ترجمة سورة محمد

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة محمد باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

जिन लोगों ने कुफ़्र (अविश्वास) किया तथा अल्लाह की राह से रोका, (अल्लाह ने) व्यर्थ (निष्फल) कर दिया उनके कर्मों को।
तथा जो ईमान लाये और सदाचार किये तथा उस (क़ुर्आन) पर ईमान लाये, जो उतारा गया है मुह़म्मद पर और (दरअसल) वह सच है उनके पालनहार की ओर से, तो दूर कर दिया उनसे, उनके पापों को तथा सुधार दिया उनकी दशा को।
ये इस कारण कि उन्होंने कुफ़्र किया और चले असत्य पर तथा जो ईमान लाये, वे चले सत्य पर अपने पालनहार की ओर से (आये हुए), इसी प्रकार, अल्लाह बता देता है लोगों को, उनकी सही दशायें।[1]
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1. यह सूरह बद्र के युध्द से पहले उतरी। जिस में मक्का के काफ़िरों के आक्रमण से अपने धर्म और प्राण तथा मान-मर्यादा की रक्षा के लिये युध्द करने की प्रेरणा तथा साहस और आवश्यक निर्देश दिये गये हैं।
तो जब (युध्द में) भिड़ जाओ काफ़िरों से, तो गर्दन उड़ाओ, यहाँ तक कि जब कुचल दो उन्हें, तो उन्हें दृढ़ता से बाँधो। फिर उसके बाद या तो उपकार करके छोड़ दो या अर्थदण्ड लेकर। यहाँ तक कि युध्द अपने हथियार रख दे।[1] ये आदेश है और यदि अल्लाह चाहता, तो स्वयं उनसे बदला ले लेता। किन्तु, (ये आदेश इसलिए दिया) ताकि तुम्हारी एक-दूसरे द्वारा परीक्षा ले और जो मार दिये गये अल्लाह की राह में, तो वह कदापि व्यर्थ नहीं करेगा उनके कर्मों को।
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1. इस्लाम से पहले युध्द के बंदियों को दास बना लिया जाता था किन्तु इस्लाम उन्हें उपकार कर के या अर्थ दणड ले कर मुक्त करने का आदेश देता है। इस आयत में यह संकेत हैं कि इस्लाम जिहाद की अनुमति दूसरों के आक्रमण से रक्षा के लिये देता है।
वह उन्हें मार्गदर्शन देगा तथा सुधार देगा उनकी दशा।
और प्रवेश करायेगा उन्हें स्वर्ग में, जिसकी पहचान दे चुका है उन्हें।
हे ईमान वालो! यदि तुम सहायता करोगे अल्लाह (के धर्म) की, तो वह सहायता करेगा तुम्हारी तथा दृढ़ (स्थिर) कर देगा तुम्हारे पैरों को।
और जो काफ़िर हो गये, तो विनाश है उन्हीं के लिए और उसने व्यर्थ कर दिया उनके कर्मों को।
ये इसलिए कि उन्होंने बुरा माना उसे, जो अल्लाह ने उतारा और उसने उनके कर्म व्यर्थ कर[1] दिये।
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1. इस में इस ओर संकेत है कि बिना ईमान के अल्लाह के हाँ कोई सत्कर्म मान्य नहीं है।
तो क्या वह चले-फिरे नहीं धरती में कि देखते उन लोगों का परिणाम, जो इनसे पहले गुजरे? विनाश कर दिया अल्लाह ने उनका तथा काफ़िरों के लिए इसी के समान (यातनायें) हैं।
ये इसलिए कि अल्लाह संरक्षक (सहायक) है उनका, जो ईमान लाये और काफ़िरों का कोई संरक्षक (सहायक)[1] नहीं।
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1. उह़ुद के युध्द में जब काफ़िरों ने कहा कि हमारे पास उज़्ज़ा (देवी) है, और तुम्हारे पास उज़्ज़ा नहीं। तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा। उन का उत्तर इसी आयत से दो। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4043)
निःसंदेह अल्लाह प्रवेश देगा उन्हें, जो ईमान लाये तथा सदाचार किये, ऐसे स्वर्गों में, जिनमें नहरें बहती होंगी तथा जो काफ़िर हो गये, वे आनन्द लेते तथा खाते हैं, जैसे[1] पशु खाते हैं और अग्नि उनका आवास (स्थान) है।
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1. अर्थात परलोक से निश्चिन्त संसारिक जीवन ही को सब कुछ समझते हैं।
तथा बहुत-सी बस्तियों को, जो अधिक शक्तिशाली थीं आपकी उस बस्ती से, जिसने आपको निकाल दिया, हमने ध्वस्त कर दिया, तो कोई सहायक न हुआ उनका।
तो क्या, जो अपने पालनहार के खुले प्रमाण पर हो, वह उसके समान हो सकता है, शोभनीय बना दिया गया हो, जिसके लिए उसका दुष्कर्म तथा चलता हो अपनी मनमानी पर?
उस स्वर्ग की विशेषता, जिसका वचन दिया गया है आज्ञाकारियों को, उसमें नहरें हैं निर्मल जल की तथा नहरें हैं दूध की, नहीं बदलेगा जिसका स्वाद तथा नहरें हैं मदिरा की, पीने वालों के स्वाद के लिए तथा नहरें हैं मधू की स्वच्छ तथा उन्हीं के लिए उनमें प्रत्येक प्रकार के फल हैं तथा उनके पालनहार की ओर से क्षमा। (क्या ये) उसके समान होंगे, जो सदावासी होंगे नरक में तथा पिलाये जायेंग खौलता जल, जो खण्ड-खण्ड कर देगा उनकी आँतों को?
तथा उनमें से कुछ वो हैं, जो कान धरते हैं आपकी ओर यहाँ तक कि जब निकलते हैं आपके पास से, तो कहते हैं उनसे, जिन्हें ज्ञान दिया गया है कि अभी क्या[1] कहा है? यही वो हैं कि मुहर लगा दी है अल्लाह ने उनके दिलों पर और वही चल रहे हैं अपनी मनोकांक्षाओं पर।
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1. यह कुछ मुनाफ़िक़ों की दशा का वर्णन है जिन को आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बातें नहीं समझ में नहीं आती थीं। क्यों कि वे आप की बातें दिल लगा कर नहीं सुनते थे। तथा आप की बातों का इस प्रकार उपहास करते थे।
और जो सीधी राह पर हैं, अल्लाह ने अधिक कर दिया है उन्हें, मार्गदर्शन में और प्रदान किया है उन्हें, उनका सदाचार।
तो क्या वे प्रतीक्षा कर रहे हैं प्रलय ही की कि आ जाये उनके पास सहसा? तो आ चुके हैं उसके लक्षण।[1] फिर कहाँ होगा उनके शिक्षा लेने का समय, जब वह (क़्यामत) आ जायेगी उनके पास?
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1. आयत में कहा गया है कि प्रलय के लक्षण आ चुके हैं। और उन में सब से बड़ा लक्षण आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का आगमन है। जैसा कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का कथन है कि आप ने फ़रमायाः "मेरा आगमन तथा प्रलय इन दो उंग्लियों के समान है।" (सह़ीह़ बुख़ारीः 4936) अर्थात बहुत समीप है। जिस का अर्थ यह है कि जिस प्रकार दो उंग्लियों के बीच कोई तीसरी उंगली नहीं इसी प्रकार मेरे और प्रलय के बीच कोई नबी नहीं। मेरे आगमन के पश्चात् अब प्रलय ही आयेगी।
तो (हे नबी!) आप विश्वास रखिये कि नहीं है कोई वंदनीय अल्लाह के सिवा तथा क्षमा[1] माँगिये अपने पाप के लिए तथा ईमान वाले पुरुषों और स्त्रियों के लिए और अल्लाह जानता है तुम्हारे फिरने तथा रहने के स्थान को।
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1. आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः मैं दिन में सत्तर बार से अधिक अल्लाह से क्षमा माँगता तथा तौबा करता हूँ। (बुख़ारीः 6307) और फ़रमाया कि लोगो! अल्लाह से क्षमा माँगो। मैं दिन में सौ बार क्षमा माँगता हूँ। (सह़ीह़ मुस्लिमः 2702)
तथा जो ईमान लाये, उन्होंने कहा कि क्यों नहीं उतारी जाती कोई सूरह (जिसमें युध्द का आदेश हो?) तो जब एक दृढ़ सूरह उतार दी गयी तथा उसमें वर्णन कर दिया गया युध्द का, तो आपने उन्हें देख लिया, जिनके दिलों में रोग (द्विधा) है कि वे आपकी ओर उसके समान देख रहे हैं, जो मौत के समय अचेत पड़ा हुआ हो। तो उनके लिए उत्तम है।
आज्ञा पालन तथा उचित बात बोलना। तो जब (युध्द का) आदेश निर्धारित हो गया, तो यदि वे अल्लाह के साथ सच्चे रहें, तो उनके लिए उत्तम है।
फिर यदि तुम विमुख[1] हो गये, तो दूर नहीं कि तुम उपद्रव करोगे धरती में तथा तोड़ेगे अपने रिश्तों (संबंधों) को।
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1. अर्थात अल्लाह तथा रसूल की आज्ञा का पालन करने से। इस आयत में संकेत है कि धरती में उपद्रव, तथा रक्तपात का कारण अल्लाह तथा उस के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की आज्ञा से विमुख होने का परिणाम है। ह़दीस में है कि जो रिश्ते (संबंध) को जोड़ेगा तो अल्लाह उस को (अपनी दया से) जोड़ेगा। और जो तोड़ेगा तो उसे (अपनी दया से) दूर करेगा। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4820)
यही हैं, जिन्हें अपनी दया से दूर कर दिया है अल्लाह ने और उन्हें बहरा तथा उनकी आँखें अंधी कर दी हैं।[1]
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1. अतः वे न तो सत्य को देख सकते हैं और न ही सुन सकते हैं।
तो क्या लोग सोच-विचार नहीं करते या उनके दिलों पर ताले लगे हुए हैं?
वास्तव में, जो फिर गये पीछे इसके पश्चात् कि उजागर हो गया उनके लिए मार्गदर्शन, तो शौतान ने सुन्दर बना दिया (पापों को) उनके लिए तथा उन्हें बड़ी आशा दिलायी है।
ये इस कारण हुआ कि उन्होंने कहा उनसे, जिन्होंने बुरा माना उस (क़ुर्आन) को, जिसे उतारा अल्लाह ने कि हम तुम्हारी बात मानेंगे कुछ कार्य में, जबकि अल्लाह जानता है उनकी गुप्त बातों को।
तो कैसी दुर्गत होगी उनकी जब प्राण निकाल रहे होंगे फ़रिश्ते मारते हुए उनके मुखों तथा उनकी पीठों पर।
ये इसलिए कि वे चले उस राह पर, जिसने अप्रसन्न कर दिया अल्लाह को तथा उन्होंने बुरा माना उसकी प्रसन्नता को, तो उसने व्यर्थ कर दिया उनके कर्मों को।[1]
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1. आयत में उन के दुष्परिणाम की ओर संकेत है जो इस्लाम के साथ उस के विरोधी नियमों और विधानों को मानते हैं। और युध्द के समय काफ़िरों का साथ देते हैं।
क्या समझ रखा है उन्होंने, जिनके दिलों में रोग है कि नहीं खोलेगा अल्लाह उनके द्वेषों को?[1]
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1. अर्थात जो द्वैष और बैर इस्लाम और मुसलमानों से रखते हैं उसे अल्लाह उजागर अवश्य कर के रहेगा।
और (हे नबी!) यदि हम चाहें, तो दिखा दें आपको उन्हें, तो पहचान लेंगे आप उन्हें, उनके मुख से और आप अवश्य पहचान लेंगे उन्हें[1] (उनकी) बात के ढंग से तथा अल्लाह जानता है उनके कर्मों को।
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1. अर्थात उन के बात करने की रीति से।
और हम अवश्य परीक्षा लेंगे तुम्हारी, ताकि जाँच लें, तुममें से मुजाहिदों तथा धैर्यवानों को तथा जाँच लें तुम्हारी दशाओं को।
जिन लोगों ने कुफ़्र किया और रोका अल्लाह की राह (धर्म) से तथा विरोध किया रसूल का, इसके पश्चात् कि उजागर हो गया उनके लिए मार्गदर्शन, वे कदापि हानि नहीं पहुँचा सकेंगे अल्लाह को कुछ तथा वह व्यर्थ कर देगा उनके कर्मों को।
हे लोगो, जो ईमान लाये हो! आज्ञा मानो अल्लाह की तथा आज्ञा मानो[1] रसूल की तथा व्यर्थ न करो अपने कर्मों को।
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1. इस आयत में कहा गया है कि जिस प्रकार क़ुर्आन को मानना अनिवार्य है उसी प्रकार नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की सुन्नत (ह़दीसों) का पालन करना भी अनिवार्य है। ह़दीस में है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः मेरी उम्मत स्वर्ग में जायेगी उस के सिवा जिस ने इन्कार किया। कहा गया कि कौन इन्कार करेगा, हे अल्लाह के रसूल? आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः जिस ने मेरी आज्ञकारी की तो वह स्वर्ग में जायेगा। और जिस ने मेरी आज्ञाकारी नहीं की तो उस ने इन्कार किया। (सह़ीह़ बुख़ारीः 7280)
जिन लोगों ने कुफ़्र किया तथा रोका अल्लाह की राह से, फिर वे मर गये कुफ़्र की स्थिति में, तो कदापि क्षमा नहीं करेगा अल्लाह उनको।
अतः, तुम निर्बल न बनो और न (शत्रु को) संधि की ओर[1] पुकारो तथा तुम ही उच्च रहने वाले हो और अल्लाह तुम्हारे साथ है और वह कदापि व्यर्थ नहीं करेगा तुम्हारे कर्मों को।
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1. आयत का अर्थ यह नहीं कि इस्लाम संधि का विरोधी है। इस का अर्थ यह है कि ऐसी दशा में शत्रु से संधि न करो कि वह तुम्हें निर्बल समझने लगे। बल्कि अपनी शक्ति का लोहा मनवाने के पश्चात् संधि करो। ताकि वह तुम्हें निर्बल समझ कर जैसे चाहें संधि के लिये बाध्य न कर लें।
ये सांसारिक जीवन तो एक खेल-कूद है और यदि तुम ईमान लाओ और अल्लाह से डरते रहो, तो वह प्रदान करेगा तुम्हें तुम्हारा प्रतिफल और नहीं माँग करेगा तुमसे तुम्हारे धनों की।
और यदि वह तुमसे माँगे और तुम्हारा पूरा धन माँगे, तो तुम कंजूसी करने लगोगे और वह खोल[1] देगा तुम्हारे द्वेषों को।
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1. अर्थात तुम्हारा पूरा धन माँगे तो यह स्वाभाविक है कि तुम कंजूसी कर के दोषी बन जाओगे। इस लिये इस्लाम ने केवल ज़कात अनिवार्य की है। जो कुल धन का ढाई प्रतिशत है।
सुनो! तुम लोग हो, जिन्हें बुलाया जा रहा है, ताकि दान करो अल्लाह की राह में, तो तुममें से कुछ कंजूसी करने लगते हैं और जो कंजूसी करता[1] है, तो वह अपने आप ही से कंजूसी करता है और अल्लाह धनी है तथा तुम निर्धन हो और यदि तुम मूँह फेरोगे, तो वह तुम्हारे स्थान पर दूसरों को ले आयेगा फिर वे नहीं होंगे तुम्हारे जैसे।[1]
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1. अर्थात कंजूसी कर के अपने ही को हानि पहुँचाता है। 2. तो कंजूस नहीं होंगे। (देखियेः सूरह माइदा, आयतः 54)
سورة محمد
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التفسيرات

سورة (مُحمَّد) أو سورة (القِتال) من السُّوَر المدنية، وقد نزلت بعد سورة (الحديد)، وحثَّتْ على الجهاد؛ لحفظِ بيضة هذا الدِّين، ولإعلاء كلمة الله بهذه الوسيلة المشروعة، وقد بيَّنتْ حقيقةَ الصراع بين الكفر والإيمان، وبين مَن يُقِيم العدلَ والطُّمأنينة ومن يُقِيم الجَوْرَ والخوف، ولا يكون ذلك إلا بما شرعه اللهُ من الوسائل.

ترتيبها المصحفي
47
نوعها
مدنية
ألفاظها
542
ترتيب نزولها
96
العد المدني الأول
39
العد المدني الأخير
39
العد البصري
40
العد الكوفي
38
العد الشامي
39

* سورة (مُحمَّد):

سُمِّيت سورة (مُحمَّد) بهذا الاسم؛ لأنَّه جاء فيها اسمُ النبي صلى الله عليه وسلم في الآية الثانية منها؛ قال تعالى: {وَاْلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ اْلصَّٰلِحَٰتِ وَءَامَنُواْ بِمَا نُزِّلَ عَلَىٰ مُحَمَّدٖ وَهُوَ اْلْحَقُّ مِن رَّبِّهِمْ كَفَّرَ عَنْهُمْ سَيِّـَٔاتِهِمْ وَأَصْلَحَ بَالَهُمْ} [محمد: 2].

* سورة (القِتال):

سُمِّيت بهذا الاسم؛ لأنه جاء فيها هذا اللفظُ؛ قال تعالى: {وَيَقُولُ اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَوْلَا نُزِّلَتْ سُورَةٞۖ فَإِذَآ أُنزِلَتْ سُورَةٞ مُّحْكَمَةٞ وَذُكِرَ فِيهَا اْلْقِتَالُ رَأَيْتَ اْلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ يَنظُرُونَ إِلَيْكَ نَظَرَ اْلْمَغْشِيِّ عَلَيْهِ مِنَ اْلْمَوْتِۖ فَأَوْلَىٰ لَهُمْ} [محمد: 20]، ولأنها بيَّنتْ أحكامَ قتالِ الكفار ومشروعيَّتَه.

1. تعريف لطرَفَيِ الصراع، وحثُّ المؤمنين على القتال (١-٦).

2. سُنَّة الله التي لا تتبدل في المؤمنين والكافرين (٧-١٥).

3. التعريف بالمنافقين، والموازنة بينهم وبين المؤمنين (١٦-٣٠).

4. تهديد الضالِّين، ودفعُ المؤمنين لتحمُّل تكاليف الإيمان (٢٩-٣٨).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (7 /234).

مقصدُ هذه السورة هو دعوةُ المؤمنين إلى حفظِ حظيرة الدِّين؛ بإقامة الجهاد وإدامته؛ فلا بد من الاستعداد الجيد، والتضحية لنشر هذا الدِّين بكل الوسائل المشروعة المطلوبة؛ ومن ذلك: الجهاد في سبيل الله؛ دفعًا للشر، ودعوة إلى الخير، ومن ذلك: تسميتُها بسورة (القِتال).

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /487).