ترجمة سورة الحجرات

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة الحجرات باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

हे लोगो जो ईमान लाये हो! आगे न बढ़ो अल्लाह और उसके रसूल[1] से और डरो अल्लाह से। वास्तव में, अल्लाह सब कुछ सुनने-जानने वाला है।
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1. अर्थात दीन धर्म तथा अन्य दूसरे मामलात के बारे में प्रमुख न बनो। अनुयायी बन कर रहो। और स्वयं किसी बात का निर्णय न करो।
हे लोगो जो ईमान लाये हो! अपनी आवाज़, नबी की आवाज़ से ऊँची न करो और न आपसे ऊँची आवाज़ में बात करो, जैसे एक-दूसरे से ऊँची आवाज़ में बात करते हो। ऐसा न हो कि तुम्हारे कर्म व्यर्थ हो जायें और तुम्हें पता (भी) न हो।
निःसंदेह, जो धीमी रखते हैं अपनी आवाज़, अल्लाह के रसूल के सामने, वही लोग हैं, जाँच लिया है अल्लाह ने जिनके दिलों को, सदाचार के लिए। उन्हीं के लिए क्षमा तथा बड़ा प्रतिफल है।
वास्तव में जो आपको पुकारते[1] हैं कमरों के पीछे से, उनमें से अधिक्तर निर्बोध हैं।
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1. ह़दीस में है कि बनी तमीम के कुछ सवार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आये तो आदरणीय अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि क़ाक़ाअ बिन उमर को इन का प्रमुख बनाया जाये। और आदरणीय उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहाः बल्कि अक़रअ बिन ह़ाबिस को बनाया जाये। तो अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहाः तुम केवल मेरा विरोध करना चाहते हो। उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहाः यह बात नहीं है। और दोनों में विवाद होने लगा और उन के स्वर ऊँचे हो गये। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4847) इन आयतों में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मान-मर्यादा तथा आप का आदर-सम्मान करने की शिक्षा और आदेश दिय गया है। एक ह़दीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने साबित बिन क़ैस (रज़ियल्लाहु अन्हु) को नहीं पाया तो एक व्यक्ति से पता लगाने को कहा। वह उन के घर गये तो वह सिर झुकाये बैठे थे। पूछने पर कहाः बुरा हो गया। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास ऊँची आवाज़ से बोलता था, जिस के कारण मेरे सारे कर्म व्यर्थ हो गये। आप ने यह सुन कर कहाः उसे बता दो कि वह नारकी नहीं वह स्वर्ग में जायेगा। (सह़ीह़ बुख़ारी शरीफ़ः 4846)
और यदि वे सहन[1] करते, यहाँ तक कि आप निकलकर आते उनकी ओर, तो ये उत्तम होता उनके लिए तथा अल्लाह बड़ा क्षमा करने वाला, दयावान् है।
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1. ह़दीस में है कि अक़रअ बिन ह़ाबिस (रज़ियल्लाहु अन्हु) नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पास आये और कहाः हे मुह़म्मद! बाहर निकलिये। उसी पर यह आयत उतरी। (मुस्नद अह़मदः 3/588, 6/394)
हे ईमान वालो! यदि तुम्हारे पास कोई दुराचारी[1] कोई सूचना लाये, तो भली-भाँति उसका अनुसंधान (छान-बीन) कर लिया करो। ऐसा न हो कि तुम हानि पहुँचा दो किसी समुदाय को, अज्ञानता के कारण, फिर अपने किये पर पछताओ।
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1. इस में इस्लाम का यह नियम बताया गया है कि बिना छान बीन के किसी की ऐसी बात न मानी जाये जिस का संबन्ध दीन अथवा बहुत गंभीर समस्या से हो। अथवा उस के कारण कोई बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो सकती हो। और जैसा कि आप जानते हैं कि अब यह नियम संसार के कोने कोने में फैल गया है। सारे न्यायालयों में इसी के अनुसार न्याय किया जाता है। और जो इस के विरुध्द निर्णय करता है उस की कड़ी आलोचना की जाती है। तथा अब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मृत्यु के पश्चात् यह नियम आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ह़दीस पाक के लिये भी है। कि यह छान बीन किये बग़ैर कि वह सह़ीह़ है या नहीं उस पर अमल नहीं किया जाना चाहिये। और इस चीज़ को इस्लाम के विद्वानों ने पूरा कर किया है कि अल्लाह के रसूल की वे हदीसें कौन सी हैं जो सह़ीह़ हैं तथा वह कौन सी ह़दीसें हैं जो सह़ीह़ नहीं हैं। और यह विशेषता केवल इस्लाम की है। संसार का कोई धर्म यह विशेषता नहीं रखता।
तथा जान लो कि तुम में अल्लाह के रसूल मौजूद हैं। यदि, वह तुम्हारी बात मानते रहे बहुत-से विषय में, तो तुम आपदा में पड़ जाओगे। परन्तु, अल्लाह ने प्रिय बना दिया है तुम्हारे लिए ईमान को तथा सुशोभित कर दिया है उसे तुम्हारे दिलों में और अप्रिय बना दिया है तुम्हारे लिए कुफ़्र तथा उल्लंघन और अवज्ञा को और यही लोग संमार्ग पर हैं।
अल्लाह की दया तथा उपकार से और अल्लाह सब कुछ तथा सब गुणों को जानने वाला है।
और यदि ईमान वालों के दो गिरोह लड़[1] पड़ें, तो संधि करा दो उनके बीच। फिर दोनों में से एक, दूसरे पर अत्याचार करे, तो उससे लड़ो जो अत्याचार कर रहा है, यहाँ तक कि फिर जाये अल्लाह के आदेश की ओर। फिर, यदि वह फिर[1] आये, तो उनके बीच संधि करा दो न्याय के साथ तथा न्याय करो, वास्तव में अल्लाह प्रेम करता है, न्याय करने वालों से।
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1. अर्थात किताब और सुन्नत के अनुसार अपना झगड़ा चुकाने के लिये तैयार हो जाये।
वास्तव में, सब ईमान वाले भाई-भाई हैं। अतः संधि (मेल) करा दो अपने दो भाईयों के बीच तथा अल्लाह से डरो, ताकि तुम पर दया की जाये।
हे लोगो जो ईमान लाये हो![1] हँसी न उड़ाये कोई जाति किसी अन्य जाति की। हो सकता है कि वह उनसे अच्छी हो और न नारी अन्य नारियों की। हो सकता है कि वो उनसे अच्छी हों तथा आक्षेप न लगाओ एक-दूसरे को और न किसी को बुरी उपाधि दो। बुरा नाम है अपशब्द ईमान के पश्चात् और जो क्षमा न माँगें, तो वही लोग अत्याचारी हैं।
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1. आयत 11 तथा 12 में उन सामाजिक बुराईयों से रोका गया है जो भाईचारे को खंडित करती हैं। जैसे किसी मुसलमान पर व्यंग करना, उस की हँसी उड़ाना, उसे बुरे नाम से पुकारना, उस के बारे में बुरा गुमान रखना, किसी के भेद की खोज करना आदि। इसी प्रकार ग़ीबत करना। जिस का अर्थ यह है कि किसी की अनुपस्थिति में उस की निन्दा की जाये। यह वह सामाजिक बुराईयाँ हैं जिन से क़ुर्आन तथा ह़दीसों में रोका गया है। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने ह़ज्जतुल वदाअ के भाषण में फ़रमायाः मुसलमानो! तुम्हारे प्राण, तुम्हारे धन तथा तुम्हारी मर्यादा एक दूसरे के लिये उसी प्रकार आदरणीय हैं जिस प्रकार यह महीना तथा यह दिन आदरणीय है। (सह़ीह़ बुख़ारीः 1741, सह़ीह़ मुस्लिमः 1679) दूसरी ह़दीस में है कि एक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है। वह न उस पर अत्याचार करे और न किसी को अत्याचार करने दे। और न उसे नीच समझे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने अपने सीने की ओर संकेत कर के कहाः अल्लाह का डर यहाँ होता है। (सह़ीह़ मुस्लिमः 2564)
हे लोगो जो ईमान लाये हो! बचो अधिकांश गुमानों से। वास्व में, कुछ गुमान पाप हैं और किसी का भेद न लो और न एक-दूसरे की ग़ीबत[1] करो। क्या चाहेगा तुममें से कोई अपने मरे भाई का मांश खाना? अतः, तुम्हें इससे घृणा होगी तथा अल्लाह से डरते रहो। वास्तव में, अल्लाह अति दयावान्, क्षमावान् है।
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1. ह़दीस में है कि तुम्हारा अपने भाई की चर्चा ऐसी बात से करना जो उसे बुरी लगे वह ग़ीबत कहलाती है। पूछा गया कि यदि उस में वह बुराई हो तो फिर? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः यही तो ग़ीबत है। यदि न हो तो फिर वह आरोप है। (सह़ीह़ मुस्लिमः2589)
हे मनुष्यो![1] हमने तुम्हें पैदा किया एक नर तथा नारी से तथा बना दी हैं तुम्हारी जातियाँ तथा प्रजातियाँ, ताकि एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में, तुममें अल्लाह के समीप सबसे अधिक आदरणीय वही है, जो तुममें अल्लाह से सबसे अधिक डरता हो। वास्तव में अल्लाह सब जानने वाला है, सबसे सूचित है।
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1. इस आयत में सभी मनुष्यों को संबोधित कर के यह बताया गया है कि सब जातियों और क़बीलों के मूल माँ-बाप एक ही हैं। इस लिये वर्ग वर्ण तथा जाति और देश पर गर्व और भेद भाव करना उचित नहीं। जिस से आपस में घिरना पैदा होती है। इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था में कोई भेग भाव नहीं है और न ऊँच नीच का कोई विचार है और न जात पात का तथा न कोई छुआ छूत है। नमाज़ में सब एक साथ खड़े होते हैं। विवाह में भी कोई वर्ग वर्ण और जाति का भेद भाव नहीं। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने क़ुरैशी जाति की स्त्री ज़ैनब (रज़ियल्लाहु अन्हा) का विवाह अपने मुक्त किये हुये दास ज़ैद (रज़ियल्लाहु अन्हु) से किया था। और जब उन्होंने उसे तलाक दे दी तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने ज़ैनब से विवाह कर लिया। इस लिये कोई अपने को सय्यद कहते हुये अपनी पुत्री का विवाहि किसी व्यक्ति से इस लिये न करे कि वह सय्यद नहीं है तो यह जाहिली युग का विचार समझा जायेगा। जिस से इस्लाम का कोई संबन्ध नहीं है। बल्कि इस्लाम ने इस का खण्डन किया है। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के युग में अफरीका के एक आदमी बिलाल (रज़ियल्लाहु अन्हु) तथा रोम के एक आदमी सुहैब (रज़ियल्लाहु अन्हु) बिना रंग और देश के भेद भाव के एक साथ रहते थे। नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः अल्लाह ने मुझे उपदेश भेजा है कि आपस में झुक कर रहो। और कोई किसी पर गर्व ने करे। और न कोई किसी पर अत्याचार करे। (सह़ीह़ मुस्लिमः 2865) आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहाः लोग अपने मरे हुए बापों पर गर्व ने करे। अन्यथा वे उस कीड़े से हीन हो जायेंगे जो अपनी नाक से गंदगी ढकेलता है। अल्लाह ने जाहिलिय्यत का पक्षपात और बापों पर गर्व को दूर कर दिया। अब या तो सदाचारी ईमान वाला है या कुकर्मी अभागा है। सभी आदम की संतान हैं। (सुनन अबू दाऊदः 5116 इस ह़दीस की सनद ह़सन है।) यदि आज भी इस्लाम की इस व्यवस्था और विचार को मान लिया जाये तो पूरे विश्व में शान्ति तथा मानवता का राज्य हो जायेगा।
कहा कुछ बद्दुओं (देहातियों) ने कि हम ईमान लाये। आप कह दें कि तुम ईमान नहीं लाये। परन्तु कहो कि हम इस्लाम लाये और ईमान अभी तक तुम्हारे दिलों में प्रवेश नहीं किया है तथा यदि तुम आज्ञा का पालन करते रहे अल्लाह तथा उसके रसूल की, तो नहीं कम करेगा वह (अल्लाह) तुम्हारे कर्मों में से कुछ। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान्[1] है।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि मुख से इस्लाम को स्वीकार कर लेने से मुसलमान तो हो जाता है किन्तु जब तक ईमान दिल में न उतरे वह अल्लाह के समीप ईमान वाला नहीं होता। और ईमान ही आज्ञापालन की प्रेरणा देता है जिस का प्रतिफल मिलेगा।
वास्तव में, ईमान वाले वही हैं, जो ईमान लाये अल्लाह तथा उसके रसूल पर, फिर संदेह नहीं किया और जिहाद किया अपने प्राणों तथा धनों से, अल्लाह की राह में, यही सच्चे हैं।
आप कह दें कि क्या तुम अवगत करा रहे हो अल्लाह को अपने धर्म से? जबकि अल्लाह जानता है जो कुछ (भी) आकाशों तथा धरती में है तथा वह प्रत्येक वस्तु का अति ज्ञानी है।
वे उपकार जता रहे हैं आपके ऊपर कि वे इस्वलाम लाये हैं। आप कह दें के उपकार न जताओ मुझपर अपने इस्लाम का। बल्कि अल्लाह का उपकार है तुमपर कि उसने राह दिखायी है तुम्हें ईमान की, यदि तुम सच्चे हो।
निःसंदेह, अल्लाह ही जानता है आकाशों तथा धरती के ग़ैब (छुपी बात) को तथा अल्लाह देख रहा है जो कुछ तुम कर रहे हो।
سورة الحجرات
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التفسيرات

سورةُ (الحُجُرات) من السُّوَر المدنية، جاءت ببيانِ أحكامٍ وتشريعات كثيرة، على رأسها وجوبُ الأدبِ مع النبي صلى الله عليه وسلم وتوقيرِه، كما أمرت السورةُ الكريمة بمجموعةٍ من الأخلاق والمبادئ التي تبني مجتمعًا متماسكًا؛ من تركِ السماع للشائعات، والنهيِ عن التنابُزِ بالألقاب، والتحذيرِ من الغِيبة والنميمة، وتصويرِ فاعلها بأبشَعِ صورة.

ترتيبها المصحفي
49
نوعها
مدنية
ألفاظها
353
ترتيب نزولها
106
العد المدني الأول
18
العد المدني الأخير
18
العد البصري
18
العد الكوفي
18
العد الشامي
18

* قوله تعالى: {يَٰٓأَيُّهَا اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُقَدِّمُواْ بَيْنَ يَدَيِ اْللَّهِ وَرَسُولِهِۦۖ وَاْتَّقُواْ اْللَّهَۚ إِنَّ اْللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٞ} [الحجرات: 1]:

عن ابنِ أبي مُلَيكةَ، أنَّ عبدَ اللهِ بن الزُّبَيرِ أخبَرَهم: «أنَّه قَدِمَ رَكْبٌ مِن بني تَمِيمٍ على النبيِّ صلى الله عليه وسلم، فقال أبو بكرٍ: أمِّرِ القَعْقاعَ بنَ مَعبَدٍ، وقال عُمَرُ: بل أمِّرِ الأقرَعَ بنَ حابسٍ، فقال أبو بكرٍ: ما أرَدتَّ إلى - أو إلَّا - خِلافي، فقال عُمَرُ: ما أرَدتُّ خِلافَك، فتمارَيَا حتى ارتفَعتْ أصواتُهما؛ فنزَلَ في ذلك: {يَٰٓأَيُّهَا اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُقَدِّمُواْ بَيْنَ يَدَيِ اْللَّهِ وَرَسُولِهِۦۖ} [الحجرات: 1] حتى انقَضتِ الآيةُ». أخرجه البخاري (٤٨٤٧).

* قوله تعالى: {يَٰٓأَيُّهَا اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَرْفَعُوٓاْ أَصْوَٰتَكُمْ فَوْقَ صَوْتِ اْلنَّبِيِّ وَلَا تَجْهَرُواْ لَهُۥ بِاْلْقَوْلِ كَجَهْرِ بَعْضِكُمْ لِبَعْضٍ أَن تَحْبَطَ أَعْمَٰلُكُمْ وَأَنتُمْ لَا تَشْعُرُونَ} [الحجرات: 2]:

عن عبدِ اللهِ بن أبي مُلَيكةَ، قال: «كادَ الخَيِّرانِ أن يَهلِكَا: أبو بكرٍ وعُمَرُ رضي الله عنهما، رفَعَا أصواتَهما عند النبيِّ صلى الله عليه وسلم حين قَدِمَ عليه رَكْبُ بني تَمِيمٍ، فأشارَ أحدُهما بالأقرَعِ بنِ حابسٍ أخي بَني مُجَاشِعٍ، وأشارَ الآخَرُ برجُلٍ آخَرَ - قال نافعٌ: لا أحفَظُ اسمَه -، فقال أبو بكرٍ لِعُمَرَ: ما أرَدتَّ إلا خِلافي، قال: ما أرَدتُّ خِلافَك، فارتفَعتْ أصواتُهما في ذلك؛ فأنزَلَ اللهُ: {يَٰٓأَيُّهَا اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَرْفَعُوٓاْ أَصْوَٰتَكُمْ} [الحجرات: 2] الآيةَ، قال ابنُ الزُّبَيرِ: فما كان عُمَرُ يُسمِعُ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم بعد هذه الآيةِ حتى يستفهِمَه، ولم يذكُرْ ذلك عن أبيه؛ يَعني: أبا بكرٍ». أخرجه البخاري (٤٨٤٥).

* قوله تعالى: {وَإِن طَآئِفَتَانِ مِنَ اْلْمُؤْمِنِينَ اْقْتَتَلُواْ فَأَصْلِحُواْ بَيْنَهُمَاۖ} [الحجرات: 9]:

عن أنسِ بن مالكٍ رضي الله عنه، قال: «قيل للنبيِّ ﷺ: لو أتَيْتَ عبدَ اللهِ بنَ أُبَيٍّ، فانطلَقَ إليه النبيُّ ﷺ، ورَكِبَ حِمارًا، فانطلَقَ المسلمون يمشون معه، وهي أرضٌ سَبِخةٌ، فلمَّا أتاه النبيُّ ﷺ، فقال: إليك عنِّي، واللهِ، لقد آذاني نَتْنُ حِمارِك، فقال رجُلٌ مِن الأنصارِ منهم: واللهِ، لَحِمارُ رسولِ اللهِ ﷺ أطيَبُ رِيحًا منك، فغَضِبَ لعبدِ اللهِ رجُلٌ مِن قومِه، فشتَمَه، فغَضِبَ لكلِّ واحدٍ منهما أصحابُه، فكان بَيْنَهما ضَرْبٌ بالجَريدِ والأيدي والنِّعالِ، فبلَغَنا أنَّها أُنزِلتْ: {وَإِن طَآئِفَتَانِ مِنَ اْلْمُؤْمِنِينَ اْقْتَتَلُواْ فَأَصْلِحُواْ بَيْنَهُمَاۖ} [الحجرات: 9]». أخرجه البخاري (٢٦٩١).

* قوله تعالى: {وَلَا تَنَابَزُواْ بِاْلْأَلْقَٰبِۖ} [الحجرات: 11]:

عن أبي جَبِيرةَ بن الضَّحَّاكِ الأنصاريِّ رضي الله عنه، قال: «كان الرَّجُلُ منَّا يكونُ له الاسمانِ والثلاثةُ، فيُدْعَى ببعضِها، فعسى أن يَكرَهَ، قال: فنزَلتْ هذه الآيةُ: {وَلَا تَنَابَزُواْ بِاْلْأَلْقَٰبِۖ} [الحجرات: 11]». سنن الترمذي (٣٢٦٨).

* سورةُ (الحُجُرات):

سُمِّيت سورةُ (الحُجُرات) بذلك؛ لأنَّه جاء فيها لفظُ (الحُجُرات)؛ قال تعالى: {إِنَّ اْلَّذِينَ يُنَادُونَكَ مِن وَرَآءِ اْلْحُجُرَٰتِ أَكْثَرُهُمْ لَا يَعْقِلُونَ} [الحجرات: 4].

1. القيادة للرسول الكريم، والأدب معه (١-٣).

2. بناء المجتمع الأخلاقي، أسسٌ ومحاذيرُ (٤-١٣).

3. الأساس الإيماني، نموذجٌ وإرشاد (١٤-١٧).

4. علمُ الغيب لله وحده (١٨).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسورة القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (7 /341).

مقصودُ سورة (الحُجُرات) الأعظم هو توقيرُ النبي صلى الله عليه وسلم، وجعلُ ذلك علامةً للإيمان، وكذلك بناءُ مجتمع أخلاقي متماسكٍ؛ من خلال التحذير من شائنِ الأخلاق، والأمرِ بزَيْنِها.

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (3 /6).