ترجمة سورة المنافقون

الترجمة الروسية للمختصر في تفسير القرآن الكريم

ترجمة معاني سورة المنافقون باللغة الروسية من كتاب الترجمة الروسية للمختصر في تفسير القرآن الكريم.

1) Когда на твое собрание, о Посланник, приходят лицемеры, внешне проявляющие Ислам и скрывающие неверие, то они говорят: «Мы свидетельствуем о том, что ты действительно являешься Посланником Аллаха!». Аллах знает, что ты действительно являешься Его Посланником, и Аллах свидетельствует о том, что лицемеры лгут, утверждая, что они от чистого сердца свидетельствуют о том, что ты – Его Посланник.
2) Они обратили свои клятвы, которые приносят для подтверждения своей веры, в прикрытие и защиту от смерти и пленения, и они отвратили людей от веры, распространив сомнения и тревожные ложные слухи. Как скверно то, что они совершают из лицемерия и ложных клятв.
3) Это потому, что они уверовали лицемерно [или: внешне], и вера не дошла до их сердец, затем они стали неверующими в Аллаха тайно. Он запечатал их сердца за их неверие так, что в них не поселится вера, и теперь они не разумеют то, в чем есть для них польза и верное руководство.
4) Когда ты смотришь на них, о смотрящий, их облик и телосложение восхищают тебя, поскольку они обладают здоровым видом и благами, а если они говорят, то ты заслушиваешься их речи, поскольку они красноречивы. На твоем собрании, о Посланник, они подобны прислоненным бревнам, не понимающим и не ощущающим ничего, и они считают каждый звук опасностью для себя, поскольку они трусливы. Они являются самыми настоящими врагами, так остерегайся же, о Посланник, того, что они распространят тайны или построят козни против тебя. Аллах проклял их! Как же они отвращены от веры, несмотря на ясность ее доводов и величие ее доказательств!
5) Когда этим лицемерам говорят: «Идите к Посланнику Аллаха, чтобы извиниться за то, что вы ненароком совершили, и он попросит Аллаха прощения для ваших грехов», они склоняют свои головы с насмешкой и издевательством, и вы видите, как они отворачиваются от того, что им приказано, превозносясь над принятием истины и прислушиванием к ней.
6) Попросишь ты, о Посланник, прощения для их грехов или не попросишь, Аллах все равно никогда не простит им их грехи. Поистине, Аллах не оказывает помощь людям, уклоняющимся от повиновения Ему и упорствующим в ослушании Ему.
7) Они те, которые говорят: «Не расходуйте свое имущество на тех, кто возле Посланника Аллаха из числа бедняков и бедуинов, живущих возле Медины, пока они не разойдутся [покинув его]!» Одному Аллаху принадлежат сокровищницы небес и земли, и Он дарует их в удел тем из Своих рабов, кому пожелает, однако лицемеры не знают, что сокровищницы – это удел, находящийся в Его Руке.
8) Их глава Абдулллах ибн Убай говорит: «Если мы вернемся в Медину, то могущественные из нас – Я и мой народ, изгонят из нее презренных – Мухаммада и его сподвижников». Одному Аллаху, Его Посланнику и верующим принадлежит могущество, а не Абдуллаху ибн Убайю и его товарищам, однако лицемеры не знают, что могущество принадлежит Аллаху, Его Посланнику и верующим.
9) «О те, которые уверовали в Аллаха и поступали в соответствии с тем, что Он узаконил в Шариате! Пусть ваше имущество и ваши дети не отвлекают вас от молитвы или другого обязательного в Исламе деяния. А те, кого их имущество и дети отвлекут от того, чему обязал Аллах, как молитва и другое, окажутся в самом настоящем убытке и потеряют самих себя и свои семьи в Судный день».
10) Расходуйте из имущества, которым Аллах вас наделил, пока одного из вас не постигнет смерть, ибо тогда он скажет своему Господу: «Господи! Не предоставишь ли ты мне недолгую отсрочку, чтобы я смог раздать милостыню из своего имущества на пути Аллаха, и чтобы я смог стать одним из благочестивых рабов Аллаха, деяния которых праведны?»
11) Но Аллах никогда не предоставит отсрочку душе, если пришел ее срок, и иссякла ее жизнь. Аллах ведает о том, что вы совершаете, ничего из ваших деяний не скроется от Него, и Он воздаст вам за них, если они были благими, то добром, а если дурными – то злом.
سورة المنافقون
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سورة (المنافقون) من السُّوَر المدنية، نزلت بعد سورة (الحجِّ)، وقد تناولت موضوعًا يمسُّ صُلْبَ الإيمان؛ وهو موافقةُ الظاهر للباطن، وحذَّرت من النفاق والمنافقين؛ لأنهم أضرُّ على الإسلام من غيرهم، وجاءت بتوجيهاتٍ جليلة للتَّحصين من النفاق.

ترتيبها المصحفي
63
نوعها
مدنية
ألفاظها
181
ترتيب نزولها
104
العد المدني الأول
11
العد المدني الأخير
11
العد البصري
11
العد الكوفي
11
العد الشامي
11

* جاء في سبب نزول سورة (المنافقون):

عن زيدِ بن أرقَمَ رضي الله عنه، قال: «كنتُ في غزاةٍ، فسَمِعْتُ عبدَ اللهِ بنَ أُبَيٍّ يقولُ: لا تُنفِقوا على مَن عندَ رسولِ اللهِ حتى يَنفضُّوا مِن حولِه، ولَئِنْ رجَعْنا مِن عندِه لَيُخرِجَنَّ الأعَزُّ منها الأذَلَّ، فذكَرْتُ ذلك لِعَمِّي أو لِعُمَرَ، فذكَرَه للنبيِّ صلى الله عليه وسلم، فدعَاني، فحدَّثْتُه، فأرسَلَ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم إلى عبدِ اللهِ بنِ أُبَيٍّ وأصحابِه، فحلَفوا ما قالوا، فكذَّبَني رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم وصدَّقَه، فأصابني هَمٌّ لم يُصِبْني مثلُه قطُّ، فجلَسْتُ في البيتِ، فقال لي عَمِّي: ما أرَدتَّ إلى أنْ كذَّبَك رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم ومقَتَك؟ فأنزَلَ اللهُ تعالى: {إِذَا جَآءَكَ اْلْمُنَٰفِقُونَ}، فبعَثَ إليَّ النبيُّ صلى الله عليه وسلم، فقرَأَ، فقال: «إنَّ اللهَ قد صدَّقَك يا زيدُ»». أخرجه البخاري (4900).

ورواه التِّرْمِذيُّ مطولًا، ولفظه:

عن زيدِ بن أرقَمَ رضي الله عنه، قال: «غزَوْنا مع رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم، وكان معنا أُناسٌ مِن الأعرابِ، فكنَّا نبتدِرُ الماءَ، وكان الأعرابُ يَسبِقونا إليه، فسبَقَ أعرابيٌّ أصحابَه، فيَسبِقُ الأعرابيُّ فيَملأُ الحوضَ، ويَجعَلُ حَوْلَه حجارةً، ويَجعَلُ النِّطْعَ عليه حتى يَجيءَ أصحابُه، قال: فأتى رجُلٌ مِن الأنصارِ أعرابيًّا، فأرخى زِمامَ ناقتِه لتَشرَبَ، فأبى أن يدَعَه، فانتزَعَ قِباضَ الماءِ، فرفَعَ الأعرابيُّ خشَبةً فضرَبَ بها رأسَ الأنصاريِّ فشَجَّه، فأتى عبدَ اللهِ بنَ أُبَيٍّ رأسَ المنافقين فأخبَرَه، وكان مِن أصحابِه، فغَضِبَ عبدُ اللهِ بنُ أُبَيٍّ، ثم قال: {لَا تُنفِقُواْ عَلَىٰ مَنْ عِندَ رَسُولِ اْللَّهِ حَتَّىٰ يَنفَضُّواْۗ} [المنافقون: 7]؛ يَعني: الأعرابَ، وكانوا يحضُرون رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم عند الطَّعامِ، فقال عبدُ اللهِ: إذا انفَضُّوا مِن عندِ مُحمَّدٍ فَأْتُوا مُحمَّدًا بالطَّعامِ، فليأكُلْ هو ومَن عندَه، ثم قال لأصحابِه: لَئِنْ رجَعْتم إلى المدينةِ لَيُخرِجَنَّ الأعَزُّ منها الأذَلَّ، قال زيدٌ: وأنا رِدْفُ رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم، قال: فسَمِعْتُ عبدَ اللهِ بنَ أُبَيٍّ، فأخبَرْتُ عَمِّي، فانطلَقَ فأخبَرَ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم، فأرسَلَ إليه رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم، فحلَفَ وجحَدَ، قال: فصدَّقَه رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم وكذَّبني، قال: فجاءَ عَمِّي إليَّ، فقال: ما أرَدتَّ إلا أنْ مقَتَك رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم وكذَّبَك والمسلمون، قال: فوقَعَ عليَّ مِن الهمِّ ما لم يقَعْ على أحدٍ، قال: فبَيْنما أنا أسيرُ مع رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم في سَفَرٍ قد خفَقْتُ برأسي مِن الهمِّ، إذ أتاني رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم، فعرَكَ أُذُني، وضَحِكَ في وجهي، فما كان يسُرُّني أنَّ لي بها الخُلْدَ في الدُّنيا، ثم إنَّ أبا بكرٍ لَحِقَني فقال: ما قال لك رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم؟ قلتُ: ما قال لي شيئًا، إلا أنَّه عرَكَ أُذُني، وضَحِكَ في وجهي، فقال: أبشِرْ، ثم لَحِقَني عُمَرُ، فقلتُ له مثلَ قولي لأبي بكرٍ، فلمَّا أصبَحْنا قرَأَ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم سورةَ المنافقين». "سنن الترمذي" (3313).

* سورة (المنافقون):

سُمِّيت سورة (المنافقون) بهذا الاسم؛ لأنَّها تناولت مواقفَ المنافقين من رسول الله صلى الله عليه وسلم، وذكرت صفاتِهم.

* كان صلى الله عليه وسلم يقرأ سورة (المنافقون) في صلاة الجمعة:

عن عُبَيدِ اللهِ بن أبي رافعٍ، قال: «استخلَفَ مَرْوانُ أبا هُرَيرةَ على المدينةِ، وخرَجَ إلى مكَّةَ، فصلَّى بنا أبو هُرَيرةَ يومَ الجمعةِ، فقرَأَ سورةَ الجمعةِ، وفي السَّجْدةِ الثانيةِ: {إِذَا جَآءَكَ اْلْمُنَٰفِقُونَ}، قال عُبَيدُ اللهِ: فأدرَكْتُ أبا هُرَيرةَ، فقلتُ: تَقرأُ بسُورتَينِ كان عليٌّ يَقرؤُهما بالكوفةِ؟ فقال أبو هُرَيرةَ: إنِّي سَمِعْتُ رسولَ اللهِ ﷺ يَقرأُ بهما». أخرجه مسلم (877).

1. النفاق والمنافقون (١-٨).

2. توجيهاتٌ للتحصين من النفاق (٩-١١).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (8 /171).

مقصدُ هذه السورة عظيم جدًّا؛ وهو التحذيرُ من النفاق وأهله، ومطالبة المؤمنين بصدقِ الأقوال والأفعال، والحرص على مطابقة الظاهر للباطن.

يقول البِقاعيُّ: «مقصودها: كمالُ التحذير مما يَثلِمُ الإيمانَ من الأعمال الباطنة، والترهيب مما يَقدَح في الإسلام من الأحوال الظاهرة؛ بمخالفة الفعلِ للقول؛ فإنه نفاقٌ في الجملة، فيوشك أن يجُرَّ إلى كمال النفاق، فيُخرِج من الدِّين، ويُدخِل الهاوية.

وتسميتها بالمنافقين واضحةٌ في ذلك». "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (3 /87).