ترجمة سورة الشورى

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة الشورى باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

ह़ा मीम।
ऐन सीन क़ाफ़।
इसी प्रकार, (अल्लाह) ने प्रकाशना[1] भेजी है आप तथा उन रसूलों की ओर, जो आपसे पूर्व हुए हैं। अल्लाह सबसे प्रबल और सब गुणों को जानने वाला है।
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1. आरंभ में यह बताया जा रहा है कि मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कोई नई बात नहीं कर रहे हैं और न यह वह़्यी (प्रकाशना) का विषय ही इस संसार के इतिहास में प्रथम बार सामने आया है। इस से वूर्व भी पहले अम्बिया पर प्रकाशना आ चुकी है और वह एकेश्वरवाद का संदेश सुनाते रहे हैं।
उसी का है, जो आकाशों तथा धरती में है और वह बड़ा उच्च, महान है।
समीप है कि आकाश फट[1] पड़ें अपने ऊपर से, जबकि फ़रिश्ते पवित्रता का गान करते हैं अपने पालनहार की प्रशंसा के साथ तथा क्षमायाचना करते हैं उनके लिए, जो धरती में हैं। सुनो! वास्तव में, अल्लाह ही अत्यंत क्षमा करने तथा दया करने वाला है।
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1. अल्लाह की महिमा तथा प्रताप के भय से।
तथा जिन लोगों ने बना लिए हैं अल्लाह के सिवा संरक्षक, अल्लाह ही उनपर निरीक्षक (निगराँ) है और आप उनके उत्तर दायी[1] नहीं हैं।
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1. आप का दायित्व मात्र सावधान कर देना है।
तथा इसी प्रकार, हमने वह़्यी (प्रकाशना) की है आपकी ओर अरबी क़ुर्आन की। ताकि आप सावधान कर दें मक्का[1] वासियों को और जो उसके आस-पास हैं तथा सावधान कर दें एकत्र होने के दिन[2] से, जिस दिन के होने में कोई संशय नहीं। एक पक्ष स्वर्ग में तथा एक पक्ष नरक में होगा।
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1. आयत में मक्का को उम्मुल क़ुरा कहा गया है। जो मक्का का एक नाम है जिस का शाब्दिक अर्थ "बस्तियों की माँ" है। बताया जाता है कि मक्का अरब की मूल बस्ती है और उस के आस-पास से अभिप्राय पूरा भूमण्डल है। आधुनिक भुगोल शास्त्र के अनुसार मक्का पूरे भूमण्डल का केंद्र है। इस लिये यह आश्चर्य की बात नहीं की क़ुर्आन इसी तथ्य की ओर संकेत कर रहा हो। सारांश यह है कि इस आयत में इस्लाम के विश्वव्यापि धर्म होने की ओर संकेत किया गया है। 2. इस से अभिप्राय प्रलय का दिन है जिस दिन कर्मों के प्रतिकार स्परूप एक पक्ष स्वर्ग में और एक पक्ष नरक में जायेगा।
और यदि अल्लाह चाहता, तो सभी को एक समुदाय[1] बना देता। परन्तु, वह प्रवेश कराता है जिसे चाहे, अपनी दया में तथा अत्याचारियों का कोई संरक्षक तथा सहायक न होगा।
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1. अर्थात एक ही सत्धर्म पर कर देता। किन्तु उस ने प्रत्येक को अपनी इच्छा से सत्य या असत्य को अपनाने की स्वाधीनता दे रखी है। और दोनों का परिणाम बता दिया है।
क्या उन्होंने बना लिए हैं उसके सिवा संरक्षक? तो अल्लाह ही संरक्षक है और जीवित करेगा मुर्दों को और वही जो चाहे, कर सकता है।[1]
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1. अतः उसी को संरक्षक बनाओ और उसी की आज्ञा का पालन करो।
और जिस बात में भी तुमने विभेद किया है, उसका निर्णय अल्लाह ही को करना है।[1] वही अल्लाह मेरा पालनहार है, उसीपर मैंने भरोसा किया है तथा उसी की ओर ध्यानमग्न होता हूँ।
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1. अतः उस का निर्णय अल्लाह की पुस्तक क़ुर्आन से तथा उस के रसूल की सुन्नत से लो।
वह आकाशों तथा धरती का रचयिता है। उसने बनाये हैं तुम्हारी जाति में से तुम्हारे जोड़े तथा पशुओं के जोड़े। वह फैला रहा है तुम्हें इस प्रकार। उसकी कोई प्रतिमा[1] नहीं और वह सब कुछ सुनने-जानने वाला है।
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1. अर्थात उस के अस्तित्व तथा गुण और कर्म में कोई उस के समान नहीं है। भावार्थ यह है कि किसी व्यक्ति या वस्तु में उस के गुण कर्म मानना या उसे उस का अंश मानना असत्य तथा अधर्म है।
उसी के[1] अधिकार में हैं आकाशों तथा धरती की कुंजियाँ। वह फैला देता है जीविका, जिसके लिए चाहे तथा नाप कर देता है। वास्तव में, वही प्रत्येक वस्तु का जानने वाला है।
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1. आयत संख्या 9 से 12 तक जिन तथ्यों की चर्चा है उन में एकेश्वरवाद तथा परलोक के प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। और सत्य से विमुख होने वालों को चेतावनी दी गई है।
उसने नियत[1] किया है तुम्हारे लिए वही धर्म, जिसका आदेश दिया था नूह़ को और जिसे वह़्यी किया है आपकी ओर तथा जिसका आदेश दिया था इब्राहीम तथा मूसा और ईसा को कि इस धर्म की स्थापना करो और इसमें भेद भाव न करो। यही बात अप्रिय लगी है मुश्रिकों को, जिसकी ओर आप बुला रहे हैं। अल्लाह ही चुनता है इसके लिए जिसे चाहे और सीधी राह उसी को दिखाता है, जो उसी की ओर ध्यानमग्न हो।
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1. इस आयत में पाँच नबियों का नाम ले कर बताया गया है कि सब को एक ही धर्म दे कर भेजा गया है। जिस का अर्थ यह है कि इस मानव संसार में अन्तिम नबी मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तक जो भी नबी आये सभी की मूल शिक्षा एक रही है। कि एक अल्लाह को मानो और उसी एक की वंदना करो। तथा वैध-अवैध के विषय में अल्लाह ही के आदेशों का पालन करो। और अपने सभी धार्मिक तथा सामाजिक और राजनैतिक विवादों का निर्णय उसी के धर्म विधान के आधार पर करो। (देखियेः सूरह निसा, आयतः163-164)
और उन्होंने[1] इसके पश्चात् ही विभेद किया, जब उनके पास ज्ञान आ गया, आपस के विरोध के कारण तथा यदि एक बात पहले से निश्चित[2] न होती आपके पालनहार की ओर से, तो अवश्य निर्णय कर दिया गया होता उनके बीच और जो पुस्तक के उत्तराधिकारी बनाये[3] गये उनके पश्चात्, उसकी ओर से संदेह में उलझे हुए हैं।
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1. अर्थात मुश्रिकों ने। 2. अर्थात प्रलय के दिन निर्णय करने की। 3. अर्थात यहूदी तथा ईसाई भी सत्य में विभेद तथा संदेह कर रहे हैं।
तो आप लोगों को इसी धर्म की ओर बुलाते रहें तथा जैसे आपको आदेश दिया गया है उसपर स्थित रहें और उनकी इच्छाओं पर न चलें तथा कह दें कि मैं ईमान लाया उन सभी पुस्तकों पर, जो अल्लाह ने उतारी[1] हैं तथा मूझे आदेश दिया गया है कि तुम्हारे बीच न्याय करूँ। अल्लाह हमारा तथा तुम्हारा पालनहार है। हमारे लिए हमारे कर्म हैं तथा तुम्हारे लिए तुम्हारे कर्म। हमारे और तुम्हारे बीच कोई झगड़ा नहीं। अल्लाह ही हमें एकत्र करेगा तथा उसी की ओर सब को जाना है।[2]
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1. अर्थात सभी आकाशीय पुस्तकों पर जो नबियों पर उतारी गई हैं। 2. अर्थात प्रलय के दिन। फिर वह हमारे बीच निर्णय कर देगा।
तथा जो लोग झगड़ते हैं अल्लाह (के धर्म के बारे) में, जबकि उसे[1] मान लिया गया है। उनका विवाद (कुतर्क) असत्य है अल्लाह के समीप तथा उन्हीं पर क्रोध है और उन्हीं के लिए कड़ी यातना है।
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1. अर्थात मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम), और इस्लाम धर्म को।
अल्लाह ही ने उतारी हैं सब पुस्तकें सत्य के साथ तथा तराजू[1] को और आपको क्या पता शायद प्रलय का समय समीप हो।
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1. तराजू से अभिप्राय न्याय का आदेश है। जो क़ुर्आन द्वारा दिया गया है। (देखियेः सूरह ह़दीद, आयतः 25)
शीघ्र माँग कर रहे हैं उस (प्रलय) की, जो ईमान नहीं रखते उसपर और जो ईमान लाये हैं, वे उससे डर रहे हैं तथा विश्वास रखते हैं कि वह सच है। सुनो! निश्चय जो विवाद कर रहे हैं, प्रलय के विषय में, वे कुपथ में बहुत दूर चले गये हैं।
अल्लाह बड़ा दयालु है अपने भक्तों पर। वह जीविका प्रदान करता है, जिसे चाहे तथा वह बड़ा प्रबल, प्रभावशाली है।
जो आख़िरत (परलोक) की खेती[1] चाहता हो, तो हम उसके लिए उसकी खेती बढ़ा देते हैं और जो संसार की खेती चाहता हो, तो हम उसे उसमें से कुछ दे देते हैं और उसके लिए परलोक में कोई भाग नहीं।
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1. अर्थात जो अपने संसारिक सत्कर्म का प्रतिफल परलोक में चाहता है तो उसे उस का प्रतिफल में दस गुना से सात सौ गुना तक मिलेगा। और जो संसारिक फल का अभिलाषी हो तो जो उस के भाग्य में हो उसे उतना ही मिलेगा और प्रलोक में कुछ नहीं मिलेगा। (इब्ने कसीर)
क्या इन (मुश्रिकों) के कुछ ऐसे साझी[1] हैं, जिन्होंने उनके लिए कोई ऐसा धार्मिक नियम बना दिया है, जिसकी अनुमति अल्लाह ने नहीं दी है? और यदि निर्णय की बात निश्चित न होती, तो (अभी) इनके बीच निर्णय कर दिया जाता तथा निश्चय अत्याचारियों के लिए ही दुःखदायी यातना है।
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1. इस से अभिप्राय उन के वह प्रमुख हैं जो वैध-अवैध का नियम बनाते थे। इस में यह संकेत है कि धार्मिक जीवन विधान बनाने का अधिकार केवल अल्लाह को है। उस के सिवा दूसरों के बनाये हुये धार्मिक जीवन विधान को मानना और उस का पालन करना शिर्क है।
तुम अत्याचारियों को डरते हुए देखोगो उन दुष्कर्मों के कारण, जो उन्होंने किये हैं और वह उनपर आकर रहेगा तथा जो ईमान लाये और सदाचार किये, वे स्वर्ग के बागों में होंगे। वे जिसकी इच्छा करेंगे उनके पालनहार के यहाँ मिलेगा। ये बड़ी दया है।
ये वह (दया) है, जिसकी शुभ सूचना देता है अल्लाह अपने भक्तों को, जो ईमान लाये तथा सदाचार किये। आप कह दें कि मैं नहीं माँगता हूँ इसपर तुमसे कोई बदला, उस प्रेम के सिवा, जो संबन्धियों[1] में (होता) है।
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1. भावार्थ यह है कि मक्का वासियो! यदि तुम सत्धर्म पर ईमान नहीं लाते हो तो मुझे इस का प्रचार तो करने दो। मुझ पर अत्याचार न करो। तुम सभी मेरे संबन्धी हो इस लिये मेरे साथ प्रेम का व्यवहार करो। (सह़ीह़ बुख़ारीः4818)
क्या वे कहते हैं कि उसने अल्लाह पर झूठ घड़ लिया है? तो यदि अल्लाह चाहे, तो आपके दिल पर मुहर लगा दे।[1] और अल्लाह मिटा देता है झूठ को और सच को अपने आदेशों द्वारा सच कर दिखाता है। वह सीनों (दिलों) के भेदों का जानने वाला है।
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1. अर्थ यह है कि हे नबी! इन्हों ने आप को अपने जैसा समझ लिया है जो अपने स्वार्थ के झूठ का सहारा लेते हैं। किन्तु अल्लाह ने आप के दिल पर मुहर नहीं लगाई है जैसे इन के दिलों पर लगा रखी है।
वही है, जो स्वीकार करता है अपने भक्तों की तौबा तथा क्षमा करता है दोषों[1] को और जानता है, जो कुछ तुम करते हो।
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1. तौबा का अर्थ है अपने पाप पर लज्जित होना फिर उसे न करने का संकल्प लेना। ह़दीस में है कि जब बंदा अपना पाप स्वीकार कर लेता है। और फिर तौबा करता है तो अल्लाह उसे क्षमा कर देता है। (सह़ीह बुख़ारीः 4141, सह़ीह़ मुस्लिमः 2770)
और उनकी प्रार्थना स्वीकार करता है, जो ईमान लाये और सदाचार किये तथा उन्हें अधिक प्रदान करता है अपनी दया से और काफ़िरों ही के लिए कड़ी यातना है।
और यदि फैला देता अल्लाह जीविका अपने भक्तों के लिए, तो वे विद्रोह[1] कर देते धरती में। परन्तु, वह उतारता है एक अनुमान से जैसे वह चाहता है। वास्तव में, वह अपने भक्तों से भली-भाँति सूचित है। (तथा) उन्हें देख रहा है।
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1. अर्थात यदि अल्लाह सभी को सम्पन्न बना देता तो धरती में अवज्ञा और अत्याचार होने लगता और कोई किसी के आधीन न रहता।
तथा वही है, जो वर्षा करता है इसके पश्चात् कि लोग निराश हो जायें तथा फैला[1] देता है अपनी दया और वही संरक्षक, सराहनीय है।
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1. इस आयत में वर्षा को अल्लाह की दया कहा गया है। क्यों कि इस से धरती में उपज होती है जो अल्लाह के अधिकार में है। इसे नक्षत्रों का प्रभाव मानना शिर्क है।
तथा उसकी निशानियों में से है, आकाशों और धरती की उत्पत्ति तथा जो फैलायें हैं उन दोनों में जीव और वह उन्हें एकत्र करने पर जब चाहे,[1] सामर्थ्य रखने वाला है।
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1. अर्थात प्रलय के दिन।
और जो भी दुःख तुम्हें पहुँचता है, वह तुम्हारे अपने करतूत से पहुचता है तथा वह क्षमा कर देता है तुम्हारे बहुत-से पापों को।[1]
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1. देखिये सूरह फ़ातिर, आयतः 45
और तुम विवश करने वाले नहीं हो धरती में और न तुम्हारा अल्लाह के सिवा कोई संरक्षक और न सहायक है।
तथा उसके (सामर्थ्य) की निशानियों में से हैं चलती हुई नाव सागरों में, पर्वतों के समान।
यदि वह चाहे, तो रोक दे वायु को और वह खड़ी रह जायें उसके ऊपर। निश्चय इसमें बड़ी निशानियाँ हैं प्रत्येक बड़े धैर्यवान[1] कृतज्ञ के लिए।
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1. अर्थात जो अल्लाह की आज्ञापालन पर स्थित रहे।
अथवा विनाश[1] कर दे उन (नावों) का, उनके करतूतों के बदले और वह क्षमा करता है बहुत कुछ।
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1. उन के सवारों को उन के पापों के कारण डुबो दे।
तथा वह जानता है उन्हें, जो झगड़ते हैं हमारी आयतों में। उन्हीं के लिए कोई भागने का स्थान नहीं है।
तुम्हें जो कुछ दिया गया है, वह सांसारिक जीवन का संसाधन है तथा जो कुछ अल्लाह के पास है, वह उत्तम और स्थायी[1] है उनके लिए, जो अल्लाह पर ईमान लाये तथा अपने पालनहार ही पर भरोसा रखते हैं।
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1. अर्थ यह है कि संसारिक साम्यिक सुख को परलोक के स्थायी जीवन तथा सुख पर प्राथमिक्ता न दो।
तथा जो बचते हैं बड़े पापों तथा निर्लज्जा के कर्मों से और जब क्रोध आ जाये तो क्षमा कर देते हैं।
तथा जिन्होंने अपने पालनहार के आदेश को मान लिया, स्थापना की नमाज़ की और उनके प्रत्येक कार्य आपस के विचार-विमर्श से होते हैं[1] और जो कुछ हमने उन्हें प्रदान किया है उसमें से दान करते हैं।
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1. इस आयत में ईमान वालों का एक उत्तम गुण बताया गया है कि वह अपने प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य परस्पर प्रामर्श से करते हैं। सूरह आले इमरान आयतः 159 में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को आदेश दिया गया है कि आप मुसलमानों से प्रामर्श करें। तो आप सभी महत्वपूर्ण कार्यों में उन से प्रामर्श करते थे। यही नीति तत्पश्चात् आदरणीय ख़लीफ़ा उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने भी अपनाई। जब आप घायल हो गये और जीवन की आशा न रही तो अपने छः व्यक्तियों को नियुक्त कर दिया कि वह आपस के प्रामर्श से शासन के लिये किसी एक को निर्वाचित कर लें। और उन्हों ने आदरणीय उस्मान (रज़ियल्लाहु अन्हु) को शासक निर्वाचित कर लिया। इस्लाम पहला धर्म है जिस ने प्रामर्शिक व्यवस्था की नींव डाली। किन्तु यह परामर्श केवल देश का शासन चलाने के विषयों तक सीमित है। फिर भी जिन विषयों में क़ुर्आन तथा ह़दीस की शिक्षायें मौजूद हों उन में किसी प्रामर्श की आशयक्ता नहीं है।
और यदि उनपर अत्याचार किया जाये, तो वे बराबरी का बदला लेते हैं।
और बुराई का प्रतिकार (बदला) बुराई है, उसी जैसी।[1] फिर जो क्षमा कर दे तथा सुधार करले, तो उसका प्रतिफल अल्लाह के ऊपर है। वास्तव में, वह प्रेम नहीं करता है अत्याचारियों से।
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1. इस आयत में बुराई का बदला लेने की अनुमति दी गई है। बुराई का बदला यद्पि बुराई नहीं, बल्कि न्याय है फिर भी बुराई के समरूप होने का कारण उसे बुराई ही कहा गया है।
तथा जो बदला लें अपने ऊपर अत्याचार होने के पश्चात्, तो उनपर कोई दोष नहीं है।
दोष केवल उनपर है, जो लोगों पर अत्याचार करते हैं और नाह़क़ ज़मीन में उपद्रव करते हैं। उन्हीं के लिए दर्दनाक यातना है।
और जो सहन करे तथा क्षमा कर दे, तो ये निश्चय बड़े साहस[1] का कार्य है।
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1. इस आयत में क्षमा करने की प्रेरणा दी गई है कि यदि कोई अत्याचार कर दे तो उसे सहन करना और क्षमा कर देना और सामर्थ्य रखते हुये उस से बदला न लेना ही बड़ी सुशीलता तथा साहस की बात है जिस की बड़ी प्रधानता है।
तथा जिसे अल्लाह कुपथ कर दे, तो उसका कोई रक्षक नहीं है, उसके पश्चात तथा आप देखेंगे अत्याचारियों को जब वे देखेंगे यातना को, वे कह रहे होंगेः क्या वापसी की कोई राह है?[1]
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1. ताकि संसार में जा कर ईमान लायें और सदाचार करें तथा परलोक की यातना से बच जायें।
तथा आप उन्हें देखेंगे कि वे प्रस्तुत किये जा रहे हैं नरक पर, सिर झुकाये, अपमान के कारण। वे देख रहे होंगे कन्खियों से तथा कहेंगे जो ईमान लाये कि वास्तव में घाटे में वही हैं, जिन्होंने घाटे में डाल दिया स्वयं को तथा अपने परिवार को, प्रलय के दिन। सुनो! अत्याचारी ही स्थायी यातना में होंगे।
तथा नहीं होंगे उनके कोई सहायक, जो अल्लाह के मुक़ाबले में उनकी सहायता करें और जिसे कुपथ कर दे अल्लाह, तो उसके लिए कोई मार्ग नहीं।
मान लो अपने पालनहार की बात, इससे पूर्व कि आ जाये वह दिन, जिसे टलना नहीं है अल्लाह की ओर से। नहीं होगा तुम्हारे लिए कोई शरण का स्थान, उस दिन और न छिपकर अनजान बन जाने का।
फिर भी यदि वे विमुख हों, तो (हे नबी!) हमने नहीं भेजा है आपको उनपर रक्षक बनाकर। आपका दायित्व केवल संदेश पहुँचा देना है और वास्तव में, जब हम चखा देते हैं मनुष्य को अपनी दया, तो वह इतराने लगता है, उसपर और यदि पहुँचता है उन्हें कोई दुःख, उनके करतूत के कारण, तो मनुष्य बड़ा कृतघ्न बन जाता है।
अल्लाह ही का है आकाशों तथा धरती का राज्य। वह पैदा करता है, जो चाहता है। जिसे चाहे, पुत्रियाँ प्रदान करता है तथा जिसे चाहे, पुत्र प्रदान करता है।
अथवा उन्हें पुत्र और[1] पुत्रियाँ मिलाकर देता है और जिसे चाहे, बाँझ बना देता है। वास्तव में, वह सब कुछ जानने वाला (तथा) सामर्थ्य रखने वाला है।
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1. इस आयत में संकेत है कि पुत्र-पुत्री माँगने के लिये किसी पीर, फ़क़ीर के मज़ार पर जाना उन को अल्लाह की शक्ति में साझी बनाना है। जो शिर्क है। और शिर्क ऐसा पाप है जिस के लिये बिना तौबा के कोई क्षमा नहीं।
और नहीं संभव है किसी मनुष्य के लिए कि बात करे अल्लाह उससे, परन्तु वह़्यी[1] द्वारा, अथवा पर्दे के पीछे से अथवा भेज दे कोई रसूल (फ़रिश्ता), जो वह़्यी करे उसकी अनुमति से, जो कुछ वह चाहता हो। वास्तव में, वह सबसे ऊँचा (तथा) सभी गुण जानने वाला है।
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1. वह़्यी का अर्थ, संकेत करना या गुप्त रूप से बात करना है। अर्थात अल्लाह अपने रसूलों को आदेश और निर्देश इस प्रकार देता है, जिसे कोई दूसरा व्यक्ति सुन नहीं सकता। जिस के तीन रूप होते हैं: प्रथमः रसूल के दिल में सीधे अपना ज्ञान भर दे। दूसराः पर्दे के पीछे से बात करें, किन्तु वह दिखाई न दे। तीसराः फ़रिश्ते द्वारा अपनी बात रसूल तक गुप्त रूप से पहुँचा दे। इन में पहले और तीसरे रूप में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास वह़्यी उतरती थी। (सह़ीह़ बुख़ारीः 2)
और इसी प्रकार, हमने वह़्यी (प्रकाशना) की है, आपकी ओर, अपने आदेश की रूह़ (क़ुर्आन)। आप नहीं जानते थे कि पुस्तक क्या है और ईमान[1] क्या है। परन्तु, हमने इसे बना दिया एक ज्योति। हम मार्ग दिखाते हैं इसके द्वारा, जिसे चाहते हैं अपने भक्तों में से और वस्तुतः, आप सीधी राह[1] दिखा रहे हैं।
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1. मक्का वासियों को यह आश्चर्य था कि मनुष्य अल्लाह का नबी कैसे हो सकता है? इस पर क़ुर्आन बता रहा है कि आप नबी होने से पहले न तो किसी आकाशीय पुस्तक से अवगत थे और न कभी ईमान की बात ही आप के विचार में आई। और यह दोनों बातें ऐसी थीं जिन का मक्कावासी भी इन्कार नहीं कर सकते थे। और यही आप का अज्ञान होना आप के सत्य नबी होने का प्रमाण है। जिसे क़ुर्आन की अनेक आयतों में वर्णित किया गया है। 2. सीधी राह से अभिप्राय सत्धर्म इस्लाम है।
अल्लाह की राह, जिसके अधिकार में है, जो कुछ आकाशों में तथा जो कुछ धरती में है। सावधान! अल्लाह ही की ओर फिरते हैं, सभी कार्य।
سورة الشورى
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التفسيرات

سورةُ (الشُّورى) من السُّوَر المدنية، وقد دعَتِ السورةُ الكريمة إلى الوَحْدة، والاجتماع، والاعتصام، ونَبْذِ الفُرْقة والاختلاف، ولا يكون اجتماعٌ ووَحْدة دون الاجتماع على الكتاب والسُّنة، والاعتصام بهما؛ فالجماعة للأفهام قبل أن تكونَ للأبدان، كما أبانت السورةُ عن مقاصدِ الوحي والرسالة، وآياتِ الله عز وجل في هذا الكون، وصفات المؤمنين التي ينبغي أن تكون.

ترتيبها المصحفي
42
نوعها
مكية
ألفاظها
860
ترتيب نزولها
62
العد المدني الأول
50
العد المدني الأخير
50
العد البصري
50
العد الكوفي
53
العد الشامي
50

* سورة (الشُّورى):

سُمِّيت سورة (الشُّورى) بهذا الاسم؛ لوصفِ المؤمنين فيها بالتشاور في أمورهم؛ كما في قوله تعالى: {وَاْلَّذِينَ اْسْتَجَابُواْ لِرَبِّهِمْ وَأَقَامُواْ اْلصَّلَوٰةَ وَأَمْرُهُمْ شُورَىٰ بَيْنَهُمْ وَمِمَّا رَزَقْنَٰهُمْ يُنفِقُونَ} [الشورى: 38].

مقصودُ السُّورة هو الاجتماعُ على هذا الدِّين القائم على الإيمان بأركانه، ورُوحُه الأُلْفة والتشاوُرُ وتقارُبُ القلوب، الداعي إلى التواضعِ وعدم التكبُّر، والاجتماع والوَحْدة وعدم التفرُّق، ولا سيما الاجتماع على أمر هذا الدِّين العظيم.

وأمرُ المؤمنين بالشُّورى، وتسمية السورة بـ(الشورى): واضحُ الدَّلالة على ذلك.

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /451).