ترجمة سورة الأنفال

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة الأنفال باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

(हे नबी!) आपसे (आपके साथी) युध्द में प्राप्त धन के विषय में प्रश्न कर रहे हैं। कह दें कि यूध्द में प्राप्त धन अल्लाह और रसूल के हैं। अतः अल्लाह से डरो और आपस में सुधार रखो तथा अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञाकारी रहो[1] यदि तुम ईमान वाले हो।
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1. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तेरह वर्ष तक मक्का के मिश्रणवादियों के अत्याचार सहन किये। फिर मदीना हिजरत कर गये। परन्तु वहाँ भी मक्का वासियों ने आप को चैन नहीं लेने दिया। और निरन्तर आक्रमण आरंभ कर दिये। ऐसी दशा में आप भी अपनी रक्षा के लिये वीरता के साथ अपने 313 साथियों को ले कर बद्र के रणक्षेत्र में पहुँचे। जिस में मिश्रणवादियों की प्राजय हुई। और कुछ सामान भी मुसलमानों के हाथ आया। जिसे इस्लामी परिभाषा में "माले-ग़नीमत" कहा जाता है। और उसी के विषय में प्रश्न का उत्तर इस आयत में दिया गया है। यह प्रथम युध्द हिजरत के दूसरे वर्ष हुआ।
वास्तव में, ईमान वाले वही हैं कि जब अल्लाह का वर्णन किया जाये, तो उनके दिल काँप उठते हैं और जब उनके समक्ष उसकी आयतें पढ़ी जायें, तो उनका ईमान अधिक हो जाता है और वे अपने पालनहार पर ही भरोसा रखते हैं।
जो नमाज़ की स्थापना करते हैं तथा हमने उन्हें जो कुछ प्रदान किया है, उसमें से दान करते हैं।
वही सच्चे ईमान वाले हैं, उन्हीं के लिए उनके पालनहार के पास श्रेणियाँ तथा क्षमा और उत्तम जीविका है।
जिस प्रकार,[1] आपको, आपके पालनहार ने, आपके घर (मदीना) से (मिश्रणवादियों से युध्द के लिए सत्य के साथ) निकाला, जबकि ईमान वालों का एक समुदाय इससे अप्रसन्न था।
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1. अर्थात यह युध्द के माल का विषय भी उसी प्रकार है कि अल्लाह ने उसे अपने और अपने रसूल का भाग बना दिया, जिस प्रकार अपने आदेश से आप को यूध्द के लिये निकाला।
वे आपसे सच (युध्द) के बारे में झगड़ रहे थे, जबकि वह उजागर हो गया था, (कि युध्द होना है, उनकी ये ह़ालत थी,) जैसे वे मौत की ओर हाँके जा रहे हों और वे उसे देख रहे हों।
तथा (वह समय याद करो) जब अल्लाह तुम्हें वचन दे रहा था कि दो गिरोहों में एक तुम्हारे हाथ आयेगा और तुम चाहते थे कि निर्बल गिरोह तुम्हारे हाथ लगे[1]। परन्तु अल्लाह चाहता था कि अपने वचन द्वारा सत्य को सिध्द कर दे और काफ़िरों की जड़ काट दे।
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1. इस में निर्बल गिरोह व्यपारिक क़ाफ़िले को कहा गया है। अर्थात क़ुरैश मक्का का व्यपारिक क़ाफ़िला जो सीरिया की ओर से आ रहा था, या उन की सेना जो मक्का से आ रही थी।
इस प्रकार सत्य को सत्य और असत्य को असत्य कर दे। यद्यपि अपराधियों को बुरा लगे।
जब तुम अपने पालनहार को (बद्र के युध्द के समय) गुहार रहे थे। तो उसने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली। (और कहाः) मैं तुम्हारी सहायता के लिए लगातार एक हज़ार फ़रिश्ते भेज रहा[1] हूँ।
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1. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बद्र के दिन कहाः यह घोड़े की लगाम थामे और हथियार लगाये जिब्रील अलैहिस्सलाम आये हुये हैं। (देखियेः सह़ीह़ बुख़ारीः3995) इसी प्रकार एक मुसलमान एक मुश्रिक का पीछा कर रहा था कि अपने ऊपर से घुड़ सवार की आवाज़ सुनीः हैज़ूम (घोड़े का नाम) आगे बढ़। फिर देखा कि मुश्रिक उस के सामने चित गिरा हुआ है। उस की नाक और चेहरे पर कोड़े की मार का निशान है। फिर उस ने यह बात नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को बतायी। तो आप ने कहाः सच्च है। यह तीसरे आकाश की सहायता है। (देखियेः सह़ीह़ मुस्लिमः 1763)
और अल्लाह ने ये इसलिए बता दिया, ताकि (तुम्हारे लिए) शुभ सूचना हो और ताकि तुम्हारे दिलों को संतोष हो जाये। अन्यथा सहायता तो अल्लाह ही की ओर से होती है। वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
और वह समय याद करो जब अल्लाह अपनी ओर से शान्ति के लिए तुमपर ऊँघ डाल रहा था और तुमपर आकाश से जल बरसा रहा था, ताकि तुम्हें स्वच्छ कर दे और तुमसे शैतान की मलीनता दूर कर दे और तुम्हारे दिलों को साहस दे और (तुम्हारे) पाँव जमा दे[1]।
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1. बद्र के युध्द के समय मुसलमानों की संख्या मात्र 313 थी। और सिवाये एक व्यक्ति के किसी के पास घोड़ा न था। मुसलमान डरे-सहमे थे। जल के स्थान पर शत्रु ने पहले ही अधिकार कर लिया था। भूमि रेतीली थी जिस में पाँव धंस जाते थे। और शत्रु सवार थे। और उन की संख्या भी तीन गुना थी। ऐसी दशा में अल्लाह ने मुसलमानों पर निद्रा उतार कर उन्हें निश्चिन्त कर दिया और वर्षा कर के पानी की व्यवस्था कर दी। जिस से भूमि भी कड़ी हो गई। और अपनी असफलता का भय जो शैतानी संशय था, वह भी दूर हो गया।
(हे नबी!) ये वो समय था, जब आपका पालनहार फ़रिश्तों को संकेत कर रहा था कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम ईमान वालों को स्थिर रखो, मैं कीफ़िरों के दिलों में भय डाल दूँगा। तो (हे मुसलमानों!) तुम उनकी गरदनों पर तथा पोर-पोर पर आघात पहुँचाओ।
ये इसलिए कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का विरोध किया तथा जो अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करेगा, तो निश्चय अल्लाह उसे कड़ी यातना देने वाला है।
ये है (तुम्हारी यातना), तो इसका स्वाद चखो और (जान लो कि) काफ़िरों के लिए नरक की यातना (भी) है।
हे इमान वालो! जब काफ़िरों की सेना से भिड़ो, तो उन्हें पीठ न दिखाओ।
और जो कोई उस दिन अपनी पीठ दिखायेगा, परन्तु फिरकर आक्रमण करने अथवा (अपने) किसी गिरोह से मिलने के लिए, तो वह अल्लाह के प्रकोप में घिर जायेगा और उसका स्थान नरक है और वह बहुत ही बुरा स्थान है।
अतः (रणक्षेत्र में) उन्हें वध तुमने नहीं किया, परन्तु अल्लाह ने उन्हें वध किया और हे नबी! आपने नहीं फेंका, जब फेंका, परन्तु अल्लाह ने फेंका। और (ये इसलिए हुआ) ताकि अल्लाह इसके द्वारा ईमान वालों की एक उत्तम परीक्षा ले। वास्तव में, अल्लाह सबकुछ सुनने और जानने[1] वाला है।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि शत्रु पर विजय तुम्हारी शक्ति से नहीं हुई। इसी प्रकार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रणक्षेत्र में कंकरियाँ ले कर शत्रु की सेना की ओर फेंकी, जो प्रत्येक शत्रु की आँख में पड़ गई। और वहीं से उन की प्राजय का आरंभ हुआ तो उस धूल को शत्रु की आँखों तक अल्लाह ही ने पहुँचाया था। (इब्ने कसीर)
ये सब तुम्हारे लिए हो गया और अल्लाह काफ़िरों की चालों को निर्बल करने वाला है।
यदि तुम[1] निर्णय चाहते हो, तो तुम्हारे सामने निर्णय आ गया है और यदि तुम रुक जाओ, तो तुम्हारे लिए उत्तम है और यदि फिर पहले जैसा करोगे, तो हमभी वैसा ही करेंगे और तुम्हारा जत्था तुम्हारे कुछ काम नहीं आयेगा, यद्यपि अधिक हो और निश्चय अल्लाह ईमान वालों के साथ है।
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1. आयत में मक्का के काफ़िरों को सम्बोधित किया गया है, जो कहते थे कि यदि तुम सच्चे हो तो इस का निर्णय कब होगा? (देखियेः सूरह सज्दा, आयतः28)
हे ईमान वालो! अल्लाह के आज्ञाकारी रहो तथा उसके रसूल के और उससे मुँह न फेरो, जबकि सुन रहे हो।
तथा उनके समान[1] न हो जाओ, जिन्होंने कहा कि हमने सुन लिया, जबकि वास्तव में वे सुनते नहीं थे।
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1. इस में संकेत अह्ले किताब की ओर है।
वास्तव में, अल्लाह के हाँ सबसे बुरे पशु वे (मानव) हैं, जो बहरे-गूँगे हों, जो कुछ समझते न हों।
और यदि अल्लाह उनमें कुछ भी भलाई जानता, तो उन्हें सुना देता और यदि उन्हें सुना भी दे, तो भी वे मुँह फेर लेंगे और वे विमुख हैं ही।
हे ईमान वालो! अल्लाह और उसके रसूल की पुकार सुनो, जब तुम्हें उसकी ओर बुलाये, जो तुम्हारी[1] (आत्मा) को जीवन प्रदान करे और जान लो कि अल्लाह मानव और उसके दिल के बीच आड़े[2] आ जाता है और निःसंदेह तुम उसी के पास (अपने कर्म फल के लिए) एकत्र किये जाओगे।
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1. इस से अभिप्राय क़ुर्आन तथा इस्लाम है। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात जो अल्लाह और उस के रसूल की बात नहीं मानता, तो अल्लाह उसे मार्गदर्शन भी नहीं देता।
तथा उस आपदा से डरो, जो तुममें से अत्याचारियों पर ही विशेष रूप से नहीं आयेगी और विश्वास रखो[1] कि अल्लाह कड़ी यातना देने वाला है।
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1. इस आयत का भावार्थ यह है कि अपने समाज में बुराईयों को न पनपने दो। अन्यथा जो आपदा आयेगी वह सर्वसाधारण पर आयेगी। (इबने कसीर)
तथा वो समय याद करो, जबतुम (मक्का में) बहुत थोड़े निर्बल समझे जाते थे। तुम डर रहे थे कि लोग तुम्हें उचक न लें। तो अल्लाह ने तुम्हें (मदीना में) शरण दी और अपनी सहायता द्वारा तुम्हें समर्थन दिया और तुम्हें स्वच्छ जीविका प्रदान की, ताकि तुम कृतज्ञ रहो।
हे ईमान वालो! अल्लाह तथा उसके रसूल के साथ विश्वासघात न करो और न अपनी अमानतों (कर्तव्य) के साथ विश्वासघात[1] करो, जानते हुए।
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1. अर्थात अल्लाह और उस के रसूल के लिये जो तुम्हारा दायित्व और कर्तव्य है उसे पूरा करो। (इब्ने कसीर)
तथा जान लो कि तुम्हारा धन और तुम्हारी संतान एक परीक्षा हैं तथा ये कि अल्लाह के पास बड़ा प्रतिफल है।
हे ईमान वालो! यदि तुम अल्लाह से डरोगे, तो तुम्हें विवेक[1] प्रदान करेगा तथा तुमसे तुम्हारी बुराईयाँ दूर कर देगा, तुम्हे क्षमा कर देगा और अल्लाह बड़ा दयाशील है।
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1. विवेक का अर्थ है सत्य और असत्य के बीच अन्तर करने की शक्ति। कुछ ने फ़ुर्क़ान का अर्थ निर्णय लिया है। अर्थात अल्लाह तुम्हारे और तुम्हारे विरोधियों के बीच निर्णय कर देगा।
तथा (हे नबी! वो समय याद करो) जब (मक्का में) काफ़िर आपके विरुध्द षड्यंत्र रच रहे थे, ताकि आपको क़ैद कर लें, वध कर दें अथवा देश निकाला दे दें तथा वे षड्यंत्र रच रहे थे और अल्लह अपना उपाय कर रहा था और अल्लाह का उपाय[1] सबसे उत्तम है।
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1. अर्थात उन की सभी योजनाओं को असफल कर के आप को सुरक्षित मदीना पहुँचा दिया।
और जब उनको हमारी आयतें सुनाई जाती हैं, तो कहते हैः हमने (इसे) सुन लिया है। यदि हम चाहें, तो इसी (क़ुर्आन) जैसी बातें कह दें। ये तो वही प्राचीन लोगों की कथायें हैं।
तथा (याद करो) जब उन्होंने कहाः हे अल्लाह! यदि ये[1] तेरी ओर से सत्य है, तो हमपर आकाश से पत्थरों की वर्षा कर दे अथवा हमपर दुःखदायी यातना ले आ।
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1. अर्थात क़ुर्आन। यह बात क़ुरैश के मुख्या अबू जह्ल ने कही थी, जिस पर आगे की आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4648)
और अल्लाह उन्हें यातना नहीं दे सकता था, जब तक आप उनके बीच थे और न उन्हें यातना देने वाला है, जब तक वे क्षमा याचना कर रहे हों।
और अब उनपर क्यों न यातना उतारे, जबकि वे सम्मानित मस्जिद (काबा) से रोक रहे हैं, जबकि वे उसके संरक्षक नहीं हैं। उसके संरक्षक तो केवल अल्लाह के आज्ञाकारी हैं, परन्तु अधिकांश लोग (इसे) नहीं जानते।
और अल्लाह के घर (काबा) के पास इनकी नमाज़ इसके सिवा क्या थी कि सीटियाँ और तालियाँ बजायें? तो अब[1] अपने कुफ़्र (अस्वीकार) के बदले यातना का स्वाद चखो।
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1. अर्थात बद्र में पराजय की यातना।
जो काफ़िर हो गये, वे अपना धन इसलिए ख़र्च करते हैं कि अल्लाह की राह से रोक दें। तो वे अपना धन ख़र्च करते रहेंगे, फिर (वो समय आयेगा कि) वह उनके लिए पछतावे का कारण हो जायेगा। फिर पराजित होंगे तथा जो काफ़िर हो गये, वे नरक की ओर हाँक दिये जायेंगे।
ताकि अल्लाह मलीन को पवित्र से अलग कर दे तथा मलीनों को एक-दूसरे से मिला दे। फिर सबका ढेर बना दे और उन्हें नरक में फेंक दे, यही क्षतिग्रस्त हैं।
(हे नबी!) इन काफ़िरों से कह दोः यदि वे रुक[1] गये, तो जो कुछ हो गया है, वह उनसे क्षमा कर दिया जायेगा और यदि पहले जैसा ही करेंगे, तो अगली जातियों की दुर्गत हो चुकी है।
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1. अर्थात ईमान लाये।
हे ईमान वालो! उनसे उस समय तक युध्द करो कि[1] फ़ित्ना (अत्याचार तथा उपद्रव) समाप्त हो जाये और धर्म पूरा अल्लाह के लिए हो जाये। तो यदि वे (अत्याचार से) रुक जायें तो अल्लाह उनके कर्मों को देख रहा है।
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1. इब्ने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) ने कहाः नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) मुश्रिकों से उस समय युध्द कर रहे थे जब मुसलमान कम थे। और उन्हें अपने धर्म के कारण सताया, मारा और बंदी बना लिया जाता था। (सह़ीह़ बुख़ारीः4650, 4651)
और यदि वे मुँह फेरें, तो जान लो कि अल्लाह रक्षक है और वह क्या ही अच्छा संरक्षक तथा क्या ही अच्छा सहायक है?
और जान[1] लो कि तुम्हें जो कुछ ग़नीमत में मिला है, उसका पाँचवाँ भाग अल्लाह तथा रसूल और (आपके) समीपवर्तियों तथा अनाथों, निर्धनों और यात्रियों के लिए है, यदि तुम अल्लाह पर तथा उस (सहायता) पर ईमान रखते हो, जो हमने अपने भक्त पर निर्णय[2] के दिन उतारी, जिस दिन, दो सेनायें भिड़ गईं और अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
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1. इस में ग़नीमत (युध्द में मिले सामान) के वितरण का नियम बताया गया है कि उस के पाँच भाग कर के चार भाग मुजाहिदों को दिये जायें। पैदल को एक भाग तथा सवार को तीन भाग। फिर पाँचवाँ भाग अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैही व सल्लम) के लिये था जिसे आप अपने परिवार और समीपवर्तियों तथा अनाथों और निर्धनों की सहायता के लिये ख़र्च करते थे। इस प्रकार इस्लाम ने अनाथों और निर्धनों की सहायता पर सदा ध्यान दिया है। और ग़नीमत में उन्हें भी भाग दिया है, यह इस्लाम की वह विशेषता है जो किसी धर्म में नहीं मिलेगी। 2. अर्थात मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर। निर्णय के दिन से अभिप्राय बद्र के युध्द का दिन है जो सत्य और असत्य के बीच निर्णय का दिन था। जिस में काफ़िरों के बड़े बड़े प्रमुख और वीर मारे गये, जिन के शव बद्र के एक कुवें में फेंक दिये गये। फिर आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कुवें के किनारे खड़े हुये और उन्हें उन के नामों से पुकारने लगे कि क्या तुम प्रसन्न होते कि अल्लाह और उस के रसूल को मानते? हम ने अपने पालनहार का वचन सच्च पाया तो क्या तुमने सच्च पाया? उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहाः क्या आप ऐसे शरीरों से बात कर रहे हैं जिन में प्राण नहीं? आप ने कहाः मेरी बात तुम उन से अधिक नहीं सुन रहे हो। (सह़ीह़ बुख़ारीः3976)
तथा उस समय को याद करो जब तुम (रणक्षेत्र में) इधर के किनारे तथा वे (शत्रु) उधर के किनारे पर थे और क़ाफ़िला तुमसे नीचे था। यदि तुम आपस में (युध्द का) निश्चय करते, तो निश्चित समय से अवश्य कतरा जाते। परन्तु अल्लाह ने (दोनों को भिड़ा दिया) ताकि जो होना था, उसका निर्णय कर दे, ताकि जो मरे, वह खुले प्रमाण के पश्चात मरे और जो जीवित रहे, वह खुले प्रमाण के साथ जीवित रहे और वस्तुतः अल्लाह सबकुछ सुनने-जानने वाला है।
तथा (हे नबी! वो समय याद करें) जब आपको, (अल्लाह) आपके सपने[1] में, उन्हें (शत्रु को) थोड़ा दिखा रहा था और यदि उन्हें आपको अधिक दिखा देता, तो तुम साहस खो देते और इस (युध्द के) विषय में आपस में झगड़ने लगते। परन्तु अल्लाह ने तुम्हें बचा लिया। वास्तव में, वह सीनों (अन्तरात्मा) की बातों से भली-भाँति अवगत है।
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1. इस में उस स्वप्न की ओर संकेत है, जो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को युध्द से पहले दिखाया गया था।
तथा (याद करो उस समय को) जब अल्लाह उन (शत्रु) को लड़ाई के समय तुम्हारी आँखों में तुम्हारे लिए थोड़ा करके दिखा रहा था और इनकी आँखों में तुम्हें थोड़ा करके दिखा रहा था, ताकि जो होना था, अल्लाह उसका निर्णय कर दे और सभी कर्म अल्लाह ही की ओर फेरे[1] जाते हैं।
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1. अर्थात सब का निर्णय वही करता है।
हे ईमान वालो! जब (आक्रमणकारियों) के किसी गिरोह से भिड़ो, तो जम जाओ तथा अल्लाह को बहुत याद करो, ताकि तुम सफल रहो।
तथा अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञाकारी रहो और आपस में विवाद न करो, अन्यथा तुम कमज़ोर हो जाओगे और तुम्हारी हवा उखड़ जायेगी तथा धैर्य से काम लो, वास्तव में, अल्लाह धैर्यवानों के साथ है।
और उन[1] के समान न हो जाओ, जो अपने घरों से इतराते हुए तथा लोगों को दिखाते हुए निकले और वे अल्लाह की राह (इस्लाम) से लोगों को रोकते हैं और अल्लाह उनके कर्मों को (अपने ज्ञान के) घेरे में लिए हुए है।
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1. इस से अभिप्राय मक्का की सेना है, जिस को अबू जह्ल लाया था।
जब शैतान[1] ने उनके लिए उनके कुकर्मों को शोभनीय बना दिया था और उस (शैतान) ने कहाः आज तुमपर कोई प्रभुत्व नहीं पा सकता और मैं तुम्हारा सहायक हूँ। फिर जब दोनों सेनायें सम्मुख हो गईं, तो अपनी एड़ियों के बल फिर गया और कह दिया कि मैं तुमसे अलग हूँ। मैं जो देख रहा हूँ, तुम नहीं देखते। वास्तव में, मैं अल्लाह से डर रहा हूँ और अल्लाह कड़ी यातना देने वाला है।
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1. बद्र के युध्द में शैतान भी अपनी सेना के साथ सुराक़ा बिन मालिक के रूप में आया था। परन्तु जब फ़रिश्तों को देखा तो भाग गया। (इब्ने कसीर)
तथा (वो समय याद करो) जब मुनाफ़िक़ तथा जिनके दिलों में रोग है, वे कह रहे थे कि इन (मुसलमानों) को इनके धर्म ने धोखा दिया है तथा जो अल्लाह पर निर्भर करे, तो वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
और क्या ही अच्छा होता, यदि आप उस दशा को देखते, जब फ़रिश्ते (बधिक) काफ़िरों के प्राण निकाल रहे थे, तो उनके मुखों और उनकी पीठों पर मार रहे थे तथा (कह रहे थे कि) दहन की यातना[1] चखो।
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1. बद्र के युध्द में काफ़िरों के कई प्रमुख मारे गये। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने युध्द से पहले बता दिया कि अमुक इस स्थान पर मारा जायेगा तथा अमुक इस स्थान पर। और युध्द समाप्त होने पर उन का शव उन्हीं स्थानों पर मिला। तनिक भी इधर उधर नहीं हुआ। (बुख़ारीः4480) ऐसे ही आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने युध्द के समय कहा कि सारे जत्थे पराजित हो जायेंगे और पीठ दिखा देंगे। और उसी समय शत्रु पराजित होने लगे। (बुख़ारीः4875)
यही तुम्हारे करतूतों का प्रतिफल है और अल्लाह अपने भक्तों पर अत्याचार करने वाला नहीं है।
इनकी दशा भी फ़िरऔनियों तथा उनके जैसी हुई, जिन्होंने इससे पहले अल्लाह की आयतों को नकार दिया, तो अल्लाह ने उनके पापों के बदले उन्हें पकड़ लिया। वास्तव में, अल्लाह बड़ा शक्तिशाली, कड़ी यातना देने वाला है।
अल्लाह का ये नियम है कि वह उस पुरस्कार में परिवर्तन करने वाला नहीं है, जो किसी जाति पर किया हो, जब तक वह स्वयं अपनी दशा में परिवर्तन न कर ले और वास्तव में, अल्लाह सबकुछ सुनने-जानने वाला है।
इनकी दशा फ़िरऔनियों तथा उन लोगों जैसी हुई, जो इनसे पहले थे, उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठला दिया, तो हमने उन्हें उनके पापों के कारण ध्वस्त कर दिया तथा फ़िरऔनियों को डुबो दिया और वह सभी अत्याचारी[1] थे।
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1. इस आयत में तथा आयत संख्या 52 में व्यक्तियों तथा जातियों के उत्थान और पतन का विधान बताया गया है कि वह स्वयं अपने कर्मों से अपना अपना जीवन बनाती या अपना विनाश करती हैं।
वास्तव में, सबसे बुरे जीव अल्लाह के पास वो हैं, जो काफ़िर हो गये और ईमान नहीं लाये। ये वे[1] लोग हैं, जिनसे आपने संधि की, फिर वे प्रत्येक अवसर पर अपना वचन भंग कर देते हैं और (अल्लाह से) नहीं डरते।
ये वे[1] लोग हैं, जिनसे आपने संधि की। फिर वे प्रत्येक अवसर पर अपना वचन भंग कर देते हैं और (अल्लाह से) नहीं डरते।
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1. इस में मदीना के यहूदियों की ओर संकेत है। जिन से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की संधि थी। फिर भी वे मुसलमानों के विरोध में गतिशील थे और बद्र के तुरन्त बाद ही क़ुरैश को बदले के लिये भड़काने लगे थे।
तो यदि ऐसे (वचनभंगी) आपको रणक्षेत्र में मिल जायें, तो उन्हें शिक्षाप्रद दण्ड दें, ताकि जो उनके पीछे हैं, वे शिक्षा ग्रहण करें।
और यदि आपको किसी जाति से विश्वासघात (संधि भंग करने) का भय हो, तो बराबरी के आधार पर संधि तोड़[1] दें। क्योंकि अल्लाह विश्वासघातियों से प्रेम नहीं करता।
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1. अर्थात उन्हें पहले सूचित कर दो कि अब हमारे तुम्हारे बीच संधि नहीं है।
जो काफ़िर हो गये, वे कदापि ये न समझें कि हमसे आगे हो जायेंगे। निश्चय वे (हमें) विवश नहीं कर सकेंगे।
तथा तुमसे जितनी हो सके, उनके लिए शक्ति तथा सीमा रक्षा के लिए घोड़े तैयार रखो, जिससे अल्लाह के शत्रुओं तथा अपने शत्रुओं को और इनके सिवा दूसरों को डराओ[1], जिन्हें तुम नहीं जानते, उन्हें अल्लाह ही जानता है और अल्लाह की राह में तुम जो भी व्यय (खर्च) करोगे, तुम्हें पूरा मिलेगा और तुमपर अत्याचार नहीं किया जायेगा।
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1. ताकि वह तुम पर आक्रमण करने का साहस न करें, और आक्रमण करें तो अपनी रक्षा करो।
और यदि वे (शत्रु) संधि की ओर झुकें, तो आपभी उसके लिए झुक जायें और अल्लाह पर भरोसा करें। निश्चय वह सब कुछ सुनने-जानने वाला है।
और यदि वे (संधि करके) आपको धोखा देना चाहेंगे, तो अल्लाह आपके लिए काफ़ी है। वही है, जिसने अपनी सहायता तथा ईमान वालों के द्वारा आपको समर्थन दिया है।
और उनके दिलों को जाड़ दिया और यदि आप धरती में जोकुछ है, सब व्यय (खर्च) कर देते, तो भी उनके दिलों को नहीं जोड़ सकते थे। वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ (निपुन) है।
हे नबी! आपके लिए तथा आपके ईमान वाले साथियों के लिए अल्लाह काफ़ी है।
हे नबी! ईमान वालों को युध्द की प्रेरणा दो[1]। यदि तुममें से बीस धैर्यवान होंगे, तो दो सौ पर विजयी प्राप्त कर लेंगे और यदि तुमसे सौ होंगे, तो उनकाफ़िरों के एक हज़ार पर विजयी प्राप्त कर लेंगे। इसलिए कि वे समझ-बूझ नहीं रखते।
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1. इस लिये कि काफ़िर मैदान में आ गये हैं और आप से युध्द करना चाहते हैं। ऐसी दशा में जिहाद अनिवार्य हो जाता है, ताकि शत्रु के आक्रमण से बचा जाये।
अब अल्लाह ने तुम्हारा बोझ हल्का कर दिया और जान लिया कि तुममें कुछ निर्बलता है, तो यदि तुममें से सौ सहनशील हों, तो दो सौ पर विजय प्राप्त कर लेंगे और यदि तुममें से एक हज़ार हों, तो अल्लाह की अनुमति से दो हजार पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेंगे और अल्लाह सहनशीलों के साथ है[1]।
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1. अर्थात उन का सहायक है जो दुःख तथा सुख प्रत्येक दशा में उस के नियमों का पालन करते हैं।
किसी नबी के लिए ये उचित न था कि उसके पास बंदी हों, जब तक कि धरती (रणक्षेत्र) में अच्छी तरह़ रक्तपात न कर दे। तुम सांसारिक लाभ चाहते हो और अल्लाह (तुम्हारे लिए) आख़िरत (परलोक) चाहता है और अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
यदि इसके बारे में, पहले से अल्लाह का लेख (निर्णय) न होता, तो जो (अर्थ दण्ड) तुमने लिया[1] है, उसके लेने में तुम्हें बड़ी यातना दी जाती।
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1. यह आयत बद्र के बंदियों के बारे में उतरी। जब अल्लाह के किसी आदेश के बिना आपस के प्रामर्श से उन से अर्थ दण्ड ले लिया गया। (इब्ने कसीर)
तो उस ग़नीमत में से[1] खाओ, वह ह़लाल (उचित) स्वच्छ है तथा अल्लाह के आज्ञाकारी रहो। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमा करने वाला, दयावान है।
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1. आप (सल्लल्लाहु अलैही व सल्लम) ने कहाः मेरी एक विशेषता यह भी है कि मेरे लिये ग़नीमत उचित कर दी गई, जो मुझ से पहले किसी नबी के लिये उचित नहीं थी। (बुख़ारीः335, मुस्लिमः521)
हे नबी! जो तुम्हारे हाथों में बंदी हैं, उनसे कह दो कि यदि अल्लाह ने तुम्हारे दिलों में कोई भलाई देखी, तो तुम्हें उससे उत्तम चीज़ (ईमान) प्रदान करेगा, जो (अर्थ दण्ड) तुमसे लिया गया है और तुम्हें क्षमा कर देगा और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान है।
और यदि वे आपके साथ विश्वासघात करना चाहेंगे, तो इससे पूर्व वे अल्लाह के साथ विश्वासघात कर चुके हैं। इसलिए अल्लाह ने उन्हें (आपके) वश में किया है तथा अल्लाह अति ज्ञानी, उपायजानने वाला है।
निःसंदेह, जो ईमान लाये तथा हिजरत (परस्थान) कर गये और अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों से जिहाद किये तथा जिन लोगों ने उन्हें शरण दिया तथा सहायता की, वही एक-दूसरे के सहायक हैं और जो ईमान नहीं लाये और न हिजरत (परस्थान) की, उनसे तुम्हारी सहायता का कोई संबंध नहीं, यहाँ तक कि हिजरत करके आ जायें और यदि वे धर्म के बारें में तुमसे सहायता मांगें, तो तुमपर उनकी सहायता करना आवश्यक है। परन्तु किसी ऐसी जाति के विरुध्द नहीं, जिनके और तुम्हारे बीच संधि हो तथा तुम जो कुछ कर रहे हो, उसे अल्लाह देख रहा है।
और कीफ़िर एक-दूसरे के समर्थक हैं और यदि तुम ऐसा न करोगे, तो धरती में उपद्रव तथा बड़ा बिगाड़ उत्पन्न हो जायेगा।
तथ जो ईमान लाये, हिजरत कर गये, अल्लाह की राह में संघर्ष किया और जिन लोगों ने (उन्हें) शरण दी और (उनकी) सहायता की, वही सच्चे ईमान वाले हैं। उन्हीं के लिए क्षमा तथा उन्हीं के लिए उत्तम जीविका है।
तथा जो लोग इनके पश्चात् ईमान लाये और हिजरत कर गये और तुम्हारे साथ मिलकर संघर्ष किया, वही तुम्हारे अपने हैं और वही परिवारिक समीपवर्ती अल्लाह के लेख (आदेश) में अधिक समीप[1] हैं। वास्तव में, अललाह प्रत्येक चीज़ का अति ज्ञानी है।
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1. अर्थात मीरास में उन को प्राथमिक्ता प्राप्त है।
سورة الأنفال
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اعتنَتْ سورةُ (الأنفال) ببيانِ أحكامِ الحرب والغنائمِ والأَسْرى؛ ولذا سُمِّيتْ بهذا الاسمِ، وقد نزَلتْ هذه السورةُ في المدينةِ بعد غزوة (بَدْرٍ)؛ لذا تعلَّقتْ أسبابُ نزولها بهذه الغزوة، وقد أبانت السورةُ عن قوانين النَّصر المادية: كتجهيز العَتاد، والمعنوية: كوَحْدة الصَّف، وأوضَحتْ حُكْمَ الفِرار من المعركة، وقتالِ الكفار، وما يَتبَع ذلك من أحكامٍ ربانيَّة، كما أصَّلتْ - بشكل رئيسٍ - لقواعدِ عَلاقة المجتمع المسلم بغيره.

ترتيبها المصحفي
8
نوعها
مدنية
ألفاظها
1243
ترتيب نزولها
88
العد المدني الأول
76
العد المدني الأخير
67
العد البصري
76
العد الكوفي
75
العد الشامي
77

تعلَّقتْ سورةُ (الأنفال) بوقائعَ كثيرةٍ؛ لذا صحَّ في أسبابِ نزولها الكثيرُ؛ من ذلك:

* ما جاء عن سعيدِ بن جُبَيرٍ رحمه الله، قال: «قلتُ لابنِ عباسٍ: سورةُ التَّوبة؟ قال: التَّوبةُ هي الفاضحةُ، ما زالت تَنزِلُ: ﴿وَمِنْهُمْ﴾ ﴿وَمِنْهُمْ﴾ حتى ظَنُّوا أنَّها لن تُبقِيَ أحدًا منهم إلا ذُكِرَ فيها، قال: قلتُ: سورةُ الأنفالِ؟ قال: نزَلتْ في بَدْرٍ، قال: قلتُ: سورةُ الحشرِ؟ قال: نزَلتْ في بني النَّضِيرِ». أخرجه مسلم (٣٠٣١).

* قوله تعالى: ﴿يَسْـَٔلُونَكَ عَنِ اْلْأَنفَالِۖ قُلِ اْلْأَنفَالُ لِلَّهِ وَاْلرَّسُولِۖ فَاْتَّقُواْ اْللَّهَ وَأَصْلِحُواْ ذَاتَ بَيْنِكُمْۖ وَأَطِيعُواْ اْللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ﴾ [الأنفال: 1]:

عن سعدِ بن أبي وقَّاصٍ رضي الله عنه، قال: «لمَّا كان يومُ بدرٍ جئتُ بسيفٍ، فقلتُ: يا رسولَ اللهِ، إنَّ اللهَ قد شَفَى صدري مِن المشركين - أو نحوَ هذا -، هَبْ لي هذا السيفَ، فقال: «هذا ليس لي، ولا لك»، فقلتُ: عسى أن يُعطَى هذا مَن لا يُبلِي بلائي، فجاءني الرسولُ، فقال: «إنَّك سألْتَني وليس لي، وإنَّه قد صار لي، وهو لك»، قال: فنزَلتْ: ﴿يَسْـَٔلُونَكَ عَنِ اْلْأَنفَالِۖ﴾ الآيةَ». أخرجه الترمذي (٣٠٧٩).

وعن عُبَادةَ بن الصامتِ رضي الله عنه، قال: «خرَجْنا مع النبيِّ ﷺ، فشَهِدتُّ معه بدرًا، فالتقى الناسُ، فهزَمَ اللهُ العدوَّ، فانطلَقتْ طائفةٌ في آثارِهم يَهزِمون ويقتُلون، وأكَبَّتْ طائفةٌ على العسكرِ يَحْوُونه ويَجمَعونه، وأحدَقتْ طائفةٌ برسولِ الله ﷺ؛ لا يُصِيبُ العدوُّ منه غِرَّةً، حتى إذا كان الليلُ وفاءَ الناسُ بعضُهم إلى بعضٍ، قال الذين جمَعوا الغنائمَ: نحن حوَيْناها وجمَعْناها؛ فليس لأحدٍ فيها نصيبٌ! وقال الذين خرَجوا في طلبِ العدوِّ: لستم بأحَقَّ بها منَّا؛ نحن نفَيْنا عنها العدوَّ وهزَمْناهم! وقال الذين أحدَقوا برسولِ اللهِ ﷺ: لستم بأحَقَّ بها منَّا؛ نحن أحدَقْنا برسولِ اللهِ ﷺ، وخِفْنا أن يُصِيبَ العدوُّ منه غِرَّةً، واشتغَلْنا به! فنزَلتْ: ﴿يَسْـَٔلُونَكَ عَنِ اْلْأَنفَالِۖ قُلِ اْلْأَنفَالُ لِلَّهِ وَاْلرَّسُولِۖ فَاْتَّقُواْ اْللَّهَ وَأَصْلِحُواْ ذَاتَ بَيْنِكُمْۖ﴾ [الأنفال: 1]، فقسَمَها رسولُ اللهِ ﷺ على فُوَاقٍ بين المسلمين، قال: وكان رسولُ اللهِ ﷺ إذا أغارَ في أرضِ العدوِّ نفَّلَ الرُّبُعَ، وإذا أقبَلَ راجعًا وكَلَّ الناسُ نفَّلَ الثُّلُثَ، وكان يَكرَهُ الأنفالَ، ويقولُ: «لِيَرُدَّ قويُّ المؤمنين على ضعيفِهم»». أخرجه أحمد (٢٢٧٦٢).

* قوله تعالى: ﴿إِذْ تَسْتَغِيثُونَ رَبَّكُمْ فَاْسْتَجَابَ لَكُمْ أَنِّي مُمِدُّكُم بِأَلْفٖ مِّنَ اْلْمَلَٰٓئِكَةِ مُرْدِفِينَ﴾ [الأنفال: 9]:

عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ رضي الله عنهما، قال: «حدَّثني عُمَرُ بن الخطَّابِ، قال: لمَّا كان يومُ بَدْرٍ نظَرَ رسولُ اللهِ ﷺ إلى المشركين وهم ألفٌ، وأصحابُه ثلاثُمائةٍ وتسعةَ عشَرَ رجُلًا، فاستقبَلَ نبيُّ اللهِ ﷺ القِبْلةَ، ثم مَدَّ يدَيهِ، فجعَلَ يَهتِفُ برَبِّهِ: اللهمَّ أنجِزْ لي ما وعَدتَّني، اللهمَّ آتِ ما وعَدتَّني، اللهمَّ إن تَهلِكْ هذه العصابةُ مِن أهلِ الإسلامِ لا تُعبَدْ في الأرضِ، فما زالَ يَهتِفُ برَبِّهِ، مادًّا يدَيهِ، مستقبِلَ القِبْلةِ، حتى سقَطَ رداؤُهُ عن مَنكِبَيهِ، فأتاه أبو بكرٍ، فأخَذَ رداءَهُ، فألقاه على مَنكِبَيهِ، ثم التزَمَه مِن ورائِه، وقال: يا نبيَّ اللهِ، كفَاك مُناشَدتُك ربَّك؛ فإنَّه سيُنجِزُ لك ما وعَدَك؛ فأنزَلَ اللهُ عز وجل: ﴿إِذْ تَسْتَغِيثُونَ رَبَّكُمْ فَاْسْتَجَابَ لَكُمْ أَنِّي مُمِدُّكُم بِأَلْفٖ مِّنَ اْلْمَلَٰٓئِكَةِ مُرْدِفِينَ﴾ [الأنفال: 9]، فأمَدَّه اللهُ بالملائكةِ». أخرجه مسلم (١٧٦٣).

* قوله تعالى: ﴿وَمَن يُوَلِّهِمْ يَوْمَئِذٖ دُبُرَهُۥٓ﴾ [الأنفال: 16]:

عن أبي سعيدٍ رضي الله عنه، قال: «نزَلتْ في يومِ بدرٍ: ﴿وَمَن يُوَلِّهِمْ يَوْمَئِذٖ دُبُرَهُۥٓ﴾ [الأنفال: 16]». أخرجه أبو داود (٢٦٤٨).

* قوله تعالى: {وَمَا كَانَ اْللَّهُ لِيُعَذِّبَهُمْ وَأَنتَ فِيهِمْۚ وَمَا كَانَ اْللَّهُ مُعَذِّبَهُمْ وَهُمْ يَسْتَغْفِرُونَ ٣٣ وَمَا لَهُمْ أَلَّا يُعَذِّبَهُمُ اْللَّهُ وَهُمْ يَصُدُّونَ عَنِ اْلْمَسْجِدِ اْلْحَرَامِ} [الأنفال: 33، 34]:

عن أنسِ بن مالكٍ رضي الله عنه، قال: «قال أبو جهلٍ: اللهمَّ إن كان هذا هو الحقَّ مِن عندِك، فأمطِرْ علينا حجارةً مِن السماءِ، أو ائتِنا بعذابٍ أليمٍ؛ فنزَلتْ: {وَمَا كَانَ اْللَّهُ لِيُعَذِّبَهُمْ وَأَنتَ فِيهِمْۚ وَمَا كَانَ اْللَّهُ مُعَذِّبَهُمْ وَهُمْ يَسْتَغْفِرُونَ ٣٣ وَمَا لَهُمْ أَلَّا يُعَذِّبَهُمُ اْللَّهُ وَهُمْ يَصُدُّونَ عَنِ اْلْمَسْجِدِ اْلْحَرَامِ} الآيةَ». أخرجه البخاري (٤٦٤٩).

سُمِّيتْ سورةُ (الأنفال) بذلك؛ لأنها بدأت بالحديثِ عن (الأنفال).

كما سُمِّيتْ أيضًا بسورة (بَدْرٍ): لِما صحَّ عن سعيدِ بن جُبَيرٍ رحمه الله، قال: «قلتُ لابنِ عباسٍ: سورةُ الأنفالِ؟ قال: تلك سورةُ بَدْرٍ». أخرجه مسلم (٣٠٣١).

ووجهُ التسمية بذلك ظاهرٌ؛ لأنها نزَلتْ بعد غزوةِ (بَدْرٍ)، وتحدَّثتْ بشكلٍ رئيس عن هذه الغزوةِ.

* أنَّ من أخَذها عُدَّ حَبْرًا:

فعن عائشةَ رضي الله عنها، عن رسولِ الله ﷺ، قال: «مَن أخَذَ السَّبْعَ الأُوَلَ مِن القرآنِ، فهو حَبْرٌ». أخرجه أحمد (24575).

* أنها تقابِلُ التَّوْراةَ مع بقيَّةِ السُّوَر الطِّوال:

فعن واثلةَ بن الأسقَعِ رضي الله عنه، قال: قال رسولُ الله ﷺ: «أُعطِيتُ مكانَ التَّوْراةِ السَّبْعَ الطِّوالَ». أخرجه أحمد (17023).

جاءت موضوعاتُ سورةِ (الأنفال) كما يلي:

* قوانينُ ربَّانية {وَمَا ‌اْلنَّصْرُ إِلَّا مِنْ عِندِ اْللَّهِۚ}:

1. الأنفالُ وصفاتُ المؤمنين الصادقين (١ -٤).

2. غزوة (بدر) (٥-١٤).

3. حرمةُ الفرار من المعركة، ومِنَّة الله بالنصر والتأييد (١٥-١٩).

4. طاعة الله ورسوله، والنهيُ عن خيانة الأمانة (٢٠-٢٩).

5. نماذجُ من عداوة المشركين للمؤمنين (٣٠-٤٠).

6. توزيعُ غنائمِ (بدر) مع التذكير بما دار في المعركة (٤١-٤٤).

* قوانينُ مادية {وَأَعِدُّواْ لَهُم مَّا اْسْتَطَعْتُم مِّن قُوَّةٖ}:

7. من شروط النصر، وأسباب الهزيمة (٤٥-٤٩).

8. نماذجُ من تعذيب الله للكافرين (٥٠-٥٤).

9. قواعد السلم والحرب والمعاهَدات الدولية (٥٥-٦٣).

10. وَحْدة الصف، والتخفيف في القتال (٦٤-٦٦).

11. العتاب في أُسارى (بدر) (٦٧- ٧١).

12. قواعدُ في علاقة المجتمع الإسلامي بغيره (٧٢-٧٥).

ينظر: "التفسير الموضوعي للقرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (3 /131).

افتُتِحت السُّورةُ بمقصدٍ عظيم؛ وهو بيانُ أحكامِ (الأنفال)، والأمرُ بتقوى الله وطاعتِه وطاعة رسوله، في ذلك وغيره، وأمرُ المسلمين بإصلاح ذاتِ بينهم، وأن ذلك من مقوِّمات معنى الإيمان الكامل، واشتمَلتْ على تذكيرِ النبي ﷺ بنعمةِ الله عليه إذ أنجاه من مكرِ المشركين به بمكَّةَ، وخلَّصه من عنادِهم. ثمَّ قصَدتْ دعوةَ المشركين للانتهاء عن مناوأةِ الإسلام، وإيذانِهم بالقتال، والتحذيرِ من المنافقين، وضربِ المَثَل بالأُمم الماضية التي عانَدتْ رُسُلَ الله ولم يشكروا نعمةَ الله، كما قصَدتْ بيانَ أحكام العهد بين المسلمين والكفار، وما يَترتَّب على نقضِهم العهدَ، ومتى يحسُنُ السلمُ.

ينظر: "التحرير والتنوير" لابن عاشور (9 /248).