों का नाश हो गया![1]
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1. (1-4) इन में तीन चीज़ों की शपथ ली गई है। (1) बुर्जों वाले आकाश की। (2) प्रलय की, जिस का वचन दिया गया है। (3) प्रलय के भ्यावह दृश्य की और उस पूरी उत्पत्ति की जो उसे देखेगी। प्रथम शपथ इस बात की गवाही दे रही है जो शक्ति इस आकास के ग्रहों पर राज कर रही है उस की पकड़ से यह तुच्छ इन्सान बच कर कहाँ जा सकता है? दूसरी शपथ इस बात पर है कि संसार में इन्सान जो अत्याचार करना चाहे कर ले, परन्तु वह दिन अवश्य आना है जिस से उसे सावधान किया जा रहा है, जिस में सब के साथ न्याय किया जायेगा, और अत्याचारियों की पकड़ की जायेगी। तीसरी शपथ इस पर है कि जैसे इन अत्याचारियों ने विवश आस्तिकों के जलने का दृश्य देखा, इसी प्रकार प्रलय के दिन पूरी मानव जाति देखेगी कि उन की क्या दुर्गत है।
जिनमें भड़कते हुए ईंधन की अग्नि थी।
जबकि वे उनपर बैठे हुए थे।
और वे ईमान वालों के साथ जो कर रहे थे, उसे देख रहे थे।
और उनका दोष केवल यही था कि वे प्रभावी प्रशंसा किये अल्लाह के प्रति विश्वास किये हुए थे।
जो आकाशों तथा धरती के राज्य का स्वामी है और अल्लाह सब कुछ देख रहा है।
जिन्होंने ईमान लाने वाले नर नारियों को परीक्षा में डाला, फिर क्षमा याचना न की, उनके लिए नरक का दण्ड तथा भड़कती आग की यातना है।
वास्तव में, जो ईमान लाये और सदाचार बने, उनके लिए ऐसे स्वर्ग हैं, जिनके तले नहरें बह रही हैं और यही बड़ी सफलता है।[1]
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1. (5-11) इन आयतों में जो आस्तिक सताये गये उन के लिये सहायता का वचन तथा यदि वे अपने विश्वास (ईमान) पर स्थित रहे तो उन के लिये स्वर्ग की शुभ सूचना और अत्याचारियों के लिये नरक की धमकी है जिन्होंने उन को सताया और फिर अल्लाह से क्षमा याचना आदि कर के सत्य को नहीं माना।
निश्चय तेरे पालनहार की पकड़ बहुत कड़ी है।
वही पहले पैदा करता है और फिर दूसरी बार पैदा करेगा।
और वह अति क्षमा तथा प्रेम करने वाला है।
वह सिंहासन का महान स्वामी है।
वह जो चाहे करता है।[1]
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1. (12-16) इन आयतों में बताया गया है कि अल्लाह की पकड़ के साथ ही जो क्षमा याचना कर के उस पर ईमान लाये, उस के लिये क्षमा और दया का द्वार खुला हुआ है। क़ुर्आन ने इस कुविचार का खण्डन किया है कि अल्लाह, पापों को क्षमा नहीं कर सकता। क्योंकि इस से संसार पापों से भर जायेगा और कोई स्वार्थी पापा कर के क्षमा याचना कर लेगा फिर पाप करेगा। यह कुविचार उस समय सह़ीह़ हो सकता है जब अल्लाह को एक इन्सान मान लिया जाये, जो यह न जानता हो कि जो व्यक्ति क्षमा माँग रहा है उस के मन में क्या है? अल्लाह तो मर्मज्ञ है, वह जानता है कि किस के मन में क्या है? फिर "तौबा" इस का नाम नहीं कि मुख से इस शब्द को बोल दिया जाये। तौबा (पश्चानुताप) मन से पाप न करने के प्रयत्न का नाम है और इसे अल्लाह तआला जानता है कि किसा के मन में क्या है?
हे नबी! क्या तुम्हें सेनाओं की सूचना मिली?
फ़िरऔन तथा समूद को।[1]
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1. (17-18) इन में अतीत की कुछ अत्याचारी जातियों की ओर संकेत है, जिन का सविस्तार वर्णन क़ुर्आन की अनेक सूरतों में आया है। जिन्होंने आस्तिकों पर अत्याचार किये जैसे मक्का के क़ुरैश मुसलमानों पर कर रहे थे। जब कि उन को पता था कि पिछली जातियों के साथ क्या हुआ। परन्तु वे अपने परिणाम से निश्चेत थे।
बल्कि काफ़िर (विश्वासहीन) झुठलाने में लगे हुए हैं।
और अल्लाह उन्हें हर ओर से घेरे हुए है।[1]
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1. (19-20) इन दो आयतों में उन के दुर्भाग्य को बताया जा रहा है जो अपने प्रभुत्व के गर्व में क़ुर्आन को नहीं मानते। जब कि उसे माने बिना कोई उपाय नहीं, और वह अल्लाह के अधिकार के भीतर ही हैं।
बल्कि, वह गौरव वाला क़ुर्आन है।
जो लेखपत्र (लौह़े मह़फ़ूज़) में सुरक्षित है।[1]
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1. (21-22) इन आयतों में बताया गया है कि यह क़ुर्आन कविता और ज्योतिष नहीं है जैसा कि वह सोचते हैं, यह श्रेष्ठ और उच्चतम अल्लाह का कथन है जिस का उद्गम "लौह़े मह़फ़ूज़" में सुरक्षित है।
سورة البروج
معلومات السورة
الكتب
الفتاوى
الأقوال
التفسيرات

سورة (البُرُوج) من السُّوَر المكية، وقد افتُتحت ببيان قدرة الله عز وجل وعظمتِه، ثم جاءت على ذكرِ قصة (أصحاب الأخدود)، وهم قومٌ فتَنوا فريقًا ممن آمن بالله، فجعلوا أُخدودًا من نار لتعذيبهم؛ وذلك تثبيتًا لقلوب الصحابة على أمرِ هذه الدعوة، وأن اللهَ - بعظمتِه وسلطانه - الذي أقام السماءَ والأرض صاحبَ البطش الشديد معهم وناصرُهم، وكان صلى الله عليه وسلم يقرأ هذه السورةَ في الظُّهر والعصر.

ترتيبها المصحفي
85
نوعها
مكية
ألفاظها
109
ترتيب نزولها
27
العد المدني الأول
22
العد المدني الأخير
22
العد البصري
22
العد الكوفي
22
العد الشامي
22

* سورة (البُرُوج):

سُمِّيت سورة (البُرُوج) بهذا الاسم؛ لافتتاحها بقوله تعالى: {وَاْلسَّمَآءِ ذَاتِ اْلْبُرُوجِ} [البروج: 1]؛ وهي: الكواكبُ السيَّارة.

* كان صلى الله عليه وسلم يقرأ في الظُّهر والعصر بسورة (البُرُوج):

عن جابرِ بن سَمُرةَ رضي الله عنه: «أنَّ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم كان يَقرأُ في الظُّهْرِ والعصرِ بـ{وَاْلسَّمَآءِ وَاْلطَّارِقِ}، {وَاْلسَّمَآءِ ذَاتِ اْلْبُرُوجِ}، ونحوِهما مِن السُّوَرِ». أخرجه أبو داود (٨٠٥).

1. قصة (أصحاب الأخدود) (١-٩).

2. التمييز بين الطائعين والعاصين (١٠-١١).

3. مشيئة الله تعالى، ونَفاذُ قُدْرته (١٢-٢٢).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (9 /90).

يقول ابن عاشور: «... ضرب المثَلِ للذين فتنوا المسلمين بمكة بأنهم مثلُ قوم فتَنوا فريقًا ممن آمن بالله، فجعلوا أخدودًا من نار لتعذيبِهم؛ ليكون المثلُ تثبيتًا للمسلمين، وتصبيرًا لهم على أذى المشركين، وتذكيرًا لهم بما جرى على سلَفِهم في الإيمان من شدة التعذيب الذي لم يَنَلْهم مثلُه، ولم يصُدَّهم ذلك عن دِينهم.

وإشعار المسلمين بأن قوةَ الله عظيمةٌ؛ فسيَلقَى المشركون جزاءَ صنيعهم، ويَلقَى المسلمون النعيمَ الأبدي والنصر.
والتعريض للمسلمين بكرامتهم عند الله تعالى.
وضرب المثلِ بقوم فرعون، وبثمود، وكيف كانت عاقبة أمرهم لمَّا كذبوا الرسل؛ فحصلت العِبرة للمشركين في فَتْنِهم المسلمين، وفي تكذيبهم الرسولَ صلى الله عليه وسلم، والتنويه بشأن القرآن». "التحرير والتنوير" لابن عاشور (30 /236).