ترجمة سورة الطلاق

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة الطلاق باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

हे नबी! जब तुम लोग त़लाक़ दो अपनी पत्नियों को, तो उन्हें तलाक़ दो उनकी 'इद्दत' के लिए, और गणना करो 'इद्दत' की तथा डरो अपने पालनहार अल्लाह से और न निकालो उन्हें उनके घरों से और न वह स्वयं निकलें, परन्तु ये कि वे कोई खुली बुराई कर जायें तथा ये अल्लाह की सीमायें हैं और जो उल्लंघन करेगा अल्लाह की सीमाओं का, तो उसने अत्याचार कर लया अपने ऊपर। तुम नहीं जानते संभवतः अल्लाह कोई नई बात उत्पन्न कर दे इसके पश्चात्।
फिर जब पहुचने लगें अपने निर्धारित अवधि को, तो उन्हें रोक लो नियमानुसार अथवा अलग कर दो नियमानुसार[1] और गवाह (साक्षी) बना लो[2] अपने में से दो न्यायकारियों को तथा सीधी गवाही दो अल्लाह के[3] लिए। इसकी शिक्षा दी जा रही है उसे, जो ईमान रखता हो अल्लाह तथा अन्त-दिवस (प्रलय) पर और जो कोई डरता हो अल्लाह से, तो वह बना देगा उसके लिए कोई निकलने का उपाय।
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1. अर्थात तलाक़ तथा रज्अत पर। 2. यदि एक या दो तलाक़ दी हो। (देखियेः सूरह बक़रह, आयतः229) 3. अर्थात निष्पक्ष हो कर।
और उसे जीविका प्रदान करेगा, उस स्थान से, जिसका उसे अनुमान (भी) न हो तथा जो अल्लाह पर निर्भर रहेगा, तो वही उसे पर्याप्त है। निश्चय अल्लाह अपना कार्य पूरा करके रहेगा।[1] अल्लाह ने प्रत्येक वस्तु के लिए एक अनुमान (समय) नियत कर रखा है।
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1. अर्थात जो दुःख तथा सुख भाग्य में अल्लाह ने लिखा है वह अपने समय में अवश्य पूरा होगा।
तथा जो निराश[1] हो जाती हैं मासिक धर्म से तुम्हारी स्त्रियों में से, यदि तुम्हें संदेह हो तो उनकी निर्धारित अवधि तीन मास है तथा उनकी, जिन्हें मासिक धर्म न आता हो और गर्भवती स्त्रियों की निर्धारित अवधि ये है कि प्रसव हो जाये तथा जो अल्लाह से डरेगा, वह उसके लिए उसका कार्य सरल कर देगा।
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1. निश्चित अवधि से अभिप्राय वह अवधि है जिस के भीतर कोई स्त्री तलाक़ पाने के पश्चात् दूसरा विवाह नहीं कर सकती। और यह अवधि उस स्त्री के लिये जिसे दीर्घायु अथवा अल्पायु होने के कारण मासिक धर्म न आये तीन मास तथा गर्भवती के लिये प्रसव है। और मासिक धर्म आने की स्थिति में तीन मासिक धर्म पूरा होना है। ह़दीस में है कि सुबैआ असलमिय्या (रज़ियल्लाहु अन्हा) के पति मारे गये तो वह गर्भवती थी। फिर चालीस दिन बाद उस ने शिशु जन्म दिया। और जब उस की मंगनी हुई तो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उसे विवाह दिया। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4909) पति की मौत पर चार महीना दस दिन की अवधि उस के लिये है जो गर्भवति न हो। (देखियेः सूरह बक़रह, आयतः 226)
ये अल्लाह का आदेश है, जिसे उतारा है तुम्हारी ओर, अतः, जो अल्लाह से डरेगा[1] वह क्षमा कर देगा उससे उसके दोषों को तथा प्रदान करेगा उसे बड़ा प्रतिफल।
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1. अर्थात उस के आदेश का पालन करेगा।
और उन्हें (निर्धारित अवधि में) रखो, जहाँ तुम रहते हो, अपनी शक्ति अनुसार और उन्हें हानि न पहुँचाओ, उन्हें तंग करने के लिए और यदि वे गर्भवती हों, तो उनपर ख़र्च करो, यहाँ तक कि प्रसव हो जाये। फिर यदि दूध पिलायें तुम्हारे (शिशु) के लिए, तो उन्हें उनका पारिश्रमिक दो और विचार-विमर्श कर लो, आपस में उचित रूप[1] से और यदि तुम दोनों में तनाव हो जाये, तो दूध पिलायेगी उसे कोई दूसरी स्त्री।
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1. अर्थात परिश्रामिक के विषय में।
चाहिये कि सम्पन्न, ख़र्च दे अपनी कमाई के अनुसार और तंग हो जिसपर उसकी जीविका, उसे चाहिये कि ख़र्च दे उसमें से, जो दिया है उसे अल्लाह ने। अल्लाह भार नहीं रखता किसी प्राणी पर, परन्तु उतना ही, जो उसे दिया है। शीघ्र ही कर देगा अल्लाह तंगी के पश्चात् सुविधा।
कितनी बस्तियाँ[1] थीं जिनके वासियों ने अवज्ञा की अपने पालनहार और उसके रसूलों के आदेश की, तो हमने ह़िसाब ले लिया उनका कड़ा ह़िसाब और उन्हें यातना दी बुरी यातना।
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1. यहाँ से अल्लाह की अवैज्ञा के दुष्परिणाम से सावधान किया जा रहा है।
तो उसने चख लिया अपने कर्म का दुष्परिणाम और उनका कार्य-परिणाम विनाश ही रहा।
तैयार कर रखी है अल्लाह ने उनके लिए भीषण यातना। अतः, अल्लाह से डरो, हे समझ वालो, जो ईमान लाये हो! निःसंदेह, अल्लाह ने उतार दी है तुम्हारी ओर एक शिक्षा।
(अर्थात) एक रसूल[1] जो पढ़कर सुनाते हैं तुम्हें अल्लाह की खुली आयतें ताकि वह निकाले उन्हें, जो ईमान लाये तथा सदाचार किये, अन्धकारों से प्रकाश की ओर और जो ईमान लाये तथा सदाचार करेगा, वह उसे प्रवेश देगा ऐसे स्वर्गों में, प्रवाहित हैं जिनमें नहरें, वे सदावासी होंगे उनमें। अल्लाह ने उसके लिए उत्तम जीविका तैयार कर रखी है।
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1. अर्थात मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को। अन्धकारों से अभिप्राय कुफ़्र तथा प्रकाश से अभिप्राय ईमान है।
अल्लाह वह है, जिसने उत्पन्न किये सात आकाश तथा धरती में से उन्हीं के समान। वह उतारता है आदेश उनके बीच, ताकि तुम विश्वास करो कि अल्लाह जो कुछ चाहे, कर सकता है और ये कि अल्लाह ने घेर रखा है प्रत्येक वस्तु को अपने ज्ञान की परिधि में।
سورة الطلاق
معلومات السورة
الكتب
الفتاوى
الأقوال
التفسيرات

سورة (الطَّلاق) من السُّوَر المدنية، نزلت بعد سورة (الإنسان)، وقد تحدثت عن أحكامِ الطلاق، وعن الأحكام المترتِّبة عليه؛ من العِدَّة، والإرضاع، وغير ذلك، وخُتمت السورة بالعِبَر والعظات، وكانت تُسمَّى بسورة (النِّساء الصُّغْرى)؛ لِما فيها من أحكامٍ تتعلق بالمرأة، وسورة (النِّساء الكُبْرى): هي سورة (النِّساء).

ترتيبها المصحفي
65
نوعها
مدنية
ألفاظها
289
ترتيب نزولها
99
العد المدني الأول
12
العد المدني الأخير
12
العد البصري
11
العد الكوفي
12
العد الشامي
12

* سورة (الطَّلاق):

سُمِّيت سورة (الطَّلاق) بهذا الاسم؛ لأنَّها بيَّنتْ أحكامَ الطَّلاق والعِدَّة، ولأنه جاء في فاتحتِها؛ قال تعالى: {يَٰٓأَيُّهَا اْلنَّبِيُّ إِذَا طَلَّقْتُمُ اْلنِّسَآءَ فَطَلِّقُوهُنَّ لِعِدَّتِهِنَّ وَأَحْصُواْ اْلْعِدَّةَۖ وَاْتَّقُواْ اْللَّهَ رَبَّكُمْۖ لَا تُخْرِجُوهُنَّ مِنۢ بُيُوتِهِنَّ وَلَا يَخْرُجْنَ إِلَّآ أَن يَأْتِينَ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖۚ وَتِلْكَ حُدُودُ اْللَّهِۚ وَمَن يَتَعَدَّ حُدُودَ اْللَّهِ فَقَدْ ظَلَمَ نَفْسَهُۥۚ لَا تَدْرِي لَعَلَّ اْللَّهَ يُحْدِثُ بَعْدَ ذَٰلِكَ أَمْرٗا} [الطلاق: 1].

* (النِّساء الصُّغْرى) أو (القُصْرى):

وسُمِّيت بذلك تمييزًا لها عن سورة (النساء الكبرى)، ولاشتمالها على بعضِ أحكام النساء، وقد ورَدتْ هذه التسميةُ عن عبد الله بن مسعود رضي الله عنه، قال: «نزَلتْ سورةُ النِّساءِ القُصْرى بعد الطُّولى». أخرجه البخاري (4532).

1. من أحكام الطلاق (١-٣).

2. من الأحكام المترتِّبة على الطلاق (٤-٧).

3. عِبَرٌ وعِظَات (٨-١٢).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (8 /217).

مقصدُ هذه السورة هو بيانُ حُكْمٍ من الأحكام التي تتعلق بالعلاقات الزوجية.

يقول البقاعي: «مقصودها: تقديرُ حُسْنِ التدبير في المفارَقة والمهاجَرة بتهذيب الأخلاق بالتقوى، لا سيما إن كان ذلك عند الشِّقاق، لا سيما إن كان في أمر النساء، لا سيما عند الطلاق؛ ليكونَ الفِراق على نحوِ التواصل والتَّلاق.
واسمها (الطلاق): أجمَعُ ما يكون لذلك؛ فلذا سُمِّيت به.
وكذا سورة (النساء القُصْرى)؛ لأن العدلَ في الفِراق بعضُ مطلَقِ العدل، الذي هو محطُّ مقصود سورة (النساء)». "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (3 /95).

وينظر: "التحرير والتنوير" لابن عاشور (28 /293).