ترجمة سورة العلق

Abu Adel - Russian translation

ترجمة معاني سورة العلق باللغة الروسية من كتاب Abu Adel - Russian translation.

Сгусток(Ал-'алак)


Читай (о, Пророк) (что ниспосылается тебе) с именем Господа твоего, Который сотворил (все сущее)

(и Который) сотворил человека из сгустка (крови)!

Читай (о, Пророк) (что ниспосылается тебе), а Господь твой – щедрейший,

Который научил (людей) (письму) пером [письменной тростью],

научил человека тому, чего он не знал (и вывел его из темени невежества к свету знания).

Но нет же! Поистине, человек конечно же выходит за пределы (границ, установленных Аллахом)

от того, что видит (самого) себя разбогатевшим.

(Но пусть он знает, что) поистине к Господу твоему – возвращение [каждый возвратится к Аллаху, а не к кому-либо]!

Думал ли ты о том [об Абу Джахле], кто препятствует

рабу (Нашему) [Мухаммаду], когда он молится (Господу своему)?

Думал ли ты о том, если он [Мухаммад] на истинном пути (который ведет к счастью в этом мире и в Вечной жизни)

или приказывал (другим) остережение [праведные деяния, посредством которых остерегаются огня Ада]?

Думал ли ты (о, Пророк) о том, что если он [препятствующий молящемуся] счел за ложь (Истину) [посланническую миссию Мухаммада] и отвернулся (от Истинной Веры) (то каким будет его положение в День Суда и в Вечной жизни)?

Разве он [Абу Джахль] не знал, что Аллах видит (все что происходит)? (И как он смеет препятствовать Пророку делать то, что Аллах дозволил ему делать?)

Так нет! Если он [Абу Джахль] не удержится (причинять обиды Пророку), (то) Мы схватим его за хохол [чуб] -

хохол лживый, грешный (и выбросим в Ад).

И пусть он [Абу Джахль] зовет свое сборище [родственников и друзей] (чтобы они помогли ему) –

Мы позовем (ангелов) стражей (Ада)

Так нет! Не повинуйся ему (когда он требует, чтобы ты не совершал молитву в мечети аль-Харам), и ниц преклонись (пред Аллахом), и приближайся (к Нему) (своим подчинением, поклонением и служением)!
سورة العلق
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سورة (العَلَق) من السُّوَر المكية، وهي أولُ سورةٍ نزلت على النبي صلى الله عليه وسلم، وقد بدأت بأمرِ النبي صلى الله عليه وسلم بالقراءة؛ ليُعلِّمَه اللهُ عز وجل هذا الكتابَ، وقد جاءت على ذِكْرِ عظمة الله، وتذكيرِ الإنسان بخَلْقِ الله له من عدمٍ، وخُتمت بتأييد الله للنبي صلى الله عليه وسلم، ونصرِه له، وكفايتِه أعداءَه.

ترتيبها المصحفي
96
نوعها
مكية
ألفاظها
72
ترتيب نزولها
1
العد المدني الأول
20
العد المدني الأخير
20
العد البصري
19
العد الكوفي
19
العد الشامي
18

* قوله تعالى: {كَلَّآ إِنَّ اْلْإِنسَٰنَ لَيَطْغَىٰٓ ٦ أَن رَّءَاهُ اْسْتَغْنَىٰٓ ٧ إِنَّ إِلَىٰ رَبِّكَ اْلرُّجْعَىٰٓ ٨ أَرَءَيْتَ اْلَّذِي يَنْهَىٰ ٩ عَبْدًا إِذَا صَلَّىٰٓ ١٠ أَرَءَيْتَ إِن كَانَ عَلَى اْلْهُدَىٰٓ ١١ أَوْ أَمَرَ بِاْلتَّقْوَىٰٓ ١٢ أَرَءَيْتَ إِن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰٓ ١٣ أَلَمْ يَعْلَم بِأَنَّ اْللَّهَ يَرَىٰ ١٤ كَلَّا لَئِن لَّمْ يَنتَهِ لَنَسْفَعَۢا بِاْلنَّاصِيَةِ ١٥ نَاصِيَةٖ كَٰذِبَةٍ خَاطِئَةٖ ١٦ فَلْيَدْعُ نَادِيَهُۥ ١٧ سَنَدْعُ اْلزَّبَانِيَةَ ١٨ كَلَّا لَا تُطِعْهُ} [العلق: 13-19]:

عن أبي هُرَيرةَ رضي الله عنه، قال: «قال أبو جهلٍ: هل يُعفِّرُ مُحمَّدٌ وجهَه بَيْنَ أظهُرِكم؟ قال: فقيل: نَعم، فقال: واللَّاتِ والعُزَّى، لَئِنْ رأَيْتُه يَفعَلُ ذلك، لَأَطأنَّ على رقَبتِه، أو لَأُعفِّرَنَّ وجهَه في التُّرابِ، قال: فأتى رسولَ اللهِ ﷺ وهو يُصلِّي، زعَمَ لِيطأَ على رقَبتِه، قال: فما فَجِئَهم منه إلا وهو يَنكِصُ على عَقِبَيهِ، ويَتَّقي بيدَيهِ، قال: فقيل له: ما لكَ؟ فقال: إنَّ بَيْني وبَيْنَه لَخَنْدقًا مِن نارٍ، وهَوْلًا، وأجنحةً، فقال رسولُ اللهِ ﷺ: «لو دنَا منِّي، لَاختطَفَتْهُ الملائكةُ عضوًا عضوًا»، قال: فأنزَلَ اللهُ عز وجل - لا ندري في حديثِ أبي هُرَيرةَ، أو شيءٌ بلَغَه -: {كَلَّآ إِنَّ اْلْإِنسَٰنَ لَيَطْغَىٰٓ ٦ أَن رَّءَاهُ اْسْتَغْنَىٰٓ ٧ إِنَّ إِلَىٰ رَبِّكَ اْلرُّجْعَىٰٓ ٨}؛ يَعني: أبا جهلٍ، {أَرَءَيْتَ اْلَّذِي يَنْهَىٰ ٩ عَبْدًا إِذَا صَلَّىٰٓ ١٠ أَرَءَيْتَ إِن كَانَ عَلَى اْلْهُدَىٰٓ ١١ أَوْ أَمَرَ بِاْلتَّقْوَىٰٓ ١٢ أَرَءَيْتَ إِن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰٓ ١٣ أَلَمْ يَعْلَم بِأَنَّ اْللَّهَ يَرَىٰ ١٤ كَلَّا لَئِن لَّمْ يَنتَهِ لَنَسْفَعَۢا بِاْلنَّاصِيَةِ ١٥ نَاصِيَةٖ كَٰذِبَةٍ خَاطِئَةٖ ١٦ فَلْيَدْعُ نَادِيَهُۥ ١٧ سَنَدْعُ اْلزَّبَانِيَةَ ١٨ كَلَّا لَا تُطِعْهُ} [العلق: 13-19]». زاد عُبَيدُ اللهِ في حديثِه قال: «وأمَرَه بما أمَرَه به». وزادَ ابنُ عبدِ الأعلى: «{فَلْيَدْعُ نَادِيَهُۥ}؛ يَعني: قومَهُ». أخرجه مسلم (٢٧٩٧).

* سورة (العَلَق):

سُمِّيت سورة (العَلَق) بهذا الاسم؛ لوقوع لفظ (العَلَق) في أولها؛ قال تعالى: {اْقْرَأْ بِاْسْمِ رَبِّكَ اْلَّذِي خَلَقَ ١ خَلَقَ اْلْإِنسَٰنَ مِنْ عَلَقٍ} [العلق: 1-2].

* وكذلك تُسمَّى بسورة {اْقْرَأْ}، و{اْقْرَأْ بِاْسْمِ رَبِّكَ}؛ للسبب نفسه.

1. الخَلْقُ والتعليم مُوجِب للشكر (١-٥).

2. انحرافُ صِنْفٍ من البشر عن الشكر (٦-٨).

3. صورة من صُوَر طغيان البشر (٩-١٩).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (9 /253).

يقول ابنُ عاشور عن مقاصدها: «تلقينُ مُحمَّدٍ صلى الله عليه وسلم الكلامَ القرآني وتلاوتَه؛ إذ كان لا يَعرِف التلاوةَ من قبل.
والإيماء إلى أنَّ عِلْمَه بذلك مُيسَّر؛ لأن اللهَ الذي ألهم البشرَ العلمَ بالكتابة قادرٌ على تعليم من يشاءُ ابتداءً.
وإيماء إلى أن أمَّتَه ستَصِير إلى معرفة القراءة والكتابة والعلم.
وتوجيهه إلى النظر في خلقِ الله الموجودات، وخاصةً خَلْقَه الإنسانَ خَلْقًا عجيبًا مستخرَجًا من علَقةٍ، فذلك مبدأ النظر.
وتهديد مَن كذَّب النبيَّ صلى الله عليه وسلم وتعرَّضَ ليصُدَّه عن الصلاة والدعوة إلى الهدى والتقوى.
وإعلام النبي صلى الله عليه وسلم أن اللهَ عالمٌ بأمرِ مَن يناوُونه، وأنه قامِعُهم، وناصرُ رسولِه.
وتثبيت الرسول على ما جاءه من الحقِّ، والصلاة، والتقرب إلى الله.
وألا يعبأ بقوةِ أعدائه؛ لأن قوَّةَ الله تقهرهم». "التحرير والتنوير" لابن عاشور (30 /434).