ترجمة سورة لقمان

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة لقمان باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

अलिफ, लाम, मीम।
ये आयतें हैं ज्ञानपूर्ण पुस्तक की।
मार्गदर्शन तथा दया है सदाचारियों के लिए।
जो नमाज़ की स्थापना करते हैं, ज़कात देते हैं और परलोक पर (पूरा) विश्वास रखते हैं।
वही लोग, अपने पालनहार के सुपथों पर हैं तथा वही लोग सफल होने वाले हैं।
तथा लोगों में वो (भी) है, जो खरीदता है खेल की[1] बात, ताकि कुपथ करे अल्लाह की राह (इस्लाम) से बिना किसी ज्ञान के और उसे उपहास बनाये। यही हैं, जिनके लिए अपमानकारी यातना है।
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1. इस से अभिप्राय गाना-बजाना तथा संगीत और प्रत्येक वह साधन हैं जो सदाचार से अचेत कर दें। इस में क़िस्से, कहानियाँ, काम संबन्धी साहित्य सब सम्मिलित हैं।
और जब पढ़ी जायें उसके समक्ष हमारी आयतें, तो वह मुख फेर लेता है घमण्ड करते हुए। जैसे उसके दोनों कान बहरे हों, तो आप उसे शुभसूचना सुना दें दुःखदायी यातना की।
वस्तुतः, जो ईमान लाये तथा सदाचार किये, तो उन्हीं के लिए सुख के बाग़ हैं।
वे सदावासी होंगे उनमें, अल्लाह का सत्य वचन है और वही प्रभुत्वशाली, सर्व ज्ञानी है।
उसने उत्पन्न किया है आकाशों को बिना किसी स्तस्भ के, जिन्हें तुम देख रहे हो और बना दिये धरती में पर्वत, ताकि डोल न जाये तुम्हें लेकर और फैला दिये उनमें हर प्रकार के जीव तथा हमने उतारा आकाश से जल, फिर हमने उगाये उसमें प्रत्येक प्रकार के सुन्दर जोड़।
ये अल्लाह की उत्पत्ति है, तो तुम दिखाओ क्या उत्पन्न किया है उन्होंने, जो उसके अतिरिक्त हैं? बल्कि अत्याचारी खुले कुपथ में हैं।
और हमने लुक़मान को प्रबोध प्रदान किया कि कृतज्ञ बनो अल्लाह के तथा जो (अल्लाह का) आभारी हो, वह आभारी है अपने ही (लाभ) के लिए और जो आभारी न हो, तो अल्लाह निःस्वार्थ सराहनीय है।
तथा (याद करो) जब लुक़मान ने कहा अपने पुत्र से, जब वह समझा रहा था उसेः हे मेरे पुत्र! साझी मत बना अल्लाह का, वास्तव में, शिर्क (मिश्रणवाद) बड़ा घोर अत्याचार[1] है।
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1. ह़दीस में है कि घोर पापों में से, अल्लाह के साथ शिर्क करना, माँ-बाप के साथ बुरा व्यवहार, जान मारना तथा झूठी शपथ लेना है। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्याः7257)
और हमने आदेश दिया है मनुष्यों को अपने माता-पिता के संबन्ध में, अपने गर्भ में रखा उसे उसकी माता ने दुःख पर दुःख झेलकर और उसका दूध छुड़ाया दो वर्ष में कि तुम कृतज्ञ रहो मेरे और अपनी माता-पिता के और मेरी ओर (तुम्हें) फिर आना है।
और यदि वे दोनों दबाव डालें तुमपर कि तुम साझी बनाओ मेरा उसे, जिसका तुम्हें कोई ज्ञान नहीं, तो न[1] मानो उन दोनों की बात और उनके साथ रहो संसार[2] में सुचारु रूप से तथा राह चलो उसकी, जो ध्यानमग्न हो मेरी ओर, फिर मेरी ही ओर तुम्हें फिरकर आना है, तो मैं तुम्हें सूचित कर दूँगा उससे, जो तुम कर रहे थे।
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1. ह़दीस में है कि पाप में किसी की बात नहीं माननी है, पुण्य में माननी है। (सह़ीह़ बुख़ारीः 7257) 2. अर्थात माता-पिता यदि मिश्रणवादी और काफ़िर हों तब भी उन की संसार में सहायता करो।
हे मेरे पुत्र! यदि (हो कोई कर्म) राई के दाने के बराबर, फिर वह यदि हो किसी पत्थर के भीतर, आकाशों में या धरती में, तो उसे भी उपस्थित करेगा[1] अल्लाह। वास्तव में, वह, सब महीन बातों से सूचित है।
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1. प्रलय के दिन उस का प्रतिफल देने के लिये।
हे मेरे पुत्र! स्थापना कर नमाज़ की, आदेश दे भलाई का, रोक बुराई से और सहन कर उस (दुःख) पर, जो तुझे पहुँचे, वास्तव में, ये बड़े साहस की बात है।
और मत बल दे, अपने माथे पर,[1] लोगों के लिए तथा मत चल धरती में अकड़कर। निःसंदेह, अल्लाह प्रेम नहीं करता[2] किसी अहंकारी, गर्व करने वाले से।
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1. अर्थात गर्व से। 2. सह़ीह़ ह़दीस में कहा गया है कि, वह स्वर्ग में नहीं जायेगा जिस के दिल में राई के दाने के बराबर भी अहंकार हो। (मुस्नद अह़्मदः1/412)
और संतुलन रख अपनी चाल[1] में तथा धीमी रख अपनी आवाज़, वास्तव में, सबसे बुरी आवाज़ गधे की आवाज़ है।
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1. (देखियेः सूरह फ़ुर्क़ान, आयतः63)
क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह ने वश में कर दिया[1] है तुम्हारे लिए, जो कुछ आकाशों तथा धरती में है तथा पूर्ण कर दिया है तुमपर अपना पुरस्कार, खुला तथा छुपा? और कुछ लोग विवाद करते हैं अल्लाह के विषय[2] में, बिना किसी ज्ञान, बिना किसी मार्गदर्शन और बिना किसी दिव्य (रौशन) पुस्तक के।
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1. अर्थात तुम्हारी सेवा में लगा रखा है। 2. अर्थात उस के अस्तित्व और उस के अकेले पूज्य होने के विषय में।
और जब कहा जाता है उनसे कि पालन करो उस क़ुर्आन का, जिसे उतारा है अल्लाह ने, तो कहते हैं: बल्कि हम तो उसी का पालन करेंगे, जिसपर अपने पूर्वजों को पाया है। क्या यद्यपि शैतान उन्हें बुला रहा हो अल्लाह की यातना की[1] ओर?
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1. अर्थात क्या वह सत्य और असत्य में अन्तर किये बिना असत्य ही का पालन करेंगे, और न समझ से काम लेंगे, न धर्म पुस्तक को मानेंगे?
और समर्पित कर देगा स्वयं को अल्लाह के तथा वह एकेश्वरवादी हो, तो उसने पकड़ लिया सुदृढ़ कड़ा तथा अल्लाह हीकी ओर कर्मों का परिणाम है।
तथा जो काफ़िर हो गया, तो आपको उदासीन न करे उसका कुफ़्र। हमारी ओर ही उन्हें लौटना है, फिर हम सूचित कर देंगे उन्हें उनके कर्मों से। निःसंदेह अल्लाह अति ज्ञानि है दिलों के भेदों का।
हम उन्हें लाभ पहुँचायेंगे बहुत[1] थोड़ा, फिर हम विवश कर देंगे उन्हें, घोर यातना की ओर।
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1. अर्थात संसारिक जीवन का लाभ।
और यदि आप उनसे प्रश्न करें कि किसने उत्पन्न किया है आकाशों तथा धरती को? तो अवश्य कहेंगे कि अल्लाह ने। आप कह दें कि सब प्रशंसा अल्लाह के लिए[1] है, बल्कि उनमें अधिक्तर ज्ञान नहीं रखते।
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1. कि उन्हों ने सत्य को स्वीकार कर लिया।
अल्लाह ही का है, जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, वास्तव में, अल्लाह निस्पृह, सराहनीय है।
और यदि जो भी धरती में वृक्ष हैं, सब लेखनियाँ बन जायें तथा उसके पश्चात् सागर स्याही हो जायें सात सागरों तक, तो भी समाप्त नहीं होंगे अल्लाह (की प्रशंसा) के शब्द, वास्तव में, अल्लाह प्रभावशाली, गुणी है।
और तुम्हें उत्पन्न करना और पुनः जीवित करना केवल एक प्राण के समान[1] है। निःसंदेह, अल्लाह सब कुछ सुनने-जानने वाला है।
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1. अर्थात प्रलय के दिन अपनी शक्ति तथा सामर्थ्य से सब को एक प्राणी के पैदा करने तथा जीवित करने के समान पुनः जीवित कर देगा।
क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह मिला[1] देता है, रात्रि को दिनमें और मिला देता है दिन को[2] रात्रि में तथा वश में कर रखा है सूर्य तथा चाँद को, प्रत्येक चल रहा है एक निर्धारित समय तक और अल्लाह उससे, जो तुम कर रहे हो भली-भाँति अवगत है।
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1. क़ुर्आन ने एकेश्वरवाद का आमंत्रण देने तथा मिश्रणवाद का खण्डन करने के लिये फिर इस का वर्णन किया है कि जब विश्व का रचयिता तथा विधाता अल्लाह ही है तो पूज्य भी वही है, फिर भी यह विश्वव्यापि कुपथ है कि लोग अल्लाह के सिवा अन्य की पूजा करते तथा सूर्य और चाँद को सज्दा करते हैं, निर्धारित समय से अभिप्राय प्रलय है। 2. तो कभी दिन बड़ा होता है तो कभी रात्रि।
ये सब इस कारण है कि अल्लाह ही सत्य है और जिसे वे पुकारते हैं अल्लाह के सिवा असत्य है तथा अल्लाह ही सबसे ऊँचा, सबसे बड़ा है।
क्या तुमने नहीं देखा कि नाव चलती है सागर में अल्लाह के अनुग्रह के साथ, ताकि वे तुम्हें अपनी निशानियाँ दिखाये। वास्तव में, इसमें कई निशानियाँ हैं प्रत्येक सहनशील, कृतज्ञ के लिए।
और जब छा जाती है उनपर लहर छत्रों के समान, तो पुकारने लगते हैं अल्लाह को, उसके लिए शुध्द करके धर्म को और जब उन्हें सुरक्षित पहुँचा देता है थल तक, तो उनमें से कुछ संतुलित रहने वाले होते हैं और हमारी निशानियों को प्रत्येक वचनभंगी, अति कृतघ्न ही नकारते हैं।
हे लोगो! डरो अपने पालनहार से तथा भय करो उस दिन का, जिस दिन नहीं काम आयेगा कोई पिता अपनी संतान के और न कोई पुत्र काम आने वाला होगा, अपने पिता के कुछ[1] भी। निश्चय अल्लाह का वचन सत्य है। अतः, तुम्हें कदापि धोखे में न रखे सांसारिक जीवन और न धोखे में रखे अल्लाह से प्रवंचक (शैतान)।
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1. अर्थात परलोक की यातना संसारिक दण्ड के समान नहीं होगी कि कोई किसी की सहायता से दण्ड मुक्त हो जाये।
निःसंदेह, अल्लाह ही के पास है प्रलय[1] का ज्ञान, वही उतारता है वर्षा और जानता है जो कुछ गर्भाशयों में है और नहीं जानता कोई प्राणी कि वह क्या कमायेगा कल और नहीं जानता कोई प्राणी कि किस धरती में मरेगा। वास्तव में, अल्लाह ही सब कुछ जानने वाला, सबसे सूचित है।
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1. अबू हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़रमाते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक दिन लोगों के बीच बैठे हुये थे कि एक व्यक्ति आ गया, और प्रश्न किया कि अल्लाह के रसूल! ईमान क्या है? आप ने कहाः ईमान यह है कि तुम अल्लाह पर तथा उस के फ़रिश्तों, उस के सब रसूलों और उस से मिलने और फिर दोबारा जीवित किये जाने पर ईमान लाओ। उस ने कहाः इस्लाम क्या है? आप ने कहाः इस्लाम यह कि केवल अल्लाह की इबादत करो और किसी वस्तु को उस का साझी न बनाओ, तथा नमाज़ की स्थापना करो और ज़कात दो, तथा रमज़ान के रोजे रखो। उस ने कहाः इह़्सान किया है? आप ने कहाः इह़्सान यह है कि अल्लाह की इबादत ऐसे करो जैसे तुम उसे देख रहे हो। यदि यह न हो सके तो यह ख़्याल रखो कि वह तुम्हें देख रहा है। उस ने कहाः प्रलय कब होगी? आप ने कहाः मैं प्रश्नकर्ता से अधिक नहीं जानता। परन्तु मैं तुम्हें उस की कुछ निशानियाँ बताऊँगाः जब स्त्री अपने स्वामिनी को जन्म देगी और जब नंगे निःवस्त्र लोग मुखिया हो जायेंगे। पाँच बातों में जिन को अल्लाह ही जानता है। और आप ने यही आयत पढ़ी। फिर वह व्यक्ति चला गया। आप ने कहाः उसे बुलाओ, तो वह नहीं मिला। आप ने फ़रमायाः यह जिब्रील थे, तुम्हें तुम्हारा धर्म सिखाने आये थे। (सह़ीह़ बुख़ारीः4777)
سورة لقمان
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التفسيرات

سورةُ (لُقْمانَ) من السُّوَر المكية، وقد جاءت ببيانِ عظمة هذا الكتاب، واتصافه بالحِكْمة، ومن ثَمَّ إثبات صفة الحِكْمة لله عز وجل، كما ذكرت السورةُ الكريمة وصايا (لُقْمانَ) الحكيمِ لابنه، التي يجدُرُ بكلِّ مَن آمَن بهذا الكتاب أن يأخذ بها، وقد تعرَّضتِ السورةُ لدلائلِ وَحْدانية الله وعظمته في هذا الكون، وبيان أقسام الناس، وموقفهم من الكتاب؛ من مؤمنٍ به وكافر.

ترتيبها المصحفي
31
نوعها
مكية
ألفاظها
550
ترتيب نزولها
57
العد المدني الأول
33
العد المدني الأخير
33
العد البصري
34
العد الكوفي
34
العد الشامي
34

* قوله تعالى: {يَٰبُنَيَّ لَا تُشْرِكْ بِاْللَّهِۖ إِنَّ اْلشِّرْكَ لَظُلْمٌ عَظِيمٞ} [لقمان: 13]:

عن عبدِ اللهِ بن مسعودٍ رضي الله عنه، قال: «لمَّا نزَلتِ: {اْلَّذِينَ ‌ءَامَنُواْ ‌وَلَمْ ‌يَلْبِسُوٓاْ إِيمَٰنَهُم بِظُلْمٍ} [الأنعام: 82]، شَقَّ ذلك على المسلمين، فقالوا: يا رسولَ اللهِ، أيُّنا لا يَظلِمُ نفسَه؟ قال: «ليس ذلك؛ إنما هو الشِّرْكُ؛ ألَمْ تَسمَعوا ما قال لُقْمانُ لابنِهِ وهو يَعِظُه: {يَٰبُنَيَّ لَا تُشْرِكْ بِاْللَّهِۖ إِنَّ اْلشِّرْكَ لَظُلْمٌ عَظِيمٞ} [لقمان: 13]؟!»». أخرجه البخاري (٣٤٢٩).

* سورة (لُقْمانَ):

سُمِّيتْ سورةُ (لُقْمانَ) بهذا الاسم؛ لذكرِ (لُقْمانَ) فيها، ولم يُذكَرْ في سورة أخرى.

* قراءة النبيِّ صلى الله عليه وسلم لها في صلاة الظُّهْرِ:

عن البَراء بن عازبٍ رضي الله عنهما، قال: «كان رسولُ اللهِ ﷺ يُصلِّي بنا الظُّهْرَ، فنَسمَعُ منه الآيةَ بعد الآياتِ مِن سورةِ لُقْمانَ، والذَّاريَاتِ». أخرجه النسائي (٩٧١).

اشتمَلتْ سورةُ (لُقْمانَ) على الموضوعات الآتية:

1. المحسِنون: تعريفٌ وجزاء (١-٥).

2. فريق اللَّهْوِ من الناس (٦-٧).

3. آية الحِكْمة والقُدْرة (٨-١١).

4. نعمة الحِكْمة، والدعوةُ إلى شُكْرها (١٢-١٩).

5. إسباغ النِّعَم (٢٠-٢١).

6. الإنسان بين الكفرِ والإيمان (٢٢-٢٦).

7. كلمات الله التى لا تَنفَدُ (٢٧- ٢٨).

8. نعمة التسخير (٢٩- ٣٢).

9. المُغيَّبات وغُرور الحياة (٣٣-٣٤).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (6 /27).

جاءت سورةُ (لُقْمانَ) بمقاصِدَ عظيمةٍ؛ منها: إثباتُ الحِكْمة للكتاب، التي يلزم منها حِكْمةُ مُنزِلِه في أقواله وأفعاله؛ وهو اللهُ عزَّ وجلَّ.

ومنها: تذكيرُ المشركين بدلائلِ وَحْدانية الله تعالى، وبنِعَمِه عليهم؛ من خلال وصايا (لُقْمانَ) عليه السلام لابنه، وذكَرتْ مزيَّةَ دِين الإسلام، وتسليةَ الرسول صلى الله عليه وسلم بتمسُّك المسلمين بالعُرْوة الوثقى، وأنه لا يُحزِنه كفرُ مَن كفروا.

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /356)، "التحرير والتنوير" لابن عاشور (21 /139).