ترجمة سورة آل عمران

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة آل عمران باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

अलिफ़, लाम, मीम।
अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं, वह जीवित, नित्य स्थायी है।
उसीने आपपर सत्य के साथ पुस्तक (क़ुर्आन) उतारी है, जो इससे पहले की पुस्तकों के लिए प्रमाणकारी है और उसीने तौरात तथा इंजील उतारी है।
इससे पूर्व, लोगों के मार्गदर्शन के लिए और फ़ुर्क़ान उतारा है[1] तथा जिन्होंने अल्लाह की आयतों को अस्वीकार किया, उन्हीं के लिए कड़ी यातना है और अल्लाह प्रभुत्वशाली, बदला लेने वाला है।
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1. अर्थात तौरात और इंजील अपने समय में लोगों के लिये मार्गदर्शन थीं, परन्तु फ़ुर्क़ान (क़ुरआन) उतरने के पश्चात् अब वह मार्गदर्शन केवल क़ुर्आन पाक में है।
निःसंदेह अल्लाह से आकाशों तथा धरती की कोई चीज़ छुपी नहीं है।
वही तुम्हारा रूप आकार गर्भाषयों में जैसे चाहता है, बनाता है। कोई पूज्य नहीं, परन्तु वही प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ।
उसीने आपपर[1] ये पुस्तक (क़ुर्आन) उतारी है, जिसमें कुछ आयतें मुह़कम[2] (सुदृढ़) हैं, जो पुस्तक का मूल आधार हैं तथा कुछ दूसरी मुतशाबिह[3] (संदिग्ध) हैं। तो जिनके दिलों में कुटिलता है, वे उपद्रव की खोज तथा मनमाना अर्थ करने के लिए, संदिग्ध के पीछे पड़ जाते हैं। जबकि उनका वास्तविक अर्थ, अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता तथा जो ज्ञान में पक्के हैं, वे कहते हैं कि सब, हमारे पालनहार के पास से है और बुध्दिमान लोग ही शिक्षा ग्रहण करते हैं।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह ने मानव का रूप आकार बनाने और उस की आर्थिक आवश्यक्ता की व्यवस्था करने के समान, उस की आत्मिक आवश्यक्ता के लिये क़ुर्आन उतारा है, जो अल्लाह की प्रकाशना तथा मार्गदर्शन और फ़ुर्क़ान है। जिस के द्वारा सत्योसत्य में विवेक (अन्तर) कर के सत्य को स्वीकार करे। 2. मुह़कम (सुदृढ़) से अभिप्राय वह आयतें हैं, जिन के अर्थ स्थिर, खुले हुये हैं। जैसे एकेश्वरवाद, रिसालत तथा आदेशों और निषेधों एवं ह़लाल (वैध) और ह़राम (अवैध) से संबन्धित आयतें, यही पुस्तक का मूल आधार हैं। 3. मुतशाबिह (संदिग्ध) से अभिप्राय वह आयतें हैं, जिन में उन तथ्यों की ओर संकेत किया गया है, जो हमारी ज्ञानेंद्रियों में नहीं आ सकते, जैसे मौत के पश्चात् जीवन, तथा प्रलोक की बातें, इन आयतों के विषय में अल्लाह ने हमें जो जानकारी दी है, हम उन पर विश्वास करते हैं, क्यों कि इन का विस्तार विवरण हमारी बुध्दि से बाहर है, परन्तु जिन के दिलों में खोट है वह इन की वास्तविक्ता जानने के पीछे पड़ जाते हैं, जो उन की शक्ति से बाहर है।
(तथा कहते हैः) हे हमारे पालनहार! हमारे दिलों को, हमें मार्गदर्शन देने के पश्चात् कुटिल न कर, वास्तव में, तू बहुत बड़ा दाता है।
हे मारे पालनहार! तू उस दिन सबको एकत्र करने वाला है, जिसमें कोई संदेह नहीं। निःसंदेह अल्लाह अपने निर्धारित समय का विरुध्द नहीं करता।
निश्चय जो क़ाफ़िर हो गये, उनके धन तथा उनकी संतान अल्लाह (की यातना) से (बचाने में) उनके कुछ काम नहीं आयेगी तथा वही अग्नि के ईंधन बनेंगे।
जैसे फ़िरऔनियों तथा उनके पहले लोगों की दशा हुई, उन्होंने हमारी निशानियों को मिथ्या कहा, तो अल्लाह ने उनके पापों के कारण उनको धर लिया तथा अल्लाह कड़ा दण्ड देने वाला है।
(हे नबी!) काफ़िरों से कह दो कि तुम शीघ्र ही प्रास्त कर दिये जाओगे तथा नरक की ओर एकत्र किये जाओगे और वह बहुत बुरा ठिकाना[1] है।
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1. इस में काफ़िरों की मुसलमानों के हाथों पराजय की भविष्यवाणी है।
वास्तव में, तुम्हारे लिए उन दो दलों में, जो (बद्र में) सम्मुख हो गये, एक निशानी थी; एक अल्लाह की राह में युध्द कर रहा था तथा दूसरा काफ़िर था, वे (अर्थात काफ़िर गिरोह के लोग) अपनी आँखों से देख रहे थे कि ये (मुसलमान) तो दुगने लग रहे हैं तथा अल्लाह अपनी सहायता द्वारा जिसे चाहे, समर्थन देता है। निःसंदेह इसमें समझ-बूझ वालों के लिए बड़ी शिक्षा[1] है।
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1. अर्थात इस बात की कि विजय अल्लाह के समर्थन से प्राप्त होती है, सेना की संख्या से नहीं।
लोगों के लिए उनके मनको मोहने वाली चीज़ें, जैसे स्त्रियाँ, संतान, सोने चाँदी के ढेर, निशान लगे घोड़े, पशुओं तथा खेती शोभनीय बना दी गई हैं। ये सब सांसारिक जीवन के उपभोग्य हैं और उत्तम आवास अल्लाह के पास है।
(हे नबी!) कह दोः क्या मैं तुम्हें इससे उत्तम चीज़ बता दूँ? उनके लिए जो डरें, उनके पालनहार के पास ऐसे स्वर्ग हैं, जिनमें नहरें बह रही हैं। वे उनमें सदावासी होंगे और निर्मल पत्नियाँ होंगी तथा अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त होगी और अल्लाह अपने भक्तों को देख रहा है।
जो (ये) प्रार्थना करते हैं कि हमारे पालनहार! हम ईमान लाये, अतः हमारे पाप क्षमा कर दे और हमें नरक की यातना से बचा।
जो सहनशील हैं, सत्यवादी हैं, आज्ञाकारी हैं, दानशील तथा भोरों में अल्लाह से क्षमा याचना करने वाले हैं।
अल्लाह साक्षी है, जो न्याय के साथ क़ायम है कि उसके सिवा कोई पूज्य नहीं है, इसी प्रकार फ़रिश्ते और ज्ञानी लोग भी (साक्षी हैं) कि उसके सिवा कोई पूज्य नहीं। वह प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ है।
निःसंदेह (वास्तविक) धर्म अल्लाह के पास इस्लाम ही है और अह्ले किताब ने जो विभेद किया, तो अपने पास ज्ञान आने के पश्चात् आपस में द्वेष के कारण किया तथा जो अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र (अस्वीकार) करेगा, तो निश्चय अल्लाह शीघ्र ह़िसाब लेने वाला है।
फिर यदि वे आपसे विवाद करें, तो कह दें कि मैं स्वयं तथा जिसने मेरा अनुसरण किया अल्लाह के आज्ञाकारी हो गये तथा अह्ले किताब और उम्मियों (अर्थात जिनके पास कोई किताब नहीं आयी) से कहो कि क्या तुम भी आज्ञाकारी हो गये? यदि वे आज्ञाकारी हो गये, तो मार्गदर्शन पा गये और यदि विमुख हो गये, तो आपका दायित्व (संदेश) पहुँचा[1] देना है तथा अल्लाह भक्तों को देख रहा है।
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1. अर्थात उन से वाद विवाद करना व्यर्थ है।
जो लोग अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र करते हों तथा नबियों को अवैध वध करते हों, तथा उन लोगों का वध करते हों, जो न्याय का आदेश देते हैं, तो उन्हें दुःखदायी यातना[1] की शुभ सूचना सुना दो।
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1. इस में यहूद की आस्थिक तथा कर्मिक कुपथा की ओर संकेत है।
यही हैं, जिनके कर्म संसार तथा परलोक में अकारथ गये और उनका कोई सहायक नहीं होगा।
(हे नबी!) क्या आपने उनकी[1] दशा नहीं देखी, जिन्हें पुस्तक का कुछ भाग दिया गया? वे अल्लाह की पुस्तक की ओर बुलाये जा रहे हैं, ताकि उनके बीच निर्णय[2] करे, तो उनका एक गिरोह मुँह फेर रहा है और वे हैं ही मुँह फेरने वाले।
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1. इस से अभिप्राय यहूदी विद्वान हैं। 2. अर्थात विभेद का निर्णय कर दे। इस आयत में अल्लाह की पुस्तक से अभिप्राय तौरात और इंजील हैं। और अर्थ यह है कि जब उन्हें उन की पुस्तकों की ओर बुलाया जाता है कि अपनी पुस्तकों ही को निर्णायक मान लो, तथा बताओ कि उन में अन्तिम नबी पर ईमान लाने का आदेश दिया गया है या नहीं? तो वे कतरा जाते हैं, जैसे कि उन्हें कोई ज्ञान ही न हो।
उनकी ये दशा इसलिए है कि उन्होंने कहा कि नरक की अग्नि हमें गिनती के कुछ दिन ही छुएगी तथा उन्हें अपने धर्म में उनकी मिथ्या बनायी हुई बातों ने धोखे में डाल रखा है।
तो उनकी क्या दशा होगी, जब हम उन्हें उस दिन एकत्र करेंगे, जिस (के आने) में कोई संदेह नहीं तथा प्रत्येक प्राणी को उसके किये का भरपूर प्रतिफल दिया जायेगा और किसी के साथ कोई अत्याचार नहीं किया जायेगा?
(हे नबी!) कहोः हे अल्लाह! राज्य के[1] अधिपति (स्वामी)! तू जिसे चाहे, राज्य दे और जिससे चाहे, राज्य छीन ले तथा जिसे चाहे, सम्मान दे और जिसे चाहे, अपमान दे। तेरे ही हाथ में भलाई है। निःसंदेह तू जो चाहे, कर सकता है।
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1. अल्लाह की अपार शक्ति का वर्णन।
तू रात को दिन में प्रविष्ट कर देता है तथा दिन को रात में प्रविष्ट कर[1] देता है और जीव को निर्जीव से निकालता है तथा निर्जीव को जीव से निकालता है और जिसे चाहे अगणित आजीविका प्रदान करता है।
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1. इस में रात्रि-दिवस के परिवर्तन की ओर संकेत है।
मोमिनों को चाहिए कि वो ईमान वालों के विरुध्द काफ़िरों को अपना सहायक मित्र न बनायें और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई संबंध नहीं। परन्तु उनसे बचने के लिए[1] और अल्लाह तुम्हें स्वयं अपने से डरा रहा है और अल्लाह ही की ओर जाना है।
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1.अर्थात संधि मित्र बना सकते हो।
(हे नबी!) कह दो कि जो तुम्हारे मन में है, उसे मन ही में रखो या व्यक्त करो, अल्लाह उसे जानता है तथा जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, वह सबको जानता है और अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
जिस दिन प्रत्येक प्राणी ने जो सुकर्म किया है, उसे उपस्थित पायेगा तथा जिसने कुकर्म किया है, वह कामना करेगा कि उसके तथा उसके कुकर्मों के बीच बड़ी दूरी होती तथा अल्लाह तुम्हें स्वयं से डराता[1] है और अल्लाह अपने भक्तों के लिए अति करुणामय है।
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1. अर्थात अपनी अवैज्ञा से।
(हे नबी!) कह दोः यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो, तो मेरा अनुसरण करो, अल्लाह तुमसे प्रेम[1] करेगा तथा तुम्हारे पाप क्षमा कर देगा और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
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1. इस में यह संकेत है कि जो अल्लाह से प्रेम का दावा करता हो, और मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का अनुसरण न करता हो, तो वह अल्लाह का प्रेमी नहीं हो सकता।
(हे नबी!) कह दोः अल्लाह और रसूल की आज्ञा का अनुपालन करो। फिर भी यदि वे विमुख हों, तो निःसंदेह अल्लाह काफ़िरों से प्रेम नहीं करता।
वस्तुतः, अल्लाह ने आदम, नूह़, इब्राहीम की संतान तथा इमरान की संतान को संसार वासियों में चुन लिया था।
ये एक-दूसरे की संतान हैं और अल्लाह सब सुनता और जानता है।
जब इमरान की पत्नी[1] ने कहाः हे मेरे पालनहार! जो मेरे गर्भ में है, मैंने तेरे[3] लिए उसे मुक्त करने की मनौती मान ली है। तू इसे मुझसे स्वीकार कर ले। वास्तव में, तू ही सब कुछ सुनता और जानता है।
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1. अर्थात मर्यम की माँ। 2. अर्थात बैतुल मक़दिस की सेवा के लिये।
फिर जब उसने बालिका जनी, तो (संताप से) कहाः मेरे पालनहार! मुझे तो बालिका हो गयी, हालाँकि जो उसने जना, उसका अल्लाह को भली-भाँति ज्ञान था -और नर नारी के समान नहीं होता- और मैंने उसका नाम मर्यम रखा है और मैं उसे तथा उसकी संतान को धिक्कारे हुए शैतान से तेरी शरण में देती हूँ।[1]
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1. हदीस में है कि जब कोई शिशु जन्म लेता है, तो शैतान उसे स्पर्श करता है, जिस के कारण वह चीख कर रोता है, परन्तु मर्यम और उस के पुत्र को स्पर्श नहीं किया था। (सह़ीह़ बुख़ारीः4548)
तो तेरे पालनहार ने उसे भली-भाँति स्वीकार कर लिया तथा उसका अच्छा प्रतिपालन किया और ज़करिय्या को उसका संरक्षक बनाया। ज़करिय्या जबभी उसके मेह़राब (उपासना कोष्ट) में जाता, तो उसके पास कुछ खाद्य पदार्थ पाता, वह कहता कि हे मर्यम! ये कहाँ से (आया) है? वह कहतीः ये अल्लाह के पास से (आया) है। वास्तव में, अल्लाह जिसे चाहता है, अगणित जीविका प्रदा करता है।
तब ज़करिय्या ने अपने पालनहार से प्रार्थना कीः हे मेरे पालनहार! मुझे अपनी ओर से सदाचारी संतान प्रदान कर। निःसंदेह तू प्रार्थना सुनने वाला है।
तो फ़रिश्तों ने उसे पुकारा- जब वह मेह़राब में खड़ा नमाज़ पढ़ रहा था- कि अल्लाह तुझे 'यह़्या' की शुभ सूचना दे रहा है, जो अल्लाह के शब्द (ईसा) का पुष्टि करने वाला, प्रमुख तथा संयमी और सदाचारियों में से एक नबी होगा।
उसने कहाः मेरे पालनहार! मेरे कोई पुत्र कहाँ से होगा, जबकि मैं बूढ़ा हो गया हूँ और मेरी पत्नी बाँझ[1] है? उसने कहाः अल्लाह इसी प्रकार जो चाहता है, कर देता है।
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1. यह प्रश्न ज़करिया ने प्रसन्न हो कर आश्चर्य से किया।
उसने कहाः मेरे पालनहार! मेरे लिए कोई लक्षण बना दे। उसने कहाः तेरा लक्षण ये होगा कि तीन दिन तक लोगों से बात नहीं कर सकेगा, परन्तु संकेत से तथा अपने पालनहार का बहुत स्मरण करता रह और संध्या-प्राता उसी की पवित्रता का वर्णन कर।
और (याद करो) जब फरिश्तों ने मर्यम से कहाः हे मर्यम! तुझे अल्लाह ने चुन लिया तथा पवित्रता प्रदान की और संसार की स्त्रियों पर तुझे चुन लिया।
हे मर्यम! अपने पालनहार की आज्ञाकारी रहो, सज्दा करो तथा रुकूअ करने वालों के साथ रुकूअ करती रहो।
ये ग़ैब (परोक्ष) की सूचनायें हैं, जिन्हें हम आपकी ओर प्रकाशना कर रहे हैं और आप उनके पास उपस्थित नहीं थे, जब वे अपनी लेखनियाँ[1] फेंक रहे थे कि कौन मर्यम का अभिरक्षण करेगा और न उनके पास उपस्थित थे, जब वे झगड़ रहे थे।
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1. अर्थात यह निर्णय करने के लिये कि मर्यम का संरक्षक कौन हो?
जब फ़रिश्तों ने कहाः हे मर्यम! अल्लाह तुझे अपने एक शब्द[1] की शुभ सूचना दे रहा है, जिसका नाम मसीह़ ईसा पुत्र मर्यम होगा। वह लोक-प्रलोक में प्रमुख तथा (मेरे) समीपवर्तियों में होगा।
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1. अर्थात वह अल्लाह के शब्द "कुन" से पैदा होगा, जिस का अर्थ है "हो जा"।
वह लोगों से गोद में तथा अधेड़ आयु में बातें करेगा और सदाचारियों में होगा।
मर्यम ने (आश्चर्य से) कहाः मेरे पालनहार! मुझे पुत्र कहाँ से होगा, मुझे तो किसी पुरुष ने हाथ भी नहीं लगाया है? उसने[1] कहाः इसी प्रकार अल्लाह जो चाहता है, उत्पन्न कर देता है। जब वह किसी काम के करने का निर्णय कर लेता है, तो उसके लिए कहता है किः "हो जा", तो वह हो जाता है।
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1. अर्थात फ़रिश्ते ने।
और अल्लाह उसे पुस्तक तथा प्रबोध और तौरात तथा इंजील की शिक्षा देगा।
और फिर वह बनी इस्राईल का एक रसूल होगा (और कहेगाः) कि मैं तुम्हारे पालनहार की ओर से निशानी लाया हूँ। मैं तुम्हारे लिए मिट्टी से पक्षी के आकार के समान बनाऊँगा, फिर उसमें फूँक दूँगा, तो वह अल्लाह की अनुमति से पक्षी बन जायेगा और अल्लाह की अनुमति से जन्म से अंधे तथा कोढ़ी को स्वस्थ कर दूँगा और मुर्दों को जीवित कर दूँगा तथा जो कुछ तुम खाते तथा अपने घरों में संचित करते हो, उसे तुम्हें बता दूँगा। निःसंदेह, इसमें तुम्हारे लिए बड़ी निशानियाँ हैं, यदि तुम ईमान वाले हो।
तथा मैं उसकी सिध्दि करने वाला हूँ, जो मुझसे पहले की है 'तौरात'। तुम्हारे लिए कुछ चीज़ों को ह़लाला (वैध) करने वाला हूँ, जो तुमपर ह़राम (अवैध) की गयी हैं तथा मैं तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की निशानी लेकर आया हूँ। अतः तुम अल्लाह से डरो और मेरे आज्ञाकारी हो जाओ।
वास्तव में, अल्लाह मेरा और तुम सबका पालनहार है। अतः उसी की इबादत (वंदना) करो। यही सीधी डगर है।
तथा जब ईसा ने उनसे कुफ़्र का संवेदन किया, तो कहाः अल्लाह के धर्म की सहायता में कौन मेरा साथ देगा? तो ह़वारियों (सहचरों) ने कहाः हम अल्लाह के सहायक हैं। हम अल्लाह पर ईमान लाये, तुम इसके साक्षी रहो कि हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हैं।
हे हमारे पालनहार! जो कुछ तूने उतारा है, हम उसपर ईमान लाये तथा तेरे रसूल का अनुसरण किया, अतः हमें भी साक्षियों में अंकित कर ले।
तथा उन्होंने षड्यंत्र[1] रचा और हमने भी षड्यंत्र रचा तथा अल्लाह षड्यंत्र रचने वालों में सबसे अच्छा है।
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1.अर्थात ईसा (अलैहिस्सलाम) को हत करने का। तो अल्लाह ने उन्हें विफल कर दिया। (देखियेः सूरह निसा, आयतः157)
जब अल्लाह ने कहाः हे ईसा! मैं तुझे पूर्णतः लेने वाला तथा अपनी ओर उठाने वाला हूँ तथा तुझे काफ़िरों से पवित्र (मुक्त) करने वाला हूँ तथा तेरे अनुयायियों को प्रलय के दिन तक काफ़िरों के ऊपर[1] करने वाला हूँ। फिर तुम्हारा लौटना मेरी ही ओर है। तो मैं तुम्हारे बीच उस विषय में निर्णय कर दूँगा, जिसमें तुम विभेद कर रहे हो।
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1. अर्थात यहूदियों तथा मुश्रिकों के ऊपर।
फिर जो काफ़िर हो गये, उन्हें लोक-प्रलोक में कड़ी यातना दूँगा तथा उनका कोई सहायक न होगा।
तथा जो ईमान लाये और सदाचार किये, तो उन्हें उनका भरपूर प्रतिफल दूँगा तथा अल्लाह अत्याचारियों से प्रेम नहीं करता।
(हे नबी!) ये हमारी आयतें और तत्वज्ञता की शिक्षा है, जो हम तुम्हें सुना रहे हैं।
वस्तुतः अल्लाह के पास ईसा की मिसाल ऐसी ही है[1], जैसे आदम की। उसे (अर्थात, आदम को) मिट्टी से उत्पन्न किया, फिर उससे कहाः "हो जा" तो वह हो गया।
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1. अर्थात जैसे प्रथम पुरुष आदम (अलैहिस्सलाम) को बिना माता-पिता के उत्पन्न किया, उसी प्रकार ईसा (अलैहिस्सलाम) को बिना पिता के उत्पन्न कर दिया, अतः वह भी मानव पुरुष हैं।
ये आपके पालनहार की ओर से सत्य[1] है, अतः आप संदेह करने वालों में न हों।
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1. अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम का मानव पुरुष होना। अतः आप उन के विषय में किसी संदेह में न पड़ें।
फिर आपके पास ज्ञान आ जाने के पश्चात् कोई आपसे ईसा के विषय में विवाद करे, तो कहो कि आओ, हम अपने पुत्रों तथा तुम्हारे पुत्रों और अपनी स्त्रियों तथा तुम्हारी स्त्रियों को बुलाते हैं और स्वयं को भी, फिर अल्लाह से सविनय प्रार्थना करें कि अल्लाह की धिक्कार मिथ्यावादियों पर[1] हो।
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1. अल्लाह से यह प्रार्थना करें कि वह हम में से मिथ्यावादियों को अपनी दया से दूर कर दे।
वास्तव में, यही सत्य वर्णन है तथा अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं। निश्चय अल्लाह ही प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
फिर भी यदि वे मुँह[1] फेरें, तो निःसंदेह अल्लाह उपद्रवियों को भली-भाँति जानता है।
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1. अर्थात सत्य को जानने की इस विधि को स्वीकार न करें।
(हे नबी!) कहो कि हे अह्ले किताब! एक ऐसी बात की ओर आ जाओ, जो हमारे तथा तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करें और किसी को उसका साझी न बनायें तथा हममें से कोई एक-दूसरे को अल्लाह के सिवा पालनहार न बनाये। फिर यदि वे विमुख हों, तो आप कह दें कि तुम साक्षी रहो कि हम (अल्लाह के)[1] आज्ञाकारी हैं।
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1. इस आयत में ईसा अलैहिस्सलाम से संबंधित विवाद के निवारण के लिये एक दूसरी विधि बताई गई है।
हे अह्ले किताब! तुम इब्राहीम के बारे में विवाद[1] क्यों करते हो, जबकि तौरात तथा इंजील इब्राहीम के पश्चात् उतारी गई हैं? क्या तुम समझ नहीं रखते?
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1. अर्थात यह क्यों कहते हो कि इब्राहीम अलैहिस्सलाम हमारे धर्म पर थे। तौरात और इंजील तो उन के सहस्त्रों वर्ष के पश्चात् अवतरित हुईं। तो वह इन धर्मों पर कैसे हो सकते हैं।
और फिर तुम्हीं ने उस विषय में विवाद किया, जिसका तुम्हें कुछ ज्ञान[1] था, तो उस विषय में क्यों विवाद कर रहे हो, जिसका तुम्हें कोई ज्ञान[2] नहीं था? तथा अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।
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1. अर्थात अपने धर्म के विषय में। 2. अर्थात इब्राहीम अलैहिस्सलाम के धर्म के बारे में।
इब्राहीम न यहूदी था, न नस्रानी (ईसाई)। परन्तु वह एकेश्वरवादी, मुस्लिम 'आज्ञाकारी' था तथा वह मिश्रणवादियों में से नहीं था।
वास्तव में, इब्राहीम से सबसे अधिक समीप तो वह लोग हैं, जिन्होंने उसका अनुसरण किया तथा ये नबी[1] और जो ईमान लाये और अल्लाह ईमान वालों का संरक्षकभमित्र है।
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1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप के अनुयायी।
अह्ले किताब में से एक गिरोह की कामना है कि तुम्हें कुपथ कर दे। जबकि वे स्वयं को कुपथ कर रहे हैं, परन्तु वे समझते नहीं हैं।
हे अह्ले किताब! तुम अल्लाह की आयतों[1] के साथ कुफ़्र क्यों कर रहे हो, जबकि तुम साक्षी[2] हो?
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1. जो तुम्हारी किताब में अन्तिम नबी से संबंधित है। 2. अर्थात उन आयतों के सत्य होने के साक्षी हो।
हे अह्ले किताब! क्यों सत्य को असत्य के साथ मिलाकर संदिग्ध कर देते हो और सत्य को छुपाते हो, जबकि तुम जानते हो?
अह्ले किताब के एक समुदाय ने कहा कि दिन के आरंभ में उसपर ईमान ले आओ, जो ईमान वालों पर उतारा गया है और उसके अन्त (अर्थातः संध्या-समय) कुफ़्र कर दो, संभवतः वे फिर[1] जायें।
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1. अर्थात मुसलमान इस्लाम से फिर जायें।
और केवल उसी की मानो, जो तुम्हारे (धर्म) का अनुसरण करे। (हे नबी!) कह दो कि मार्गदर्शन तो वही है, जो अल्लाह का मार्गदर्शन है। (और ये भी न मानो कि) जो (धर्म) तुम्हें दिया गया है, वैसा किसी और को दिया जायेगा अथवा वे तुमसे तुम्हारे पालनहार के पास विवाद कर सकेंगे। आप कह दें कि प्रदान अल्लाह के हाथ में है, वह जिसे चाहे, देता है और अल्लाह विशाल ज्ञानी है।
वह जिसे चाहे, अपनी दया के साथ विशेष कर देता है तथा अल्लाह बड़ा दानशील है।
तथा अह्ले किताब में से वो भी है, जिसके पास चाँदी-सोने का ढेर धरोहर रख दो, तो उसे तुम्हें चुका देगा तथा उनमें वो भी है, जिसके पास एक दीनार[1] भी धरोहर रख दो, तो तुम्हें नहीं चुकायेगा, परन्तु जब सदा उसके सिर पर सवार रहो। ये (बात) इसलिए है कि उन्होंने कहा कि उम्मियों के बारे में हमपर कोई दोष[2] नहीं तथा अल्लाह पर जानते हुए झूठ बोलते हैं।
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1. दीनार, सोने के सिक्के को कहा जाता है। 2. अर्थात उन के धन का उपभोग करने पर कोई पाप नहीं। क्यों कि यहूदियों ने अपने अतिरिक्त सब का धन ह़लाल समझ रखा था। और दूसरों को वह "उम्मी" कहा करते थे। अर्थात वह लोग जिन के पास कोई आसमानी किताब नहीं है।
क्यों नहीं, जिसने अपना वचन पूरा किया और (अल्लाह से) डरा, तो वास्तव में अल्लाह डरने वालों से प्रेम करता है।
निःसंदेह जो अल्लाह के[1] वचन तथा अपनी शपथों के बदले तनिक मूल्य खरीदते हैं, उन्हीं का आख़िरत (परलोक) में कोई भाग नहीं, न प्रलय के दिन अल्लाह उनसे बात करेगा और न उनकी ओर देखेगा और न उन्हें पवित्र करेगा तथा उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।
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1. अल्लाह के वचन से अभिप्राय वह वचन है, जो उन से धर्म पुस्तकों द्वारा लिया गया है।
और बेशक उनमें से एक गिरोह[1] ऐसा है, जो अपनी ज़बानों को किताब पढ़ते समय मरोड़ते हैं, ताकि तुम उसे पुस्तक में से समझो, जबकि वह पुस्तक में से नहीं है और कहते हैं कि वह अल्लाह के पास से है, जबकि वह अल्लाह के पास से नहीं है और अल्लाह पर जानते हुए झूठ बोलते हैं।
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1. इस से अभिप्राय यहूदी विद्वान हैं। और पुस्तक से अभिप्राय तौरात है।
किसी पुरुष जिसे अल्लाह ने पुस्तक, निर्णय शक्ति और नुबुव्वत दी हो, उसके लिए योग्य नहीं कि लोगों से कहे कि अल्लाह को छोड़कर मेरे दास बन जाओ[1], अपितु (वह तो यही कहेगा कि) तुम अल्लाह वाले बन जाओ। इस कारण कि तुम पुस्तक की शिक्षा देते हो तथा इस कारण कि उसका अध्ययन स्वयं भी करते रहते हो।
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1. भावार्थ यह है कि जब नबी के लिये योग्य नहीं कि लोगों से कहे कि मेरी इबादत करो, तो किसी अन्य के लिये कैसे योग्य हो सकता है?
तथा वह तुम्हें कभी आदेश नहीं देगा कि फ़रिश्तों तथा नबियों को अपना पालनहार[1] (पूज्य) बना लो। क्या तुम्हें कुफ़्र करने का आदेश देगा, जबकि तुम अल्लाह के आज्ञाकारी हो?
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1. जैसे अपने पालनहार के आगे झुकते हो, उसी प्रकार उन के आगे भी झुको।
तथा (याद करो) जब अल्लाह ने नबियों से वचन लिया कि जबभी मैं तुम्हें कोई पुस्तक और प्रबोध (तत्वदर्शिता) दूँ, फिर तुम्हारे पास कोई रसूल उसे प्रमाणित करते हुए आये, जो तुम्हारे पास है, तो तुम अवश्य उसपर ईमान लाना और उसका समर्थन करना। (अल्लाह) ने कहाः क्या तुमने स्वीकार किया और इसपर मेरे वचन का भार उठाया? तो सबने कहाः हमने स्वीकार कर लिया। अल्लाह ने कहाः तुम साक्षी रहो और मैं भी तुम्हारे[1] साथ साक्षियों में से हूँ।
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1. भावार्थ यह है किः जब आगामी नबीयों को ईमान लाना आवश्यक है, तो उन के अनुयायियों को भी ईमान लाना आवश्यक होगा। अतः अन्तिम नबी मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाना सभी के लिये अनिवार्य है।
फिर जिसने इसके[1] पश्चात् मुँह फेर लिया, तो वही अवज्ञाकारी है।
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1. अर्थात इस वचन और प्रण के पश्चात्।
तो क्या वे अल्लाह के धर्म (इस्लाम) के सिवा (कोई दूसरा धर्म) खोज रहे हैं? जबकि जो आकाशों तथा धरती में है, स्वेच्छा तथा अनिच्छा उसी के आज्ञाकारी[1] हैं तथा सब उसी की ओर फेरे[2] जायेंगे।
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1. अर्थात उसी की आज्ञा तथा व्यवस्था के अधीन हैं। फिर तुम्हें इस स्वभाविक धर्म से इंकार क्यों है? 2. अर्थात प्रलय के दिन अपने कर्मों के प्रतिफल के लिये।
(हे नबी!) आप कहें कि हम अल्लाह पर तथा जो हमपर उतारा गया और जो इब्राहीम, इस्माईल, इस्ह़ाक़, याक़ूब एवं (उनकी) संतानों पर उतारा गया तथा जो मूसा, ईसा तथा अन्य नबियों को उनके पालनहार की ओर से प्रदान किया गया है, (उनपर) ईमान लाये। हम उन (नबियों) में किसी के बीच कोई अंतर नहीं[1] करते और हम उसी (अल्लाह) के आज्ञाकारी हैं।
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1. अर्थात मूल धर्म अल्लाह की आज्ञाकारिता है, और अल्लाह की पुस्तकों तथा उस के नबियों के बीच अन्तर करना, किसी को मानना और किसी को न मानना अल्लाह पर ईमान और उस की आज्ञाकारिता के विपरीत है।
और जो भी इस्लाम के सिवा (किसी और धर्म) को चाहेगा, तो उसे उससे कदापि स्वीकार नहीं किया जायेगा और वे प्रलोक में क्षतिग्रस्तों में होगा।
अल्लाह ऐसी जाति को कैसे मार्गदर्शन देगा, जो अपने ईमान के पश्चात् काफ़िर हो गये और साक्षी रहे कि ये रसूल सत्य हैं तथा उनके पास खुले तर्क आ गये? और अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन नहीं देता।
इन्हीं का प्रतिकार (बदला) ये है कि उनपर अल्लाह तथा फ़रिश्तों और सब लोगों की धिक्कार होगी।
वे उसमें सदावासी होंगे, उनसे यातना कम नहीं की जायेगी और न उन्हें अवकाश दिया जायेगा।
परन्तु जिन्होंने इसके पश्चात् तौबा (क्षमा याचना) कर ली तथा सुधार कर लिया, तो निश्चय अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
वास्तव में, जो अपने ईमान लाने के पश्चात् काफ़िर हो गये, फिर कुफ़्र में बढ़ते गये, तो उनकी तौबा (क्षमा याचना) कदापि[1] स्वीकार नहीं की जायेगी तथा वही कुपथ हैं।
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1. अर्थात यदि मौत के समय क्षमा याचना करें।
निश्चय जो काफ़िर हो गये तथा काफ़िर रहते हुए मर गये, तो उनसे धरती भर सोना भी स्वीकार नहीं किया जायेगा, यद्यपि उसके द्वारा अर्थदणड दे। उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है और उनका कोई सहायक न होगा।
तुम पुण्य[1] नहीं पा सकोगे, जब तक उसमें से दान न करो, जिससे मोह रखते हो तथा तुम जो भी दान करोगे, वास्तव में, अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है।
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1. अर्थात पुण्य का फल स्वर्ग।
प्रत्येक खाद्य पदार्थ बनी इस्राईल[1] के लिए ह़लाल (वैध) थे, परन्तु जिसे इस्राईल ने अपने ऊपर ह़राम (अवैध) कर लिया, इससे पहले कि तौरात उतारी जाये। (हे नबी!) कहो कि तौरात लाओ तथा उसे पढ़ो, यदि तुम सत्यवादि हो।
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1. जब क़ुर्आन ने यह कहा कि यहूद पर बहुत से स्वच्छ खाद्य पदार्थ उन के अत्याचार के कारण अवैध कर दिये गये। (देखिये सूरह निसा आयतः160, सूरह अन्आम आयतः146)। अन्यथा यह सभी इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के युग में वैध थे। तो यहूद ने इसे झुठलाया तथा कहने लगे कि यह सब तो इब्राहीम अलैहिस्सलाम के युग ही से अवैथ चले आ रहे हैं। इसी पर यह आयतें उतरीं कि तौरात से इस का प्रमाण प्रस्तुत करो कि यह इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के युग ही से अवैध हैं। यह और बात है कि इस्राईल ने कुछ चीज़ों जैसे ऊँट का माँस रोग अथवा मनौती के कारण अपने लिये स्वयं अवैध कर लिया था। यहाँ यह याद रखें कि इस्लाम में किसी उचित चीज़ को अनुचित करने की अनुमति किसी को नहीं है। (देखियेःशौकानी)
फिर इसके पश्चात् जो अल्लाह पर मिथ्या आरोप लगायें, तो वही वास्तव, में अत्याचारी हैं।
उनसे कह दो, अललाह सच्चा है, इसलिए तुम एकेश्वरवादी इब्राहीम के धर्म पर चलो तथा वह मिश्रणवादियों में से नहीं था।
निःसंदेह पहला घर, जो मानव के लिए (अल्लाह की वंदना का केंद्र) बनाया गया, वह वही है, जो मक्का में है, जो शुभ तथा संसार वासियों के लिए मार्गदर्शन है।
उसमें खुली निशानियाँ हैं, (जिनमें) मक़ामे[1] इब्राहीम है तथा जो कोई उस (की सीमा) में प्रवेश कर गया, तो वह शांत (सुरक्षित) हो गया। तथा अल्लाह के लिए लोगों पर इस घर का ह़ज अनिवार्य है, जो उसतक राह पा सकता हो तथा जो कुफ़्र करेगा, तो अल्लाह संसार वासियों से निस्पृह है।
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1. अर्थात वह पत्थर जिस पर खड़े हो कर इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) ने काबा का निर्माण किया जिस पर उन के पैरों के निशान आज तक हैं।
(हे नबी!) आप कह दें कि हे अह्ले किताब! ये क्या है कि तुम अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र कर रहे हो, जबकि अल्लाह तुम्हारे कर्मों का साक्षी है?
हे अह्ले किताब! किस लिए लोगों को, जो ईमान लाना चाहें, अल्लाह की राह से रोक रहे हो, उसे उलझाना चाहते हो, जबकि तुम साक्षी[1] हो और अल्लाह तुम्हारे कर्मों से असूचित नहीं है?
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1. अर्थात इस्लाम के सत्धर्म होने को जानते हो।
हे ईमान वालो! यदि तुम अह्ले किताब के किसी गिरोह की बात मानोगे, तो वह तुम्हारे ईमान के पश्चात् फिर तुम्हें काफ़िर बना देंगे।
तथा तुम कुफ़्र कैसे करोगे, जबकि तुम्हारे सामने अललाह की आयतें पढ़ी जा रही हैं और तुममें उसके रसूल[1] मौजूद हैं? और जिसने अल्लाह को[2] थाम लिया, तो उसे सुपथ दिखा दिया गया।
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1. अर्थात मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)। 2. अर्थात अल्लाह का आज्ञाकारी हो गया।
हे ईमान वालो! अल्लाह से ऐसे डरो, जो वास्तव में, उससे डरना हो तथा तुम्हारी मौत इस्लाम पर रहते हुए ही आनी चीहि।
तथा अल्लाह की रस्सी[1] को सब मिलकर दृढ़ता से पकड़ लो और विभेद में न पड़ो तथा अपने ऊपर अललाह के पुरस्कार को याद करो, जब तुम एक-दूसरे के शत्रु थे, तो तुम्हारे दिलों को जोड़ दिया और तुम उसके पुरस्कार के कारण भाई-भाई हो गए तथा तुम अग्नि के गड़हे के किनारे पर थे, तो तुम्हें उससे निकाल दिया। इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतें उजागर करता है, ताकि तुम मार्गदर्शन पा जाओ।
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1. अल्लाह की रस्सी से अभिप्राय क़ुर्आन और नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सुन्नत है। यही दोनों मुसलमानों की एकता और परस्पर प्रेम का सूत्र हैं।
तथा तुममें एक समुदाय ऐसा अवश्य होना चाहिए, जो भली बातों[1] की ओर बुलाये, भलाई का आदेश देता रहे, बुराई[2] से रोकता रहे और वही सफल होंगे।
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1. अर्थात धर्मानुसार बातों का। 2.अर्थात धर्म विरोधी बातों से।
तथा उनके[1] समान न हो जाओ, जो खुली निशानियाँ आने के पश्चात्, विभेद तथा आपसी विरोध में पड़ गये और उन्हीं के लिए घोर यातना है।
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1. अर्थात अह्ले किताब (यहूदी व ईसाई)।
जिस दिन बहुत-से मुख उजले तथा बहुत-से मुख काले होंगे। फिर जिनके मुख काले होंगे (उनसे कहा जायेगाः) क्या तुमने अपने ईमान के पश्चात् कुफ़्र कर लिया था? तो अपने कुफ़्र करने का दण्ड चखो।
तथा जिनके मुख उजले होंगे, वे अल्लाह की दया (स्वर्ग) में रहेंगे। व उसमें सदावासी होंगे।
ये अल्लाह की आयतें हैं, जो हम आपको ह़क़ के साथ सुना रहे हैं तथा अल्लाह संसार वासियों पर अत्याचार नहीं करना चाहता।
तथा अल्लाह ही का है, जो आकाशों में और जो धरती में है तथा अल्लाह ही की ओर सब विषय फेरे जायेंगे।
तुम, सबसे अच्छी उम्मत हो, जिसे सब लोगों के लिए उत्पन्न किया गया है कि तुम भलाई का आदेश देते हो तथा बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान (विश्वास) रखते[1] हो। यदि अह्ले किताब ईमान लाते, तो उनके लिए अच्छा होता। उनमें कुछ ईमान वाले हैं और अधिक्तर अवज्ञाकारी हैं।
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1. इस आयत में मुसलमानों को संबोधित किया गया है, तथा उन्हें उम्मत कहा गया है। किसी जाति अथवा वर्ग और वर्ण के नाम से संबोधित नहीं किया गया है। और इस में यह संकेत है कि मुसलमान उन का नाम है जो सत्धर्म के अनुयायी हों। तथा उन के अस्तित्व का लक्ष्य यह बताया गया है कि वह सम्पूर्ण मानव विश्व को सत्धर्म इस्लाम की ओर बुलायें जो सर्व मानव जाति का धर्म है। किसी विशेष जाति और क्षेत्र अथवा देश का धर्म नहीं है।
वे तुम्हें सताने के सिवा कोई हानि पहुँचा नहीं सकेंगे और यदि तुमसे युध्द करेंगे, तो वे तुम्हें पीठ दिखा देंगे। फिर सहायता नहीं दिए जायेंगे।
इन (यहूदियों) पर जहाँ भी रहें, अपमान थोंप दिया गया है, (ये और बात है कि) अल्लाह की शरण[1] अथवा लोगों की शरण में हों[2], ये अल्लाह के प्रकोप के अधिकारी हो गये तथा इनपर दरिद्रता थोंप दी गयी। ये इस कारण हुआ कि ये अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र कर रहे थे और नबियों का अवैध वध कर रहे थे। ये इस कारण कि इन्होंने अवज्ञा की और (धर्म की) सीमा का उल्लंघन कर रहे थे।
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1. अल्लाह की शरण से अभिप्राय इस्लाम धर्म है। 2.दूसरा बचाव का तरीक़ा यह है कि किसी ग़ैर मुस्लिम शक्ति की उन्हें सहायता प्राप्त हो जाये।
वे सभी समान नहीं हैं; अह्ले किताब में एक( सत्य पर) स्थित उम्मत[1] भी है, जो अल्लाह की आयतें रातों में पढ़ते हैं तथा सज्दा करते रहते हैं।
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1. अर्थात जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाये। जैसे अब्दुल्लाह बिन सलाम (रज़ियल्लाहु अन्हु) आदि।
अल्लाह तथा अंतिम दिन (प्रलय) पर ईमान रखते हैं, भलाई का आदेश देते हैं, बुराई से रोकते हैं, भलाईयों में अग्रसर रहते हैं और यही सदाचारियों में हैं।
वे, जो भी भलाई करेंगे, उसकी उपेक्षा (अनादर) नहीं की जायेगी और अल्लाह आज्ञाकारियों को भली-भाँति जानता है।
(परन्तु) जो काफ़िर[1] हो गये, उनके धन और उनकी संतान अल्लाह (की यातना) से उन्हें तनिक भी बचा नहीं सकेगी तथा वही नारकी हैं, वही उसमें सदावासी होंगे।
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1. अर्थात अल्लाह की आयतों (क़ुर्आन) को नकार दिया।
जो दान, वे इस सांसारिक जीवन में करते हैं, वो उस वायु के समान है, जिसमें पाला हो, जो किसी क़ौम की खेती को लग जाये, जिन्होंने अपने ऊपर अत्याचार[1] किया हो और उसका नाश कर दे तथा अल्लाह ने उनपर अत्याचार नहीं किया, परन्तु वे स्वयं अपने ऊपर अत्याचार कर रहे थे।
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1. अवैज्ञा तथा अस्वीकार करते रहे थे। इस में यह संकेत है कि अल्लाह पर ईमान के बिना दानों का प्रतिफल परलोक में नहीं मिलेगा।
हे ईमान वालो! अपनों के सिवा किसी को अपना भेदी न बनाओ[1], वे तुम्हारा बिगाड़ने में तनिक भी नहीं चूकेंगे, उनहें वही बात भाती है, जिससे तुम्हें दुःख हो। उनके मुखों से शत्रुता खुल चुकी है तथा जो उनके दिल छुपा रहे हैं, वो इससे बढ़कर है। हमने तुम्हारे लिए आयतों का वर्णन कर दिया है, यदि तुम समझो।
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1. अर्थात वह ग़ैर मुस्लिम जिन पर तुम को विश्वास नहीं कि वह तुम्हारे लिये किसी प्रकार की अच्छी भावना रखते हों।
सावधान! तुमही वो हो कि उनसे प्रेम करते हो, जबकि वे तुमसे प्रेम नहीं करते और तुम सभी पुस्तकों पर ईमान रखते हो, जबकि वे जब तुमसे मिलते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान लाये और जब अकेले होते हैं, तो क्रोध से तुमपर उँगलियों की पोरें चबाते हैं। कह दो कि अपने क्रोध से मर जाओ। निःसंदेह अल्लाह सीनों की बातों को जानता है।
यदि तुम्हारा कुछ भला हो, तो उन्हें बुरा लगता है और यदि तुम्हारा कुछ बुरा हो जाये, तो वे उससे प्रसन्न हो जाते हैं। अलबत्ता, यदि तुम सहन करते रहे और आज्ञाकारी रहे, तो उनका छल तुम्हें कोई हानि नहीं पहुँचायेगा। उनके सभी कर्म अल्लाह के घेरे में हैं।
तथा (हे नबी! वो समय याद करें) जब आप प्रातः अपने घर से निकले, ईमान वालों को युध्द[1] के स्थानों पर नियुक्त कर रहे थे तथा अल्लाह सब कुछ सुनने-जानने वाला है।
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1. साधारण भाष्यकारों ने इसे उह़ुद के युध्द से संबंधित माना है। जो बद्र के युध्द के पश्चात् सन् 3 हिज्री में हुआ। जिस में क़ुरैश ने बद्र की प्राजय का बदला लेने के लिये तीन हज़ार की सेना के साथ उह़ुद पर्वत के समीप पड़ाव डाल दिया। जब आप को इस की सूचना मिली तो मुसलमानों से प्रामर्श किया। अधिकांश की राय हुई कि मदीना नगर से बाहर निकल कर युध्द किया जाये। और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक हज़ार मुसलमानों को ले कर निकले। जिस में से अब्दुल्लाह बिन उबय्य मुनाफ़िक़ों का मुख्या अपने तीन सौ साथियों के साथ वापिस हो गया। आप ने रणक्षेत्र में अपने पीछे से शत्रु के आक्रमण से बचाव के लिये 70 धनुर्धरों को नियुक्त कर दिया। और उन का सेनापति अब्दुल्लाह बिन जुबैर को बना दिया। तथा यह आदेश दिया कि कदापि इस स्थान को न छोड़ना। युध्द आरंभ होते ही क़ुरैश पराजित हो कर भाग खड़े हुये। यह देख कर धनुर्धरों में से अधिकांश ने अपना स्थान छोड़ दिया। क़ुरैश के सेनापति ख़ालिद पुत्र वलीद ने अपने सवारों के साथ फिर कर धनुर्धरों के स्थान पर आक्रमण कर दिया। फिर आकस्मात् मुसलमानों पर पीछे से आक्रमण कर के उन की विजय को पराजय में बदल दिया। जिस में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी आघात पहुँचा। (तफ़्सीर इब्ने कसीर।)
तथा (याद करें) जब आपमें से दो गिरोहों[1] ने कायरता दिखाने का विचार किया और अल्लाह उनका रक्षक था तथा ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए।
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1. अर्थात दो क़बीले बनू सलमा तथा बनू हारिसा ने भी अब्दुल्लाह बिन उबय्य के साथ वापिस हो जाना चाहा। (सह़ीह़ बुख़ारी ह़दीसः4558)
अल्लाह बद्र में तुम्हारी सहायता कर चुका है, जब तुम निर्बल थे। अतः अल्लाह से डरते रहो, ताकि उसके कृतज्ञ रहो।
(हे नबी! वो समय भी याद करें) जब आप ईमान वालों से कह रहे थेः क्या तुम्हारे लिए ये बस नहीं है कि अल्लाह तुम्हें (आकाश से) उतारे हुए, तीन हज़ार फ़रिश्तों द्वारा समर्थन दे?
क्यों[1] नहीं? यदि तुम सहन करोगे, आज्ञाकारी रहोगे और वे (शत्रु) तुम्हारे पास अपनी उत्तेजना के साथ आ गये, तो तुम्हारा पालनहार तुम्हें (तीन नहीं,) पाँच हज़ार चिन्ह[2] लगे फ़रिश्तों द्वारा समर्थन देगा।
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1. अर्थात इतना समर्थन बहुत है। 2. अर्थात उन पर तथा उन के घोड़ों पर चिन्ह लगे होंगे।
और अल्लाह ने इसे तुम्हारे लिए केवल शुभ सूचना बनाया है और ताकि तुम्हारे दिलों को संतोष हो जाये और समर्थन तो केवल अल्लाह ही के पास से है, जो प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
ताकि[1] वह काफ़िरों का एक भाग काट दे अथवा उन्हें अपमानित कर दे। फिर वे असफल वापस हो जायेँ।
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1. अर्थात अल्लाह तुम्हें फ़रिश्तों द्वारा समर्थन इस लिये देगा, ताकि काफ़िरों का कुछ बल तोड़ दे, और उन्हें निष्फल वापिस कर दे।
हे नबी! इस[1] विषय में आपको कोई अधिकार नहीं, अल्लाह चाहे तो उनकी क्षमा याचना स्वीकार[2] करे या दण्ड[3] दे, क्योंकि वे अत्याचारी हैं।
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1. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़ज्र की नमाज़ में रुकूअ के पश्चात यह प्रार्थना करते थे कि हे अल्लाह! अमुक को अपनी दया से दूर कर दे। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुखारीः4559) 2. अर्थात उन्हें मार्गदर्शन दे। 3. यदि काफ़िर ही रह जायें।
अल्लाह ही का है, जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, वह जिसे चाहे, क्षमा करे और जिसे चाहे, दण्ड दे तथा अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
हे ईमान वालो! कई-कई गुणा करके ब्याज[1] न खाओ तथा अल्लाह से डरो, ताकि सफल हो जाओ।
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1. उह़ुद की पराजय का कारण धन का लोभ बना था। इस लिये यहाँ ब्याज से सावधान किया जा रहा है, जो धन के लोभ का अति भयावह साधन है। तथा आज्ञाकारिता की प्रेरणा दी जा रही है। कई-कई गुणा ब्याज न खाने का अर्थ यह नहीं कि इस प्रकार ब्याज न खाओ, बल्कि ब्याज अधिक हो या थोड़ी सर्वथा ह़राम (वर्जित) है। यहाँ जाहिलिय्यत के युग में ब्याज की जो रीति थी, उस का वर्णन किया गया है। जैसा कि आधुनिक युग में ब्याज पर ब्याज लेने की रीति है।
तथा उस अग्नि से बचो, जो काफ़िरों के लिए तैयार की गयी है।
तथा अल्लाह और रसूल के आज्ञाकारी रहो, ताकि तुमपर दया की जाये।
और अपने पालनहार की क्षमा और उस स्वर्ग की ओर अग्रसर हो जाओ, जिसकी चौड़ाई आकाशों तथा धरती के बराबर है, वह आज्ञाकारियों के लिए तैयार की गयी है।
जो सुविधा तथा असुविधा की दशा में दान करते रहते हैं, क्रोध पी जाते और लोगों के दोष क्षमा कर दिया करते हैं और अल्लाह सदाचारियों से प्रेम करता है।
और जब कभी वे कोई बड़ा पाप कर जायेँ अथवा अपने ऊपर अत्याचार कर लें, तो अल्लाह को याद करते हैं, फिर अपने पापों के लिए क्षमा माँगते हैं -तथा अल्लाह के सिवा कौन है, जो पापों को क्षमा करे?- और अपने किये पर जान-बूझ कर अड़े नहीं रहते।
उन्हीं का प्रतिफल (बदला) उनके पालनहार की क्षमा तथा ऐसे स्वर्ग हैं, जिनमें नहरें परवाहित हैं, जिनमें वे सदावासी होंगे। तो क्या ही अच्छा है सत्कर्मियों का ये प्रतिफल!
तुमसे पहले भी इसी प्रकार हो चुका[1] है। तुम धरती में फिरो और देखो कि झुठलाने वालों का परिणाम कैसा रहा?
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1. उहुद की पराजय पर मुसलमानों को दिलासा दी जा रही है जिस में उन के 70 व्यक्ति मारे गये। (तफ़्सीर इब्ने कसीर)
ये (क़ुर्आन) लोगों के लिए एक वर्णन, मार्गदर्शन और एक शिक्षा है, (अल्लाह से) डरने वालों के लिए।
(इसपराजय से) तुम निर्बल तथा उदासीन न बनो और तुमही सर्वोच्च रहोगे, यदि तुम ईमान वाले हो।
यदि तुम्हें कोई घाव लगा है, तो क़ौम (शत्रु)[1] को भी इसी के समान घाव लग चुका है तथा उन दिनों को हम लोगों के बीच फेरते[2] रहते हैं। ताकि अल्लाह उन लोगों को जान ले,[1] जो ईमान लाये और तुममें से साक्षी बनाये और अल्लाह अत्याचारियों से प्रेम नहीं करता।
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1. इस में क़ुरैश की बद्र में पराजय और उन के 70 व्यक्तियों के मारे जाने की ओर संकेत है। 2. अर्थात कभी किसी की जीत होती है, कभी किसी की। 3. अर्थात अच्छे बुरे में विवेक (अंतर) कर दे।
तथा ताकि अल्लाह उन्हें शुध्द कर दे, जो ईमान लाये हैं और काफ़िरों को नाश कर दे।
क्या तुमने समझ रखा है कि स्वर्ग में प्रवेश कर जाओगे? जबकि अल्लाह ने (परीक्षा करके) उन्हें नहीं जाना है, जिन्होंने तुममें से जिहाद किया है और न सहनशीलों को जाना है?
तथा तुम मौत की कामना कर[1] रहे थे, इससे पूर्व कि उसका सामना करो, तो अब तुमने उसे आँखों से देख लिया है और देख रहे हो।
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1. अर्थात अल्लाह की राह में शहीद हो जाने की।
मुह़म्मद केवल एक रसूल हैं, इससे पहले बहुत-से रसूल हो चुके हैं, तो क्या यदि वो मर गये अथवा मार दिये गये, तो तुम अपनी एड़ियों के बल[1] फिर जाओगे? तथा जो अपनी एड़ियों के बल फिर जायेगा, वो अल्लाह को कुछ हानि नहीं पहुँचा सकेगा और अल्लाह शीघ्र ही कृतज्ञों को प्रतिफल प्रदान करेगा।
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1. अर्थात इस्लाम से फिर जाओगे। भावार्थ यह है कि सत्धर्म इस्लाम स्थायी है, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के न रहने से समाप्त नहीं हो जायेगा। उह़ुद में जब किसी विरोधी ने यह बात उड़ाई कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मार दिये गये तो यह सुन कर बहुत से मुसलमान हताश हो गये। कुछ ने कहा कि अब लड़ने से क्या लाभ? तथा मुनाफ़िक़ों ने कहा कि मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) नबी होते तो मार नहीं खाते। इस आयत में यह संकेत है कि दूसरे नबियों के समान आप को भी एक दिन संसार से जाना है। तो क्या तुम उन्हीं के लिये इस्लास को मानते हो और आप नहीं रहेंगे तो इस्लाम नहीं रहेगा?
कोई प्राणी ऐसा नहीं कि अल्लाह की अनुमति के बिना मर जाये, उसका अंकित निर्धारित समय है। जो सांसारिक प्रतिफल चाहेगा, हम उसे उसमें से कुछ देंगे तथा जो परलोक का प्रतिफल चाहेगा, हम उसे उसमें से देंगे और हम कृतज्ञों को शीघ्र ही प्रतिफल देंगे।
कितने ही नबी थे, जिनके साथ होकर बहुत-से अल्लाह वालों ने युध्द किया, तो वे अल्लाह की राह में आयी आपदा पर न आलसी हुए, न निर्बल बने और न (शत्रु से) दबे तथा अल्लाह धैर्यवानों से प्रेम करता है।
तथा उनका कथन बस यही था कि उन्होंने कहाः हे हमारे पालनहार! हमारे लिए हमारे पापों को क्षमा कर दे तथा हमारे विषय में हमारी अति को। और हमारे पैरों को दृढ़ कर दे और काफ़िर जाति के विरुध्द हमारी सहायता कर।
तो अल्लाह ने उन्हें सांसारिक प्रतिफल तथा आख़िरत (परलोक) का अच्छा प्रतिफल प्रदान कर दिया तथा अल्लाह सुकर्मियों से प्रेम करता है।
हे ईमान वालो! यदि तुम काफ़िरों की बात मानोगे, तो वे तुम्हें तुम्हारी एड़ियों के बल फेर देंगे और तुम फिर से क्षति में पड़ जाओगे।
बल्कि अल्लाह तुम्हारा रक्षक है तथा वह सबसे अच्छा सहायक है।
शीघ्र ही हम काफ़िरों के दिलों में तुम्हारा भय डाल देंगे, इस कारण कि उन्होंने अल्लाह का साझी उसे बना लिया है, जिसका कोई तर्क (प्रमाण) अल्लाह ने नहीं उतारा है और इनका आवास नरक है और वह क्या ही बुरा आवास है?
तथा अल्लाह ने तुमसे अपना वचन सच कर दिखाया है, जब तुम उसकी अनुमति से, उनहें काट[1] रहे थे, यहाँ तक कि जब तुमने कायरता दिखायी तथा (रसूल के) आदेश[2] में विभेद कर लिया और अवज्ञा की, इसके पश्चात् कि तुम्हें वह (विजय) दिखा दी, जिसे तुम चाहते थे। तुममें से कुछ संसार चाहते हैं तथा कुछ परलोक चाहते हैं। फिर तुम्हें उनसे फेर दिया, ताकि तुम्हारी परीक्षा ले और तुम्हें क्षमा कर दिया तथा अल्लाह ईमान वालों के लिए दानशील है।
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1. अर्थात उह़ुद के आरंभिक क्षणों में। 2. अर्थात कुछ धनुर्धरों ने आप के आदेश का पालन नहीं किया, और परिहार का धन संचित करने के लिये अपना स्थान त्याग दिया, जो पराजय का कारण बन गया। और शत्रु को उस दिशा से आक्रमण करने का अवसर मिल गया।
(और याद करो) जब तुम चढ़े (भागे) जा रहे थे और किसी की ओर मुड़कर नहीं देख रहे थे और रसूल तुम्हें तुम्हारे पीछे से पुकार[1] रहे थे, तो (अल्लाह ने) तुम्हें शोक के बदले शोक दे दिया, ताकि जो तुमसे खो गया और जो दुख तुम्हें पहुँचा, उसपर उदासीन न हो तथा अल्लाह उससे सूचित है, जो तुम कर रहे हो।
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2. बराअ बिन आज़िब कहते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उह़ुद के दिन अब्दुल्लाह बिन जुबैर को पैदल सेना पर रखा। और वह पराजित हो कर आ गये, इसी के बारे में यह आयत है। उस समय नबी के साथ बारह व्यक्ति ही रह गये। (सह़ीह़ बुख़ारीः4561)
फिर तुमपर शोक के पश्चात् शान्ति (ऊँघ) उतार दी, जो तुम्हारे एक गिरोह[1] को आने लगी और एक गिरोह को अपनी[2] पड़ी हुई थी। वे अल्लाह के बारे में असत्य जाहिलिय्यत की सोच सोच रहे थे। वे कह रहे थे कि क्या हमारा भी कुछ अधिकार है? (हे नबी!) कह दें कि सब अधिकार अल्लाह को है। वे अपने मनों में जो छुपा रहे थे, आपको नहीं बता रहे थे। वे कह रहे थे कि यदि हमारा कुछ भी अधिकार होता, तो यहाँ मारे नहीं जाते। आप कह दें: यदि तुम अपने घरों में रहते, तबभी जिनके (भाग्य में) मारा जाना लिखा है, वे अपने निहत होने के स्थानों की ओर निकल आते और ताकि अल्लाह जो तुम्हारे दिलों में है, उसकी परीक्षा ले तथा जो तुम्हारे दिलों में है, उसे शुध्द कर दे और अल्लाह दिलों के भेदों से अवगत है।
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1. अबु तल्हा रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहाः हम उह़ुद में ऊँघने लगे। मेरी तलवार मेरे हाथ से गिरने लगती और मैं पकड़ लेता, फिर गिरने लगती और पकड़ लेता।(सह़ीह़ बुख़ारीः4562) 2.यह मुनाफ़िक़ लोग थे।
वस्तुतः तुममें से जिन्होंने दो गिरोहों के सम्मुख होने के दिन मुँह फेर लिया, शैतान ने उनहें उनके कुछ कुकर्मों के कारण फिसला दिया तथा अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया है। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील सहनशील है।
हे ईमान वालो! उनके समान न हो जाओ, जो काफ़िर हो गये तथा अपने भाईयों से -जब यात्रा में हों अथवा युध्द में- कहा कि यदि वे हमारे पास होते, तो न मरते और न मारे जाते, ताकि अल्लाह उनके दिलों में इसे संताप बना दे और अल्लाह ही जीवित करता तथा मौत देता है और अल्लाह जो तुम कर रहे हो, उसे देख रहा है।
यदि तुम अल्लाह की राह में मार दिये जाओ अथवा मर जाओ, तो अल्लाह की क्षमा उससे उत्तम है, जो, लोग एकत्र कर रहे हैं।
तथा यदि तुम मर गये अथवा मार दिये गये, तो अल्लाह ही के पास एकत्र किये जाओगे।
अल्लाह की दया के कारण ही आप उनके लिए[1] कोमल (सुशील) हो गये और यदि आप अक्खड़ तथा कड़े दिल के होते, तो वे आपके पास से बिखर जाते। अतः, उन्हें क्षमा कर दो और उनके लिए क्षमा की प्रार्थना करो तथा उनसे भी मामले में प्रामर्श करो, फिर जब कोई दृढ़ संकल्प ले लो, तो अल्लाह पर भरोसा करो। निःसंदेह, अल्लाह भरोसा रखने वालों से प्रेम करता है।
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1. अर्थात अपने साथियों के लिये, जो उह़ुद में रणक्षेत्र से भाग गये।
यदि अल्लाह तुम्हारी सहायता करे, तो तुमपर कोई प्रभुत्व नहीं पा सकता तथा यदि तुम्हारी सहायता न करे, तो फिर कौन है, जो उसके पश्चात तुम्हारी सहायता कर सके? अतः ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिये।
किसी नबी के लिए योग्य नहीं कि अपभोग[1] करे और जो अपभोग करेगा, प्रलय के दिन उसे लायेगा। फिर प्रत्येक प्राणी को, उसकी कमाई का भरपूर प्रतिकार (बदला) दिया जायेगा तथा उनपर अत्याचार नहीं किया जायेगा।
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1. उह़ुद के दिन जो अपना स्थान छोड़ कर इस विचार से आ गये कि यदि हम न पहुँचे, तो दूसरे लोग ग़नीमत का सब धन ले जायेंगे, उन्हें यह चेतावनी दी जा रही है कि तुमने यह कैसे सोच लिया कि इस धन में से तुम्हारा भाग नहीं मिलेगा, क्या तुम्हें नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की अमानत पर भरोसा नहीं है? सुन लो! नबी से किसी प्रकार का अपभोग असम्भव है। यह घोर पाप है जो कोई नबी कभी नहीं कर सकता।
तो क्या जिसने अल्लाह की प्रसन्नता का अनुसरण किया हो, उसके समान हो जायेगा, जो अल्लाह का क्रोध[1] लेकर फिरा और उसका आवास नरक है?
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1. अर्थात् पापों में लीन रहा।
अल्लाह के पास उनकी श्रेणियाँ हैं तथा अल्लाह उसे देख[1] रहा है, जो वे कर रहे हैं।
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1. अर्थात लोगों के कर्मों के अनुसार उन की अलग अलग श्रेणियाँ हैं।
अल्लाह ने ईमान वालों पर उपकार किया है कि उनमें उन्हीं में से एक रसूल भेजा, जो उनके सामने (अल्लाह) की आयतें पढ़ता है, उन्हें शुध्द करता है तथा उन्हें पुस्तक (क़ुर्आन) और ह़िक्मत (सुन्नत) की शिक्षा देता है, यद्यपि वे इससे पहले खुले कुपथ में थे।
तथा जब तुम्हें एक दुःख पहुँचा,[1] जबकि इसके दुगना (दुःख) तुमने (उन्हें) पहुँचाया है[2], तो तुमने कह दिया कि ये कहाँ से आ गया? (हे नबी!) कह दोः ये तुम्हारे पास से[3] आया है। वास्तव में, अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
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1. अर्थात उह़ुद के दिन। 2. अर्थात बद्र के दिन। 3. अर्थात तुम्हारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आदेश का विरोध करने के कारण आया, जो धनुर्धरों को दिया गया था।
तथा जो भी आपदा, दो गिरोहों के सम्मुख होने के दिन, तुमपर आई, तो वो अल्लाह की अनुमति से (आई)। ताकि वह ईमान वालों को जान ले।
और ताकि उन्हें जान ले, जो मुनाफ़िक़ हैं। (जब) उनसे कहा गया कि आओ, अल्लाह की राह में युध्द करो अथवा रक्षा करो, तो उन्होंने कहा कि यदि हम युध्द होना जानते, तो अवश्य तुम्हारा साथ देते। वे उस दिन ईमान से अधिक कुफ़्र के समीप थे, व अपने मुखों से ऐसी बात बोल रहे थे, जो उनके दिलों में नहीं थी तथा अल्लाह, जिसे वे छुपा रहे थे, अधिक जानता था।
इन्होंने ही अपने भाईयों से कहा और (स्वयं घरों में) आसीन रह गयेः यदि वे हमारी बात मानते, तो मारे नहीं जाते! (हे नबी!) कह दोः फिर तो मौत से[1] अपनी रक्षा कर लो, यदि तुम सच्चे हो।
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1. अर्थात अपने उपाय से सदाजीवी हो जाओ।
जो अल्लाह की राह में मार दिये गये, तो तुम उन्हें मरा हुआ न समझो, बल्कि वे जीवित हैं[1], अपने पालनहार के पास जीविका दिये जा रहे हैं।
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1. शहीदों का जीवन कैसा होता है? ह़दीस में है कि उन की आत्मायें हरे पक्षियों के भीतर रख दी जाती हैं और वह स्वर्ग में चुगते तथा आनन्द लेते फिरते हैं। (सह़ीह़ मुस्लिम, ह़दीसः1887)
तथा उससे प्रसन्न हैं, जो अल्लाह ने उन्हें अपनी दया से प्रदान किया है और उनके लिए प्रसन्न (हर्षित) हो रहे हैं, जो उनसे मिले नहीं, उनके पीछे[1] रह गये हैं कि उन्हें कोई डर नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे।
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1. अर्थात उन मुजाहिदीन के लिये जो अभी संसार में जीवित रह गये हैं।
वे अल्लाह के पुरस्कार और प्रदान के कारण प्रसन्न हो रहे हैं तथा इसपर कि अल्लाह ईमान वालों का प्रतिफल व्यर्थ नहीं करता।
जिन्होंने अल्लाह और रसूल की पुकार स्वीकार[1] की, इसके पश्चात् कि उन्हें आघात पहुँचा, उनमें से उनके लिए जिन्होंने सुकर्म किया तथा (अल्लाह से) डरे, महा प्रतिफल है।
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1. जब काफ़िर उह़ुद से मक्का वापिस हुये तो मदीने से 30 मील दूर "रौह़ाअ" से फिर मदीना वापिस आने का निश्चय किया। जब आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सूचना मिली, तो सेना ले कर "ह़मराउल असद" तक पहुँचे जिसे सुन कर वह भाग गये। इधर मुसलमान सफल वापिस आये। इस आयत में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों की सराहना की गई है जिन्हों ने उह़ुद में घाव खाने के पश्चात भी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का साथ दिया। यह आयतें ईसी से संबंधित हैं।
ये वे लोग हैं, जिनसे लोगों ने कहा कि तुम्हारे लिए लोगों (शत्रु) ने (वापिस आने का) संकल्प[1] लिया है। अतः उनसे डरो, तो इस (सूचना) ने उनके ईमान को और अधिक कर दिया और उन्होंने कहाः हमें अल्लाह बस है और वह अच्छा काम बनाने वाला है।
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1. अर्थात शत्रु ने मक्का जाते हुये राह में सोचा कि मुसलमानों के परास्त हो जाने पर यह अच्छा अवसर था कि मदीने पर आक्रमण करके उन का उनमूलन कर दिया जाये, तथा वापिस आने का निश्चय किया। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)
तथा अल्लाह के अनुग्रह एवं दया के साथ[1] वापिस हुए। उन्हें कोई दुःख नहीं पहुँचा तथा अल्लाह की प्रसन्नता पर चले और अल्लाह बड़ा दयाशील है।
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1. अर्थात "ह़मराउल असद" से मदीन वापिस हुये।
वह शैतान है, जो तुम्हें अपने सहयोगियों से डरा रहा है, तो उनसे[1] न डरो तथा मुझी से डरो यदि तुम ईमान वाले हो।
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1. अर्थात मिश्रणवादियों से।
(हे नबी!) आपको वे काफ़िर उदासीन न करें, जो कुफ़्र में अग्रसर हैं, वे अल्लाह को कोई हानि नहीं पहुँचा सकेंगे। अल्लाह चाहता है कि आख़िरत (परलोक) में उनका कोई भाग न बनाये तथा उन्हीं के लिए घोर यातना है।
वस्तुतः जिन्होंने ईमान के बदले कुफ़्र खरीद लिया, वे अल्लाह को कोई हानि नहीं पहुँचा सकेंगे तथा उन्हीं के दुःखदायी यातना है।
जो काफ़िर हो गये, वे कदापि ये न समझें कि हमारा उन्हें अवसर[1] देना, उनके लिए अच्छा है, वास्तव में, हम उन्हें इसलिए अवसर दे रहे हैं कि उनके पाप[2] अधिक हो जायेँ तथा उन्हीं के लिए अपमानकारी यातना है।
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1. अर्थात उन्हें संसारिक सुःख सुविधा देना। भावार्थ यह है कि इस संसार में अल्लाह, सत्योसत्य, न्याय तथा अत्याचार सब के लिये अवसर देता है। परन्तु इस से धोखा नहीं खाना चाहिये, यह देखना चाहिये कि परलोक की सफलता किस में है। सत्य ही स्थायी है तथा असत्य को ध्वस्त हो जाना है। 2. यह स्वभाविक नियम है कि पाप करने से पापाचारी में पाप करने की भावना अधिक हो जाती है।
अल्लाह ऐसा नहीं है कि ईमान वालों को उसी (दशा) पर छोड़ दे, जिसपर तुम हो, जब तक बुरे को अच्छे से अलग न कर दे और अल्लाह ऐसा (भी) नहीं है कि तुम्हें ग़ैब (परोक्ष) से[1] सूचित कर दे, परन्तु अल्लाह अपने रसूलों में से (परोक्ष पर अवगत करने के लिए) जिसे चाहे, चुन लेता है तथा यदि तुम ईमान लाओ और अल्लाह से डरते रहो, तो तुम्हारे लिए बड़ा प्रतिफल है।
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1. अर्थात तुम्हें बता दे कि कौन ईमान वाला और कौन दुविधावादी है।
वे लोग कदापि ये न समझें, जो उसमें कृपण (कंजसी) करते हैं, जो अल्लाह ने उन्हों अपनी दया से प्रदान किया[1] है कि वह उनके लिए अच्छा है, बल्कि वह उनके लिए बुरा है, जिसमें उन्होंने कृपण किया है। प्रलय के दिन उसे उनके गले का हार[2] बना दिया जायेगा और आकाशों तथा धरती की मीरास (उत्तराधिकार) अल्लाह के[3] लिए है तथा अल्लाह जो कुछ तुम करते हो, उससे सूचित है।
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1. अर्थात धन-धान्य की ज़कात नहीं देते। 2. सह़ीह़ बुखारी में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः जिसे अल्लाह ने धन दिया है, और वह उस की ज़कात नहीं देता तो प्रलय के दिन उस का धन गंजा सर्प बना दिया जायेगा, जो उस के गले का हार बन जायेगा। और उसे अपने जबड़ों से पकड़ेगा, तथा कहेगा कि मैं तुम्हारा कोष हुँ मैं तुम्हारा धन हूँ। (सह़ीह़ बुख़ारीः4565) 3. अर्थात प्रलय के दिन वही अकेला सब का स्वामी होगा।
अल्लाह ने उनकी बात सुन ली है, जिन्होंने कहा कि अल्लाह निर्धन और हम धनी[1] हैं, उन्होंने जो कुछ कहा है, हम उसे लिख लेंगे और उनके नबियों की अवैध हत्या करने को भी, तथा कहेंगे कि दहन की यातना चखो।
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1. यह बात यहूदियों ने कही थी। (देखियेः सूरह बक़रह, आयतः254)
ये तुम्हारे करतूतों का दुष्परिणाम है तथा वास्तव में, अल्लाह बंदों के लिए तनिक भी अत्याचारी नहीं है।
जिन्होंने कहाः अल्लाह ने हमसे वचन लिया है कि किसी रसूल का विश्वास न करें, जब तक हमारे समक्ष ऐसी बली न दें, जिसे अग्नि खा[1] जाये। (हे नबी!) आप कह दें कि मुझसे पूर्व बहुत-से रसूल खुली निशानियाँ और वो चीज़ लाये, जो तुमने कही, तो तुमने उनकी हत्या क्यों कर दी, यदि तुम सच्चे हो तो?
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1. अर्थात आकाश से अग्नि आ कर जला दे, जो उस के स्वीकार्य होने का लक्षण है।
फिर यदि इन्होंने[1] आपको झुठला दिया, तो आपसे पहले भी बहुत-से रसूल झुठलाये गये हैं, जो खुली निशानियाँ तथा (आकाशीय) ग्रंथ और प्रकाशक पुस्तकें लाये[2]।
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1. अर्थात यहूद आदि ने। 2. प्रकाशक जो सत्य को उजागर कर दे।
प्रत्येक प्राणी को मौत का स्वाद चखना है और तुम्हें, तुम्हारे कर्मों का प्रलय के दिन भरपूर प्रतिफल दिया जायेगा, तो (उस दिन) जो व्यक्ति नरक से बचा लिया गया तथा स्वर्ग में प्रवेश पा गया[1], तो वह सफल हो गया तथा सांसारिक जीवन धोखे की पूंजी के सिवा कुछ नहीं है।
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1. अर्थात सत्य आस्था और सत्कर्मों के द्वारा इस्लाम के नियमों का पालन करके।
(हे ईमान वालो!) तुम्हारे धनों तथा प्राणों में तुम्हारी परीक्षा अवश्य ली जायेगी और तुम उनसे अवश्य बहुत सी दुःखद बातें सुनोगे, जो तुमसे पूर्व पुस्तक दिये गये तथा उनसे जो मिश्रणवादी[1] हैं। अब यदि तुमने सहन किया और (अल्लाह से) डरते रहे, तो ये बड़ी साहस की बात होगी।
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1. मिश्रणवादी अर्थात मूर्तियों के पुजारी, जो पूजा अर्चना तथा अल्लाह के विशेष गुणों में अन्य को उस का साझी बनाते हैं।
तथा (हे नबी! याद करो) जब अल्लाह ने उनसे दृढ़ वचन लिया था, जो पुस्तक[1] दिये गये कि तुम अवश्य इसे लोगों के लिए उजागर करते रहोगे और इसे छुपाओगे नहीं। तो उन्होंने इस वचन को अपने पीछे डाल दिया (भंग कर दिया) और उसके बदले तनिक मूल्य खरीद[2] लिया। तो वे कितनी बुरी चीज़ खरीद रहे हैं?
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1. जो पुस्तक दिये गये, अर्थातः यहूद और नसारा (ईसाई) जिन्हें तौरात तथा इंजील दी गई। 2. अर्थात तुच्छ संसारिक लाभ के लिये सत्य का सौदा करने लगे।
(हे नबी!) जो[1] अपने करतूतों पर प्रसन्न हो रहे हैं और चाहते हैं कि उन कर्मों के लिए सराहे जायें, जो उन्होंने नहीं किये। आप उन्हें कदापि न समझें कि यातना से बचे रहेंगे तथा (वास्तविकता ये कि) उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।
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1. अबू सईद रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि कुछ द्विधावादी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में आप युध्द के लिये निकलते तो आप का साथ नहीं देते थे। और इस पर प्रसन्न होते थे और जब आप वापिस होते तो बहाने बनाते और शपथ लेते थे। और जो नहीं किया है, उस की सराहना चाहते थे। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4567)
तथा आकाशों और धरती का राज्य अल्लाह ही का है तथा अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
वस्तुतः आकाशों तथा धरती की रचना और रात्रि तथा दिवस के एक के पश्चात् एक आते-जाते रहने में, मतिमानों के लिए बहुत सी निशानियाँ (लक्षण)[1] हैं।
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1. अर्थात अल्लाह के राज्य, स्वामित्व तथा एकमात्र पूज्य होने के।
जो खड़े, बैठे तथा सोए (प्रत्येक स्थिति में,) अल्लाह की याद करते तथ आकाशों और धरती की रचना में विचार करते रहते हैं। (कहते हैः) हे हमारे पालनहार! तूने ये सब[1] व्यर्थ नहीं रचा है। हमें अग्नि के दण्ड से बचा ले।
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1. अर्थात यह विचित्र रचना तथा व्यवस्था अकारण नहीं तथा आवश्यक है कि इस जीवन के पश्चात भी कोई जीवन हो जिस में इस जीवन के कर्मों के परिणाम सामने आयें।
हे हमारे पालनहार! तूने जिसे नरक में झोंक दिया, उसे अपमानित कर दिया और अत्याचारियों का कोई सहायक न होगा।
हे हमारे पालनहार! हमने एक[1] पुकारने वाले को ईमान के लिए पुकारते हुए सुना कि अपने पालनहार पर ईमान लाओ, तो हम ईमान ले आये। हे हमारे पालनहार! हमारे पाप क्षमा कर दे तथा हमारी बुराईयों को अनदेखी कर दे तथा हमारी मौत पुनीतों (सदाचारियों) के साथ हो।
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1. अर्थात अन्तिम नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को।
हे हमारे पालनहार! हमें, तूने रसूलों द्वारा जो वचन दिया है, हमें वो प्रदान कर तथा प्रलय के दिन हमें अपमानित न कर, वास्तव में तू वचन विरोधी नहीं है।
तो उनके पालनहार ने उनकी (प्रार्थना) सुन ली, (तथा कहा किः) निःसंदेह मैं किसी कार्यकर्ता के कार्य को व्यर्थ नहीं करता[1], नर हो अथवा नारी। तो जिन्होंने हिजरत (प्रस्थान) की, अपने घरों से निकाले गये, मेरी राह में सताये गये और युध्द किया तथा मारे गये, तो हम अवश्य उनके दोषों को क्षमा कर देंगे तथा उन्हें ऐसे स्वर्गों में प्रवेश देंगे, जिनमें नहरें बह रही हैं। ये अल्लाह के पास से उनका प्रतिफल होगा और अल्लाह ही के पास अच्छा प्रतिफल है।
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1. अर्थात अल्लाह का यह नियम है कि वह सत्कर्म अकारथ नहीं करता, उस का प्रतिफल अवश्य देता है।
(हे नबी!) नगरों में काफ़िरों का (सुविधा के साथ) फिरना आपको धोखे में न डाल दे।
ये तनिक लाभ[1] है, फिर उनका स्थान नरक है और वह क्या ही बुरा आवास है!
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1. अर्थात सामयिक संसारिक आनंद है।
परन्तु जो अपने पालनहार से डरे, तो उनके लिए ऐसे स्वर्ग हैं, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं। उनमें वे सदावासी होंगे। ये अल्लाह के पास से अतिथि सत्कार होगा तथा जो अल्लाह के पास है, पुनीतों के लिए उत्तम है।
और निःसंदेह अह्ले किताब (अर्थात यहूद और ईसाई) में से कुछ ऐसे भी हैं, जो अल्लाह पर ईमान रखते हैं और तुम्हारी ओर जो उतारा गया है, उसपर भी, अल्लाह से डरे रहते हैं और उसकी आयतों को थोड़ी थोड़ी क़ीमतों पर बेचते भी नहीं[1]। उनका बदला उनके रब के पास है। निःसंदेह अल्लाह जल्दी ही हिसाब लेने वाला है।
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1. अर्थात यह यहूदियों और ईसाइयों का दूसरा समुदाय है, जो अल्लाह पर और उस की किताबों पर सह़ीह़ प्रकार से ईमान रखता था। और सत्य को स्वीकार करता था। तथा इस्लाम और रसूल तथा मुसलमानों के विपरीत साज़िशें नहीं करता था। और चन्द टकों के कारण अल्लाह के आदेशों में हेर फेर नहीं करता था।
हे ईमान वालो! तुम धैर्य रखो[1], एक-दूसरे को थामे रखो, जिहाद के लिए तैयार रहो और अल्लाह से डरते रहो, ताकि तुम अपने उद्देश्य को पहुँचो।
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1. अर्थात अल्लाह और उस के रसूल की फ़रमाँ बरदारी करके और अपनी मनमानी छोड़ कर धैर्य करो। और यदि शत्रु से लड़ाई हो जाये तो उस में सामने आने वाली परेशानियों पर डटे रहना बहुत बड़ा धैर्य है। इसी प्रकार शत्रु के बारे में सदैव चौकन्ना रहना भी बहुत बड़े साहस का काम है। इसी लिये ह़दीस में आया है कि अल्लाह के रास्ते में एक दिन मोर्चे बन्द रहना इस दुनिया और इस की तमाम चीज़ों से उत्तम है। (सह़ीह़ बुख़ारी)
سورة آل عمران
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اتصَلتْ سورةُ (آلِ عِمْرانَ) من حيث الفضلُ بسورةِ (البقرة)؛ فقد وصَفهما الرسولُ ﷺ بـ (الزَّهْراوَينِ)؛ لِما احتوتا عليه من نورٍ وهداية.

وجاءت هذه السُّورةُ ببيانِ هداية هذا الكتابِ للناس، متضمِّنةً الحوارَ مع أهل الكتاب، مُحاجِجَةً إياهم في صِدْقِ هذا الدِّين وعلوِّه على غيره، مبرهنةً لصِدْقِ النبي ﷺ بهذه الرسالة، وهَيْمنةِ هذا الدِّينِ على غيره، ونَسْخِه للأديان الأخرى؛ فمَن ابتغى غيرَ الإسلام فأمرُه ردٌّ غيرُ مقبولٍ، كما أشارت إلى غزوةِ (أُحُدٍ)، وأمرِ المسلمين بالثَّبات على هذا الدِّين.

ترتيبها المصحفي
3
نوعها
مدنية
ألفاظها
3501
ترتيب نزولها
89
العد المدني الأول
200
العد المدني الأخير
200
العد البصري
200
العد الكوفي
200
العد الشامي
200

* قوله تعالى: {إِنَّ اْلَّذِينَ يَشْتَرُونَ بِعَهْدِ اْللَّهِ وَأَيْمَٰنِهِمْ ثَمَنٗا قَلِيلًا أُوْلَٰٓئِكَ لَا خَلَٰقَ لَهُمْ فِي اْلْأٓخِرَةِ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ اْللَّهُ وَلَا يَنظُرُ إِلَيْهِمْ يَوْمَ اْلْقِيَٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمْ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٞ} [آل عمران: 77]:

ورَد عن عبدِ اللهِ بن مسعودٍ - رضي الله عنه -، عن النبيِّ ﷺ، قال: «مَن حلَفَ على يمينٍ يقتطِعُ بها مالَ امرئٍ مسلمٍ، وهو فيها فاجرٌ: لَقِيَ اللهَ وهو عليه غضبانُ»، ثم أنزَلَ اللهُ تصديقَ ذلك: {إِنَّ اْلَّذِينَ يَشْتَرُونَ بِعَهْدِ اْللَّهِ وَأَيْمَٰنِهِمْ ثَمَنٗا قَلِيلًا أُوْلَٰٓئِكَ لَا خَلَٰقَ لَهُمْ فِي اْلْأٓخِرَةِ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ اْللَّهُ وَلَا يَنظُرُ إِلَيْهِمْ يَوْمَ اْلْقِيَٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمْ وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٞ} [آل عمران: 77]، ثم إنَّ الأشعَثَ بنَ قيسٍ خرَجَ إلينا، فقال: ما يُحدِّثُكم أبو عبدِ الرَّحمنِ؟ قال: فحدَّثْناه، قال: فقال: صدَقَ؛ لَفِيَّ نزَلتْ، كانت بيني وبين رجُلٍ خصومةٌ في بئرٍ، فاختصَمْنا إلى رسولِ اللهِ ﷺ، فقال رسولُ اللهِ ﷺ: «شاهِدَاكَ أو يمينُهُ»، قلتُ: إنَّه إذًا يَحلِفُ ولا يُبالي، فقال رسولُ اللهِ ﷺ: «مَن حلَفَ على يمينٍ يستحِقُّ بها مالًا، وهو فيها فاجرٌ: لَقِيَ اللهَ وهو عليه غضبانُ»، ثم أنزَلَ اللهُ تصديقَ ذلك، ثم اقترَأَ هذه الآيةَ: {إِنَّ اْلَّذِينَ يَشْتَرُونَ بِعَهْدِ اْللَّهِ وَأَيْمَٰنِهِمْ ثَمَنٗا قَلِيلًا} إلى قوله: {وَلَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٞ} [آل عمران: 77]. أخرجه البخاري (٢٣٥٦).

* قوله تعالى: {كَيْفَ يَهْدِي اْللَّهُ قَوْمٗا كَفَرُواْ بَعْدَ إِيمَٰنِهِمْ وَشَهِدُوٓاْ أَنَّ اْلرَّسُولَ حَقّٞ وَجَآءَهُمُ اْلْبَيِّنَٰتُۚ وَاْللَّهُ لَا يَهْدِي اْلْقَوْمَ اْلظَّٰلِمِينَ ٨٦ أُوْلَٰٓئِكَ جَزَآؤُهُمْ أَنَّ عَلَيْهِمْ لَعْنَةَ اْللَّهِ وَاْلْمَلَٰٓئِكَةِ وَاْلنَّاسِ أَجْمَعِينَ ٨٧ خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ اْلْعَذَابُ وَلَا هُمْ يُنظَرُونَ ٨٨ إِلَّا اْلَّذِينَ تَابُواْ مِنۢ بَعْدِ ذَٰلِكَ وَأَصْلَحُواْ فَإِنَّ اْللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ} [آل عمران: 86-89]:

صحَّ عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ - رضي الله عنهما -، قال: «كان رجُلٌ مِن الأنصارِ أسلَمَ، ثم ارتَدَّ ولَحِقَ بالشِّرْكِ، ثم نَدِمَ، فأرسَلَ إلى قومِه: سَلُوا رسولَ اللهِ ﷺ: هل لي مِن توبةٍ؟ فجاء قومُهُ إلى رسولِ اللهِ ﷺ، فقالوا: إنَّ فلانًا قد نَدِمَ، وإنَّه قد أمَرَنا أن نسألَك: هل له مِن توبةٍ؟ فنزَلتْ: {كَيْفَ يَهْدِي اْللَّهُ قَوْمٗا كَفَرُواْ بَعْدَ إِيمَٰنِهِمْ} [آل عمران: 86] إلى {غَفُورٞ رَّحِيمٌ} [آل عمران: 89]، فأرسَلَ إليه قومُهُ، فأسلَمَ». أخرجه النسائي (٤٠٧٩).

* قوله تعالى: {وَكَيْفَ تَكْفُرُونَ وَأَنتُمْ تُتْلَىٰ عَلَيْكُمْ ءَايَٰتُ اْللَّهِ وَفِيكُمْ رَسُولُهُۥۗ وَمَن يَعْتَصِم بِاْللَّهِ فَقَدْ هُدِيَ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسْتَقِيمٖ ١٠١ يَٰٓأَيُّهَا اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ اْتَّقُواْ اْللَّهَ حَقَّ تُقَاتِهِۦ وَلَا تَمُوتُنَّ إِلَّا وَأَنتُم مُّسْلِمُونَ ١٠٢ وَاْعْتَصِمُواْ بِحَبْلِ اْللَّهِ جَمِيعٗا وَلَا تَفَرَّقُواْۚ وَاْذْكُرُواْ نِعْمَتَ اْللَّهِ عَلَيْكُمْ إِذْ كُنتُمْ أَعْدَآءٗ فَأَلَّفَ بَيْنَ قُلُوبِكُمْ فَأَصْبَحْتُم بِنِعْمَتِهِۦٓ إِخْوَٰنٗا وَكُنتُمْ عَلَىٰ شَفَا حُفْرَةٖ مِّنَ اْلنَّارِ فَأَنقَذَكُم مِّنْهَاۗ} [آل عمران: 101-103]:

عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ - رضي الله عنهما -، قال: «كان الأَوْسُ والخَزْرجُ يَتحدَّثون، فغَضِبوا، حتى كان بينهم حربٌ، فأخَذوا السِّلاحَ بعضُهم إلى بعضٍ؛ فنزَلتْ: {وَكَيْفَ تَكْفُرُونَ وَأَنتُمْ تُتْلَىٰ عَلَيْكُمْ ءَايَٰتُ اْللَّهِ} [آل عمران: 101] إلى قوله تعالى: {فَأَنقَذَكُم مِّنْهَاۗ} [آل عمران: 103]. "المعجم الكبير" للطبراني (١٢٦٦٦).

* قوله تعالى: {لَيْسَ لَكَ مِنَ اْلْأَمْرِ شَيْءٌ أَوْ يَتُوبَ عَلَيْهِمْ أَوْ يُعَذِّبَهُمْ فَإِنَّهُمْ ظَٰلِمُونَ} [آل عمران: 128]:

صحَّ عن أبي هُرَيرةَ - رضي الله عنه - أنَّه قال: «كان رسولُ اللهِ ﷺ يقولُ حين يفرُغُ مِن صلاةِ الفجرِ مِن القراءةِ ويُكبِّرُ ويَرفَعُ رأسَه: «سَمِعَ اللهُ لِمَن حَمِدَه، ربَّنا ولك الحمدُ»، ثم يقولُ وهو قائمٌ: «اللهمَّ أنْجِ الوليدَ بنَ الوليدِ، وسلَمةَ بنَ هشامٍ، وعيَّاشَ بنَ أبي ربيعةَ، والمستضعَفِينَ مِن المؤمنين، اللهمَّ اشدُدْ وَطْأتَك على مُضَرَ، واجعَلْها عليهم كَسِنِي يوسُفَ، اللهمَّ العَنْ لِحْيانَ، ورِعْلًا، وذَكْوانَ، وعُصَيَّةَ؛ عصَتِ اللهَ ورسولَه»، ثم بلَغَنا أنَّه ترَكَ ذلك لمَّا أُنزِلَ: {لَيْسَ لَكَ مِنَ الأمْرِ شَيْءٌ أوْ يَتُوبَ عَلَيْهِمْ أوْ يُعَذِّبَهُمْ فَإنَّهُمْ ظالِمُونَ}». أخرجه مسلم (675).

وعن عبدِ اللهِ بن عُمَرَ - رضي الله عنهما -: أنَّه سَمِعَ رسولَ اللهِ ﷺ إذا رفَعَ رأسَه مِن الرُّكوعِ مِن الركعةِ الآخِرةِ مِن الفجرِ يقولُ: «اللهمَّ العَنْ فلانًا وفلانًا وفلانًا» بعدما يقولُ: «سَمِعَ اللهُ لِمَن حَمِدَه، ربَّنا ولك الحمدُ»؛ فأنزَلَ اللهُ: {لَيْسَ لَكَ مِنَ اْلْأَمْرِ شَيْءٌ أَوْ يَتُوبَ عَلَيْهِمْ أَوْ يُعَذِّبَهُمْ فَإِنَّهُمْ ظَٰلِمُونَ} [آل عمران: 128]. أخرجه البخاري (٤٠٦٩).

* قوله تعالى: {ثُمَّ أَنزَلَ عَلَيْكُم مِّنۢ بَعْدِ اْلْغَمِّ أَمَنَةٗ نُّعَاسٗا يَغْشَىٰ طَآئِفَةٗ مِّنكُمْۖ وَطَآئِفَةٞ قَدْ أَهَمَّتْهُمْ أَنفُسُهُمْ} [آل عمران: 154]:

عن أنسِ بن مالكٍ - رضي الله عنه -، أنَّ أبا طَلْحةَ قال: «غَشِيَنا النُّعَاسُ ونحن في مَصافِّنا يومَ أُحُدٍ، قال: فجعَلَ سيفي يسقُطُ مِن يدي وآخُذُه، ويسقُطُ وآخُذُه؛ وذلك قولُه عز وجل: {ثُمَّ أَنزَلَ عَلَيْكُم مِّنۢ بَعْدِ اْلْغَمِّ أَمَنَةٗ نُّعَاسٗا يَغْشَىٰ طَآئِفَةٗ مِّنكُمْۖ وَطَآئِفَةٞ قَدْ أَهَمَّتْهُمْ أَنفُسُهُمْ} [آل عمران: 154]، والطائفةُ الأخرى: المنافقون، ليس لهم إلا أنفسُهم؛ أجبَنُ قومٍ وأرعَبُهُ، وأخذَلُهُ للحقِّ». أخرجه البخاري (٤٠٦٨).

* قوله تعالى: {وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَغُلَّۚ وَمَن يَغْلُلْ يَأْتِ بِمَا غَلَّ يَوْمَ اْلْقِيَٰمَةِۚ ثُمَّ تُوَفَّىٰ كُلُّ نَفْسٖ مَّا كَسَبَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ} [آل عمران: 161]:

صحَّ عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ - رضي الله عنهما - أنَّه قال: «نزَلتْ هذه الآيةُ: {وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَغُلَّۚ} في قَطيفةٍ حَمْراءَ فُقِدتْ يومَ بدرٍ، فقال بعضُ الناسِ: لعلَّ رسولَ اللهِ - ﷺ - أخَذَها؛ فأنزَلَ اللهُ: {وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَغُلَّۚ وَمَن يَغْلُلْ يَأْتِ بِمَا غَلَّ يَوْمَ اْلْقِيَٰمَةِۚ ثُمَّ تُوَفَّىٰ كُلُّ نَفْسٖ مَّا كَسَبَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ} [آل عمران: 161]». أخرجه أبو داود (٣٩٧١).

* قوله تعالى: {وَلَا تَحْسَبَنَّ اْلَّذِينَ قُتِلُواْ فِي سَبِيلِ اْللَّهِ أَمْوَٰتَۢاۚ بَلْ أَحْيَآءٌ عِندَ رَبِّهِمْ يُرْزَقُونَ} [آل عمران: 169]:

عن مسروقٍ، قال: سأَلْنا عبدَ اللهِ - هو ابنُ مسعودٍ رضي الله عنه - عن هذه الآيةِ: {وَلَا تَحْسَبَنَّ اْلَّذِينَ قُتِلُواْ فِي سَبِيلِ اْللَّهِ أَمْوَٰتَۢاۚ بَلْ أَحْيَآءٌ عِندَ رَبِّهِمْ يُرْزَقُونَ}، قال: «أمَا إنَّا قد سأَلْنا عن ذلك، فقال: أرواحُهم في جوفِ طيرٍ خُضْرٍ، لها قناديلُ معلَّقةٌ بالعرشِ، تَسرَحُ مِن الجَنَّةِ حيث شاءت، ثم تَأوي إلى تلك القناديلِ، فاطَّلَعَ إليهم ربُّهم اطِّلاعةً، فقال: هل تشتهون شيئًا؟ قالوا: أيَّ شيءٍ نشتهي ونحن نَسرَحُ في الجَنَّةِ حيث شِئْنا؟! ففعَلَ ذلك بهم ثلاثَ مرَّاتٍ، فلمَّا رأَوْا أنَّهم لن يُترَكوا مِن أن يَسألوا، قالوا: يا ربُّ، نريدُ أن ترُدَّ أرواحَنا في أجسادِنا؛ حتى نُقتَلَ في سبيلِك مرَّةً أخرى، فلمَّا رأى أنْ ليس لهم حاجةٌ، تُرِكوا». أخرجه مسلم (١٨٨٧).

سُمِّيتْ (آلُ عِمْرانَ) بهذا الاسم لذِكْرِ (آلِ عِمْرانَ) فيها، وثبَت لها اسمٌ آخَرُ؛ وهو (الزَّهْراءُ):

لِما جاء في حديث أبي أُمامةَ الباهليِّ رضي الله عنه، قال: سَمِعْتُ رسولَ الله ﷺ يقولُ: «اقرَؤُوا الزَّهْراوَينِ: البقرةَ، وسورةَ آلِ عِمْرانَ». أخرجه مسلم (804).

يقول ابنُ منظورٍ: «والزَّهْراوانِ: أي: المُنِيرتانِ المُضِيئتانِ، واحدتها: زَهْراءُ». لسان العرب (4 /332).

وقد عدَّ بعضُ العلماء أنَّ ذِكْرَ (الزَّهْراوانِ) في هذا الحديثِ هو من بابِ الوصف، لا التسمية. انظر: "التحرير والتنوير" لابن عاشور (3 /143)، "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (1 /20).

* تُحاجُّ عن صاحبِها:

صحَّ عن أبي أُمامةَ الباهليِّ رضي الله عنه، قال: سَمِعْتُ رسولَ اللهِ ﷺ يقولُ: «اقرَؤُوا القرآنَ؛ فإنَّه يأتي يومَ القيامةِ شفيعًا لأصحابِه؛ اقرَؤُوا الزَّهْراوَينِ: البقرةَ، وسورةَ آلِ عِمْرانَ؛ فإنَّهما تأتيانِ يومَ القيامةِ كأنَّهما غَمَامتانِ، أو كأنَّهما غَيَايتانِ، أو كأنَّهما فِرْقانِ مِن طيرٍ صوافَّ، تُحاجَّانِ عن أصحابِهما، اقرَؤُوا سورةَ البقرةِ؛ فإنَّ أَخْذَها برَكةٌ، وتَرْكَها حَسْرةٌ، ولا تستطيعُها البَطَلةُ». أخرجه مسلم (804).

* كان يعظُمُ بين الصحابةِ قارئُ سورةِ (آلِ عِمْرانَ):

فعن أنسٍ رضي الله عنه، قال: «كان الرَّجُلُ إذا قرَأ البقرةَ وآلَ عِمْرانَ، جَدَّ فينا - يعني: عظُمَ -»، وفي روايةٍ: «يُعَدُّ فينا عظيمًا»، وفي أخرى: «عُدَّ فينا ذا شأنٍ». أخرجه أحمد (12236).

* ورَدتْ قراءتُه ﷺ لسورة (آل عِمْران) في قيام الليل:

فعن حُذَيفةَ بن اليمانِ رضي الله عنهما، قال: «صلَّيْتُ مع رسولِ اللهِ ﷺ ذاتَ ليلةٍ، فاستفتَحَ بسورةِ البقرةِ، فقرَأَ بمائةِ آيةٍ لم يَركَعْ، فمضى، قلتُ: يَختِمُها في الرَّكعتَينِ، فمضى، قلتُ: يَختِمُها ثم يَركَعُ، فمضى حتى قرَأَ سورةَ النِّساءِ، ثم قرَأَ سورةَ آلِ عِمْرانَ، ثم ركَعَ نحوًا مِن قيامِهِ، يقولُ في ركوعِهِ: سبحانَ ربِّيَ العظيمِ، سبحانَ ربِّيَ العظيمِ، سبحانَ ربِّيَ العظيمِ، ثم رفَعَ رأسَهُ، فقال: سَمِعَ اللهُ لِمَن حَمِدَه، ربَّنا لك الحمدُ، وأطال القيامَ، ثم سجَدَ، فأطال السُّجودَ، يقولُ في سجودِهِ: سبحانَ ربِّيَ الأعلى، سبحانَ ربِّيَ الأعلى، سبحانَ ربِّيَ الأعلى، لا يمُرُّ بآيةِ تخويفٍ أو تعظيمٍ للهِ عز وجل إلا ذكَرَهُ». أخرجه النسائي (١١٣٢).

* كان النبيُّ ﷺ يَقرأُ خواتمَها منتصَفَ الليلِ عندما يستيقظُ مِن نومِه:

فممَّا صحَّ عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ رضي الله عنهما: أنَّه باتَ عند مَيْمونةَ زَوْجِ النبيِّ ﷺ - وهي خالتُهُ -، قال: «فاضطجَعْتُ في عَرْضِ الوِسادَةِ، واضطجَعَ رسولُ اللهِ ﷺ وأهلُهُ في طُولِها، فنامَ رسولُ اللهِ ﷺ حتى انتصَفَ الليلُ - أو قَبْله بقليلٍ، أو بعده بقليلٍ -، ثم استيقَظَ رسولُ اللهِ ﷺ، فجعَلَ يَمسَحُ النَّوْمَ عن وجهِهِ بيدَيهِ، ثم قرَأَ العَشْرَ الآياتِ الخواتِمَ مِن سُورةِ آلِ عِمْرانَ، ثم قامَ إلى شَنٍّ معلَّقةٍ، فتوضَّأَ منها، فأحسَنَ وُضُوءَهُ، ثم قامَ يُصلِّي، فصنَعْتُ مِثْلَ ما صنَعَ، ثُمَّ ذهَبْتُ فقُمْتُ إلى جَنْبِهِ، فوضَعَ رسولُ اللهِ ﷺ يَدَهُ اليُمْنى على رَأْسي، وأخَذَ بأُذُني بيدِهِ اليُمْنى يَفتِلُها، فصلَّى ركعتَينِ، ثم ركعتَينِ، ثم ركعتَينِ، ثم ركعتَينِ، ثم ركعتَينِ، ثم ركعتَينِ، ثم أوتَرَ، ثم اضطجَعَ حتى جاءه المؤذِّنُ، فقامَ فصلَّى ركعتَينِ خفيفتَينِ، ثم خرَجَ فصلَّى الصُّبْحَ». أخرجه البخاري (٤٥٧١).

جاءت مواضيعُ سورةِ (آل عِمْرانَ) مُرتَّبةً على النحوِ الآتي:

مقدِّمات للحوار مع النَّصارى (١-٣٢).

إنزال الكتاب هدايةً للناس (١-٩).

تحذير الكافرين وحقيقةُ الدنيا (١٠-١٨).

انتقال الرسالة لأمَّة الإسلام (٢٩-٣٢).

اصطفاء الله تعالى لرُسلِه (٣٣-٤٤).

حقيقة عيسى عليه السلام (٤٥-٦٣).

الإسلام هو دِين الحقِّ، وهو دِينُ جميع الأنبياء (٦٤-٩٩).

إبراهيم عليه السلام كان حنيفًا مسلمًا (٦٤-٦٨).

مخاطبة فِرَق أهل الكتاب، وبيان حقائقهم (٦٩-٨٠).

وَحْدة الرسالات، والدِّين الحق هو الإسلام (٨١- ٩٢).

صلة المسلمين بإبراهيم، وافتراء أهل الكتاب (٩٣-٩٩).

بيان خَيْرية هذه الأمَّة، وتحذيرها من أعدائها (١٠٠-١٢٠).

التحذير من الوقوع في أخطاء السابقين (١٠٠-١٠٩).

خيرية هذه الأمَّة وفضلها (١١٠-١١٥).

تحذير الأمَّة من المنافقين (١١٦-١٢٠).

معركة (أُحُد) (١٢١-١٤٨).

مقدِّمات معركة (أُحُد) (١٢١-١٢٩).

أهمية الطاعة ومواعظُ (١٣٠-١٣٨).

تعزية المسلمين، والنهيُ عن الهوان (١٣٩-١٤٨).

دروس مستفادة من الهزيمة (١٤٩-١٨٩).

التحذير من طاعة الأعداء والتنازل (١٤٩-١٥٨).

أهمية الشورى وطاعة الرسول (١٥٩-١٦٤).

أسباب الهزيمة وفوائدها (١٦٥-١٧٩).

تحذير المنافقين والبخلاء (١٨٠-١٨٩).

أولو الألباب يستفيدون من الآيات الكونية (١٩٠-١٩٥).

الأمورُ بخواتيمها (١٩٦-٢٠٠).

ينظر: "التفسير الموضوعي للقرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (1 /426).

افتُتِحت السُّورةُ بمقصدٍ عظيمٍ؛ وهو التنويهُ بالقرآن، وبمحمَّدٍ ﷺ، وتقسيمُ آيات القرآن، ومراتبُ الأفهام في تَلقِّيها، والتنويهُ بفضيلة الإسلام، وأنه لا يَعدِله دِينٌ، وأنه لا يُقبَل دِينٌ عند الله بعد ظهور الإسلام غيرُ الإسلام.

ومِن مقاصدِها: مُحاجَّةُ أهلِ الكتابينِ في حقيقة الحنيفيَّة، وأنهم بُعَداءُ عنها، وما أخَذ اللهُ من العهد على الرُّسلِ كلِّهم: أن يؤمنوا بالرسول الخاتم.

واشتملت على أمرِ المسلمين بفضائلِ الأعمال: مِن بذلِ المال في مواساة الأمَّة، والإحسان، وفضائل الأعمال، وتركِ البخل، ومَذمَّةِ الربا.

وخُتِمت السُّورةُ بآياتِ التفكير في ملكوت الله.

ينظر: "التحرير والتنوير" لابن عاشور (3 /145).