ترجمة سورة سبأ

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة سبأ باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

सब प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जिसके अधिकार में है, जो आकाशों तथा धरती में है और उसी की प्रशंसा है आख़िरत (परलोक) में और वही उपाय जानने वाला, सबसे सूचित है।
वह जानता है, जो कुछ घुसता है धरती के भीतर तथा जो[1] निकलता है उससे तथा जो उतरता है आकाश[2] से और चढ़ता है उसमें[3] तथा वह अति दयावान्, क्षमी है।
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1. जैसे वर्षा, कोष और निधि आदि। 2. जैसे वर्षा, ओला, फ़रिश्ते और आकाशीय पुस्तकें आदि। 3. जैसे फ़रिश्ते तथा कर्म।
तथा कहा काफ़िरों ने कि हमपर प्रलय नहीं आयेगी। आप कह दें: क्यों नहीं? मेरे पालनहार की शपथ! -वह तुमपर अवश्य आयेगी- जो परोक्ष का ज्ञानी है। नहीं छुपा रह सकता उससे कण बराबर (भी) आकाशों तथा धरती में, न उससे छोटी कोई चीज़ और न बड़ी, किन्तु, वह खुली पुस्तक में (अंकित) है।[1]
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1. अर्थात लौह़े मह़्फ़ूज़ (सुरक्षित पुस्तक) में।
ताकि[1] वह बदला दे उन्हें, जो ईमान लाये तथा सुकर्म किये। उन्हीं के लिए क्षमा तथा सम्मानित जीविका है।
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1. यह प्रलय के होने का कारण है।
तथा जिन्होंने प्रयत्न किये हमारी आयतों में विवश[1] करने का, तो यही हैं, जिनके लिए यातना है अति घोर दुःखदायी।
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1. अर्थात हमारी आयतों से रोकते हैं और समझते हैं कि हम उन को पकड़ने से विवश होंगे।
तथा (साक्षात) देख[1] लेंगे वे जिन्हें उसका ज्ञान दिया गया है, जो अवतरित किया गया है आपकी ओर आपके पालनहार की ओर से। वही सत्य है तथा सुपथ दर्शाता है, अति प्रभुत्वशाली, प्रशंसित का सुपथ।
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1. अर्थात प्रलय के दिन की क़ुर्आन से जो सूचना दी है वह साक्षात सत्य है।
तथा काफ़िरों ने कहाः क्या हम तुम्हें एक ऐसे व्यक्ति को बतायें, जो तुम्हें सूचना देता है कि जब तुम पूर्णतः चूर-चूर हो जाओगे, तो अवश्य तुम एक नई उत्पत्ति में होगे?
उसने बना ली है अल्लाह पर एक मिथ्या बात अथवा वह पागल हो गया है। बल्कि जो विश्वास (ईमान) नहीं रखते आख़िरत (परलोक) पर, वे यातना[1] तथा दूर के कुपथ में हैं।
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1. अर्थात इस का दुष्परिणाम नरक की यातना है।
क्या उन्होंने नहीं देखा उसकी ओर, जो उनके आगे तथा उनके पीछे आकाश और धरती है। यदि हम चाहें, तो धंसा दें उनके सहित धरती को अथवा गिरा दें उनपर कोई खण्ड आकाश से। वास्तव में, इसमें एक बड़ी निशानी है प्रत्येक भक्त के लिए, जो ध्यानमग्न हो।
तथा हमने प्रदान किया दावूद को अपना कुछ अनुग्रह,[1] हे पर्वतो! सरुचि महिमा गान करो[2] उसके साथ तथा हे पक्षियो! तथा हमने कोमल कर दिया उसके लिए लाहा को।
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1. अर्थात उन को नबी बनाया और पुस्तक का ज्ञान प्रदान किया। 2. अल्लाह के इस आदेश अनुसार पर्वत तथा पक्षी उन के लिये अल्लाह की महिमा गान के समय उन की ध्वनि को दुहराते थे।
कि बनाओ भरपूर कवचें तथा अनुमान रखो उसकी कड़ियों का तथा सदाचार करो। जो कुछ तुम कर रहे हो, उसे मैं देख रहा हूँ।
तथा ( हमने वश में कर दिया) सुलैमान[1] के लिए वायु को। उसका प्रातः चलना एक महीने का तथा संध्या का चलना एक महीने का[2] होता था तथा हमने बहा दिये उसके लिए तांबे के स्रोत तथा कुछ जिन्न कार्यरत थे उसके समक्ष, उसके पालनहार की अनुमति से तथा उनमें से जो फिरेगा हमारे आदेश से, तो हम चखायेंगे[3] उसे भड़कती अग्नि की यातना।
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1. सुलैमान (अलैहिस्सलाम) दावूद (अलैहिस्सलाम) के पुत्र तथा नबी थे। 2. सुलैमान (अलैहिस्सलाम) अपने राज्य के अधिकारियों के साथ सिंहासन पर आसीन हो जाते। और उन के आदेश से वायु उसे इतनी तीव्र गति से उड़ा ले जाती कि आधे दिन में एक महीने की यात्रा पूरी कर लेते। इस प्रकार प्रातः संध्या मिला कर दो महीने की यात्रा पूरी हो जाती। (देखियेः इब्ने कसीर)
वह बनाते थे उसके लिए, जो वह चाहता था; भवन (मस्जिदें), चित्र, बड़े लगन जलाशयों (तालाबों) के समान तथा भारी देगें, जो हिल न सकें। हे दावूद के परिजनो! कर्म करो कृतज्ञ होकर और मेरे भक्तों में थोड़े ही कृतज्ञ होते हैं।
फिर जब हमने उस (सुलैमान) पर मौत का निर्णय कर दिया, तो जिन्नों को उनके मरण पर एक घुन के सिवा किसी ने सूचित नहीं किया, जो उसकी छड़ी खा रहा था।[1] फिर जब वह गिर गया, तो जिन्नों पर ये बात खुली कि यदि वे परोक्ष का ज्ञान रखते, तो इस अपमानकारी[2] यातना में नहीं पड़े रहते।
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1. जिस के सहारे वह खड़े थे तथा घुन के खाने पर उन का शव धरती पर गिर पड़ा। 2. सुलैमान (अलैहिस्सलाम) के युग में यह भ्रम था कि जिन्नों को परोक्ष का ज्ञान होता है। जिसे अल्लाह ने माननीय सुलैमान अलैहिस्सलाम के निधन द्वारा तोड़ दिया कि अल्लाह के सिवा किसी को परोक्ष का ज्ञान नहीं है। (इब्ने कसीर)
सबा[1] की जाति के लिए उनकी बस्तियों में एक निशानी[2] थीः बाग़ थे दायें और बायें। खाओ अपने पालनहार का दिया हुआ और उसके कृतज्ञ रहो। स्वच्छ नगर है तथा अति क्षमि पालनहार।
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1. यह जाति यमन में निवास करती थी। 2. अर्थात अल्लाह के सामर्थ्य की।
परन्तु, उन्होंने मुँह फेर लिया, तो हमने भेज दी उनपर बाँध तोड़ बाढ़ तथा बदल दिया हमने उनके दो बाग़ों को, दो कड़वे फलों के बाग़ों और झाऊ तथा कुछ बैरी से।
ये कुफल दिया हमने उनके कृतघ्न होने के कारण तथा हम कृतघ्नों ही को कुफल दिया करते हैं।
और हमने बना दी थी उनके बीच तथा उनकी बस्तियों के बीच, जिनमें हमने सम्पन्नता[1] प्रदान की थी, खुली बस्तियाँ तथा नियत कर दिया था उनमें, चलने का स्थान[2] (कि) चलो उसमें रात्रि तथा दिनों के समय शान्त[3] होकर।
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1. अर्थात सबा तथा शाम (सीरिया) के बीच है। 2. अर्थात एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा की सुविधा रखी थी। 3. शत्रु तथा भूख-प्यास से निर्भय हो कर।
तो उन्होंने कहाः हे हमारे पालनहार! दूरी[1] करदे हमारी यात्राओं के बीच तथा उन्होंने अत्याचार किया अपने ऊपर। अन्ततः, हमने उन्हें कहानियाँ[2] बना दिया और तित्तर-वित्तर कर दिया। वास्तव में, इसमें कई निशानियाँ (शिक्षायें) हैं प्रत्येक अति धैर्यवान, कृतज्ञ के लिए।
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1. हमारी यात्रा के बीच कोई बस्ती न हो। 2. उन की कथायें रह गईं, और उन का अस्तित्व नहीं रह गया।
तथा सच कर दिया इब्लीस ने उनपर अपना अंकलन।[1] तो उन्होंने अनुसरण किया उसका एक समुदाय को छोड़कर ईमान वालों के।
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1. अर्थात यह अनुमान कि वह आदम के पुत्रों को कुपथ करेगा। (देखियेः सूरह आराफ़, आयतः16, तथा सूरह साद, आयतः82)
और नहीं था उसका उनपर कुछ अधिकार (दबाव), किन्तु, ताकि हम जान लें कि कौन ईमान रखता है आख़िरत (परलोक) पर उनमें से, जो उसके विषय में किसी संदेह में हैं तथा आपका पालनहार प्रत्येक चीज़ का निरीक्षक है।[1]
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1. ताकि उन का प्रतिकार (बदला) दे।
आप कह दें: उन्हें पुकारो[1] जिन्हें तुम (पूज्य) समझते हो अल्लाह के सिवा। वह नहीं अधिकार रखते कण बराबर भी, न आकाशों में न धरती में तथा नहीं है उनका उन दोनों में कोई भाग और नहीं है उस अल्लाह का उनमें से कोई सहायक।
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1. इस में संकेत उन की ओर है जो फ़रिश्तों को पूजते तथा उन्हें अपना सिफ़ारिशी मानते थे।
तथा नहीं लाभ देगी अभिस्तावना (सिफ़ारिश) अल्लाह के पास, परन्तु जिसके लिए अनुमति देगा।[1] यहाँ[2] तक कि जब दूर कर दिया जाता है उद्वेग उनके दिलों से, तो वे (फ़रिश्ते) कहते हैं कि तुम्हारे पालनहार ने क्या कहा? वे कहते हैं कि सत्य कहा तथा वह अति उच्च, महान है।
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1. (देखियेः सूरह बक़रह, आयतः255, तथा सूरह अम्बिया, आयतः28) 2. अर्थात जब अल्लाह आकाशों में कोई निर्णय करता है तो फ़रिश्ते भय से काँपने और अपने पंखों को फड़फड़ाने लगते हैं। फिर जब उन की उद्विग्नता दूर हो जाती है तो प्रश्न करते हैं कि तुम्हारे पालनहार ने क्या आदेश दिया है? तो वे कहते हैं कि उस ने सत्य कहा है।और वह अति उच्च महान है। (संक्षिप्त अनुवाद ह़दीस, सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्याः4800)
आप (मुश्रिकों) से प्रश्न करें कि कौन जीविका प्रदान करता है तुम्हें, आकाशों[1] तथा धरती से? आप कह दें कि अल्लाह! तथा हम अथवा तुम अवश्य सुपथ पर हैं अथवा खुले कुपथ में हैं।
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1. आकाशों की वर्षा तथा धरती की उपज से।
आप कह दें: तुमसे नहीं प्रश्न किया जायेगा हमारे अपराधों के विषय में और न हमसे प्रश्न किया जायेगा, तुम्हारे कर्मों के[1] संबन्ध में।
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1. क्यों कि हम तुम्हारे शिर्क से विरक्त हैं।
आप कह दें कि एकत्र[1] कर देगा हमें हमारा पालनहार। फिर निर्णय कर देगा हमारे बीच सत्य के साथ तथा वही अति निर्णयकारी, सर्वज्ञ है।
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1. अर्थात प्रलय के दिन।
आप कह दें कि तनिक मुझे उन्हें दिखा दो, जिन्हें तुमने मिला दिया है अल्लाह के साथ साझी[1] बनाकर? ऐसा कदापि नहीं। बल्कि वही अल्लाह है अत्यंत प्रभावशाली तथा गुणी।
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1. अर्थात पूजा-अराधना में।
तथा नहीं भेजा है हमने आप[1] को, परन्तु सब मनुष्यों के लिए शुभ सूचना देने तथा सचेत करने वाला बनाकर। किन्तु, अधिक्तर लोग ज्ञान नहीं रखते।
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1. इस आयत में अल्लाह ने जनाब मुह़्म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के विश्वव्यापि रसूल तथा सर्व मनुष्य जाति के पथ प्रदर्शक होने की घोषणा की है। जिसे सूरह आराफ़, आयत संख्याः 158, तथा सूरह फ़ुर्क़ान आयत संख्याः 1 में भी वर्णित किया गया है। इसी प्रकार आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि मुझे पाँच ऐसी चीज़ें दी गई हैं जो मुझ से पूर्व किसी नबी को नहीं दी गईं। और वे यह हैं: 1. एक महीने की दूरी तक शत्रुओं के दिलों में मेरी धाक द्वारा मेरी सहायता की गई है। 2. पूरी धरती मेरे लिये मस्जिद तथा पवित्र बना दी गई है। 3. युध्द में प्राप्त धन मेरे लिये वैध कर दिया गया है जो पहले किसी नबी के लिये वैध नहीं किया गया। 4. मुझे सिफ़ारिश का अधिकार दिया गया है। 5. मुझ से पहले के नबी मात्र अपने समुदाय के लिये भेजा जाता था, परन्तु मुझे सम्पूर्ण मानव जाति के लिये नबी बना कर भेजा गया है। (सह़ीह़ बुख़ारीः 335) आयत का भावार्थ यह है कि आप के आगमन के पश्चात् आप पर ईमान लाना तथा आप के लाये धर्म विधान क़ुर्आन का अनुपालन करना पूरे मानव विश्व पर अनिवार्य है। और यही सत्धर्म तथा मुक्ति मार्ग है।जिसे अधिक्तर लोग नहीं जानते। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः उस की शपथ जिस के हाथ में मेरे प्राण हैं! इस उम्मत का कोई यहूदी और ईसाई मुझे सुनेगा और मौत से पहले मेरे धर्म पर ईमान नहीं लायेगा तो वह नरक में जायेगा। (सह़ीह़ मुस्लिमः153)
तथा वह कहते[1] हैं कि ये वचन कब पूरा होगा, यदि तुम सत्यवादी हो?
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1. अर्थात उपहास करते हैं।
आप उनसे कह दें कि एक दिन वचन का निश्चित[1] है। वे नहीं पीछे होंगे उससे क्षण भर और न आगे होंगे।
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1. प्रलय का दिन।
तथा काफ़िरों ने कहा कि हम कदापि ईमान नहीं लायेंगे इस क़ुर्आन पर और न उसपर, जो इससे पूर्व की पुस्तक हैं और यदि आप देखेंगे इन अत्याचारियों को खड़े हुए अपने पालनहार के समक्ष, तो वे दोषारोपण कर रहे होंगे एक-दूसरे पर। जो निर्बल समझे जा रहे थे, वे कहेंगे उनसे, जो बड़े बन रहे थेः यदि तुम न होते, तो हम अवश्य ईमान लाने वालों[1] में होते।
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1. तुम्ही ने हमें सत्य से रोका था।
वे कहेंगे जो बड़े बने हुए थे, उनसे, जो निर्बल समझे जा रहे थेः क्या हमने तुम्हे रोका सुपथ से, जब वह तुम्हारे पास आया? बल्कि तुमही अपराधी थे।
तथा कहेंगे जो निर्बल होंगे, उनसे, जो बड़े (अहंकारी) होंगेःबल्कि रात-दिन के षड्यंत्र[1] ने (ऐसा किया), जब तुम हमें आदेश दे रहे थे कि हम कुफ़्र करें अल्लाह के साथ तथा बनायें उसके साझी तथा वे अपने मन में पछतायेंगे, जब यातना देखेंगे और हम तौक़ डाल देंगे उनके गलों में, जो काफ़िर हो गये, वे नहीं बदला दिये जायेंगे, परन्तु उसी का, जो वे कर रहे थे!
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1. अर्थात तुम्हारे षड्यंत्र ने हमें रोका था।
और नहीं भेजा हमने किसी बस्ती में कोई सचेतकर्ता (नबी), परन्तु कहा उसके सम्पन्न लोगों नेः हम जिस चीज़ के साथ तुम भेजे गये हो, उसे नहीं मानते हैं।[1]
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1. नबियों के उपदेश का विरोध सब से पहले सम्पन्न वर्ग ने किया है। क्यों कि वे यह समझते हैं कि यदि सत्य सफल हो गया तो समाज पर उन का अधिकार समाप्त हो जायेगा। वे इस आधार पर भी नबियों का विरोध करते रहे कि हम ही अल्लाह के प्रिय हैं। यदि वह हम से प्रसन्न न होता तो हमें धन-धान्य क्यों प्रदान करता? अतः हम प्रलोक की यातना में ग्रस्त नहीं होंगे। क़ुर्आन ने अनेक आयतों में उन के इस भ्रम का खण्डन किया है।
तथा कहा कि हम अधिक हैं तुमसे धन और संतान में तथा हम यातना ग्रस्त होने वाले नहीं हैं।
आप कह दें कि वास्तव में, मेरा पालनहार फैला देता है जीविका को, जिसके लिए चाहता है और नापकर देता है। किन्तु, अधिक्तर लोग ज्ञान नहीं रखते।
और तुम्हारे धन और तुम्हारी संतान ऐसी नहीं हैं कि तुम्हें हमारे कुछ समीप[1] कर दें। परन्तु, जो ईमान लाये तथा सदाचार करे, तो यही हैं, जिनके लिए दोहरा प्रतिफल है और यही ऊँचे भवनों में शान्त रहने वाले हैं।
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1. अर्थात हमारा प्रिय बना दे।
तथा जो प्रयास करते हैं हमारी आयतों में विवश करने के लिए,[1] तो वही यातना में ग्रस्त होंगे।
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1. अर्थात हमारी आयतों को नीचा दिखाने के लिये।
आप कह दें: मेरा पालनहार ही फैलाता है जीविका को जिसके लिए चाहता है, अपने भक्तों में से और तंग करता है उसके लिए और जो भी तुम दान करोगे, तो वह उसका पूरा बदला देगा और वही उत्तम जीविका देने वाला है।
तथा जिस दिन एकत्र करेगा उनसब को, फिर कहेगा फ़रिश्तों सेः क्या यही तुम्हारी इबादत (वंदना) कर रहे थे।
वह कहेंगेः तू पवित्र है! तू ही हमारा संरक्षक है, न कि ये। बल्कि ये इबादत करते रहे जिन्नों[1] की। इनमें अधिक्तर उन्हींपर ईमान लाने वाले हैं।
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1. अरब के कुछ मुश्रिक लोग, फ़रिश्तों को पूज्य समझते थे। अतः उन से यह प्रश्न किया जायेगा।
तो आज तुम[1] में से कोई एक-दूसरे को लाभ अथवा हानि पहुँचाने का अधिकार नहीं रखेगा तथा हम कह देंगे अत्याचारियों से कि तुम अग्नि की यातना चखो, जिसे तुम झुठला रहे थे।
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1. अर्थात मिथ्या पूज्य तथा उन के पुजारी।
और जब सुनाई जाती हैं उनके समक्ष हमारी खुली आयतें, तो कहते हैं: ये तो एक पुरुष है, जो चाहता है कि तुम्हें रोक दे उन पूज्यों से, जिनकी इबादत करते रहे हैं तुम्हारे पूर्वज तथा उन्होंने कहा कि ये तो बस एक झूठी बनायी हुई बात है तथा कहा काफ़िरों ने इस सत्य को कि ये तो बस एक प्रत्यक्ष (खुला) जादू है।
जबकि हमने नहीं प्रदान की है इन (मक्का वासियों) को कोई पुस्तक, जिसे ये पढ़ते हों तथा न हमने भेजा है इनकी ओर आपसे पहले कोई सचेत करने वाला।[1]
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1. तो इन्हें कैसे ज्ञान हो गया कि यह क़ुर्आन खुला जादू है? क्यों कि यह ऐतिहासिक सत्य है कि आप से पहले मक्का में कोई नबी नहीं आया। इस लिये क़ुर्आन के प्रभाव को स्वीकार करना चाहिये न कि उस पर जादू होने का आरोप लगा दिया जाये।
तथा झुठलाया था इनसे पूर्व के लोगों ने और नहीं पहुँचे ये उसके दसवें भाग को भी, जो हमने प्रदान किया था उन्हें। तो उन्होंने झुठला दिया मेरे रसूलों को, अन्ततः, मेरा इन्कार कैसा रहा?[1]
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1. अर्थात आद और समूद ने। अतः मेरे इन्कार के दुष्परिणाम अर्थात उन के विनाश से इन्हें शिक्षा लेनी चाहिये। जो धन-बल तथा शक्ति में इन से अधिक थे।
आप कह दें कि मैं बस तुम्हें एक बात की नसीह़त कर रहा हूँ कि तुम अल्लाह के लिए दो-दो तथा अकेले-अकेले खड़े हो जाओ। फिर सोचो। तुम्हारे साथी को कोई पागलपन नहीं है।[1] वह तो बस सचेत करने वाले हैं तुम्हें, आगामी कड़ी यातना से।
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1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दशा के बारे में।
आप कह दें: मैंने तुमसे कोई बदला माँगा है, तो वह तुम्हारे[1] ही लिए है। मेरा बदला तो बस अल्लाह पर है और वह प्रत्येक वस्तु पर साक्षी है।
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1. कि तुम संमार्ग अपना कर आगामी प्रलय की यातना से सुरक्षित हो जाओ।
आप कह दें कि मेरा पालनहार वह़्यी करता है सत्य की। वह परोक्षों का अति ज्ञानी है।
आप कह दें कि सत्य आ गया और असत्य न (कुछ का) आरंभ कर सकता है और न (उसे) पुनः ला सकता है।
आप कह दें कि यदि मैं कुपथ हो गया, तो मेरे कुपथ होने का (भार) मुझपर है और यदि मैं सुपथ पर हूँ, तो उस वह़्यी के कारण जिसे मेरी ओर मेरा पालनहार उतार रहा है। वह सब कुछ सुनने वाला, समीप है।
तथा यदि आप देखेंगे, जब वे घबराये हुए[1] होंगे, तो उनके खो जाने का कोई उपाय न होगा तथा पकड़ लिए जायेंगे समीप स्थान से।
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1. प्रलय की यातना देख कर।
और कहेंगेः हम उस[1] पर ईमान लाये तथा कहाँ हाथ आ सकता है उनके (ईमान), इतने दूर स्थान[2] से?
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1. अर्थात अल्लाह तथा उस के रसूल पर। 2. ईमान लाने का स्थान तो संसार था। परन्तु संसार में उसे अस्वीकार कर दिया।
जबकि उन्होंने कुफ़्र कर दिया पहले उसके साथ और तीर मारते रहे बिन देखे, दूर[1] से।
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1. अर्थात अपने अनुमान से असत्य बातें करते रहे।
और रोक बना दी जायेगी उनके तथा उसके बीच, जिसकी वे कामना करेंगे जैसे किया गया इनके जैसों के साथ, इससे पहले। वास्तव में, वे संदेह में पड़े थे।
سورة سبأ
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التفسيرات

سورةُ (سَبَأٍ) من السُّوَر المكِّية، وقد نزَلتْ بعد سورة (لُقْمانَ)، وافتُتِحت بحمدِ الله وإثباتِ العلم له، وجاءت على ذِكْرِ إثباتِ البعث والجزاء، وأنَّه سبحانه يُعطِي مَن أطاع وآمَن، ويَمنَع من كفَر وجحَد، وقومُ (سَبَأٍ) هم مثالٌ واقعي لكفرِ النعمة وجحودها، ومثالٌ لقدرةِ الله عزَّ وجلَّ في الإيجاد والإعدام والتصرُّف في الكون، و(سَبَأٌ): اسمٌ لرجُلٍ.

ترتيبها المصحفي
34
نوعها
مكية
ألفاظها
884
ترتيب نزولها
58
العد المدني الأول
56
العد المدني الأخير
56
العد البصري
56
العد الكوفي
56
العد الشامي
55

* سورةُ (سَبَأٍ):

سُمِّيت سورةُ (سَبَأٍ) بهذا الاسم؛ لورودِ قصة أهل (سَبَأٍ) فيها، و(سَبَأٌ): اسمٌ لرجُلٍ؛ صح عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ رضي الله عنهما أنه قال: «إنَّ رجُلًا سألَ رسولَ اللهِ ﷺ عن سَبَأٍ؛ ما هو؟ أرجُلٌ أم امرأةٌ أم أرضٌ؟ فقال: «بل هو رجُلٌ، ولَدَ عشَرةً، فسكَنَ اليمَنَ منهم ستَّةٌ، وبالشَّامِ منهم أربعةٌ؛ فأمَّا اليمانيُّون: فمَذْحِجٌ، وكِنْدةُ، والأَزْدُ، والأشعَريُّون، وأنمارٌ، وحِمْيَرُ، عرَبًا كلُّها، وأمَّا الشَّاميَّةُ: فلَخْمٌ، وجُذَامُ، وعاملةُ، وغسَّانُ»». أخرجه أحمد (٢٨٩٨).

1. الاستفتاح بالحمد (١-٢).

2. قضية البعث والجزاء (٣-٩).

3. أمثلة عن شكرِ النعمة وكفرها (١٠-٢١).

4. داودُ وسليمان عليهما السلام مثالٌ عملي للأوَّابين الشاكرين (١٠-١٤).

5. قومُ (سَبَأٍ) مثالٌ واقعي لعاقبة كفرِ النِّعمة (١٥-٢١).

6. حوار مع المشركين (٢٢-٢٨).

7. مِن مَشاهدِ يوم القيامة (٢٩-٣٣).

8. التَّرَف والمُترَفون (٣٤-٣٩).

9. عَوْدٌ إلى مَشاهدِ يوم القيامة (٤٠-٤٢).

10. عود إلى حال المشركين في الدنيا (٤٣-٤٥).

11. دعوة للتفكُّر والنظر (٤٦-٥٤).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم " لمجموعة من العلماء (6 /172).

مقصدُها هو إثباتُ قدرةِ الله عزَّ وجلَّ على الإيجادِ والإعدامِ والتَّصرُّفِ في الكونِ، يُعطِي مَن شكَر، ويَمنَع مَن جحَد وكفَر، وذلك حقيقٌ منه إثباتُ يوم البعث والجزاء، ووقوعُه لا محالة، وقصَّةُ (سَبَأٍ) أكبَرُ دليل على ذلك المقصد.

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /377).