ترجمة سورة فصّلت

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة فصّلت باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

ह़ा, मीम।
अवतरित है अत्यंत कृपाशील, दयावान् की ओर से।
(ये ऐसी) पुस्तक है, सविस्तार वर्णित की गई हैं जिसकी आयतें। क़ुर्आन अरबी (भाषा में) है उनके लिए, जो ज्ञान रखते हों।[1]
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1. अर्बी भाषा तथा शैली का।
वह शुभ सूचना देने तथा सचेत करने वाला है फिर भी मुँह फेर लिया है उनमें से अधिक्तर ने और सुन नहीं रहे हैं।
तथा उन्होंने कहाः[1] हमारे दिल आवरण (पर्दे) में हैं उससे, आप हमें जिसकी ओर बुला रहे हैं तथा हमारे कानों में बोझ है तथा हमारे और आपके बीच एक आड़ है। तो आप अपना काम करें और हम अपना काम कर रहे हैं।
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1. अर्थात मक्का के मुश्रिकों ने कहा कि यह एकेश्वरवाद की बात हमें समझ में नहीं आती। इस लिये आप हमें हमारे धर्म पर ही रहने दें।
आप कह दें कि मैं तो एक मनुष्य हूँ तुम्हारे जैसा। मेरी ओर वह़्यी की जा रही है कि तुम्हारा वंदनीय (पूज्य) केवल एक ही है। अतः, सीधे हो जाओ उसी की ओर तथा क्षमा माँगो उससे और विनाश है मुश्रिकों के लिए।
जो ज़कात नहीं देते तथा आख़िरत को (भी) नहीं मानते।
निःसंदेह, जो ईमान लाये तथा सदाचार किये, उन्हीं के लिए अनन्त प्रतिफल है।
आप कहें कि क्या तुम उसे नकारते हो, जिसने पैदा किया धरती को दो दिन में और बनाते हो उसके साझी? वही है, सर्वलोक का परलनहार।
तथा बनाये उस (धरती) में पर्वत उसके ऊपर तथा बरकत रख दी उसमें और अंकन किया उसमें उसके वासियों के आहारों का चार[1] दिनों में समान रूप[2] से, प्रश्न करने वालों के लिए।
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1. अर्थात धरती को पैदा करने और फैलाने के कुल चार दिन हुये। 2. अर्थात धरती के सभी जीवों के आहार के संसाधन की व्यवस्था कर दी। और यह बात बता दी ताकि कोई प्रश्न करे तो उसे इस का ज्ञान करा दिया जाये।
फिर आकर्षित हुआ आकाश की ओर तथा वह धुआँ था। तो उसे तथा धरती को आदेश दिया कि तुम दोनों आ जाओ प्रसन्न होकर अथवा दबाव से। तो दोनों ने कहाः हम प्रसन्न होकर आ गये।
तथा बना दिया उनको सात आकाश, दो दिनों में, वह़्यी कर दिया प्रत्येक आकाश में उसका आदेश तथा हमने सुसज्जित किया समीप (संसार) के आकाश को, दीपों (तारों) से तथा सुरक्षा के[1] लिए। ये अति प्रभालशाली सर्वज्ञ की योजना है।
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1. अर्थात शैतानों से रक्षा के लिये। (देखियेः सूरह साफ़्फ़ात, आयत 7 से 10 तक)।
फिर भी यदि वह विमुख हों, तो आप कह दें कि मैंने तुम्हें सावधान कर दिया कड़ी यातना से, जो आद तथा समूद की कड़ी यातना जैसी होगी।
जब आये उनके पास, उनके रसूल, उनके आगे तथा उनके पीछे[1] से कि न इबादत (वंदना) करो अल्लाह के सिवा की। तो उन्होंने कहाः यदि हमारा पालनहार चाहता, तो किसी फ़रिश्ते को उतार देता।[2] अतः, तुम जिस बात के साथ भेजे गये हो, हम उसे नहीं मानते।
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1. अर्थता प्रत्येक प्रकार से समझाते रहे। 2. वे मनुष्य को रसूल मानने के लिये तैयार नहीं थे। (जिस प्रकार कुछ लोग जो रसूल को मानते हैं पर वे उन्हें मनुष्य मानने को तैयार नहीं हैं)। ) देखियेः सूरह अन्आम, आयतः9-10, सूरह मुमिनून, आयतः24)
रहे आद, तो उन्होंने अभिमान किया धरती में अवैध तथा कहा कि कौन हमसे अधिक है बल में? क्या उन्होंने नहीं देखा कि अल्लाह, जिसने उनको पैदा किया उनसे अधिक है बल में तथा हमारी आयतों को नकारते रहे।
अन्ततः, हमने भेज दी उनपर प्रचण्ड वायु, कुछ अशुभ दिनों में। ताकि चखायें उन्हें अपमानकारी यातना सांसारिक जीवन में और आख़िरत (प्रलोक) की यातना अधिक अपमानकारी है तथा उन्हें कोई सहायता नहीं दी जायेगी।
और रहे समूद, तो हमने उन्हें मार्ग दिखाया, फिर भी उन्होंने अन्धे बने रहने को मार्गदर्शन से प्रिय समझा। अन्ततः, पकड़ लिया उन्हें अपमानकारी यातना की कड़क ने, उसके कारण जो वे कर रहे थे।
तथा हमने बचा लिया उन्हें, जो ईमान लाये तथा (अवज्ञा से) डरते रहे।
और जिस दिन अल्लाह के शत्रु एकत्र किये जायेंगे, तो वे रोक लिए जायेंगे।
यहाँतक कि जब आ जायेंगे उस (नरक) के पास, तो साक्ष्य देंगे उनपर उनके कान तथा उनकी आँखें और उनकी खालें उस कर्म का, जो वे किया करते थे।
और वे कहेंगे अपनी खालों सेः क्यों साक्ष्य दिया तुमने हमारे विरुध्द? वे उत्तर देंगी कि हमें बोलने की शक्ति प्रदान की है उसने, जिसने प्रत्येक वस्तु को बोलने की शक्ति दी है तथा उसीने तुम्हें पैदा किया प्रथम बार और उसी की ओर तुमसब फेरे जा रहे हो।
तथा तुम (पाप करते समय)[1] छुपाते नहीं थे कि कहीं साक्ष्य न दें, तुमपर, तुम्हारे कान, तुम्हारी आँख एवं तुम्हारी खालें। परन्तु, तुम समझते रहे कि अल्लाह नहीं जानता उसमें से अधिक्तर बातों को, जो तुम करते हो।
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1. आदरणीय अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि ख़ाना काबा के पास एक घर में दो क़ुरैशी तथा एक सक़फ़ी अथवा दो सक़फ़ी और एक क़ुरैशी थे। तो एक ने दूसरे से कहा कि तुम समझते हो कि अल्लाह हमारी बातें सुन रहा है? किसी ने कहाः यदि कुछ सुनता है तो सब कुछ सुनता है। उसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4816, 4817, 7521)
इसी कुविचार ने, जो तुमने किया अपने पालनहार के विषय में, तुम्हें नाश कर दिया और तुम विनाशों में हो गये।
तो यदि वे धैर्य रखें, तबभी नरक ही उनका आवास है और यदि वे क्षमा माँगें, तबभी वे क्षमा नहीं किये जायेंगे।
और हमने बना दिये उनके लिए ऐसे साथी, जो शोभनीय बना रहे थे उनके लिए, उनके अगले तथा पिछले दुष्कर्मों को तथा सिध्द हो गया उनपर, अल्लाह (की यातना) का वचन, उन समुदायों में, जो गुज़र गये इनसे पूर्व, जिन्नों तथा मनुष्यों में से। वास्तव में, वही क्षतिग्रस्त थे।
तथा काफ़िरों ने कहा[1] कि इस क़ुर्आन को न सुनो और कोलाहल (शोर) करो इस (के सुनाने) के समय। सम्भवतः, तुम प्रभुत्वशाली हो जाओ।
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1. मक्का के काफ़िरों ने जब देखा कि लोग क़ुर्आन सुन कर प्रभावित हो रहे हैं तो उन्हों ने यह योजना बनाई।
तो हम अवश्य चखायेंगे उन्हें, जो काफ़िर हो गये, कड़ी यातना और अवश्य उन्हें कुफ़ल देंगे, उस दुष्कर्म का, जो वे करते रहे।
ये अल्लाह के शत्रुओं का प्रतिकार नरक है। उनके लिए उसमें स्थायी घर होंगे, उसके बदले, जो हमारी अयतों को नकार रहे हैं।
तथा वो कहेंगे जो काफ़िर हो गये कि हमारे पालनहर! हमें दिखा दे उन्हें, जिन्हों ने हमें कुपथ किया है, जिन्नों तथा मनुष्यों में से। ताकी हम रौंद दें उन दोनों को, अपने पैरों से। ताकि वे दोनों अधिक नीचे हो जायें।
निश्चय जिन्होंने कहा कि हमारा पालनहार अल्लाह है, फिर इसीपर स्थिर रह[1] गये, तो उनपर फ़रिश्ते उतरते हैं[2] कि भय न करो और न उदासीन रहो तथा उस स्वर्ग से प्रसन्न हो जाओ, जिसका वचन तुम्हें दिया जा रहा है।
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1. अर्थात प्रत्येक दशा में आज्ञा पालन तथा एकेश्वरवाद पर स्थिर रहे। 2. उन के मरण के समय।
हम तुम्हारे सहायक हैं, सांसारिक जीवन में तथा परलोक में और तुम्हारे लिए उस (स्वर्ग) में वह चीज़ है, जो तुम्हारा मन चाहे तथा उसमें तुम्हारे लिए वह है, जिसकी तुम माँग करोगे।
अतिथि-सत्कार स्वरूप, अति क्षमी, दयावान् की ओर से।
और किसकी बात उससे अच्छी होगी, जो अल्लाह की ओर बुलाये तथा सदाचार करे और कहे कि मैं मुसलमानों में से हूँ।
और समान नहीं होते पुण्य तथा पाप, आप दूर करें (बुराई को) उसके द्वारा, जो सर्वोत्तम हो। तो सहसा आपके तथा जिसके बीच बैर हो, मानो वह हार्दिक मित्र हो गया।[1]
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1. इस आयत में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को तथा आप के माध्यम से सर्वसाधारण मुसलमानों को यह निर्देश दिया गया है कि बुराई का बदला अच्छाई से तथा अपकार का बदला उपकार से दें। जिस का प्रभाव यह होगा कि अपना शत्रु भी हार्दिक मित्र बन जायेगा।
और ये गुण उन्हीं को प्राप्त होता है, जो सहन करें तथा उन्हीं को होता है, जो बड़े भाग्यशाली हों।
और यदि आपको शैतान की ओर से कोई संशय हो, तो अल्लाह की शरण लें। वास्तव में, वही सब कुछ सुनने-जानने वाला है।
तथा उसकी निशानियों में से है रात्रि, दिवस, सूर्य तथा चन्द्रमा, तुम सज्दा न करो सूर्य तथा चन्द्रमा को और सज्दा करो उस अल्लाह को, जिसने पैदा किया है उनको, यदि तुम उसी (अल्लाह) की इबादत (वंदना) करते हो।[1]
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1. अर्थात सच्चा वंदनीय (पूज्य) अल्लाह के सिवा कोई नहीं है। यह सुर्य, चन्द्रमा और अन्य आकाशीय ग्रहें अल्लाह के बनाये हुये हैं। और उसी के अधीन हैं। इस लिये इन को सज्दा करना व्यर्थ है। और जो ऐसा करता है वह अल्लाह के साथ उस की बनाई हुई चीज़ को उस का साझी बनाता है जो शिर्क और अक्षम्य पापा तथा अन्याय है। सज्दा करना इबादत है। जो अल्लाह ही के लिये विशेष है। इसी लिये कहा है कि यदि अल्लाह ही की इबादत करते हो तो सज्दा भी उसी के लिये करो। उस के सिवा कोई ऐसा नहीं जिसे सज्दा करना उचित हो। क्यों कि सब अल्लाह के बनाये हुये हैं सूर्य हो या कोई मनुष्य। सज्दा आदर के लिये हो या इबादत (वंदना) के लिये। अल्लाह के सिवा किसी को भी सज्दा करना अवैध तथा शिर्क है जिसा का पिरणाम सदैव के लिये नरक है। आयत 38 पूरी कर के सज्दा करें।
तथा यदि वे अभिमान करें, तो जो (फ़रिश्ते) आपके पालनहार के पास हैं, वे उसकी पवित्रता का वर्णन करते रहते हैं, रात्रि तथा दिवस में और वे थकते नहीं हैं।
तथा उसी की निशानियों में से है कि आप देखते हैं धरती को सहमी हुई। फिर जैसे ही हमने उसपर जल बरसाया, तो वह लहलहाने लगी तथा उभर गयी। निश्चय जिसने जीवित किया है उसे, अवश्य वही जीवित करने वाला है मुर्दों को। वास्तव में, वह जो चाहे, कर सकता है।
जो टेढ़ निकालते हैं हमारी आयतों में, वे हमपर छुपे नहीं रहते। तो क्या जो फेंक दिया जायेगा अग्नि में, उत्तम है अथवा जो निर्भय होकर आयेगा प्रलय के दिन? करो जो चाहो, वास्तव में, वह जो तुम करते हो, उसे देख रहा है।[1]
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1. अर्थात तुम्हारे मनमानी करने का कुफल तुम्हें अवश्य देगा।
निश्चय उन्होंने कुफ़्र कर दिया इस शिक्षा (क़ुर्आन) के साथ, जब आ गयी उनके पास और सच ये है कि ये एक अति सम्मानित पुस्तक है।
नहीं आ सकता झुठ इसके आगे से और न इसके पीछे से। उतरा है तत्वज्ञ, प्रशंसित (अल्लाह) की ओर से।
आपसे वही कहा जा रहा है, जो आपसे पूर्व रसूलों से कहा गया।[1] वास्तव में, आपका पालनहार क्षमा करने (तथा) दुःखदायी य़ातना देने वाला है।
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1. अर्थात उन को जादूगर, झूठा तथा कवि इत्यादि कहा गया। (देखियेः सूरह ज़ारियात, आयतः52-53)
और यदि हम इसे बनाते अरबी (के अतिरिक्त किसी) अन्य भाषा में, तो वे अवश्य कहते कि क्यों नहीं खोल दी गयीं उसकी आयतें? ये क्या कि (पुस्तक) ग़ैर अरबी और (नबी) अरबी? आप कह दें कि वह उनके लिए, जो ईमान लाये, मार्गदर्शन तथा आरोग्यकर है और जो ईमान न लायें, उनके कानों में बोझ है और वह उनपर अंधापन है और वही पुकारे जा रहे हैं दूर स्थानों से।[1]
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2. अर्थात क़ुर्आन से प्रभावित होने के लिये ईमान आवश्यक है इस के बिना इस का कोई प्रभाव नहीं होता।
तथा हम प्रदान कर चुके हैं मूसा को पुस्तक (तौरात)। तो उसमें भी विभेद किया गया और यदि एक बात पहले ही से निर्धारित न होती[1] आपके पालनहार की ओर से, तो निर्णय कर दिया जाता उनके बीच। निःसंदेह, वह उनके विषय में संदेह में डाँवाडोल हैं।
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1. अर्थात प्रलय के दिन निर्णय करने की। तो संसार ही में निर्णय कर दिया जाता और उन्हें कोई अवसर नहीं दिया जाता। (देखियेः सूरह फ़ातिर, आयतः45)
जो सदाचार करेगा, तो वह अपने ही लाभ के लिए करेगा और जो दुराचार करेगा, तो उसका दुष्परिणाम उसीपर होगा और आपका पालनहार तनिक भी अत्याचार करने वाला नहीं है भक्तों पर।[1]
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1. अर्थात किसी को बिना पाप के यातना नहीं देता।
उसी की ओर फेरा जाता है प्रलय का ज्ञान तथा नहीं निकलते कोई फल अपने गाभों से और नहीं गर्भ धारण करती कोई मादा और न जन्म देती है, परन्तु उसके ज्ञान से और जिस दिन वह पूकारेगा उन्हें कि कहाँ हैं मेरे साझी? तो वे कहेंगे कि हमने तुझे बता दिया था कि हममें से कोई उसका गवाह नहीं है।
और खो जायेंगे[1] उनसे वे, जिन्हें पुकारते थे इससे पूर्व तथा वे विश्वास कर लेंगे कि नहीं है उनके लिए कोई शरण का स्थान।
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1. अर्थात सब ग़ैब की बातें अल्लाह ही जानता है। इस लिये इस की चिन्ता न करो कि प्रलय कब आयेगी। अपने परिणाम की चिन्ता करो।
नहीं थकता मनुष्य भलाई (सुख) की प्रार्थना से और यदि उसे पहुँच जाये बुराई (दुःख), तो (हताश) निराश[1] हो जाता है।
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1..यह साधारण लोगों की दशा है। अन्यथा मुसलमान निराश नहीं होता।
और यदि हम उसे[1] चखा दें अपनी दया, दुःख के पश्चात्, जो उसे पहुँचा हो, तो अवश्य कह देता है कि मैं तो इसके योग्य ही था और मैं नहीं समझता कि प्रलय होनी है और यदि मैं पुनः अपने पालनहार की ओर गया, तो निश्चय ही मेरे लिए उसके पास भलाई होगी। तो हम अवश्य अवगत कर देंगे काफ़िरों को उनके कर्मों से तथा उन्हें अवश्य घोर यातना चखायेंगे।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि काफ़िर की यह दशा होती है। उसे अल्लाह के यहाँ जाने का विश्वास नहीं होता। फिर यदि प्रलय का होना मान ले तो भी इसी कुविचार में मग्न रहता है कि यदि अल्लाह ने मुझे संसार में सुख-सुविधा दी है तो वहाँ भी अवश्य देगा। और यह नहीं समझता कि यहाँ उसे जो कुछ दिया गया है वह परीक्षा के लिये दिया गया है। और प्रलय के दिन कर्मों के आधार पर प्रतिकार दिया जायेगा।
तथा जब हम उपकार करते हैं मनुष्य पर, तो वह विमुख हो जाता है तथा अकड़ जाता है और जब उसे दुःख पहुँचे, तो लम्बी-चौड़ी प्रार्थना करने लगता है।
आप कह दें: भला तुम ये तो बताओ, यदि ये क़ुर्आन अल्लाह की ओर से हो, फ़िर तुम कुफ़्र कर जाओ उसके साथ, तो कौन उससे अधिक कुपथ होगा, जो उसके विरोध में दूर तक चला जाये?
हम शीघ्र ही दिखा देंगे उन्हें अपनी निशानियाँ संसार के किनारों में तथा स्वयं उनके भीतर। यहाँतक कि खुल जायेगी उनके लिए ये बात कि यही सच है[1] और क्या ये बात प्रयाप्त नहीं कि आपका पालनहार ही प्रत्येक वस्तु का साक्षी (गवाह) है?
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1. क़ुर्आन, और निशानियों से अभिप्राय वह विजय है जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तथा आप के पश्चात् मुसलमानों को प्राप्त होंगी। जिन से उन्हें विश्वास हो जायेगा कि क़ुर्आन ही सत्य है। इस आयत का एक दूसरा भावार्थ यह भी लिया गया है कि अल्लाह इस विश्व में तथा स्वयं तुम्हारे भीतर ऐसी निशानियाँ दिखायेगा। और यह निशानियाँ निरन्तर वैज्ञानिक अविष्कारों द्वारा सामने आ रहीं हैं। और प्रलय तक आती रहेंगी जिन से क़ुर्आन पाक का सत्य होना सिध्द होता रहेगा।
सावधान! वही संदेह में हैं, अपने पालनहार से मिलने के विषय में। सावधान! वही (अल्लाह), प्रत्येक वस्तु को घेरे हुए है।
سورة فصلت
معلومات السورة
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الأقوال
التفسيرات

سورةُ (فُصِّلتْ) من السُّوَر المكِّية، من مجموعةِ سُوَرِ (الحواميم)، افتُتِحت بتعظيم الكتاب، وبيان وضوحه وهدايته للناس، وإنزالُ هذا الكتاب يدلُّ دَلالةً واضحة على تمام علمِ الخالق، الذي دعا النبيُّ صلى الله عليه وسلم الكفارَ إلى الإيمان به؛ فبعد هذه الدَّلالة بانَ استكبارُهم، ومخالَفتُهم الحقَّ بعد وضوحه لهم كوضوحِ الشمس؛ فقد جاء لهم بالآياتِ البيِّنات في هذا الكون، وفي إنزال هذا الكتاب المُحكَم.

ترتيبها المصحفي
41
نوعها
مكية
ألفاظها
795
ترتيب نزولها
61
العد المدني الأول
53
العد المدني الأخير
53
العد البصري
52
العد الكوفي
54
العد الشامي
52

- قوله تعالى: {وَمَا كُنتُمْ تَسْتَتِرُونَ أَن يَشْهَدَ عَلَيْكُمْ سَمْعُكُمْ وَلَآ أَبْصَٰرُكُمْ وَلَا جُلُودُكُمْ وَلَٰكِن ظَنَنتُمْ أَنَّ اْللَّهَ لَا يَعْلَمُ كَثِيرٗا مِّمَّا تَعْمَلُونَ} [فصلت: 22]:

عن ابنِ مسعودٍ رضي الله عنه، قال: «كان رجُلانِ مِن قُرَيشٍ وخَتَنٌ لهما مِن ثَقِيفَ - أو رجُلانِ مِن ثَقِيفَ وخَتَنٌ لهما مِن قُرَيشٍ - في بيتٍ، فقال بعضُهم لبعضٍ: أترَوْنَ أنَّ اللهَ يَسمَعُ حديثَنا؟ قال بعضُهم: يَسمَعُ بعضَه، وقال بعضُهم: لَئِنْ كان يَسمَعُ بعضَه لقد يَسمَعُ كلَّه؛ فأُنزِلتْ: {وَمَا كُنتُمْ تَسْتَتِرُونَ أَن يَشْهَدَ عَلَيْكُمْ سَمْعُكُمْ وَلَآ أَبْصَٰرُكُمْ} [فصلت: 22] الآية». أخرجه البخاري (٤٨١٦).

* سورةُ (فُصِّلتْ):

سُمِّيت سورةُ (فُصِّلتْ) بهذا الاسم؛ لوقوع كلمة (فُصِّلتْ) في أولها؛ قال تعالى: {كِتَٰبٞ فُصِّلَتْ ءَايَٰتُهُۥ قُرْءَانًا عَرَبِيّٗا لِّقَوْمٖ يَعْلَمُونَ} [فصلت: 3].

1. مقدمة في القرآن الكريم، وموقفُ المشركين الانهزاميُّ، وصفة الرسول عليه السلام وواجبه (١-٨).

2. الاحتجاج بالسُّنَن الكونية على صدقِ الدعوة (٩-١٢).

3. إعراض المشركين عن سماع الدعوة في القرآن الكريم، ومسيرةُ الدعوة في الأُمَم السابقة (١٣-١٨).

4. مصير المشركين، وإحصاءُ أعمالهم التي أوصلتهم لهذا المصير (١٩-٢٤).

5. إصرار المشركين على عدم سماع الدعوة (قرناء الباطل) (٢٥-٢٩).

6. قرناء المؤمنين (الملائكة) يُعِينونهم على تبليغ الدعوة (٣٠-٣٦).

7. الاحتجاج بالسُّنَن الكونية (٣٧-٤٠).

8. صفات القرآن الكريم، وعلمُ اللهِ المطلقُ (٤١-٤٨).

9. تردُّد الإنسان نفسيًّا من الأحداث حوله (٤٩- ٥١).

10. تحقيقُ أن القرآنَ من الله جل وعلا (٥٢-٥٤).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (7 /5).

مقصودها إثباتُ العلمِ لله عزَّ وجلَّ؛ فإنَّ هذا الكتابَ المُحكَم المفصَّل يدلُّ دَلالةً واضحة على تمام علمِ الله عزَّ وجلَّ، وفي هذا دعوةٌ للكفار إلى الإيمان بالله، واتِّباع الصراط المستقيم البَيِّنِ الذي لا شائبةَ فيه، وتسميتُها بسورة (فُصِّلتْ) واضحُ الدَّلالة على ذلك المقصد.

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /444).