ترجمة سورة المائدة

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة المائدة باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

हे वो लोगो जो ईमान लाये हो! प्रतिबंधों का पूर्ण रूप[1] से पालन करो। तुम्हारे लिए सब पशु ह़लाल (वैध) कर दिये गये, परन्तु, जिनका आदेश तुम्हें सुनाया जायेगा, लेकिन एह़राम[2] की स्थिति में शिकार न करो। बेशक अल्लाह जो आदेश चाहता है, देता है।
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1. यह प्रतिबंध धार्मिक आदेशों से संबंधित हों अथवा आपस के हों। 2. अर्थात जब ह़ज्ज अथवा उमरे का एह़राम बांधे रहो।
हे ईमान वालो! अल्लाह की निशानियों[1] (चिन्हों) का अनादर न करो, न सम्मानित मासों का[2], न (ह़ज की) क़ुर्बानी का, न उन (ह़ज की) क़ुर्बानियों का, जिनके गले में पट्टे पड़े हों और न उनका, जो अपने पालनहार की अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की खोज में सम्मानित घर (काबा) की ओर जा रहे हों। जब एह़राम खोल दो, तो शिकार कर सकते हो। तुम्हें किसी गिरोह की शत्रुता इस बात पर न उभार दे कि अत्याचार करने लगो, क्योंकि उन्होंने मस्जिदे-ह़राम से तुम्हें रोक दिया था, सदाचार तथा संयम में एक-दूसरे की सहायता करो तथा पाप और अत्याचार में एक-दूसरे की सहायता न करो और अल्लाह से डरते रहो। निःसंदेह अल्लाह कड़ी यातना देने वाला है।
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1. अल्लाह की वंदना के लिये निर्धारित चिन्हों का। 2. अर्थात ज़ुलक़ादा, ज़ुलह़िज्जा, मुह़र्रम तथा रजब के मासों में युध्द न करो।
तुमपर मुर्दार[1] ह़राम (अवैध) कर दिया गया है तथा (बहता हुआ) रक्त, सूअर का मांस, जिसपर अल्लाह से अन्य का नाम पुकारा गया हो, जो श्वास रोध और आघात के कारण, गिरकर और दूसरे के सींग मारने से मरा हो, जिसे हिंसक पशु ने खा लिया हो, -परन्तु इनमें[2] से जिसे तुम वध (ज़िब्ह) कर लो- जिसे थान पर वध किया गया हो और ये कि पाँसे द्वारा अपना भाग निकालो। ये सब आदेश-उल्लंघन के कार्य हैं। आज काफ़िर तुम्हारे धर्म से निराश[3] हो गये हैं। अतः, उनसे न डरो, मुझी से डरो। आज[4] मैंने तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए परिपूर्ण कर दिय है तथा तुमपर अपना पुरस्कार पूरा कर दिया और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म स्वरूप स्वीकार कर लिया है। फिर जो भूक से आतुर हो जाये, जबकि उसका झुकाव पाप के लिए न हो,(प्राण रक्षा के लिए खा ले) तो निश्चय अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
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1. मुर्दार से अभिप्राय वह पशु है, जिसे धर्म के नियमानुसार वध (ज़िब्ह़) न किया गया हो। 2. अर्थात जीवित मिल जाये और उसे नियमानुसार वध (ज़िब्ह़) कर दो। 3. अर्थात इस से कि तुम फिर से मूर्तियों के पुजारी हो जाओगे। 4. सूरह बक़रह आयत संख्या 28 में कहा गया है कि इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने यह प्रार्थना की थी कि "इन में से एक आज्ञाकारी समुदाय बना दे"। फिर आयत 150 में अल्लाह ने कहा कि "अल्लाह चाहता है कि तुम पर अपना पुरस्कार पूरा कर दे"। और यहाँ कहा कि आज अपना पुरस्कार पूरा कर दिया। यह आयत ह़ज्जतुल वदाअ में अरफ़ा के दिन अरफ़ात में उतरी। (सह़ीह बुखारीः4606) जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अन्तिम ह़ज्ज था, जिस के लग-भग तीन महीने बाद आप संसार से चले गये।
वे आपसे प्रश्न करते हैं कि उनके लिए क्या ह़लाल (वैध) किया गया? आप कह दें कि सभी स्वच्छ पवित्र चीजें तुम्हारे लिए ह़लाल कर दी गयी हैं। और उन शिकारी जानवरों का शिकार जिन्हें तुमने उस ज्ञान द्वारा जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है, उसमें से कुछ सिखाकर सधाया हो। तो जो (शिकार) वह तुमपर रोक दें उसमें से खाओ और उसपर अल्लाह का नाम[1] लो तथा अल्लाह से डरते रहो। निःसंदेह, अल्लाह शीघ्र ह़िसाब लेने वाला है।
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1. अर्थात सधाये हुये कुत्ते और बाज़-शिक़रे आदि का शिकार। उन के शिकार के उचित होने के लिये निम्नलिखित दो बातें आवश्यक हैं- 1. उसे बिस्मिल्लाह कह कर छोड़ा गया हो। इसी प्रकार शिकार जीवित हो तो बिस्मिल्लाह कह के वध किया जाये। 2. उस ने शिकार में से कुछ खाया न हो। (बुख़ारीः5478, मुस्लिमः1930)
आज सब स्वच्छ खाद्य तुम्हारे लिए ह़लाल (वैध) कर दिये गये हैं और ईमान वाली सतवंती स्त्रियाँ तथा उनमें से सतवंती स्त्रियाँ, जो तुमसे पहले पुस्तक दिये गये हैं, जबकि उन्हें उनका महर (विवाह उपहार) चुका दो, विवाह में लाने के लिए, व्यभिचार के लिए नहीं और न प्रेमिका बनाने के लिए। जो ईमान को नकार देगा, उसका सत्कर्म व्यर्थ हो जायेगा तथा परलोक में वह विनाशों में होगा।
हे ईमान वालो! जब नमाज़ के लिए खड़े हो, तो (पहले) अपने मुँह तथा हाथों को कुहनियों तक धो लो और अपने सिरों का मसह़[1] कर लो तथा अपने पावों को टखनों तक (धो लो) और यदि जनाबत[2] की स्थिति में हो, तो (स्नान करके) पवित्र हो जाओ तथा यदि रोगी अथवा यात्रा में हो अथवा तुममें से कोई शोच से आये अथवा तुमने स्त्रियों को स्पर्श किया हो और तुम जल न पाओ, तो शुध्द धूल से तयम्मुम कर लो और उससे अपने मुखों तथा हाथों का मसह़[3] कर लो। अल्लाह तुम्हारे लिए कोई संकीर्णता (तंगी) नहीं चाहता। परन्तु तुम्हें पवित्र करना चाहता है और ताकि तुमपर अपना पुरस्कार पूरा कर दे और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।
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1. मसह़ का अर्थ है, दोनों हाथ भिगो कर सिर पर फेरना। 2. जनाबत से अभिप्राय वह मलिनता है, जो स्वप्नदोष तथा स्त्री संभोग से होती है। यही आदेश मासिक धर्म तथा प्रसव का भी है। 3. ह़दीस में है कि एक यात्रा में आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा का हार खो गया, जिस के लिये बैदा के स्थान पर रुकना पड़ा। भोर की नमाज़ के वुज़ु के लिये पानी नहीं मिल सका और यह आयत उतरी। (देखियेः सह़ीह़ बुख़ारीः4607) मसह़ का अर्थ हाथ फेरना है। तयम्मुम के लिये देखिये सूरह निसा, आयतः43)
तथा अपने ऊपर अल्लाह के पुरस्कार और उस दृढ़ वचन को याद करो, जो तुमसे लिया है। जब तुमने कहाः हमने सुन लिया और आज्ञाकारी हो गये तथा (सुनो!) अल्लाह से डरते रहो। निःसंदेह अल्लाह दिलों के भेदों को भली-भाँति जानने वाला है।
हे ईमान वालो! अल्लाह के लिए खड़े रहने वाले, न्याय के साथ साक्ष्य देने वाले रहो तथा किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इसपर न उभार दे कि न्याय न करो। वह (अर्थातः सबके साथ न्याय) अल्लाह से डरने के अधिक समीप[1] है। निःसंदेह तुम जो कुछ करते हो, अल्लाह उससे भली-भाँति सूचित है।
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1. ह़दीस में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः जो न्याय करते हैं, वे अल्लाह के पास नूर (प्रकाश) के मंच पर उस के दायें ओर रहेंगे, - और उस के दोनों हाथ दायें हैं- जो अपने आदेश तथा अपने परिजनों और जो उन के अधिकार में हो, में न्याय करते हैं। (सह़ीह़ मुस्लिमः1827)
जो लोग ईमान लाये तथा सत्कर्म किये, तो उनसे अल्लाह का वचन है कि उनके लिए क्षमा तथा बड़ा प्रतिफल है।
तथा जो काफ़िर रहे और हमारी आयतों को मिथ्या कहा, तो वही लोग नारकी हैं।
हे ईमान वालो! अल्लाह के उस उपकार को याद करो, जब एक गिरोह ने तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाना[1] चाहा, तो अल्लाह ने उनके हाथों को तुमसे रोक दिया तथा अल्लाह से डरते रहो और ईमान वालों को अल्लाह ही पर निरभर करना चाहिए।
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1. अर्थात तुम पर आक्रमण करने का निश्चय किया तो अल्लाह ने उन के आक्रमण से तुम्हारी रक्षा की। इस आयत से संबंधित बुख़ारी में सह़ीह़ ह़दीस आती है कि एक युध्द में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एकांत में एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे कि एक व्यक्ति आया और आप की तलवार खींच कर कहाः तुम को अब मुझ से कौन बचायेगा? आप ने कहाः अल्लाह! यह सुनते ही तलवार उस के हाथ से गिर गई और आप ने उसे क्षमा कर दिया। (सह़ीह़ बुख़ारीः4139)
तथा अल्लाह ने बनी इस्राईल से (भी) दृढ़ वचन लिया था और उनमें बारह प्रमुख नियुक्त कर दिये थे तथा अल्लाह ने कहा था कि मैं तुम्हारे साथ हूँ, यदि तुम नमाज की स्थापना करते रहे, ज़कात देते रहे, मेरे रसूलों पर ईमान (विश्वास) रखे रहे, उन्हें समर्थन देते रहे तथा अल्लाह को उत्तम ऋण देते रहे। (अगर ऐसा हुआ) तो मैं अवश्य तुम्हें तुम्हारे पाप क्षमा कर दूँगा और तुम्हें ऐसे स्वर्गों में प्रवेश दूँगा, जिनमें नहरें प्रवाहित होंगी और तुममें से जो इसके पश्चात् भी कुफ़्र (अविश्वास) करेगा, (दरअसल) वह सुपथ[1] से विचलित हो गया।
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1. अल्लाह को ऋण देने का अर्थ उस के लिये दान करना है। इस आयत में ईमान वालों को सावधान किया गया है कि तुम अह्ले किताबः यहूद और नसारा जैसे न हो जाना जो अल्लाह के वचन को भंग कर के उस की धिक्कार के अधिकारी बन गये। (इब्ने कसीर)
तो उनके अपना वचन भंग करने के कारण, हमने उन्हें धिक्कार दिया और उनके दिलों को कड़ा कर दिया। वे अल्लाह की बातों को, उनके वास्तविक स्थानों से फेर देते[1] हैं तथा जिस बात का उन्हें निर्देश दिया गया था, उसे भुला दिया और (अब) आप बराबर उनके किसी न किसी विश्वासघात से सूचित होते रहेंगे, परन्तु उनमें बहुत थोड़े के सिवा, जो ऐसा नहीं करते। अतः आप उन्हें क्षमा कर दें और उन्हें जाने दें। निःसंदेह अल्लाह उपकारियों से प्रेम करता है।
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1. सह़ीह़ ह़दीस में आया है कि कुछ यहूदी, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास एक नर और नारी को लाये जिन्हों ने व्यभिचार किया था, आप ने कहाः तुम तौरात में क्या पाते हो? उन्हों ने कहाः उन का अपमान करें और कोड़े मारें। अब्दुल्लाह बिन सलाम ने कहाः तुम झूठे हो, बल्कि उस में (रज्म) करने का आदेश है। तौरात लाओ। वह तौरात लाये तो एक ने रज्म की आयत पर हाथ रख दिया और आगे-पीछे पढ़ दिया। अब्दुल्लाह बिन सलाम ने कहाः हाथ उठाओ। उस ने हाथ उठाया तो उस में रज्म की आयत थी। (सह़ीह़ बुख़ारीः3559, सह़ीह़ मुस्लिमः1699)
तथा जिन्होंने कहा कि हम नसारा (ईसाई) हैं, हमने उनसे (भी) दृढ़ वचन लिया था, तो उन्हें जिस बात का निर्देश दिया गया था, उसे भुला बैठे, तो प्रलय के दिन तक के लिए हमने उनके बीच शत्रुता तथा पारस्परिक (आपसी) विद्वेष भड़का दिया और शीघ्र ही अल्लाह जो कुछ वे करते रहे हैं, उन्हें[1] बता देगा।
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1. आयत का अर्थ यह है कि जब ईसाईयों ने वचन भंग कर दिया, तो उन में कई परस्पर विरोधी सम्प्रदाय हो गये, जैसे याक़ूबिय्यः, नसतूरिय्यःऔर आरयूसिय्यः। ये सभी एक दूसरे के शत्रु हो गये। तथा इस समय आर्थिक और राजनीतिक सम्प्रदायों में विभाजित हो कर आपस में रक्तपात कर रहे हैं। इस में मुसलमानों को भी सावधान किया गया है कि क़ुर्आन के अर्थों में परिवर्तन कर के ईसाईयों के समान सम्प्रदायों में विभाजित न होना।
हे अह्ले किताब! तुम्हारे पास हमारे रसूल आ गये हैं[1], जो तुम्हारे लिए उन बहुत सी बातों को उजागर कर रहे हैं, जिन्हें तुम छुपा रहे थे और बहुत सी बातों को छोड़ भी रहे हैं। अब तुम्हारे पास अल्लाह की ओर से प्रकाश तथा खुली पुस्तक (कुर्आन) आ गई है।
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1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम। तथा प्रकाश से अभिप्राय क़ुर्आन पाक है।
जिसके द्वारा अल्लाह उन्हें शान्ति का मार्ग दिखा रहा है, जो उसकी प्रसन्नता पर चलते हों, उन्हें अपनी अनुमति से अंधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाता है और उन्हें सुपथ दिखाता है।
निश्चय वे काफ़िर[1] हो गये, जिन्होंने कहा कि मर्यम का पुत्र मसीह़ ही अल्लाह है। (हे नबी!) उनसे कह दो कि यदि अल्ललाह मर्यम के पुत्र और उसकी माता तथा जो भी धरती में है, सबका विनाश कर देना चाहे, तो किसमें शक्ति है कि वह उसे रोक दे? तथा आकाश और धरती और जो भी इनके बीच है, सब अल्लाह ही का राज्य है, वह जो चाहे, उतपन्न करता है तथा वह जो चाहे, कर सकता है।
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1. इस आयत में ईसा अलैहिस्सलाम के अल्लाह होने की मिथ्या आस्था का खण्डन किया जा रहा है।
तथा यहूदी और ईसाईयों ने कहा कि हम अल्लाह के पुत्र तथा प्रियवर हैं। आप पूछें कि फिर वह तुम्हें तुम्हारे पापों का दण्ड क्यों देता है? बल्कि तुमभी वैसे ही मानव पूरुष हो, जैसे दूसरे हैं, जिनकी उत्पत्ति उसने की है। वह जिसे चाहे, क्षमा कर दे और जिसे चाहे, दण्ड दे तथा आकाश और धरती तथा जो उन दोनों के बीच है, अल्लाह ही का राज्य (अधिपत्य)[1] है और उसी की ओर सबको जाना है।
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1. इस आयत में ईसाईयों तथा यहूदियों के इस भ्रम का खण्डन किया जा रहा है कि वह अल्लाह के प्रियवर हैं, इस लिये जो भी करें, उन के लिये मुक्ति ही मुक्ति है।
हे अह्ले किताब! तुम्हारे पास रसुलों के आने का क्रम बंद होने के पश्चात्, हमारे रसूल आ गये[1] हैं, वह तुम्हारे लिए (सत्य को) उजागर कर रहे हैं, ताकि तुम ये न कहो कि हमारे पास कोई शुभ सूचना सुनाने वाला तथा सावधान करने वाला (नबी) नहीं आया, तो तुम्हारे पास शुभ सूचना सुनाने तथा सावधान करने वाला आ गया है तथा अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
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1. अंतिम नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, ईसा अलैहिस्सलाम के छः सौ वर्ष पश्चात् 610 ईस्वी में नबी हुये। आप के और ईसा अलैहिस्सलाम के बीच कोई नबी नहीं आया।
तथा याद करो, जब मूसा ने अपनी जाति से कहाः हे मेरी जाति! अपने ऊपर अल्लाह के पुरस्कार को याद करो कि उसने तुममें नबी और शासक बनाये तथा तुम्हें वह कुछ दिया, जो संसार वासियों में किसी को नहीं दिया।
हे मेरी जाति! उस पवित्र धरती (बैतुल मक़्दिस) में प्रवेश कर जाओ, जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दिया है और पीछे न फिरो, अन्यथा असफल हो जाओगे।
उन्होंने कहाः हे मूसा! उसमें बड़े बलवान लोग हैं और हम उसमें कदापि प्रवेश नहीं करेंगे, जब तक वे उससे निकल न जायें, यदि वे निकल जाते हैं, तभी हम उसमें प्रवेश कर सकते हैं।
उनमें से दो व्यक्तियों ने, जो (अल्लाह से) डरते थे, जिनपर अल्लाह ने पुरस्कार किया था, कहा कि उनपर द्वार से प्रवेश कर जाओ, जबतुम उसमें प्रवेश कर जाओगे, तो निश्चय तुम प्रभुत्वशाली होगे तथा अल्लाह ही पर भरोसा करो, यदि तुम ईमान वाले हो।
वे बोलेः हे मूसा! हम उसमें कदापि प्रवेश नहीं करेंगे, जब तक वे उसमें (उपस्थित) रहेंगे, अतः तुम और तुम्हारा पालनहार जाओ, फिर तुम दोनों युध्द करो, हम यहीं बैठे रहेंगे।
(ये दशा देखकर) मूसा ने कहः हे मेरे पालनहार! मैं अपने और अपने भाई के सिवा किसी पर कोई अधिकार नहीं रखता। अतः तु हमारे तथा अवज्ञाकारी जाति के बीच निर्णय कर दे।
अल्लाह ने कहाः वह (धरती) उनपर चालीस वर्ष के लिए ह़राम (वर्जित) कर दी गई। वे धरती में फिरते रहेंगे, अतः तुम अवज्ञाकारी जाति पर तरस न खाओ[1]।
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1. इन आयतों का भावार्थ यह है कि जब मूसा अलैहिस्सलाम बनी इस्राईल को ले कर मिस्र से निकले, तो अल्लाह ने उन्हें बैतुल मक़्दिस में प्रवेश कर जाने का आदेश दिया, जिस पर अमालिक़ा जाति का अधिकार था। और वही उस के शासक थे, परन्तु बनी इस्राईल ने जो कायर हो गये थे, अमालिक़ा से युध्द करने का साहस नहीं किया। और इस आदेश का विरोध किया, जिस के परिणाम स्वरूप उसी क्षेत्र में 40 वर्ष तक फिरते रहे। और जब 40 वर्ष बीत गये, और एक नया वंश जो साहसी था पैदा हो गया, तो उस ने उस धरती पर अधिकार कर लिया। (इब्ने कसीर)
तथा उनेहें आदम के दो पुत्रों का सही समाचार[1] सुना दो, जब दोनों ने एक उपायन (क़ुर्बानी) प्रस्तुत की, तो एक से स्वीकार की गई तथा दूसरे से स्वीकार नहीं की गई। उस (दूसरे) ने कहाः मैं अवश्य तेरी हत्या कर दूँगा। उस (प्रथम) ने कहाः अल्लाह आज्ञाकारों ही से स्वीकार करता है।
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1. भाष्यकारों ने इन दोनों के नाम क़ाबील और हाबील बताये हैं।
यदि तुम मेरी हत्या करने के लिए मेरी ओर हाथ बढ़ाओगे[1], तो भी मैं तुम्हारी ओर तुम्हारी हत्या करने के लिए हाथ बढ़ाने वाला नहीं हूँ। मैं विश्व के पालनहार अल्लाह से डरता हूँ।
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1. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः जो भी प्राणी अत्याचार से मारा जाये तो आदम के प्रथम पुत्र पर उन के ख़ून का भाग होता है, क्यों कि उसी ने प्रथम हत्या की रीति बनाई है। (सह़ीह़ बुख़ारीः6867, सह़ीह़ मुस्लिमः1677)
मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी (हत्या के) पाप और अपने पाप के साथ फिरो और नारकी हो जाओ और यही अत्याचारियों का प्रतिकार (बदला) है।
अंततः, उसने स्वयं को अपने भाई की हत्या पर तैयार कर लिया और विनाशों में हो गया।
फिर अल्लाह ने एक कौआ भेजा, जो भूमि कुरेद रहा था, ताकि उसे दिखाये कि अपने भाई के शव को कैसे छुपाये, उसने कहाः मुझपर खेद है! क्या मैं इस कौआ जैसा भी न हो सका कि अपने भाई का शव छुपा सकूँ, फिर बड़ा लज्जित हूआ।
इसी कारण हमने बनी इस्राईल पर लिख दिया[1] कि जिसने भी किसी प्राणी की हत्या की, किसी प्राणी का ख़ून करने अथवा धरती में विद्रोह के बिना, तो समझो उसने पूरे मनुष्यों की हत्या[2] कर दी और जिसने जीवित रखा एक प्राणी को, तो वास्तव में, उसने जीवित रखा सभी मनुष्यों को तथा उनके पास हमारे रसूल खुली निशानियाँ लाये, फिर भी उनमें से अधिकांश धरती में विद्रोह करने वाले हैं।
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1. अर्थात नियम बना दिया। इस्लाम में भी यही नियम और आदेश है। 2. क्यों कि सभी प्राण, प्राण होने में बराबर हैं।
जो लोग[1] अल्लाह और उसके रसूल से युध्द करते हों तथा धरती में उपद्रव करते फिर रहे हों, उनका दण्ड ये है कि उनकी हत्या की जाये तथा उन्हें फाँसी दी जाये अथवा उनके हाथ-पाँव विपरीत दिशाओं से काट दिये जायें अथवा उन्हें देश निकाला दे दिया जाये। ये उनके लिए संसार में अपमान है तथा परलोक में उनके लिए इससे बड़ा दण्ड है।
परन्तु जो तौबा (क्षमा याचना) कर लें, इससे पहले कि तुम उन्हें अपने नियंत्रण में लाओ, तो तुम जान लो कि अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
हे ईमान वालो! अल्लाह (की अवज्ञा) से डरते रहो और उसकी ओर वसीला[1] खोजो तथा उसकी राह में जिहाद करो, ताकी तुम सफल हो जाओ।
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1. "वसीला" का अर्थ हैः अल्लाह की आज्ञा का पालन करने और उस की अवज्ञा से बचने तथा ऐसे कर्मों के करने का, जिन से वह प्रसन्न हो। वसीला ह़दीस में स्वर्ग के उस सर्वोच्च स्थान को भी कहा गया है, जो स्वर्ग में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को मिलेगा, जिस का नाम "मक़ामे मह़मूद" है। इसी लिये आप ने कहाः जो अज़ान के पश्चात् मेरे लिये वसीला की दुआ करेगा, वह मेरी सिफारिश के योग्य होगा। (बुख़ारीः4719) पीरों और फ़क़ीरों आदि की समाधियों को वसीला समझना निर्मूल और शिर्क है।
जो लोग काफ़िर हैं, यद्यपि धरती के सभी (धन-धान्य) उनके अधिकार (स्वामित्व) में आ जायें और उसी के समान और भी हो, ताकि वे, ये सब प्रलय के दिन की यातना से अर्थ दण्ड स्वरूप देकर मुक्त हो जायें, तो भी उनसे स्वीकार नहीं किया जायेगा और उन्हें दुखदायी यातना होगी।
वे चाहेंगे कि नरक से निकल जायें, जबकि वे उससे निकल नहीं सकेंगे और उन्हीं के लिए स्थायी यातना है।
चोर, पुरुष और स्त्री दोनों के हाथ काट दो, उनके करतूत के बदले, जो अल्लाह की ओर से शिक्षाप्रद दण्ड है[1] और अल्लाह प्रभावशाली गुणी है।
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1. यहाँ पर चोरी के विषय में इस्लाम का धर्म विधान वर्णित किया जा रहा है कि यदि चौथाई दीनार अथवा उस के मूल्य के समान की चोरी की जाये, तो चोर का सीधा हाथ कलाई से काट दो। इस के लिये स्थान तथा समय के और भी प्रतिबंध हैं। शिक्षाप्रद दण्ड होने का अर्थ यह है कि दूसरे इस से शिक्षा ग्रहण करें, ताकि पूरा देश और समाज चोरी के अपराध से स्वच्छ और पवित्र हो जाये। तथा यह ऐतिहासिक सत्य है कि इस घोर दण्ड के कारण, इस्लाम के चौदह सौ वर्षों में जिन्हें यह दण्ड दिया गया है, वह बहुत कम हैं। क्यों कि यह सज़ा ही ऐसी है कि जहाँ भी इस को लागू किया जायेगा, वहाँ चोर और डाकू बहुत कुछ सोच समझ कर ही आगे क़दम बढ़ायेंगे। जिस के फल स्वरूप पूरा समाज अम्न और चैन का गहवारा बन जायेगा। इस के विपरीत संसार के आधुनिक विधानों ने अपराधियों को सुधारने तथा उन्हें सभ्य बनाने का जो नियम बनाया है, उस ने अपराधियों में अपराध का साहस बढ़ा दिया है। अतः यह मानना पड़ेगा कि इस्लाम का ये दण्ड चोरी जैसे अपराध को रोकने में अब तक सब से सफल सिध्द हुआ है। और यह दण्ड मानवता के मान और उस के अधिकार के विपरीत नहीं है। क्यों कि जिस व्यक्ति ने अपना माल अपने खून-पसीना, परिश्रम तथा अपने हाथों की शक्ति से कमाया है, तो यदि कोई चोर आ कर उस को उचकना चाहे तो उस की सज़ा यही होनी चाहिये कि उस का हाथ ही काट दिया जाये, जिस से वह अन्य का माल हड़प करना चाह रहा है।
फिर जो अपने अत्याचार (चोरी) के पश्चात् तौबा (क्षमा याचना) कर ले और अपने को सुधार ले, तो अल्लाह उसकी तौबा स्वीकार कर लेगा[1]। निःसंदेह अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।
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1. अर्थात उसे परलोक में दण्ड नहीं देगा, परन्तु न्यायालय उसे चोरी सिध्द होने पर चोरी का दण्ड देगा। (तफसीरे क़ुर्तुबी)
क्या तुम जानते नहीं कि अल्लाह ही के लिए है, आकाशों तथा धरती का राज्य। वह जिसे चाहे, क्षमा कर दे और जिसे चाहे, दण्ड दे तथा अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।
हे नबी! वे आपको उदासीन न करें, जो कुफ़्र में तीव्र गामी हैं; उनमें से जिन्होंने कहा कि हम ईमान लाये, जबकि उनके दिल ईमान नहीं लाये और उनमें से जो यहूदी हैं, जिनकी दशा ये है कि मिथ्या बातें सुनने के लिए कान लगाये रहते हैं तथा दूसरों के लिए, जो आपके पास नहीं आये, कान लगाये रहते हैं। वे शब्दों को उनके निश्चित स्थानों के पश्चात् वास्तविक अर्थों से फेर देते हैं। वे कहते हैं कि यदि तुम्हें यही आदेश दिया जाये (जो हमने बताया है) तो मान लो और यदि वह न दिये जाओ, तो उससे बचो। (हे नबी!) जिसे अल्लाह अपनी परीक्षा में डालना चाहे, आप उसे अल्लाह से बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते। यही वे हैं, जिनके दिलों को अल्लाह ने पवित्र करना नहीं चाहा। उन्हीं के लिए संसार में अपमान है और उन्हीं के लिए परलोक में घोर[1] यातना है।
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1. मदीना के यहूदी विद्वान, मुनाफ़िक़ों (द्विधावादियों) को नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास भेजते कि आप की बातें सुनें, और उन्हें सूचित करें। तथा अपने विवाद आप के पास ले जायें और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कोई निर्णय करें तो हमारे आदेशानुसार हो तो स्वीकार करें, अन्यथा स्वीकार न करें। जब कि तौरात की आयतों में इन के आदेश थे, फिर भी वे उन में परिवर्तन कर के, उन का अर्थ कुछ का कुछ बना देते थे। ( देखिये व्याख्या आयतः13)
वे मिथ्या बातें सुनने वाले, अवैध भक्षी हैं। अतः यदि वे आपके पास आयें, तो आप उनके बीच निर्णय कर दें अथवा उनसे मुँह फेर लें (आपको अधिकार है)। और यदि आप उनसे मुँह फेर लें, तो वे आपको कोई हाणि नहीं पहुँचा सकेंगे और यदि निर्णय करें, तो न्याय के साथ निर्णय करें। निःसंदेह अल्लाह न्यायकारियों से प्रेम करता है।
और वे आपको निर्णयकारी कैसे बना सकते हैं, जबकि उनके पास तौरात (पुस्तक) मौजूद है, जिसमें अल्लाह का आदेश है, फिर इसके पश्चात उससे मुँह फेर रहे हैं? वास्तव में, वे ईमान वाले हैं ही[1] नहीं।
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[1] क्यों कि वह न तो आप को नबी मानते, और न आप का निर्णय मानते, तथा न तौरात का आदेश मानते हैं।
निःसंदेह, हमने ही तौरात उतारी, जिसमें मार्गदर्शन तथा प्रकाश है, जिसके अनुसार वो नबी निर्णय करते रहे, जो आज्ञाकारी थे, उनके लिए जो यहूदी थे तथा धर्माचारी और विद्वान लोग, क्योंकि वे अल्लाह की पुस्तक के रक्षक बनाये गये थे और उसके (सत्य होने के) साक्षी थे। अतः, तुमभी लोगों से न डरो, मुझी से डरो और मेरी आयतों के बदले तनिक मूल्य न खरीदो और जो अल्लाह की उतारी (पुस्तक के) अनुसार निर्णय न करें, तो वही काफ़िर हैं।
और हमने उन (यहूदियों) पर उस (तौरात) में लिख दिया कि प्राण के बदले प्राण, आँख के बदले आँख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान और दाँत के बदले दाँत[1] हैं तथा सभी आघातों में बराबरी का बदला है। फिर जो कोई बदला लेने को दान (क्षमा) कर दे, तो वह उसके लिए (उसके पापों का) प्रायश्चित हो जायेगा तथा जो अल्लाह की उतारी (पुस्तक के) अनुसार निर्णय न करें, वही अत्याचारी हैं।
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1. इस्लाम में भी यही नियम है और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दाँत तोड़ने पर यही निर्णय दिया था। (सह़ीह़ बुखारीः4611)
फिर हमने उन नबियों के पश्चात् मर्यम के पुत्र ईसा को भेजा, उसे सच बताने वाला, जो उसके सामने तौरात थी तथा उसे इंजील प्रदान की, जिसमें मार्गदर्शन तथा प्रकाश है, उसे सच बताने वाली, जो उसके आगे तौरात थी तथा अल्लाह से डरने वालों के लिए सर्वथा मार्गदर्शन तथा शिक्षा थी।
और इंजील के अनुयायी भी उसीसे निर्णय करें, जो अल्लाह ने उसमें उतारा है और जो उससे निर्णय न करें, जिसे अल्लाह ने उतारा है, वही अधर्मी हैं।
और (हे नबी!) हमने आपकी ओर सत्य पर आधारित पुस्तक (क़ुर्आन) उतार दी, जो अपने पूर्व की पुस्तकों को सच बताने वाली तथा संरक्षक[1] है, अतः आप लोगों का निर्णय उसीसे करें, जो अल्लाह ने उतारा है तथा उनकी मनमानी पर उस सत्य से विमुख होकर न चलें, जो आपके पास आया है। हमने तुममें से प्रत्येक के लिए एक धर्म विधान तथा एक कार्य प्रणाली बना दिया[2] था और यदि अल्लाह चाहता, तो तुम्हें एक ही समुदाय बना देता, परन्तु उसने जो कुछ दिया है, उसमें तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता है। अतः, भलाईयों में एक-दूसरे से अग्रसर होने का प्रयास करो[3], अल्लाह ही की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बता देगा, जिन बातों में तुम विभेद करते रहे।
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1. संरक्षक होने का अर्थ यह है कि क़ुर्आन अपने पूर्व की धर्म पुस्तकों का केवल पुष्टिकर ही नहीं, कसौटि (परख) भी है। अतः आदि पुस्तकों में जो भी बात क़ुर्आन के विरुध्द होगी, वह सत्य नहीं परिवर्तित होगी, सत्य वही होगी जो अल्लाह की अन्तिम किताब क़ुरआन पाक के अनुकूल है। 2. यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जब तौरात तथा इंजील और क़ुर्आन सब एक ही सत्य लाये हैं, तो फिर इन के धर्म विधानों तथा कार्य प्रणाली में अन्तर क्यों है? क़ुर्आन उस का उत्तर देता है कि एक चीज़ मूल धर्म है, अर्थात एकेश्वरवाद तथा सत्कर्म का नियम, और दूसरी चीज़ धर्म विधान तथा कार्य प्रणाली है, जिस के अनुसार जीवन व्यतीत किया जाये, तो मूल धर्म तो एक ही है, परन्तु समय और स्थितियों के अनुसार कार्य प्रणाली में अन्तर होता रहा है, क्यों कि प्रत्येक युग की स्थितियाँ एक समान नहीं थीं, और यह मूल धर्म का अन्तर नहीं, कार्य प्रणाली का अन्तर हुआ। अतः अब समय तथा परिस्थतियाँ बदल जाने के पशचात् क़ुर्आन जो धर्म विधान तथा कार्य प्रणाली परस्तुत कर रहा है, वही सत्धर्म है। 3. अर्थात क़ुर्आन के आदेशों का पालन करने में।
तथा (हे नबी!) आप उनका निर्णय उसीसे करें, जो अल्लाह ने उतारा है और उनकी मनमानी पर न चलें तथा उनसे सावधान रहें कि आपको जो अल्लाह ने आपकी ओर उतारा है, उसमें से कुछ से फेर न दें। फिर यदि वे मुँह फेरें, तो जान लें कि अल्लाह चाहता है कि उनके कुछ पापों के कारण उन्हें दण्ड दे। वास्तव में, बहुत-से लोग उल्लंघनकारी हैं।
तो क्या वे जाहिलिय्यत (अंधकार युग) का निर्णय चाहते हैं? और अल्लाह से अच्छा निर्णय किसका हो सकता है, उनके लिए जो विश्वास रखते हैं?
हे ईमान वालो! तुम यहूदी तथा ईसाईयों को अपना मित्र न बनाओ, वे एक-दूसरे के मित्र हैं और जो कोई तुममें से उन्हें मित्र बनायेगा, वह उन्हीं में होगा तथा अल्लाह अत्याचारियों को सीधी राह नहीं दिखाता।
फिर (हे नबी!) आप देखेंगे कि जिनके दिलों में (द्विधा का) रोग है, वे उन्हीं में दौड़े जा रहे हैं, वे कहते हैं कि हम डरते हैं कि हम किसी आपदा के कुचक्र में न आ जायेँ, तो दूर नहीं कि अल्लाह उन्हें विजय प्रदान करेगा अथवा उसके पास से कोई बात हो जायेगी, तो वे लोग उस बात पर, जो उन्होंने अपने मन में छुपा रखी है, लज्जित होंगे।
तथा (उस समय) ईमान वाले कहेंगेः क्या यही वे हैं, जो अल्लाह की बड़ी गंभीर शपथें लेकर कहा करते थे कि वे तुम्हारे साथ हैं? इनके कर्म अकारथ गये और अंततः वे असफल हो गये।
हे ईमान वालो! तुममें से जो अपने धर्म से फिर जायेगा, तो अल्लाह (उसके स्थान पर) ऐसे लोगों को पैदा कर देगा, जिनसे वह प्रेम करेगा और वे उससे प्रेम करेंगे। वे ईमान वालों के लिए कोमल तथा काफ़िरों के लिए कड़े[1] होंगे, अल्लाह की राह में जिहाद करेंगे, किसी निंदा करने वाले की निंदा से नहीं डरेंगे। ये अल्लाह की दया है, जिसे चाहे प्रदान करता है और अल्लाह (की दया) विशाल है और वह अति ज्ञानी है।
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1. कड़े होने का अर्थ यह है कि वह युध्द तथा अपने धर्म की रक्षा के समय उन के दबाव में नहीं आयेंगे, न जिहाद की निंदा उन्हें अपने धर्म की रक्षा से रोक सकेगी।
तुम्हारे सहायक केवल अल्लाह और उसके रसूल तथा वो हैं, जो ईमान लाये, नमाज़ की स्थापना करते हैं, ज़कात देते हैं और अल्लाह के आगे झुकने वाले हैं।
तथा जो अल्लाह और उसके रसूल तथा ईमान वालों को सहायक बनायेगा, तो निश्चय अल्लाह का दल ही छाकर रहेगा।
हे ईमान वालो! उन्हें जिन्होंने तुम्हारे धर्म को उपहास तथा खेल बना रखा है, उनमें से, जो तुमसे पहले पुस्तक दिये गये हैं तथा काफ़िरों को सहायक (मित्र) न बनाओ और अल्लाह से डरते रहो, यदि तुम वास्तव में ईमान वाले हो।
और जब तुम नमाज़ के लिए पुकारते हो, तो वे उसका उपहास करते तथा खेल बनाते हैं, इसलिए कि वे समझ नहीं रखते।
(हे नबी!) आप कह दें कि हे अह्ले किताब! इसके सिवा हमारा दोष किया है, जिसका तुम बदला लेना चाहते हो कि हम अल्लाह पर तथा जो हमारी ओर उतारा गया और जो हमसे पूर्व उतारा गया, उसपर ईमान लाये हैं और इसलिए कि तुममें अधिक्तर उल्लंघनकारी हैं?
आप उनसे कह दें कि क्या तुम्हें बता दूँ, जिनका प्रतिफल (बदला) अल्लाह के पास इससे भी बुरा है? वे हैं, जिन्हें अल्लाह ने धिक्कार दिया और उनपर उसका प्रकोप हुआ तथा उनमें से बंदर और सूअर बना दिये गये तथा ताग़ूत ( असुर, धर्म विरोधी शक्तियों) को पूजने लगे। इन्हीं का स्थान सबसे बुरा है तथा सर्वाधिक कुपथ हैं।
जब वे[1] तुम्हारे पास आते हैं, तो कहते हैं कि हम ईमान लाये, जबकि वे कुफ़्र लिए हुए आये और उसी के साथ वापिस हुए तथा अल्लाह उसे भली-भाँति जानता है, जिसे वे छुपा रहे हैं।
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1. इस में द्विधावादियों का दुराचार बताया गया है।
तथा आप उनमें से बहुतों को देखेंगे कि पाप तथा अत्याचार और अपने अवैध खाने में दौड़ रहे हैं। वे बड़ा कुकर्म कर रहे हैं।
उन्हें उनके धर्माचारी तथा विद्वान पाप की बात करने तथा अवैध खाने से क्यों नहीं रोकते? वे बहुत बुरी रीति बना रहे हैं।
तथा यहूदियों ने कहा कि अल्लाह के हाथ बंधे[1] हुए हैं, उन्हीं के हाथ बंधे हुए हैं और वे अपने इस कथन के कारण धिक्कार दिये गये हैं; बल्कि उसके दोनों हाथ खुले हुए हैं, वह जैसे चाहे, व्यय (खर्च) करता है और इनमें से अधिक्तर को, जो (क़ुर्आन) आपके पालनहार की ओर से आपपर उतारा गया है, उल्लंघन तथा कुफ़्र (अविश्वास) में अधिक कर देगा और हमने उनके बीच प्रलय के दिन तक के लिए शत्रुता तथा बैर डाल दिया है। जब कभी वे युध्द की अग्नि सुलगाते हैं, तो अल्लाह उसे बुझा[2] देता है। वे धरती में उपद्रव का प्रयास करते हैं और अल्लाह विद्रोहियों से प्रेम नहीं करता।
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1. अर्बी मुह़ावरे में हाथ बंधे का अर्थ है कंजूस होना, और दान-दक्षिणा से हाथ रोकना। (देखियेः सूरह आले इमरान, आयतः181) 2. अर्थात उन के षड्यंत्र को सफल नहीं होने देता, बल्कि उन का कुफल उन्हीं को भोगना पड़ता है। जैसा कि नबी ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के समय में विभिन्न दशाओं में हुआ।
और यदि अह्ले किताब ईमान लाते तथा अल्लाह से डरते, तो हम अवश्य उनके दोषों को क्षमा कर देते और उन्हें सुख के स्वर्गों में प्रवेश देते।
तथा यदि वे स्थापित[1] रखते तौरात और इंजील को और जो भी उनकी ओर उतारा गया है, उनके पालनहार की ओर से, तो अवश्य अपने ऊपर (आकाश) से तथा पैरों के नीचे (धरती) से[2], जीविका पाते। उनमें एक संतुलित समुदाय भी है और उनमें से बहुत-से कुकर्म कर रहे हैं।
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1. अर्थात उन के आदेशों का पालन करते और उसे अपना जीवन विधान बनाते। 2. अर्थात आकाश की वर्षा तथा धर्ती की उपज में अधिक्ता होती।
हे रसूल![1] जो कुछ आपपर आपके पालनहार की ओर से उतारा गया है, उसे (सबको) पहुँचा दें और यदि ऐसा नहीं किया, तो आपने उसका उपदेश नहीं पहुँचाया और अल्लाह (विरोधियों से) आपकी रक्षा करेगा[2], निश्चय अल्लाह काफ़िरों को मार्गदर्शन नहीं देता।
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1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम। 2. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के नबी होने के पश्चात् आप पर विरोधियों ने कई बार प्राण घातक आक्रमण का प्रयास किया। जब आप ने मक्का में सफ़ा पर्वत से एकेश्वरवाद का उपदेश दिया तो आप के चचा अबू लहब ने आप पर पत्थर चलाये। फिर उसी युग में आप काबा के पास नमाज़ पढ़ रहे थे कि अबू जह्ल ने आप की गर्दन रोंदने का प्रयास किया, किन्तु आप के रक्षक फ़रिश्तों को देख कर भागा। और जब क़ुरैश ने यह योजना बनाई कि आप को वध कर दिया जाये, और प्रत्येक क़बीले का एक युवक आप के द्वार पर तलवार ले कर खड़ा रहे और आप निकलें तो सब एक साथ प्रहार कर दें, तब भी आप उन के बीच से निकल गये। और किसी ने देखा भी नहीं। फिर आप ने अपने साथी अबू बक्र के साथ हिजरत के समय सौर पर्वत की गुफा में शरण ली। और काफ़िर गुफा के मुँह तक आप की खोज में आ पहुँचे, उन्हें आप के साथी ने देखा, किन्तु वे आप को नहीं देख सके। और जब वहाँ से मदीना चले तो सुराक़ा नामी एक व्यक्ति ने क़रैश के पुरस्कार के लोभ में आ कर आप का पीछा किया। किन्तु उस के घोड़े के अगले पैर भूमी में धंस गये। उस ने आप को गुहारा, आप ने दुआ कर दी, और उस का घोड़ा निकल गया। उस ने ऐसा प्रयास तीन बार किया फिर भी असफल रहा। आप ने उस को क्षमा कर दिया। और यह देख कर वह मुसलमान हो गया। आप ने फ़रमाया कि एक दिन तुम अपने हाथ में ईरान के राजा का कंगन पहनोगे। और उमर बिन ख़त्ताब के युग में यह बात सच साबित हुई। मदीने में भी यहूदियों के क़बीले बनू नज़ीर ने छत के ऊपर से आप पर भारी पत्थार गिराने का प्रयास किया, जिस से अल्लाह ने आप को सूचित कर दिया। ख़ैबर की एक यहूदी स्त्री ने आप को विष मिला कर बकरी का माँस खिलाया। परन्तु आप पर उस का कोई बड़ा प्रभाव नहीं हुआ। जब कि आप का एक साथी उसे खा कर मर गया। एक युध्द यात्रा में आप अकेले एक वृक्ष के नीचे सो गये, एक व्यक्ति आया और आप की तलवार ले कर कहाः मुझ से आप को कौन बचायेगा? आप ने कहाः अल्लाह! यह सुन कर वह काँपने लगा, और उस के हाथ से तलवार गिर गई और आप ने उसे क्षमा कर दिया। इन सब घटनाओं से यह सिध्द हो जाता है कि अल्लाह ने आप की रक्षा करने का जो वचन आप को दिया, उस को पूरा कर दिया।
(हे नबी!) आप कह दें कि हे अह्ले किताब! तुम किसी धर्म पर नहीं हो, जब तक तौरात तथा इंजील और उस (क़ुर्आन) की स्थापना[1] न करो, जो तुम्हारी ओर तुम्हारे पालनहार की ओर से उतारा गया है तथा उनमें से अधिक्तर को जो (क़ुर्आन) आपके पालनहार की ओर से उतारा गया है, अवश्य उल्लंघन तथा कुफ़्र (अविश्वास) में अधिक कर देगा। अतः, आप काफ़िरों (के अविश्वास) पर दुखी न हों।
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1. अर्थात उन के आदेशों का पालन न करो।
वास्तव में, जो ईमान लाये, जो यहूदी हुए, साबी तथा ईसाई, जो भी अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान लायेगा तथा सत्कर्म करेगा, तो उन्हीं के लिए कोई डर नहीं और न वे उदासीन[1] होंगे।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि इस्लाम से पहले यहूदी, ईसाई तथा साबी जिन्हों ने अपने धर्म को पकड़ रखा है, और उस में किसी प्रकार की हेर-फेर नहीं किया, अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखा और सदाचार किये उन को कोई भय और चिंता नहीं होनी चाहिये। इसी प्रकार की आयत सूरह बक़रह (62) में भी आई है, जिस के विषय में आता है कि कुछ लोगों ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से प्रश्न किया कि उन लोगों का क्या होगा जो अपने धर्म पर स्थित थे और मर गये? इसी पर यह आयत उतरी। परन्तु अब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) और आप के लाये धर्म पर ईमान लाना अनिवार्य है, इस के बिना मोक्ष (नजात) नहीं मिल सकता।
हमने बनी इस्राईल से दृढ़ वचन लिया तथा उनके पास बहुत-से रसूल भेजे, (परन्तु) जब कभी कोई रसूल उनकी अपनी आकांक्षाओं के विरुध्द कुछ लाया, तो एक गिरोह को उन्होंने झुठला दिया तथा एक गिरोह को वध करते रहे।
तथा वे समझे कि कोई परीक्षा न होगी, इसलिए अंधे-बहरे हो गये, फिर अल्लाह ने उन्हें क्षमा कर दिया, फिर भी उनमें से अधिक्तर अंधे और बहरे हो गये तथा वे जो कुछ कर रहे हैं, अल्लाह उसे देख रहा है।
निश्चय वे काफ़िर हो गये, जिन्होंने कहा कि अल्लाह[1] मर्यम का पुत्र मसीह़ ही है। जबकि मसीह़ ने कहा थाः हे बनी इस्राईल! उस अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, जो मेरा पालनहार तथा तुम्हारा पालनहार है, वास्तव में, जिसने अल्लाह का साझी बना लिया, उसपर अल्लाह ने स्वर्ग को ह़राम (वर्जित) कर दिया और उसका निवास स्थान नरक है तथा अत्याचारों का कोई सहायक न होगा।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि ईसाईयों को भी मूल धर्म एकेश्वरवाद और सदाचार की शिक्षा दी गई थी। परन्तु वह भी उस से फिर गये, तथा ईसा को स्वयं अल्लाह अथवा अल्लाह का अंश बना दिया, और पिता-पुत्र और पवित्रात्मा तीनों के योग को एक प्रभु मानने लगे।
निश्चय वे भी काफ़िर हो गये, जिन्होंने कहा कि अल्लाह तीन का तीसरा है! जबकि कोई पूज्य नहीं है, परन्तु वही अकेला पूज्य है और यदि वे जो कुछ कहते हैं, उससे नहीं रुके, तो उनमें से काफ़िरों को दुखदायी यातना होगी।
वे अल्लाह से तौबा तथा क्षमा याचना क्यों नहीं करते, जबकि अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है?
मर्यम का पुत्र मसीह़ इसके सिवा कुछ नहीं कि वह एक रसूल है, उससे पहले भी बहुत-से रसूल हो चुके हैं, उसकी माँ सच्ची थी, दोनों भोजन करते थे, आप देखें कि हम कैसे उनके लिए निशानियाँ (एकेश्वरवाद के लक्षण) उजागर कर रहे हैं, फिर देखिए कि वे कहाँ बहके[1] जा रहे हैं?
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1. आयत का भावार्थ यह है कि ईसाईयों को भी मूल धर्म एकेश्वरवाद और सदाचार की शिक्षा दी गई थी। परन्तु वह भी उस से फिर गये, तथा ईसा को स्वयं अल्लाह तथा अल्लाह का अंश बना दिया, और पिता-पुत्र और पवित्रात्मा तीनों के योग को एक प्रभु मानने लगे।
आप उनसे कह दें कि क्या तुम अल्लाह के सिवा उसकी इबादत (वंदना) कर रहे हो, जो तुम्हें कोई हानि और लाभ नहीं पहुँचा सकता? तथा अल्लाह सब कुछ सुनने-जानने वाला है।
(हे नबी!) कह दो कि हे अह्ले किताब! अपने धर्म में अवैध अति न करो[1] तथा उनकी अभिलाषाओं पर न चलो, जो तुमसे पहले कुपथ हो[2] चुके और बहुतों को कुपथ कर गये और संमार्ग से विचलित हो गये।
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1. "अति न करो" अर्थात ईसा अलैहिस्सलाम को प्रभु अथवा प्रभु का पुत्र न बनाओ। 2. इन से अभिप्राय वह हो सकते हैं, जो नबियों को स्वयं प्रभु अथवा प्रभु का अंश मानते हैं।
बनी इस्राईल में से जो काफ़िर हो गये, वे दावूद तथा मर्यम के पुत्र ईसा की ज़बान पर धिक्कार दिये[1] गये, ये इस कारण कि उन्होंने अवज्ञा की तथी (धर्म की सीमा का) उल्लंघन कर रहे थे।
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1. अर्थात धर्म पुस्तक ज़बूर तथा इंजील में इन के धिक्कृत होने की सूचना दी गयी है। ( इब्ने कसीर)
वे एक-दूसरे को किसी बुराई से, जो वे करते थे, रोकते नहीं थे, निश्चय वे बड़ी बुराई कर रहे थे[1]।
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1. इस आयत में उन पर धिक्कार का कारण बताया गया है।
आप उनमें से अधिक्तर को देखेंगे कि काफ़िरों को अपना मित्र बना रहे हैं। जो कर्म उन्होंने अपने लिए आगे भेजा है, बहुत बुरा है कि अल्लाह उनपर क्रुध्द हो गया तथा यातना में वही सदावासी होंगे।
और यदि वे अल्लाह पर तथा नबी पर और जो उनपर उतारा गया, उसपर ईमान लाते, तो उन्हें मित्र न बनाते[1], परन्तु उनमें अधिक्तर उल्लंघनकारी हैं।
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1. भावार्थ यह है कि यदि यहूदी, मूसा अलैहिस्सलाम को अपना नबी और तौरात को अल्लाह की किताब मानते हैं, जैसा कि उन का दावा है तो वे मुसलमानों के शत्रु और काफ़िरों को मित्र नहीं बनाते। क़ुर्आन का यह सच आज भी देखा जा सकता है।
(हे नबी!) आप उनका, जो ईमान लाये हैं, सबसे कड़ा शत्रु यहूदियों तथा मिश्रणवादियों को पायेंगे और जो ईमान लाये हैं, उनके सबसे अधिक समीप आप उन्हें पायेंगे, जो अपने को ईसाई कहते हैं। ये बात इसलिए है कि उनमें उपासक तथा सन्यासी हैं और वे अभिमान[1] नहीं करते।
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1. अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं कि यह आयत ह़ब्शा के राजा नजाशी और उस के साथियों के बारे में उतरी, जो क़ुर्आन सुन कर रोने लगे, और मुसलमान हो गये। (इब्ने जरीर)
तथा जब वे (ईसाई) उस (क़ुर्आन) को सुनते हैं, जो रसूल पर उतरा है, तो आप देखते हैं कि उनकी आँखें आँसू से उबल रही हैं, उस सत्य के कारण, जिसे उन्होंने पहचान लिया है। वे कहते हैं, हे हमारे पालनहार! हम ईमान ले आये, अतः हमें (सत्य) के साथियों में लिख[1] ले।
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1. जब जाफ़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने ह़ब्शा के राजा नजाशी को सूरह मर्यम की आरंभिक आयतें सुनाईं, तो वह और उस के पादरी रोने लगे। (सीरत इब्ने हिशामः1/359)
(तथा कहते हैं) क्या कारण है कि हम अल्लाह पर तथा इस सत्य (क़ुर्आन) पर ईमान (विश्वास) न करें? और हम आशा रखते हैं कि हमारा पालनहार हमें सदाचारियों में सम्मिलित कर देगा।
तो अल्लाह ने उनके ये कहने के कारण उन्हें ऐसे स्वर्ग प्रदान कर दिये, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं, वे उनमें सदावासी होंगे तथा यही सत्कर्मियों का प्रतिफल (बदला) है।
तथा जो काफ़िर हो गये और हमारी आयतों को झुठला दिया, तो वही नारकी हैं।
हे ईमान वालो! उन स्वच्छ पवित्र चीजों को जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए ह़लाल (वैध) की हैं, ह़राम (अवैध)[1] न करो और सीमा का उल्लंघन न करो। निःसंदेह अल्लाह उल्लंघनकारियों[2] से प्रेम नहीं करता।
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1. अर्थात किसी भी खाद्य अथवा वस्तु को वैध अथवा अवैध करने का अधिकार केवल अल्लाह को है। 2. यहाँ से वर्णन क्रम, फिर आदेशों तथा निषेधों की ओर फिर रहा है। अन्य धर्मों के अनुयायियों ने सन्यास को अल्लाह के सामिप्य का साधन समझ लिया था, और ईसाईयों ने सन्यास की रीति बना ली थी और अपने ऊपर संसारिक उचित स्वाद तथा सुख को अवैध कर लिया था। इस लिये यहाँ सावधान किया जा रहा है कि यह कोई अच्छाई नहीं, बल्कि धर्म सीमा का उल्लंघन है।
तथा उसमें से खाओ, जो ह़लाल (वैध) स्वच्छ चीज़ अल्लाह ने तुम्हें प्रदान की हैं तथा अल्लाह (की अवज्ञा) से डरते रहो, यदि तुम उसीपर ईमान (विश्वास) रखते हो।
अल्लाह तुम्हें तुम्हारी व्यर्थ शपथों[1] पर नहीं पकड़ता, परन्तु जो शपथ जान-बूझ कर ली हो, उसपर रकड़ता है, तो उसका[2] प्रायश्चित दस निर्धनों को भोजन कराना है, उस माध्यमिक भोजन में से, जो तुम अपने परिवार को खिलाते हो अथवा उन्हें वस्त्र दो अथवा एक दास मुक्त करो और जिसे ये सब उपलब्ध न हो, तो तीन दिन रोज़ा रखना है। ये तुम्हारी शपथों का प्रायश्चित है, जब तुम शपथ लो तथा अपनी शपथों की रक्षा करो, इसी प्रकार अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी आयतों (आदेशों) का वर्णन करता है, ताकि तुम उसका उपकार मानो।
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1. व्यर्थ अर्थात बिना निश्चय के। जैसे कोई बात-बात पर बोलता हैः (नहीं, अल्लाह की शपथ!) अथवा (हाँ, अल्लाह की शपथ!) (बुख़ारीः4613) 2. अर्थात यदि शपथ तोड़ दे, तो यह प्रायश्चित है।
हे ईमान वालो! निःसंदेह[1] मदिरा, जुआ, देवस्थान[2] और पाँसे[3] शैतानी मलिन कर्म हैं, अतः इनसे दूर रहो, ताकि तुम सफल हो जाओ।
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1. शराब के निषेध के विषय में पहले सूरह बक़रह आयत 219, और सूरह निसा आयत 43 में दो आदेश आ चुके हैं। और यह अन्तिम आदेश है, जिस में शराब को सदैव के लिये वर्जित कर दिया गया है। 2. देवस्थान अर्थात वह वेदियाँ जिन पर देवी-देवताओं के नाम पर पशुओं की बलि दी जाती है। आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह के सिवा किसी अन्य के नाम से बलि दिया हुआ पशु अथवा प्रसाद अवैध है। 3. पाँसे, यह तीन तीर होते हैं, जिन से वह कोई काम करने के समय यह निरणय लेते थे कि उसे करें या न करें। उन में एक पर "करो" और दूसरे पर "मत करो" और तीसरे पर "शून्य" लिखा होता था। जूवे में लाट्री और रेस आदि भी शामिल हैं।
शैतान तो यही चाहता है कि शराब (मदिरा) तथा जूए द्वारा तुम्हारे बीच बैर तथा द्वेष डाल दे और तुम्हें अल्लाह की याद तथा नमाज़ से रोक दे, तो क्या तुम रुकोगे या नहीं?
तथा अल्लाह के आज्ञाकारी रहो, उसके रसूल के आज्ञाकारी रहो तथा (उनकी अवज्ञा से) सावधान रहो। यदि तुम विमुख हुए, तो जान लो कि हमारे रसूल पर केवल खुला उपदेश पहुँचा देना है।
उनपर जो ईमान लाये तथा सदाचार करते रहे, उसमें कोई दोष नहीं, जो (निषेधाज्ञा से पहले) खा लिया, जब वे अल्लाह से डरते रहे, ईमान पर स्थिर रहे, सत्कर्म करते रहे, फिर डरते और सत्कर्म करते रहे, फिर (रोके गये तो) अल्लाह से डरे और सदाचार करते रहे। अल्लाह सदाचारियों से प्रेम करता[1] है।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि जिन्हों ने वर्जित चीज़ों का निषेधाज्ञा से पहले प्रयोग किया, फिर जब भी उन को अवैध किया गया तो उन से रुक गये, उन पर कोई दोष नहीं। सह़ीह़ ह़दीस में है कि जब शराब वर्जित की गयी तो कुछ लोगों ने कहा कि कुछ लोग इस स्थिति में मारे गये कि वह शराब पिये हुये थे, उसी पर यह आयत उतरी। (बुख़ारीः4620) आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः जो भी नशा लाये, वह मदिरा और अवैध है। (सह़ीह़ बुख़ारीः2003) और इस्लाम में उस का दण्ड अस्सी कोड़े हैं। (बुख़ारीः6779)
हे ईमान वालो! अल्लाह कुछ शिकार द्वारा जिन तक तुम्हारे हाथ तथा भाले पहुँचेंगे, अवश्य तुम्हारी परीक्षा लेगा, ताकि ये जान ले कि तुममें से कौन उससे बिन देखे डरता है? फिर इस (आदेश) के पश्चात् जिसने (इसका) उल्लंघन किया, तो उसी के लिए दुःखदायी यातना है।
हे ईमान वलो! शिकार न करो[1], जब तुम एह़राम की स्थिति में रहो तथा तुममें से जो कोई जान-बूझ कर ऐसा कर जाये, तो पालतू पशु से शिकार किये पशु जैसा बदला (प्रतिकार) है, जिसका निर्णय तुममें से दो न्यायकारी व्यक्ति करेंगे, जो काबा तक हद्य (उपहार स्वरूप) भेजा जाये। अथवा[2] प्रायश्चित है, जो कुछ निर्धनों का खाना अथवा उसके बराबर रोज़े रखना है। ताकि अपने किये का दुष्परिणाम चखो। इस आदेश से पूर्व जो हुआ, अल्लाह ने उसे क्षमा कर दिया और जो फिर करेगा, अल्लाह उससे बदला लेगा और अल्लाह प्रभुत्वशाली बदला लेने वाला है।
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1. इस से अभिप्राय थल का शिकार है। 2. अर्थात यदि शिकार के पशु के समान पालतू पशु न हो, तो उस का मूल्य ह़रम के निर्धनों को खाने के लिये भेजा जाये अथवा उस के मूल्य से जितने निर्धनों को खिलाया जा सकता हो, उतने व्रत रखे जायें।
तथा तुम्हारे लिए जल का शिकार और उसका खाद्य[1] ह़लाल (वैध) कर दिया गया है, तुम्हारे तथा यात्रियों के लाभ के लिए तथा तुमपर थल का शिकार जब तक एह़राम की स्थिति में रहो, ह़राम (अवैध) कर दिया गया है और अल्लाह (की अवज्ञा) से डरते रहो, जिसकी ओर तुम सभी एकत्र किये जाओगे।
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1. अर्थात जो बिना शिकार किये हाथ आये, जैसे मरी हुई मछली। अर्थात जल का शिकार एह़राम की स्थिति में तथा साधारण अवस्था में उचित है।
अल्लाह ने आदरणीय घर काबा को लोगों के लिए (शांति तथा एकता की) स्थापना का साधन बना दिया है तथा आदरणीय मासों[1] और (ह़ज) की क़ुर्बानी तथा क़ुर्बानी के पशुओं को, जिन्हें पट्टे पहनाये गये हों। ये इसलिए किया गया ताकि तुम्हें ज्ञान हो जाये कि अल्लाह, जो कुछ आकाशों और जो कुछ धरती में है, सबको जानता है। तथा निःसंदेह अल्लाह प्रत्येक विषय का ज्ञानी है।
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1. आदर्णीय मासों से अभिप्रेत ज़ुलक़ादा, ज़ुलह़िज्जा, मुह़र्रम और रजब के महीने हैं।
तुम जान लो कि अल्लाह कड़ा दण्ड देने वाला है और ये कि अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् (भी) है।
अल्लाह के रसूल का दायित्व इसके सिवा कुछ नहीं कि उपदेश पहुँचा दे और अल्लाह जो तुम बोलते और जो मन में रखते हो, सब जानता है।
(हे नबी!) कह दो कि मलिन तथा पवित्र समान नहीं हो सकते। यद्यपि मलिन की अधिक्ता तुम्हें भा रही हो। तो हे मतिमानो! अल्लाह (की अवज्ञा) से डरो, ताकि तुम सफल हो जाओ[1]।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह ने जिस से रोक दिया है, वही मलिन और जिस की अनुमति दी है, वही पवित्र है। अतः मलिन में रूचि न रखो, और किसी चीज़ की कमी और अधिक्ता को न देखो, उस के लाभ और हानि को देखो।
हे ईमान वालो! ऐसी बहुत सी चीज़ों के विषय में प्रश्न न करो, जो यदि तुम्हें बता दी जायें, तो तुम्हें बुरा लग जाये तथा यदि तुम, उनके विषय में, जबकि क़ुर्आन उतर रहा है, प्रश्न करोगे, तो वो तुम्हारे लिए खोल दी जायेंगी। अल्लाह ने तुम्हें क्षमा कर दिया और अल्लाह अति क्षमाशील सहनशील[1] है।
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1. इब्ने अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं कि कुछ लोग नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से उपहास के लिये प्रश्न किया करते थे। कोई प्रश्न करता कि मेरा पिता कौन है? किसी की ऊँटनी खो गई हो तो आप से प्रश्न करता कि मेरी ऊँटनी कहाँ है? इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4622)
ऐसे ही प्रश्न एक समुदाय ने तुमसे पहले[1] किये, फिर इसके कारण वे काफ़िर हो गये।
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1. अर्थात अपने रसूलों से। आयत का भावार्थ यह है कि धर्म के विषय में कुरेद न करो। जो करना है, अल्लाह ने बता दिया है, और जो नहीं बताया है उसे क्षमा कर दिया है, अतः अपने मन से प्रश्न न करो, अन्यथा धर्म में सुविधा की जगह असुविधा पैदा होगी, और प्रतिबंध अधिक हो जायेंगे, तो फिर तुम उन का पालन न कर सकोगे।
अल्लाह ने बह़ीरा, साइबा, वसीला और ह़ाम, कुछ नहीं बनाया[1] है, परन्तु जो काफ़िर हो गये वे अल्लाह पर झूठ घड़ रहे हैं और उनमें अधिक्तर निर्बोध हैं।
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1. अरब के मिश्रणवादी देवी- देवता के नाम पर कुछ पशुओं को छोड़ देते थे, और उन्हें पवित्र समझते थे, यहाँ उन्हीं की चर्चा की गई है। बह़ीरा- वह ऊँटनी जिस को उस का कान चीर कर देवताओं के लिये मुक्त कर दिया जाता था, और उस का दूध कोई नहीं दूह सकता था। साइबा- वह पशु जिसे देवताओं के नाम पर मुक्त कर देते थे, जिस पर न कोई बोझ लाद सकता था, न सवार हो सकता था। वसीला- वह ऊँटनी जिस का पहला तथा दूसरा बच्चा मादा हो, ऐसी ऊँटनी को भी देवताओं के नाम पर मुक्त कर देते थे। ह़ाम- नर जिस के वीर्य से दस बच्चे हो जायें, उन्हें भी देवताओं के नाम पर साँड बना कर मुक्त कर दिया जाता था। भावार्थ यह है कि यह अनर्गल चीजें हैं। अल्लाह ने इन का आदेश नहीं दिया है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः मैं ने नरक को देखा कि उस की ज्वाला एक दूसरे को तोड़ रही है। और अमर बिन लुह़य्य को देखा कि वह अपनी आँतें खींच रहा है। उसी ने सब से पहले साइबा बनाया था। (बुख़ारीः4624)
और जब उनसे कहा जाता है कि उसकी ओर आओ, जो अल्लाह ने उतारा है तथा रसूल की ओर (आओ), तो कहते हैं, हमें वही बस है, जिसपर हमने अपने पूर्वजों को पाया है, क्या उनके पूर्वज कुछ न जानते रहे हों और न संमार्ग पर रहे हों (तब भी वे उन्हीं के रास्ते पर चलेंगे)?
हे ईमान वालो! तुम अपनी चिन्ता करो, तुम्हें वे हानि नहीं पहुँचा सकेंगे, जो कुपथ हो गये, जब तुम सुपथ पर रहो। अल्लाह की ओर तुम सबको (परलोक में) फिर कर जाना है, फिर वह तुम्हें तुम्हारे[1] कर्मों से सूचित कर देगा।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि यदि लोग कुपथ हो जायें, तो उन का कुपथ होना तुम्हारे लिये तर्क (दलील) नहीं हो सकता कि जब सभी कुपथ हो रहे हैं तो हम अकेले क्या करें? प्रत्येक व्यक्ति पर स्वयं अपना दायित्व है, दूसरों का दायित्व उस पर नहीं, अतः पूरा संसार कुपथ हो जाये तब भी तुम सत्य पर स्थित रहो।
हे ईमान वालो! यदि किसी के मरण का समय हो, तो वसिय्यत[1] के समय तुममें से दो न्यायकारियों को अथवा तुम्हारे सिवा दो अन्य व्यक्तियों को गवाह बनाये, यदि तुम धरती में यात्रा कर रहे हो और तुम्हें मरण की आपदा आ पहुँचे। उन दोनों को नमाज़ के बाद रोक लो, फिर वे दोनों अल्लाह की शपथ लें, यदि तुम्हें उनपर संदेह हो। वे ये कहें कि हम गवाही के द्वारा कोई मूल्य नहीं खरीदते, यद्यपि वे समीपवर्ती क्यों न हों और न हम अल्लाह की गवाही को छुपाते हैं, यदि हम ऐसा करें, तो हम पापियों में हैं।
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1. वसिय्यत का अर्थ है, उत्तरदान, मरणासन्न आदेश।
फिर यदि ज्ञान हो जाये कि वे दोनों (साक्षी) किसी पाप के अधिकारी हुए हैं, तो उन दोनों के स्थान पर दो अन्य गवाह खड़े हो जायेँ, उनमें से, जिनका अधिकार पहले दोनों ने दबाया है और वे दोनों शपथ लें कि हमारी गवाही उन दोनों की गवाही से अधिक सही है और हमने कोई अत्याचार नहीं किया है। यदि किया है, तो (निःसंदेह) हम अत्याचारी हैं।
इस प्रकार अधिक आशा है कि वे सही गवाही देंगे अथवा इस बात से डरेंगे कि उनकी शपथों को दूसरी शपथों के पश्चात् न माना जाये। अल्लाह से डरते रहो, (उसका आदेश) सुनो और अल्लाह उल्लंघनकारियों को सीधी राह नहीं[1] दिखाता।
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1. आयत 106 से 108 तक में वसिय्यत तथा उस के साक्ष्य का नियम बताया जा रहा है कि दो विश्वस्त व्यक्तियों को साक्षी बनाया जाये, और यदि मुसलमान न मिलें तो ग़ैर मुस्लिम भी साक्षी हो सकते हैं। साक्षियों को शपथ के साथ साक्ष्य देना चाहिये। विवाद की दशा में दोनों पक्ष अपने अपने साक्षी लायें जो इन्कार करे उस पर शपथ है।
जिस दिन अल्लाह सब रसूलों को एकत्र करेगा, फिर उनसे कहेगा कि तुम्हें (तुम्हारी जातियों की ओर से) क्या उत्तर दिया गया? वे कहेंगे कि हमें इसका कोई ज्ञान[1] नहीं। निःसंदेह तू ही सब छुपे तथ्यों का ज्ञानी है।
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1. अर्थात हम नहीं जानते कि उन के मन में क्या था, और हमारे बाद उन का कर्म क्या रहा?
तथा याद करो, जब अल्लाह ने कहाः हे मर्यम के पुत्र ईसा! अपने ऊपर तथा अपनी माता के ऊपर मेरा पुरस्कार याद कर, जब मैंने पवित्रात्मा (जिब्रील) द्वारा तुझे समर्थन दिया, तू गहवारे (गोद) में तथा बड़ी आयु में लोगों से बातें कर रहा था तथा तुझे पुस्तक, प्रबोध, तौरात और इंजील की शिक्षा दी, जब तू मेरी अनुमति से मिट्टी से पक्षी का रूप बनाता और उसमें फूँकता, तो वह मेरी अनुमति से वास्तव में पक्षी बन जाता था और तू जन्म से अंधे तथा कोढ़ी को मेरी अनुमति से स्वस्थ कर देता था और जब तू मुर्दों को मेरी अनुमति से जीवित कर देता था और मैंने बनी इस्राईल से तुझे बचाया था, जब तू उनके पास खुली निशानियाँ लाया, तो उनमें से काफ़िरों ने कहा कि ये तो खुले जादू के सिवा कुछ नहीं है।
तथा याद कर, जब मैंने तेरे ह़वारियों के दिलों में ये बात डाल दी कि मुझपर तथा मेरे रसूल (ईसा) पर ईमान लाओ, तो सबने कहा कि हम ईमान लाये और तू साक्षी रह कि हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हैं।
जब ह़वारियों ने कहाः हे मर्यम के पुत्र ईसा! क्या तेरा पालनहार ये कर सकता है कि हमपर आकाश से थाल (दस्तरख्वान) उतार दे? उस (ईसा) ने कहाः तुम अल्लाह से डरो, यदि तुम वास्तव में ईमान वाले हो।
उन्होंने कहाः हम चाहते हैं कि उसमें से खायें और हमारे दिलों को संतोष हो जाये तथा हमें विश्वास हो जाये कि तूने हमें जो कुछ बताया है, सच है और हम उसके साक्षियों में से हो जायेँ।
मर्यम के पुत्र ईसा ने प्रार्थना कीः हे अल्लाह, हमारे पालनहार! हमपर आकाश से एक थाल उतार दे, जो हमारे तथा हमारे पश्चात् के लोगों के लिए उत्सव (का दिन) बन जाये तथा तेरी ओर से एक चिन्ह (निशानी)। तथा हमें जीविका प्रदान कर, तू उत्तम जीविका प्रदाता है।
अल्लाह ने कहाः मैं तुमपर उसे उतारने वाला हूँ, फिर उसके पश्चात् भी जो कुफ़्र (अविश्वास) करेगा, तो मैं निश्चय उसे दण्ड दूँगा, ऐसा दण्ड[1] कि संसार वासियों में से किसी को, वैसी दण्ड नहीं दूँगा।
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1. अधिक्तर भाष्यकारों ने लिखआ है कि वह थाल आकाश से उतरा। (इब्ने कसीर)
तथा जब अल्लाह (प्रलय के दिन) कहेगाः हे मर्यम के पुत्र ईसा! क्या तुमने लोगों से कहा था कि अल्लाह को छोड़कर मुझे तथा मेरी माता को पूज्य (आराध्य) बना लो? वह कहेगाः तू पवित्र है, मुझसे ये कैसे हो सकता है कि ऐसी बात कहूँ, जिसका मुझे कोई अधिकार नहीं? यदि मैंने कहा होगा, तो तुझे अवश्य उसका ज्ञान हुआ होगा। तू मेरे मन की बात जानता है और मैं तेरे मन की बात नहीं जानता। वास्तव में, तू ही परोक्ष (ग़ैब) का अति ज्ञानी है।
मैंने केवल उनसे वही कहा था, जिसका तूने आदेश दिया था कि अल्लाह की इबादत करो, जो मेरा पालनहार तथा तुम सभी का पालनहार है। मैं उनकी दशा जानता था, जब तक उनमें था और जब तूने मेरा समय पूरा कर दिया[1], तो तू ही उन्हें जानता था और तू प्रत्येक वस्तु से सूचित है।
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1. और मुझे आकाश पर उठा लिया, नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः जब प्रलय के दिन कुछ लोग बायें से धर लिये जायेंगे तो मैं भी यही कहूँगा। (बुख़ारीः4626)
यदि तू उन्हें दण्ड दे, तो वे तेरे दास (बन्दे) हैं और यदि तू उन्हें क्षमा कर दे, तो वास्तव में तू ही प्रभावशाली गुणी है।
अल्लाह कहेगाः ये वो दिन है, जिसमें सचों को उनका सच ही लाभ देगा। उन्हीं के लिए ऐसे स्वर्ग हैं, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं। वे उनमें नित्य सदावासी होंगे, अल्लाह उनसे प्रसन्न हो गया तथा वे अल्लाह से प्रसन्न हो गये और यही सबसे बड़ी सफलता है।
आकाशों तथा धरती और उनमें जो कुछ है, सबका राज्य अल्लाह ही का[1] है तथा वह जो चाहे, कर सकता है।
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1. आयत 116 से अब तक की आयतों का सारांश यह है कि अल्लाह ने पहले अपने वह पुरस्कार याद दिलाये जो ईसा अलैहिस्सलाम पर किये। फिर कहा कि सत्य की शिक्षाओं के होते तेरे अनुयायियों ने क्यों तुझे और तेरी माता को पूज्य बना लिया? इस पर ईसा अलैहिस्सलाम कहेंगे कि मैं इस से निर्दोष हूँ। अभिप्राय यह है कि सभी नबियों ने एकेश्वरवाद तथा सत्कर्म की शिक्षा दी। परन्तु उन के अनुयायियों ने उन्हीं को पूज्य बना लिया। इस लिये इस की भार अनुयायियों और वे जिस की पूजा कर रहे हैं, उन पर है। वह स्वयं इस से निर्दोष हैं।
سورة المائدة
معلومات السورة
الكتب
الفتاوى
الأقوال
التفسيرات

إنَّ شأنَ هذه السورةِ عظيمٌ كشأنِ أخواتِها السَّبْعِ الطِّوال؛ لِما اشتملت عليه من أحكامٍ كثيرة؛ فقد بُدِئت بالأمرِ بالوفاء بالعقود والالتزام بالمواثيق، واشتملت على ذِكْرِ المُحرَّمات من الأطعمة، وجاءت على ذكرِ عقوبة الحِرابةِ والسرقة، وغيرِها من الأحكام التي تُوضِّحُ المعاملاتِ بين الناس؛ استكمالًا لشرائعِ الله، كما ذكَرتْ قصَّةَ بني إسرائيل وطلَبِهم المائدةَ، وخُتِمتْ بالحوارِ الذي يَجري بين الله وبين عيسى عليه السلام لإقامةِ الحُجَّةِ على بني إسرائيلَ، ولعلَّ ما صحَّ في الحديثِ مِن أنَّ الدابَّةَ لم تستطِعْ تحمُّلَها وقتَ نزولِها على رسولِ الله صلى الله عليه وسلم كان لكثرةِ ما فيها من أحكامٍ وتشريعات.

ترتيبها المصحفي
5
نوعها
مدنية
ألفاظها
2837
ترتيب نزولها
112
العد المدني الأول
122
العد المدني الأخير
122
العد البصري
123
العد الكوفي
120
العد الشامي
122

* قوله تعالى: ﴿فَمَن تَابَ مِنۢ بَعْدِ ظُلْمِهِۦ وَأَصْلَحَ﴾ [المائدة: 39]:

عن عبدِ اللهِ بن عمرٍو رضي الله عنهما: «أنَّ امرأةً سرَقتْ على عهدِ رسولِ اللهِ ﷺ، فجاءَ بها الذين سرَقتْهم، فقالوا: يا رسولَ اللهِ، إنَّ هذه المرأةَ سرَقتْنا، قال قومُها: فنحن نَفدِيها - يعني أهلَها -، فقال رسولُ اللهِ ﷺ: «اقطَعُوا يدَها»، فقالوا: نحن نَفدِيها بخَمْسِمائةِ دينارٍ، قال: «اقطَعُوا يدَها»، قال: فقُطِعتْ يدُها اليمنى، فقالت المرأةُ: هل لي مِن توبةٍ يا رسولَ اللهِ؟ قال: «نَعم، أنتِ اليومَ مِن خطيئتِكِ كيَوْمَ ولَدَتْكِ أمُّكِ»؛ فأنزَلَ اللهُ عز وجل في سورةِ المائدةِ: ﴿فَمَن تَابَ مِنۢ بَعْدِ ظُلْمِهِۦ وَأَصْلَحَ﴾ [المائدة: 39] إلى آخرِ الآيةِ». أخرجه أحمد (٦٦٥٧).

* قوله تعالى: ﴿وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَآ أَنزَلَ اْللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ اْلْكَٰفِرُونَ﴾ [المائدة: 44]، ﴿وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَآ أَنزَلَ اْللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ اْلظَّٰلِمُونَ﴾ [المائدة: 45]، ﴿وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَآ أَنزَلَ اْللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ اْلْفَٰسِقُونَ﴾ [المائدة: 47]:

عن البَراءِ بن عازبٍ رضي الله عنهما، قال: «مُرَّ على النبيِّ ﷺ بيهوديٍّ مُحمَّمًا مجلودًا، فدعَاهم ﷺ، فقال: «هكذا تجدون حدَّ الزاني في كتابِكم؟!»، قالوا: نَعم، فدعَا رجُلًا مِن علمائِهم، فقال: «أنشُدُك باللهِ الذي أنزَلَ التَّوراةَ على موسى؛ أهكذا تجدون حدَّ الزاني في كتابِكم؟!»، قال: لا، ولولا أنَّك نشَدتَّني بهذا لم أُخبِرْك، نجدُه الرَّجْمَ، ولكنَّه كثُرَ في أشرافِنا، فكنَّا إذا أخَذْنا الشريفَ ترَكْناه، وإذا أخَذْنا الضعيفَ أقَمْنا عليه الحدَّ، قلنا: تعالَوْا فَلْنجتمِعْ على شيءٍ نُقِيمُه على الشريفِ والوضيعِ، فجعَلْنا التَّحْميمَ والجَلْدَ مكانَ الرَّجْمِ، فقال رسولُ اللهِ ﷺ: «اللهمَّ إنِّي أوَّلُ مَن أحيا أمرَك إذ أماتوه»، فأمَرَ به فرُجِمَ؛ فأنزَلَ اللهُ عز وجل: ﴿يَٰٓأَيُّهَا ‌اْلرَّسُولُ لَا يَحْزُنكَ اْلَّذِينَ يُسَٰرِعُونَ فِي اْلْكُفْرِ﴾ [المائدة: 41]  إلى قولِه: ﴿إِنْ أُوتِيتُمْ هَٰذَا فَخُذُوهُ﴾ [المائدة: 41]، يقولُ: ائتُوا محمَّدًا ﷺ، فإن أمَرَكم بالتَّحْميمِ والجَلْدِ فخُذُوه، وإن أفتاكم بالرَّجْمِ فاحذَرُوا؛ فأنزَلَ اللهُ تعالى: ﴿وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَآ أَنزَلَ اْللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ اْلْكَٰفِرُونَ﴾ [المائدة: 44]، ﴿وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَآ أَنزَلَ اْللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ اْلظَّٰلِمُونَ﴾ [المائدة: 45]، ﴿وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَآ أَنزَلَ اْللَّهُ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ اْلْفَٰسِقُونَ﴾ [المائدة: 47]؛ في الكفَّارِ كلُّها». أخرجه مسلم (١٧٠٠).

* قوله تعالى: ﴿لَيْسَ عَلَى اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ اْلصَّٰلِحَٰتِ جُنَاحٞ فِيمَا طَعِمُوٓاْ﴾ [المائدة: 93]:

عن أنسِ بن مالكٍ رضي الله عنه، قال: «كنتُ ساقيَ القومِ في منزلِ أبي طَلْحةَ، وكان خَمْرُهم يومئذٍ الفَضِيخَ، فأمَرَ رسولُ اللهِ ﷺ مناديًا ينادي: ألَا إنَّ الخمرَ قد حُرِّمتْ، قال: فقال لي أبو طَلْحةَ: اخرُجْ، فأهرِقْها، فخرَجْتُ فهرَقْتُها، فجَرَتْ في سِكَكِ المدينةِ، فقال بعضُ القومِ: قد قُتِلَ قومٌ وهي في بطونِهم؛ فأنزَلَ اللهُ: ﴿لَيْسَ عَلَى اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ اْلصَّٰلِحَٰتِ جُنَاحٞ فِيمَا طَعِمُوٓاْ﴾ [المائدة: 93] الآيةَ». أخرجه البخاري (٢٤٦٤).

* قوله تعالى: ﴿لَا تَسْـَٔلُواْ عَنْ أَشْيَآءَ إِن تُبْدَ لَكُمْ تَسُؤْكُمْ﴾ [المائدة: 101]:

عن أنسِ بن مالكٍ رضي الله عنه، قال: «خطَبَ رسولُ اللهِ ﷺ خُطْبةً ما سَمِعْتُ مِثْلَها قطُّ، قال: «لو تَعلَمون ما أعلَمُ، لَضَحِكْتم قليلًا، ولَبَكَيْتم كثيرًا»، قال: فغطَّى أصحابُ رسولِ اللهِ ﷺ وجوهَهم، لهم خَنِينٌ، فقال رجُلٌ: مَن أبي؟ قال: فلانٌ؛ فنزَلتْ هذه الآيةُ: ﴿لَا تَسْـَٔلُواْ عَنْ أَشْيَآءَ إِن تُبْدَ لَكُمْ تَسُؤْكُمْ﴾ [المائدة: 101]». أخرجه البخاري (٤٦٢١).

* قوله تعالى: ﴿يَٰٓأَيُّهَا اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ شَهَٰدَةُ بَيْنِكُمْ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ اْلْمَوْتُ﴾ [المائدة: 106]:

عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ رضي الله عنهما، قال: «خرَجَ رجُلٌ مِن بني سَهْمٍ مع تميمٍ الدَّاريِّ وعَدِيِّ بنِ بَدَّاءٍ، فماتَ السَّهْميُّ بأرضٍ ليس بها مسلمٌ، فلمَّا قَدِمَا بتَرِكَتِهِ، فقَدُوا جامًا مِن فِضَّةٍ مُخوَّصًا مِن ذهَبٍ، فأحلَفَهما رسولُ اللهِ ﷺ، ثم وُجِدَ الجامُ بمكَّةَ، فقالوا: ابتَعْناه مِن تميمٍ وعَدِيٍّ، فقام رجُلانِ مِن أوليائِهِ، فحلَفَا لَشَهادتُنا أحَقُّ مِن شَهادتِهما، وإنَّ الجامَ لِصاحبِهم، قال: وفيهم نزَلتْ هذه الآيةُ: ﴿يَٰٓأَيُّهَا اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ شَهَٰدَةُ بَيْنِكُمْ إِذَا حَضَرَ أَحَدَكُمُ اْلْمَوْتُ﴾ [المائدة: 106]». أخرجه البخاري (٢٧٨٠).


سُمِّيتْ سورةُ (المائدةِ) بذلك؛ لاشتمالِها على قصَّةِ نزولِ (المائدة) على بني إسرائيلَ، كما أُطلِق عليها اسمُ سورةِ (العُقُودِ)؛ لافتتاحِها بهذا اللفظِ، ولكثرةِ ما فيها من أحكامٍ ومعاملات بين الناس.

* أنَّها تُعادِلُ - مع أخواتِها السَّبْعِ الطِّوال - التَّوراةَ:

عن واثلةَ بنِ الأسقَعِ اللَّيْثيِّ أبي فُسَيلةَ رضي الله عنه، أنَّ النبيَّ ﷺ قال: «أُعطِيتُ مكانَ التَّوراةِ السَّبْعَ، وأُعطِيتُ مكانَ الزَّبُورِ المِئينَ، وأُعطِيتُ مكانَ الإنجيلِ المَثَانيَ، وفُضِّلْتُ بالمُفصَّلِ». أخرجه أحمد (١٦٩٨٢).

* لم تستطِعِ الدابَّةُ تحمُّلَ ثِقَلِها لكثرةِ ما فيها من أحكامٍ:

فعن عبدِ اللهِ بن عمرٍو رضي الله عنهما، قال: «أُنزِلتْ على رسولِ اللهِ ﷺ سورةُ المائدةِ وهو راكبٌ على راحلتِهِ، فلم تستطِعْ أن تَحمِلَهُ، فنزَلَ عنها». أخرجه أحمد (٦٦٤٣).

* مَن أخَذها مع السَّبْعِ الطِّوالِ عُدَّ حَبْرًا:

عن عائشةَ رضي الله عنها، عن رسولِ اللهِ ﷺ، قال: «مَن أخَذَ السَّبْعَ الأُوَلَ مِن القرآنِ، فهو حَبْرٌ». أخرجه أحمد (24575).

اشتمَلتْ سورةُ (المائدةِ) على عِدَّةِ موضوعاتٍ على هذا الترتيبِ:

العهود والمواثيق مع أمَّة محمَّد عليه السلام (١-٨).

المواثيق والجزاء (٩-١٠).

البلاء وصرفُه عن المسلمين (١١).

ميثاقه مع اليهود والنصارى (١٢-١٦).

فساد عقيدة أهل الكتاب (١٧-١٩).

سُوء أدب اليهود (٢٠-٢٦).

جرائمُ وعقوبات (٢٧-٣٢).

عقوبة الحِرابة (٣٣-٣٤).

التقوى نجاة من النار (٣٥-٣٧).

حد السرقة (٣٨-٤٠).

تلاعُبُ أهل الكتاب بأحكام الله (٤١-٤٥).

رسالة عيسى عليه السلام (٤٦-٤٧).

القرآن (٤٨-٥٠).

المفاصَلة بين المسلمين وأهل الكتاب (٥١-٥٦).

الدِّين بين المستهزئين به والكارهين له (٥٧-٦٣).

سبُّ اليهود للمولى عز وجل (٦٤).

لو أنهم آمنوا (٦٥-٦٦).

عصمة الرسول (٦٧-٦٩).

طبيعة بني إسرائيل (٧٠-٧٧).

لعنة الأنبياء على الكفرة من بني إسرائيل (٧٨-٨١).

مَن يُوادُّ ويُعادي أهل الإيمان (٨٢-٨٦).

النهي عن الغلوِّ في الدِّين (٨٧-٨٨).

اليمين وكفارتها (٨٩).

خمس مُحرَّمات (٩٠-٩٦).

مِن نِعَم الله على عباده (٩٧-١٠٠).

تحريم السؤال عن ما يضر (١٠١-١٠٥).

الإشهاد والقَسَامة (١٠٦-١٠٨).

عيسى بين يَدَيِ الله تعالى في القيامة (١٠٩-١١١).

المائدة (١١٢-١١٥).

التبرؤ من التأليه (١١٦-١١٨).

كلمة الحق والختام (١١٩-١٢٠).

ينظر: "التفسير الموضوعي للقرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (2 /290).

مِن أجلِّ مقاصدِ هذه السُّورة: إيضاحُ المعاملات بين الناس؛ لذا بدأت بالأمرِ بالوفاء بالعقود، فجاءت استكمالًا لشرائعِ الإسلام، ومِن مقاصدها بيانُ الحلال والحرام من المأكولات، وكذا حفظُ شعائرِ الله في الحجِّ والشهر الحرام، والنَّهي عن بعض المُحرَّمات من عوائدِ الجاهليَّة، وتبيين الكثير من الشرائع الأخرى.

وخُتِمتْ بمقصدٍ عظيم؛ وهو التذكيرُ بيومِ القيامة، وشَهادةُ الرُّسل على أُمَمهم، وشَهادة عيسى على النصارى، وتمجيد الله تعالى.

ينظر: "التحرير والتنوير" لابن عاشور (6 /74).