ترجمة سورة يس

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة يس باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

या सीन।
शपथ है सुदृढ़ क़ुर्आन की!
वस्तुतः, आप रसूलों में से हैं।
सुपथ पर हैं।
(ये क़ुर्आन) प्रभुत्वशाली, अति दयावान् का अवतरित किया हुआ है।
ताकि आप सावधान करें उस जाति[1] को, नहीं सावधान किये गये हैं जिनके पूर्वज। इस लिए वे अचेत हैं।
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1. मक्का वासियों को, जिन के पास इस्माईल (अलैहिस्सलाम) के पश्चात् कोई नबी नहीं आया।
सिध्द हो चुका है वचन[1] उनमें से अधिक्तर लोगों पर। अतः, वे ईमान नहीं लायेंगे।
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1. अर्थात अल्लाह का यह वचन कि ((मैं जिन्नों तथा मनुष्यों से नरक को भर दूँगा।)) (देखियेः सूरह सज्दा, आयतः13)
तथा हमने डाल दिये हैं तौक़ उनके गलों में, जो हड्डियों तक[1] हैं। इसलिए वे सिर ऊपर किये हुए हैं।
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1. इस से अभिप्राय अन का कुफ़्र पर दुराग्रह तथा ईमान न लाना है।
तथा हमने बना दी है उनके आगे एक आड़ और उनके पीछे एक आड़। फिर ढाँक दिया है उनको, तो[1] वे देख नहीं रहे हैं।
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1. अर्थात सत्य की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं, और न उस से लाभान्वित हो रहे हैं।
तथा समान है उनपर कि आप उन्हें सावधान करें अथवा सावधान न करें, वे ईमान नहीं लायेंगे।
आप तो बस उसे सचेत कर सकेंगे, जो माने इस शिक्षा (क़ुर्आन) को तथा डरे अत्यंत कृपाशील से, बिन देखे। तो आप शुभ सूचना सुना दें उसे, क्षमा की तथा सम्मानित प्रतिफल की।
निश्चय हम ही जीवित करेंगे मुर्दों को तथा लिख रहे हैं, जो कर्म उन्होंने किया है और उनके पद् चिन्हों[1] को तथा प्रत्येक वस्तु को हमने गिन रखा है, खुली पुस्तक में।
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1. अर्थात पुण्य अथवा पाप करने के लिये आते-जाते जो उन के पद्चिन्ह धरती पर बने हैं उन्हें भी लिख रखा है। इसी में उन के अच्छे-बुरे वह कर्म भी आते हैं जो उन्हों ने किये हैं। और जिन का अनुसरण उन के पश्चात् किया जा रहा है।
तथा आप उन्हें[1] एक उदाहरण दीजिये नगर वासियों का। जब आये उसमें कई रसूल।
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1. अपने आमंत्रण के विरोधियों को।
जब हमने भेजा उनकी ओर दो को। तो उन्होंने झुठला दिया उन दोनों को। फिर हमने समर्थन दिया तीसरे के द्वारा। तो तीनों ने कहाः हम तुम्हारी ओर भेजे गये हैं।
उन्होंने कहाः तुम सब तो मनुष्य ही हो, हमारे[1] समान और नहीं अवतरित किया है अत्यंत कृपाशील ने कुछ भी। तुम सब तो बस झूठ बोल रहे हो।
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1. प्राचीन युग से मुश्रिकों तथा कुपथों ने अल्लाह के रसूलों को इसी कारण नहीं माना कि एक मनुष्य पुरुष अल्लाह का रसूल कैसे हो सकता है? यह तो खाता-पीता तथा बाज़ारों में चलता-फिरता है। (देखियेः सूरह फ़ुर्क़ान, आयतः7-20, सूरह अम्बिया, आयतः3,7,8, सूरह मूमिनून, आयतः24-33-34, सूरह इब्राहीम, आयतः 10-11, सूरह इस्रा, आयतः94-95, और सूरह तग़ाबुन, आयतः6)
उन रसूलों ने कहाः हमारा पालनहार जानता है कि वास्तव में हम तुम्हारी ओर रसूल बनाकर भेजे गये हैं।
तथा हमारा दायित्व नहीं है खुला उपदेश पहुँचा देने के सिवा।
उन्होंने कहाः हम तुम्हें अशुभ समझ रहे हैं। यदि तुम रुके नहीं, तो हम तुम्हें अवश्य पथराव करके मार डालेंगे और तुम्हें अवश्य हमारी ओर से पहुँचेगी दुःखदायी यातना।
उन्होंने कहाः तुम्हारा अशुभ तुम्हारे साथ है। क्या यदि तुम्हें शिक्षा दी जाये (तो अशुभ समझते हो)? बल्कि तुम उल्लंघनकारी जाति हो।
तथा आया नगर के अन्ति किनारे से, एक पुरुष दौड़ता हुआ। उसने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! अनुसरण करो रसूलों का।
अनुसरण करो उनका, जो तुमसे नहीं माँगते कोई पारिश्रमिक (बदला) तथा वे सुपथ पर हैं।
तथा मुझे क्या हुआ है कि मैं उसकी इबादत (वंदना) न करूँ, जिसने मुझे पैदा किया है? और तुमसब उसी की ओर फेरे जाओगे।[1]
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1. अर्थात मैं तो उसी की वंदना करता हूँ। और करता रहूँगा। और उसी की वंदना करनी भी चाहिये। क्यों कि वही वंदना किये जाने के योग्य है। उस के अतिरिक्त कोई वंदना के योग्य हो ही नहीं सकता।
क्या मैं बना लूँ उसे छोड़कर बहुत-से पूज्य? यदि अत्यंत कृपाशील मुझे कोई हानि पहुँचाना चाहे, तो नहीं लाभ पहूँचायेगी मुझे उनकी अनुशंसा (सिफ़ारिश) कुछ और न वे मुझे बचा सकेंगे।
वास्तव में, तब तो मैं खुले कुपथ में हूँ।
निश्चय, मैं ईमान लाया तुम्हारे पालनहार पर, अतः, मेरी सुनो।
(उससे) कहा गयाः तुम प्रवेश कर जाओ स्वर्ग में। उसने कहाः काश मेरी जाति जानती!
जिसकारण क्षमा[1] कर दिया मुझे मेरे पालनहार ने और मुझे सम्मिलित कर दिया सम्मानितों में।
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1. अर्थात एकेश्वरवाद तथा अल्लाह की आज्ञा के पालन पर धैर्य के कारण।
तथा हमने नहीं उतारी उसकी जाति पर उसके पश्चात् कोई सेना[1] आकाश से और न हमें उतारने की आवश्यक्ता थी।
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1. अर्थात यातना देने के लिये सेनायें नहीं उतारते।
वह तो बस एक कड़ी ध्वनि थी। फिर सहसा सबके सब बुझ गये।[1]
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1. अर्थात एक चीख़ ने उन को बुझी हुई राख के समान कर दिया। इस से ज्ञात होता है कि मनुष्य कितना निर्बल है।
हाय संताप है[1] भक्तों पर! नहीं आया उनके पास रसूल, परन्तु वे उसका उपहास करते रहे।
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1. अर्थात प्रलय के दिन रसूलों का उपहास भक्तों के लिये संताप का कारण होगा।
क्या उन्होंने नहीं देखा कि उनसे पहले विनाश कर दिया बहुत-से समुदायों का। वे उनकी ओर दोबारा फिरकर नहीं आयेंगे।
तथा सबके सब हमारे समक्ष उपस्थित किये[1] जायेंगे।
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1. प्रलय के दिन ह़िसाब तथा प्रतिकार के लिये।
तथा उन[1] के लिए एक निशानी है निर्जीव (सूखी) धरती। जिसे हमने जीवित कर दिया और हमने निकाले उससे अन्न, तो तुम उसीमें से खाते हो।
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1. यहाँ एकेश्वरवाद तथा आख़िरत (परलोक) के विषय का वर्णन किया जा रहा है। जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तथा मक्का के काफ़िरों के बीच विवाद का कारण था।
तथा पैदा कर दिये उसमें बाग़ खजूरों तथा अंगूरों के और फाड़ दिये उसमें जल स्रोत।
ताकि वे खायें उसके फल और नहीं बनाया है उसे उनके हाथों ने। तो क्या वे कृतज्ञ नहीं होते?
पवित्र है वह, जिसने पैदा किये प्रत्येक जोड़े, उसके जिसे उगाती है धरती तथा स्वयं उनकी अपनी जाति के और उसके, जिसे तुम नहीं जानते हो।
तथा एक निशानी (चिन्ह) है उनके लिए रात्रि। खींच लेते हैं हम जिससे दिन को, तो सहसा वह अंधेरों में हो जाते हैं।
तथा सूर्य चला जा रहा है अपने निर्धारित स्थान की ओर। ये प्रभुत्वशाली सर्वज्ञ का निर्धारित किया हुआ है।
तथा चन्द्रमा के हमने निर्धारित कर दिये हैं गंतव्य स्थान। यहाँतक कि फिर वह हो जाता है पुरानी खजूर की सूखी शाखा के समान।
न तो सूर्य के लिए ही उचित है कि चन्द्रमा को पा जाये और न रात अग्रगामी हो सकती है दिन से। सब एक मण्डल में तैर रहे हैं।
तथा उनके लिए एक निशानी (लक्षण) (ये भी) है कि हमने सवार किया उनकी संतान को भरी हुई नाव में।
तथा हमने पैदा किया उनके लिए उसके समान वह चीज़, जिसपर वे सवार होते हैं।
और यदि हम चाहें, तो उन्हें जलमगन कर दें। तो न कोई सहायक होगा उनका और न वे निकाले (बचाये) जायेंगे।
परन्तु, हमारी दया से तथ लाभ देने के लिए एक समय तक।
और[1] जब उनसे कहा जाता है कि डरो उस (यातना) से, जो तुम्हारे आगे तथा तुम्हारे पीछे है, ताकि तुमपर दया की जाये।
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1. आयत संख्या 33 से यहाँ तक एकेश्वरवाद तथा प्रलोक के प्रमाणों, जिन्हें सभी लोग देखते तथा सुनते हैं, और जो सभी इस विश्व की व्यवस्था तथा जीवन के संसाधनों से संबंधित हैं, उन का वर्णन करने के पश्चात् अब मिश्रणवादियों तथा काफ़िरों की दशा और उन के आचरण का वर्णन किया जा रहा है।
तथा नहीं आती उनके पास कोई निशानी उनके पालनहार की निशानियों में से, परन्तु वे उससे मुँह फेर लेते हैं।
तथा जब उनसे कहा जाता है कि दान करो उसमें से, जो प्रदान किया है अल्लाह ने तुम्हें, तो कहते हैं जो काफ़िर हो गये उनसे, जो ईमान लाये हैं: क्या हम उसे खाना खिलायें, जिसे यदि अल्लाह चाहे, तो खिला सकता है? तुमतो खुले कुपथ में हो।
और वे कहते हैं कि कब ये (प्रलय) का वचन पूरा होगा, यदि तुम सत्यवादी हो?
वह नहीं प्रतीक्षा कर रहे हैं, परन्तु एक कड़ी ध्वनि[1] की, जो उन्हें पकड़ लेगी और वह झगड़ रहे होंगे।
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1. इस से अभिप्राय प्रथम सूर है जिस में फूंकते ही अल्लाह के सिवा सब विलय हो जायेंगे।
तो न वह कोई वसिय्यत कर सकेंगे और न अपने परिजनों में वापस आ सकेंगे।
तथा फूँका[1] जायेगा सूर (नरसिंघा) में, तो वह सहसा समाधियों से अपने पालनहार की ओर भागते हुए चलने लगेंगे।
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1. इस से अभिप्राय दूसरी बार सूर फूँकना है जिस से सभी जीवित हो कर अपनी समाधियों से निकल पड़ेंगे।
वे कहेंगेः हाय हमारा विनाश! किसने हमें जगा दिया हमारे विश्राम गृह से? ये वो है, जिसका वचन दिया था अत्यंत कृपाशील ने तथा सच कहा था रसूलों ने।
नहीं होगी वह, परन्तु एक कड़ी ध्वनि। फिर सहसा वे सबके सब, हमारे समक्ष उपस्थित कर दिये जायेंगे।
तो आज नहीं अत्याचार किया जायेगा किसी प्राणी पर कुछ और तुम्हें उसी का प्रतिफल (बदला) दिया जायेगा, जो तुम कर रहे थे।
वास्तव में, स्वर्गीय आज अपने आनन्द में लगे हुए हैं।
वे तथा उनकी पत्नियाँ सायों में हैं, मस्नदों पर तकिये लगाये हुए।
उनके लिए उसमें प्रत्येक प्रकार के फल हैं तथा उनके लिए वो है, जिसकी वे माँग करें।
(उन्हें) सलाम कहा गया है अति दयावान् पालनहार की ओर से।
तथा तुम अलग[1] हो जाओ आज, हे अपराधियो!
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1. अर्थात ईमान वालों से।
हे आदम की संतान! क्या मैंने तुमसे बल देकर नहीं कहा था कि इबादत (वंदना) न करना शैतान की? वास्तव में, वह तुम्हारा खुला शत्रु है।
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1. भाष्य के लिये देखियेः सूरह आराफ़, आयतः172
तथा इबादत (वंदना) करना मेरी ही, यही सीधी डगर है।
तथा वह कुपथ कर चुका है, तुममें से बहुत-से समुदायों को, तो क्या तुम समझते नही हो?
यही नरक है, जिसका वचन तुम्हें दिया जा रहा था।
आज, प्रवेश कर जाओ उसमें, उस कुफ़्र के बदले, जो तुम कर रहे थे।
आज, हम मुहर (मुद्रा) लगा देंगे उनके मुखों पर और हमसे बात करेंगे उनके हाथ तथा साक्ष्य (गवाही) देंगे उनके पैर, उनके कर्मों की, जो वे कर रहे थे।[1]
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1. यह उस समय होगा जब मिश्रणवादी शपथ लेंगे कि वह मिश्रण (शिर्क) नहीं करते थे। देखियेः सूरह अन्आम, आयतः23
और यदि हम चाहते, तो उनकी आँखें अंधी कर देते। फिर वे दौड़ते संगार्ग की ओर, परन्तु कहाँ से देखते?
और यदि हम चाहते, तो विकृत कर देते उन्हें, उनके स्थान पर, तो न वे आगे जा सकते थे, न पीछे फिर सकते थे।
तथा जिसे हम अधिक आयु देते हैं, उसे उत्पत्ति में, प्रथम दशा[1] की ओर फेर देते हैं। तो क्या वे समझते नहीं हैं?
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1. अर्थात वह शिशु की तरह़ निर्बल तथा निर्बोध हो जाता है।
और हमने नहीं सिखाया नबी को काव्य[1] और न ये उनके लिए योग्य है। ये तो मात्र, एक शिक्षा तथा खुला क़ुर्आन है।
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मक्का के मूर्तिपूजक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के संबंध में कई प्रकार की बातें कहते थे जिन में यह बात भी थी कि आप कवि हैं। अल्लाह ने इस आयत में इसी का खण्डन किया है।
ताकि वो सचेत करें, उसे जो जीवित हो[1] तथा सिध्द हो जाये यातना की बात, काफ़िरों पर।
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1. जीवित होने का अर्थ अंतरात्मा का जीवित होना और सत्य को समझने के योग्य होना है।
क्या मनुष्य ने नहीं देखा कि हमने पैदा किये हैं उनके लिए उसमें से, जिसे बनाया है हमारे हाथों ने चौपाये। तो वे उनके स्वामी हैं?
तथा हमने वश में कर दिया उन्हें, उनके, तो उनमें से कुछ उनकी सवारी हैं तथा उनमें से कुछ को वे खाते हैं।
तथा उनके लिए उनमें बहुत-से लाभ तथा पेय हैं। तो क्या (फिर भी) वे कृतज्ञ नहीं होते?
और उन्होंने बना लिया अल्लाह के सिवा बहुत-से पूज्य कि संभवतः, वे उनकी सहायता करेंगे।
वे स्वयं अपनी सहायता नहीं कर सकेंगे तथा वे उनकी सेना हैं, (यातना) में[1] उपस्थित।
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1. अर्थात वह अपने पूज्यों सहित नरक में झोंक दिये जायेंगे।
अतः, आपको उदासीन न करे उनकी बात। वस्तुतः, हम जानते हैं, जो वे मन में रखते हैं तथा जो बोलते हैं।
और क्या नहीं देखा मनुष्य ने कि पैदा किया हमने उसे वीर्य से? फिर भी वह खुला झगड़ालू है।
और उसने वर्णन किया हमारे लिए एक उदाहरण, और अपनी उत्पत्ति को भूल गया। उसने कहाः कौन जीवित करेगा इन अस्थियों को, जबकि वे जीर्न हो चुकी होंगी?
आप कह दें: वही, जिसने पैदा किया है प्रथम बार और वह प्रत्येक उत्पत्ति को भली-भाँति जानने वाला है।
जिसने बना दी तुम्हारे लिए हरे वृक्ष से अग्नि, तो तुम उससे आग[1] सुलगाते हो।
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1. भावार्थ यह है कि जो अल्लाह जल से हरे वृक्ष पैदा करता है फिर उसे सुखा देता है जिस से तुम आग सुलगाते हो, तो क्या वह इसी प्रकार तुम्हारे मरने-गलने के पश्चात् फिर तुम्हें जीवित नहीं कर सकता?
तथा क्या जिसने आकाशों तथा धरती को पैदा किया है वह सामर्थ्य नहीं रखता इसपर कि पैदा करे उसके समान? क्यों नहीं जबकि वह रचयिता, अति ज्ञाता है?
उसका आदेश, जब वह किसी चीज़ को अस्तित्व प्रदान करना चाहे, तो बस ये कह देना हैः हो जा। तत्क्षण वह हो जाती है।
तो पवित्र है वह, जिसके हाथ में प्रत्येक वस्तु का राज्य है और तुमसब उसी की ओर फेरे[1] जाओगे।
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1. प्रलय के दिन अपने कर्मों का प्रतिकार प्राप्त करने के लिये।
سورة يس
معلومات السورة
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الفتاوى
الأقوال
التفسيرات

سورةُ (يس) من السُّوَر المكِّية، جاءت بمقصدٍ عظيم؛ وهو إثباتُ صحَّة رسالة النبي صلى الله عليه وسلم: {إِنَّكَ لَمِنَ اْلْمُرْسَلِينَ} [يس: 3]، وكذا إثباتُ صحة ما جاء به من عندِ الله عزَّ وجلَّ؛ فهو خلاصةُ الرُّسل والرسالات وخاتَمُهم، كما جاءت السورةُ - على غِرار السُّوَر المكية - بإثباتِ وَحْدانية الله عزَّ وجلَّ، وإثباتِ البعث والجزاء، وتقسيمِ الناس إلى: أبرارٍ أتقياء، ومجرِمين أشقياء، وقد جاء في فضلِ سورة (يس) أحاديثُ كثيرة لم يثبُتْ منها شيء، إلا حديث: «مَن قرَأَ {يسٓ} في ليلةٍ ابتغاءَ وجهِ اللهِ، غُفِرَ له» أخرجه ابن حبان (٢٥٧٤).

ترتيبها المصحفي
36
نوعها
مكية
ألفاظها
731
ترتيب نزولها
41
العد المدني الأول
82
العد المدني الأخير
82
العد البصري
82
العد الكوفي
83
العد الشامي
82

* قوله تعالى: {وَنَكْتُبُ مَا قَدَّمُواْ وَءَاثَٰرَهُمْۚ} [يس: 12]:

عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ رضي الله عنهما، قال: «كانت الأنصارُ بعيدةً مَنازِلُهم مِن المسجدِ، فأرادوا أن يَقترِبوا؛ فنزَلتْ: {وَنَكْتُبُ مَا قَدَّمُواْ وَءَاثَٰرَهُمْۚ} [يس: 12]، قال: فثبَتُوا». أخرجه ابن ماجه (٦٤٤).

* قوله تعالى: {أَوَلَمْ يَرَ اْلْإِنسَٰنُ أَنَّا خَلَقْنَٰهُ مِن نُّطْفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ ٧٧ وَضَرَبَ لَنَا مَثَلٗا وَنَسِيَ خَلْقَهُۥۖ قَالَ مَن يُحْيِ اْلْعِظَٰمَ وَهِيَ رَمِيمٞ ٧٨ قُلْ يُحْيِيهَا اْلَّذِيٓ أَنشَأَهَآ أَوَّلَ مَرَّةٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ خَلْقٍ عَلِيمٌ ٧٩ اْلَّذِي جَعَلَ لَكُم مِّنَ اْلشَّجَرِ اْلْأَخْضَرِ نَارٗا فَإِذَآ أَنتُم مِّنْهُ تُوقِدُونَ ٨٠ أَوَلَيْسَ اْلَّذِي خَلَقَ اْلسَّمَٰوَٰتِ وَاْلْأَرْضَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يَخْلُقَ مِثْلَهُمۚ بَلَىٰ وَهُوَ اْلْخَلَّٰقُ اْلْعَلِيمُ ٨١ إِنَّمَآ أَمْرُهُۥٓ إِذَآ أَرَادَ شَيْـًٔا أَن يَقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ٨٢ فَسُبْحَٰنَ اْلَّذِي بِيَدِهِۦ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيْءٖ وَإِلَيْهِ تُرْجَعُونَ} [يس: 77-83]:

عن سعيدِ بن جُبَيرٍ، عن ابنِ عباسٍ رضي الله عنهما، قال: «إنَّ العاصَ بنَ وائلٍ أخَذَ عَظْمًا مِن البَطْحاءِ، فَفَتَّهُ بيدِه، ثم قال لرسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم: أيُحيِي اللهُ هذا بعدما أرَمَ؟ فقال رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم: «نَعم، يُمِيتُك اللهُ، ثم يُحيِيك، ثم يُدخِلُك جهنَّمَ»»، قال: «ونزَلتِ الآياتُ مِن آخرِ (يس)». "الصحيح المسند من أسباب النزول" (1 /174).

* سورةُ (يس):

سُمِّيت سورة (يس) بهذا الاسم؛ لافتتاحها بهذا اللفظِ، ولم يثبُتْ لها اسمٌ آخر.

* جاء في فضلِ سورة (يس) أحاديثُ كثيرة لم يثبُتْ منها شيء، إلا ما ورد مِن أنَّ مَن قرأها في ليلةٍ مبتغيًا وجهَ الله غُفِر له:

عن جُندُبِ بن عبدِ اللهِ رضي الله عنه، قال: قال رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم: «مَن قرَأَ {يسٓ} في ليلةٍ ابتغاءَ وجهِ اللهِ، غُفِرَ له». أخرجه ابن حبان (٢٥٧٤).

1. القَسَمُ بالقرآن الكريم، وحالُ النبي صلى الله عليه وسلم مع قومه (١-١٢).

2. قصة أصحاب القَرْية (١٣-١٩).

3. الرَّجل المؤمن يدعو قومه لاتباع المرسلين (٢٠-٣٢).

4. بعض آيات من قدرة الله (٣٣-٤٤).

5. إعراض الكفار عن الحق (٤٥-٤٧).

6. إنكار المشركين البعثَ والساعة (٤٨-٥٤).

7. جزاء (٥٥-٦٨).

8. الأبرار المتقون (٥٥-٥٨).

9. المجرمون الأشقياء (٥٩-٦٨).

10. إثبات وجود الله سبحانه وتعالى، ووَحْدانيته (٦٩-٧٦).

11. إقامة الدليل على البعث والنشور (٧٧-٨٣).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (6 /299).

مقصدُ سورةِ (يس) هو إثباتُ صحة رسالةِ النبي صلى الله عليه وسلم، والأمرُ بتصديقِ النبي صلى الله عليه وسلم وما جاء به، الذي هو خالصةُ المرسَلين وخاتمُهم، وجلُّ فائدةِ هذه الرسالة إثباتُ الوَحْدانية لله، والإنذارُ بيوم القيامة، وإصلاحُ القلب الذي به صلاحُ الدنيا والدِّين.

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /390).