ترجمة سورة هود

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة هود باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

अलिफ, लाम, रा। ये पुस्तक है, जिसकी आयतें सुदृढ़ की गयीं, फिर सविस्तार वर्णित की गयी हैं, उसकी ओर से, जो तत्वज्ञ, सर्वसूचित है।
कि अल्लाह के सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करो। वास्तव में, मैं उसकी ओर से तुम्हें सचेत करने वाला तथा शुभ सूचना देने वाला हूँ।
और ये है कि अपने पालनहार से क्षमा याचना करो, फिर उसी की ओर ध्यानमग्न हो जाओ। वह तुम्हें एक निर्धारित अवधि तक अच्छा लाभ पहुँचाएगा और प्रत्येक श्रेष्ठ को उसकी श्रेष्ठता प्रदान करेगा और यदि तुम मुँह फेरोगे, तो मैं तुमपर एक बड़े दिन की यातना से डरता हूँ।
अल्लाह ही की ओर तुमसब को पलटना है और वह जो चाहे, कर सकता है।
सुनो! ये लोग अपने सीनों को मोड़ते हैं, ताकि उस[1] से छुप जायेँ, सुनो! जिस समय वे अपने कपड़ों से स्वयं को ढाँपते हैं, तबभी वह (अल्लाह) उनके छुपे को जानता है तथा उनके खुले को भी। वास्तव में, वह उसे भी भली-भाँति जानने वाला[2] है, जो सीनों में (भेद) है।
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1. अर्थात अल्लाह से। 2. आयत का भावार्थ यह है कि मिश्रणवादी अपने दिलों में कुफ़्र को यह समझ कर छुपाते हैं कि अल्लाह उसे नहीं जानेगा। जब कि वह उन के खुले छुपे और उन के दिलों के भेदों तक को जानता है।
और धरती में कोई चलने वाला नहीं है, परन्तु उसकी जीविका अल्लाह के ऊपर है तथा वह उसके स्थायी स्थान तथा सौंपने के स्थान को जानता है। सबकुछ एक खुली पुस्तक में अंकित है[1]।
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1. अर्थात अल्लाह, प्रत्येक व्यक्ति की जीवन-मरण आदि की सब दशाओं से अवगत है।
और वही है, जिसने आकाशों तथा धरती की उत्पत्ति छः दिनों में की। उस समय उसका सिंहासन जल पर था, ताकि तुम्हारी परीक्षा ले कि तुममें किसका कर्म सबसे उत्तम है। और (हे नबी!) यदि आप, उनसे कहें कि वास्तव में तुम सभी मरण के पश्चात् पुनः जीवित किये जाओगे, तो जो काफ़िर हो गये, अवश्य कह देंगे कि ये तो केवल खुला जादू है।
और यदि, हम उनसे यातना में किसी विशेष अवधि तक देर कर दें, तो अवश्य कहेंगे कि उसे क्या चीज़ रोक रही है? सुन लो! वह जिस दिन उनपर आ जायेगी, तो उनसे फिरेगी नहीं और उन्हें वह (यातना) घेर लेगी, जिसकी वे हँसी उड़ा रहे थे।
और यदि, हम मनुष्य को अपनी कुछ दया चखा दें, फिर उसे उससे छीन लें, तो हताशा कृतघ्न हो जाता है।
और यदि, हम उसे सुख चखा दें, दुःख के पश्चात्, जो उसे पहुँचा हो, तो अवश्य कहेगा कि मेरा सब दुःख दूर हो गया। वास्तव में, वह प्रफुल्ल होकर अकड़ने लगता है[1]।
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1. इस में मनुष्य की स्वभाविक दशा की ओर संकेत है।
परन्तु, जिन्होंने धैर्य धारण किया और सुकर्म किये, तो उनके लिए क्षमा और बड़ा प्रतिफल है।
तो (हे नबी!) संभवतः आप उसमें से कुछ को, जो आपकी ओर प्रकाशना की जा रही है, त्याग देने वाले हैं और इसके कारण आपका दिल सिकुड़ रहा है कि वे कहते हैं कि इसपर कोई कोष क्यों नहीं उतारा गया या इसके साथ कोई फरिश्ता क्यों (नहीं) आया? (तो सुनिए) आपकेवल सचेत करने वाले हैं और अल्लाह ही प्रत्येक चीज़ पर रक्षक है।
क्या वह कहते हैं कि उसने इस (क़ुर्आन) को स्वयं बना लिया है? आप कह दें कि इसीके समान दस सूरतें बना लाओ[1] और अल्लाह के सिवा, जिसे हो सके, बुला हो, यदि तुम लोग सच्चे हो।
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1. अल्लाह का यह चैलेंज है कि अगर तुम को शंका है कि यह क़ुर्आन मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने स्वयं बना लिया है तो तुम इस जैसी दस सूरतें ही बना कर दिखा दो। और यह चैलेंज प्रलय तक के लिये है। और कोई दस तो क्या इस जैही एक सूरह भी नहीं ला सकता। (देखियेः सूरह यूनुस, आयतः38 तथा सूरह बक़रह, आयतः23)
फिर यदि वे उत्तर न दें, तो विश्वास कर लो कि उसे (क़ुर्आन को) अल्लाह के ज्ञान के साथ ही उतारा गया है और ये कि कोई वंदनीय (पूज्य) नहीं है, परन्तु वही। तो क्या तुम मुस्लिम होते हो?
जो व्यक्ति सांसारिक जीवन तथा उसकी शोभा चाहता हो, हम उनके कर्मों का (फल) उसीमें चुका देंगे और उनके लिए (संसार में) कोई कमी नहीं की जायेगी।
यही वो लोग हैं, जिनका परलोक में अग्नि के सिवा कोई भाग नहीं होगा और उन्होंने जो कुछ किया, वह व्यर्थ हो जायेगा और वे जो कुछ कर रहे हैं, असत्य सिध्द होने वाला है।
तो क्या जो अपने पालनहार की ओर से स्पष्ट प्रमाण[1] रखता हो और उसके साथ ही एक गवाह (साक्षी)[1] भी उसकी ओर से आ गया हो और इससे पहले मूसा की पुस्तक मार्गदर्शक तथा दया बनकर आ चुकी हो, ऐसे लोग तो इस (क़ुर्आन) पर ईमान रखते हैं और सम्प्रदायों मेंसे, जो इसे अस्वीकार करेगा, तो नरक ही उसका वचन-स्थान है। अतः आप, इसके बारे में किसी संदेह में न पड़ें। वास्तव में, ये आपके पालनहार की ओर से सत्य है। परन्तु अधिक्तर लोग ईमान (विश्वास) नहीं रखते।
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1. अर्थात जो अपने अस्तित्व तथा विश्व की रचना और व्यवस्था पर विचार कर के यह जानता था कि इस का स्वामी तथा शासक केवल अल्लाह ही है, उस के अतिरिक्त कोई अन्य नहीं हो सकता। 2. अर्थात नबी और क़ुर्आन।
और उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह पर मिथ्यारोपण करे? वही लोग, अपने पालनहार के समक्ष लाये जायेंगे और साक्षी (फ़रिश्ते) कहेंगे कि इन्होंने अपने पालनहार पर झूठ बोले। सुनो! अत्याचारियों पर अल्लाह की धिक्कार है।
वही लोग, अल्लाह की राह से रोक रहे हैं और उसे टेढ़ा बनाना चाहते हैं। वही परलोक को न मानने वाले हैं।
वे लोग धरती में विवश करने वाले नहीं थे और न उनका अल्लाह के सिवा कोई सहायक था। उनके लिए दुगनी यातना होगी। वे न सुन सकते थे, न देख सकते थे।
उन्होंने ही स्वयं अपना विनाश कर लिया और उनसे वो बात खो गयी, जो वे बना रहे थे।
ये आवश्यक है कि परलोक में यही सर्वाधिक विनाश में होंगे।
वास्तव में, जो ईमान लाये और सदाचार किये तथा अपने पालनहार की ओर आकर्शित हुए, वही स्वर्गीय हैं और वे उसमें सदैव रहेंगे।
दोनों समुदाय की दशा ऐसी है, जैसे एक अन्धा और बहरा हो और दूसरा देखने और सुनने वाला हो। तो क्या दोनों की दशा समान हो सकती है? क्या तुम (इस अन्तर को) नहीं समझते[1]?
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1. कि दोनों का परिणाम एक नहीं हो सकता। एक को नरक में और दूसरे को स्वर्ग में जाना है। ( देखियेः सूरह ह़श्र, आयतः 20)
और हमने नूह़ को उसकी जाति की ओर रसूल बनाकर भेजा। उन्होंने कहाः वास्तव में, मैं तुम्हारे लिए खुले रूप से सावधान करने वाला हूँ।
कि इबादत (वंदना) केवल अल्लाह ही की करो। मैं तुम्हारे ऊपर दुःख दायी दिन की यातना से डरता हूँ।
तो उन प्रमुखों ने, जो उनकी जाति में से काफ़िर हो गये, कहाः हमतो तुझे अपने ही जैसा मानव पुरुष देख रहे हैं और हम देख रहे हैं कि तुम्हारा अनुसरण केवन वही लोग कर रहे हैं, जो हममें नीच हैं। वो भी बिना सोचे-समझे और हम अपने ऊपर तुम्हारी कोई प्रधानता भी नहीं देखते, बल्कि हम तुम्हें झूठा समझते हैं।
उस (अर्थात् नूह़) ने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! तुमने इस बात पर विचार किया कि यदि मैं अपने पालनहार की ओर से एक स्पष्ट प्रमाण पर हूँ और मुझे उसने अपने पास से एक दया[1] प्रदान की हो, फिर वह तुम्हें सुझायी न दे, तो क्या हम उसे तुमसे चिपका[2] दें, जबकि तुम उसे नहीं चाहते?
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1. अर्थात नबूवत और मार्गदर्शन। 2. अर्थात मैं बलपूर्वक तुम्हें सत्य नहीं मनवा सकता।
और हे मेरी जाति के लोगो! मैं इस (सत्य के प्रचार) पर तुमसे कोई धन नहीं माँगता। मेरा बदला तो अल्लाह के ऊपर है और मैं उन्हें (अपने यहाँ से) धुतकार नहीं सकता, जो ईमान लाये हैं, निश्चय वे अपने पालनहार से मिलने वाले हैं, परन्तु मैं देख रहा हूँ कि तुम जाहिलों जैसी बातें कर रहे हो।
और हे मेरी जाति के लोगो! कौन अल्लाह की पकड़ से[1] मुझे बचायेगा, यदि मैं उन्हें अपने पास से धुतकार दूँ? क्या तुम सोचते नहीं हो?
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1. अर्थात अल्लाह की पकड़ से, जिस के पास ईमान और कर्म की प्रधानता है, धन-धान्य की नहीं।
और मैं तुमसे ये नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के कोषागार (ख़ज़ाने) हैं और न मैं गुप्त बातों का ज्ञान रखता हूँ और ये भी नहीं कहता कि मैं फ़रिश्ता हूँ और ये भी नहीं कहता कि जिन्हें तुम्हारी आँखें घृणा से देखती हैं, अल्लाह उन्हें कोई भलाई नहीं देगा। अल्लाह अधिक जानता है, जो कुछ उनके दिलों में है। यदि मैं ऐसा कहूँ, तो निश्चय अत्याचारियों में हो जाऊँगा।
उन्होंने कहाः हे नूह़! तूने हमसे झगड़ा किया और बहुत झगड़ लिया, अब वो (यातना) ला दो, जिसकी धमकी हमें देते हो, यदि तुम सच बोलने वालों में हो।
उसने कहाः उसे तो तुम्हारे पास अल्लाह ही लायेगा, यदि वह चाहेगा और तुम (उसे) विवश करने वाले नहीं हो।
और मेरी शुभ-चिन्ता तुम्हें कोई लाभ नहीं पहुँचा सकती, यदि मैं तुम्हारा हित चाहूँ, जबकि अल्लाह तुम्हें कुपथ करना चाहता हो और तुम उसी की ओर लौटाये जाओगे।
क्या वे कहते हैं कि उसने ये बात स्वयं बना ली है? तुम कहो कि यदि मैंने इसे स्वयं बना लिया है, तो मेरा अपराध मुझी पर है और मैं निर्दोष हूँ, उस अपराध से, जो तुम कर रहे हो।
और नूह़ की ओर वह़्यी (प्रकाशना) की गयी कि तुम्हारी जाति मेंसे ईमान नहीं लायेंगे, उनके सिवा, जो ईमान ला चुके हैं। अतः उससे दुःखी न बनो, जो वे कर रहे हैं।
और हमारी आँखों के सामने हमारी वह़्यी के अनुसार एक नाव बनाओ और मुझसे उनके बारे में कुछ[1] न कहना, जिन्होंने अत्याचार किया है। वास्तव में, वे डूबने वाले हैं।
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1. अर्थात प्रार्थना और सिफ़ारिश न करना।
और वह नाव बनाने लगा और जबभी उसकी जाति के प्रमुख उसके पास से गुज़रते, तो उसकी हँसी उड़ाते। नूह़ ने कहाः यदि तुम हमारी हँसी उड़ाते हो, तो हमभी ऐसे ही (एक दिन) तुम्हारी हँसी उड़येंगे।
फिर तुम्हें शीघ्र ही ज्ञान हो जायेगा कि किसपर अपमानकारी यातना आयेगी और स्थायी दुःख किसपर उतरेगा?
यहाँ तक कि जब हमारा आदेश आ गया और तन्नूर उबलने लगा, तो हमने (नूह़ से) कहाः उसमें प्रत्येक प्रकार के जीवों के दो जोड़े रख लो और अपने परिजनों को, उनके सिवा, जिनके बारे में पहले बता दिया गाय है और जो ईमान लाये हैं और उसके साथ थोड़े ही ईमान लाये थे।
और उस (नूह़) ने कहाः इसमें सवार हो जाओ, अल्लाह के नाम ही से इसका चलना तथा इसे रुकना है। वास्तव में, मेरा पालनहार बड़ा क्षमाशील दयावान् है।
और वह उन्हें लिए पर्वत जैसी ऊँची लहरों में चलती रही और नूह़ ने अपने पुत्र को पुकारा, जबकि वह उनसे अलग थाः हे मेरे पुत्र! मेरे साथ सवार हो जा और काफ़िरों के साथ न रह।
उसने कहाः मैं किसी पर्वत की ओर शरण ले लूँगा, जो मुझे जल से बचा लेगा। नूह़ ने कहाः आज अल्लाह के आदेश (यातना) से कोई बचाने वाला नहीं, परनु जिसपर वह (अल्लाह) दया करे और दोनों के बीच एक लहर आड़े आ गयी और वह डूबने वालों में हो गया।
और कहा गयाः हे धरती! अपना जल निगल जा और हे आकाश! तू थम जा औ जल उतर गया और आदेश पूरा कर दिया गया और नाव "जूदी[1]" पर ठहर गयी और कहा गया कि अत्याचारियों के लिए (अल्लाह की दया से) दूरी है।
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1. "जूदी" एक वर्वत का नाम है जो कुर्दिस्तान में "इब्ने उमर" द्वीप के उत्तर-पूर्व ओर स्थित है। और आज भी जूदी के नाम से ही प्रसिध्द है।
तथा नूह़ ने अपने पालनहार से प्रार्थना की और कहाः मेरे पालनहार! मेरा पुत्र मेरे परिजनों में से है। निश्चय तेरा वचन सत्य है तथा तू ही सबसे अच्छा निर्णय करने वाला है।
उस (अल्लाह) ने उत्तर दियाः वह तेरा परिजन नहीं। (क्योंकि) वह कुकर्मी है। अतः मुझसे उस चीज़ का प्रश्न न कर, जिसका तुझे कोई ज्ञान नहीं। मैं तुझे बताता हूँ कि अज्ञानों में न हो जा।
नूह़ ने कहाः मेरे पालनहार! मैं तेरी शरण चाहता हूँ कि मैं तुझसे ऐसी चीज़ की माँग करूँ, जिस (की वास्तविक्ता) का मुझे कोई ज्ञान नहीं है[1] और यदि तूने मुझे क्षमा नहीं किया और मुझपर दया न की, तो मैं क्षतिग्रस्तों में हो जाऊँगा।
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1. अर्थात जब नूह़ (अलैहिस्सलाम) को बता दिया गया कि तुम्हारा पुत्र ईमान वालों में से नहीं है, इस लिये वह अल्लाह के अज़ाब से बच नहीं सकता तो नूह़ तुरन्त अल्लाह से क्षमा माँगने लगे।
कहा गया कि हे नूह़! उतर जा, हमारी ओर से रक्षा ओर सम्पन्नता के साथ, अपने ऊपर तथा तेरे साथ के समुदायों के ऊपर और कुछ समुदाय ऐसे हैं, जिन्हें हम सांसारिक जीवन सामग्री प्रदान करेंगें, फिर उन्हें हमारी दुःखदायी यातना पहुँचेगी।
यही ग़ैब की बातें हैं, जिन्हें (हे नबी!) हम आपकी ओर प्रकाशना (वह़्यी) कर रहे हैं। इससे पूर्व न तो आप इन्हें जानते थे और न आपकी जाति। अतः आप सहन करें। वास्तव में, अच्छा परिणाम आज्ञाकारियों के लिए है।
और "आद" (जाति) की ओर उनके भाई हूद को भेजा, उसने कहाः हे मेरी जाति को लोगो! अल्लाह की इबादत (वंदना) करो। उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है। तुम इसके सिवा कुछ नहीं हो कि झूठी बातें घड़ने वाले हो[1]।
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1. अर्थात अल्लाह के सिवा तुमने जो पूज्य बना रखे हैं वह तुम्हारे मन घड़त पूज्य हैं।
हे मेरी जाति के लोगो! मैं तुमसे इसपर कोई बदला नहीं चाहता; मेरा पारिश्रमिक (बदला) उसी (अल्लाह) पर है, जिसने मुझे पैदा किया है। तो क्या तुम (इतनी) बात भी नहीं समझते[1]?
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1. अर्थात यदि तुम समझ रखते तो अवश्य सोचते कि एक व्यक्ति अपने किसी संसारिक स्वार्थ के बिना क्यों हमें रातो दिन उपदेश दे रहा है और सारे दुःख झेल रहा है? उस के पास कोई ऐसी बात अवश्य होगी जिस के लिये अपनी जान जोखिम में डाल रहा है।
हे मेरी जाति के लोगो! अपने पालनहार से क्षमा माँगो। फिर उसकी ओर ध्यानमग्न हो जाओ। वह आकाश से तुमपर धारा प्रवाह वर्षा करेगा और तुम्हारी शक्ति में अधिक शक्ति प्रदान करेगा और अपराधी होकर मुँह न फेरो।
उन्होंने कहाः हे हूद! तुम हमारे पास कोई स्पष्ट (खुला) प्रमाण नहीं लाये तथा हम तुम्हारी बात के कारण अपने पूज्यों को त्यागने वाले नहीं हैं और न हम तुम्हारा विश्वास करने वाले हैं।
हम तो यही कहेंगे कि तुझे हमारे किसी देवता ने बुराई के साथ पकड़ लिया है। हूद ने कहाः मैं अल्लाह को (गवाह) बनाता हूँ और तुम भी साक्षी रहो कि मैं उस शिर्क (मिश्रणवाद) से विरक्त हूँ, जो तुम कर रहे हो।
उस (अल्लाह) के सिवा। तुम सब मिलकर मेरे विरुध्द षड्यंत्र रच लो, फिर मुझे कुछ भी अवसर न दो[1]।
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1. अर्थात तुम और तुम्हारे सब देवी-देवता मिल कर भी मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते। क्यों कि मेरा भरोसा जिस अल्लाह पर है पूरा संसार उस के नियंत्रण में है, उस के आगे किसी की शक्ति नहीं कि किसी का कुछ बिगाड़ सके।
वास्तव में, मैंने अल्लाह पर, जो मेरा पालनहार और तुम्हारा पालनहार है, भरोसा किया है। कोई चलने वाला जीव ऐसा नहीं, जो उसके अधिकार में न हो, वास्तव में, मेरा पालनहार सीधी राह[1] पर है।
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1. अर्थात उस की राह अत्याचार की राह नहीं हो सकती कि तुम दुराचारी और कुपथ में रह कर सफल रहो और मैं सदाचारी रह कर हानि में पड़ूँ।
फिर यदि तुम विमुख रह गये, तो मैंने तुम्हें वह उपदेश पहुँचा दिया है, जिसके साथ मुझे भेजा गया है और मेरा पालनहार तुम्हारा स्थान तुम्हारे सिवा किसी[1] और जाति को दे देगा और तुम उसे कुछ हानि नहीं पहुँचा सकोगे, वास्तव में, मेरा पालनहार प्रत्येक चीज़ का रक्षक है।
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1. अर्थात तुम्हें ध्वस्त निरस्त कर देगा।
और जब हमारा आदेश आ पहुँचा, तो हमने हूद को और उनको, जो उसके साथ ईमान लाये, अपनी दया से बचा लिया और हमने उन्हें घोर यातना से बचा लिया।
वही (जाति) "आद" है, जिसने अपने पालनहार की आयतों (निशानियों) का इन्कार किया और उसके रसूलों की बात नहीं मानी और प्रत्येक सच के विरोधी के पीछे चलते रहे।
और इस संसार में धिक्कार उनके साथ लगा दी गयी तथा प्रलय के दिन भी लगी रहेगी। सुनो! आद ने अपने पालनहार को अस्वीकार किया। सुनो! हूद की जाति आद के लिए दूरी हो[1]!
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1. अर्थात अल्लाह की दया से दूरी। इस का प्रयोग धिक्कार और विनाश के अर्थ में होता है।
और समूद[1] की ओर उनके भाई सालेह़ को भेजा। उसने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है। उसीने तुम्हें धरती से उत्पन्न किया और तुम्हें उसमें बसा दिया, अतः उससे क्षमा माँगो और उसी की ओर ध्यानमग्न हो जाओ। वास्तव में, मेरा पालनहार समीप है ( और दुआयें) स्वीकार करने वाला है[2]।
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1. यह जाति तबूक और मदीना के बीच "अल-ह़िज्र" में आबाद थी। 2. देखियेः सूरह बक़रह, आयतः186
उन्होंने कहाः हे सालेह! हमारे बीच इससे पहले तुझसे बड़ी आशा थी, क्या तू हमें इस बात से रोक रहा है कि हम उसकी पूजा करें, जिसकी पूजा हमारे बाप-दादा करते रहे? तू जिस चीज़ (एकेश्वरवाद) की ओर बुला रहा है, वास्तव में, उसके बारे में हमें संदेह है, जिसमें हमें द्विधा है।
उस (सालेह़) ने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! तुमने विचार किया कि यदि मैं अपने पालनहार की ओर से एक स्पष्ट खुले प्रमाण पर हूँ और उसने मुझे अपनी दया प्रदान की हो, तो कौन है, जो अल्लाह के मुक़ाबले में मेरी सहायता करेगा, यदि मैं उसकी अवज्ञा करूँ? तुम मुझे घाटे में डालने के सिवा कुछ नहीं दे सकते।
और हे मेरी जाति के लोगो! ये अल्लाह[1] की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक निशानी है, इसे छोड़ दो, अल्लाह की धरती में चरती फिरे और इसे कोई दुःख न पहुँचाओ, अन्यथा तुम्हें तुरन्त यातना पकड़ लेगी।
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1. उसे अल्लाह की ऊँटनी इस लिये कहा गया है कि उसे अल्लाह ने उन के लिये एक पर्वत से निकाला था। क्योंकि उन्हों ने उस की माँग की थी कि यदि पर्वत से ऊँटनी निकलेगी तो हम ईमान लायेंगे। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)
तो उन्होंने उसे मार डाला। तब सालेह़ ने कहाः तुम अपने नगर में तीन दिन और आनन्द ले लो! ये वचन झूठ नहीं है।
फिर जब हमारा आदेश आ गया, तो हमने सालेह़ को और जो लोग उसके साथ ईमान लाये, अपनी दया से, उस दिन के अपमान से बचा लिया। वास्तव में, आपका पालनहार ही शक्तिशाली प्रभुत्वशाली है।
और अत्याचारियों को कड़ी ध्वनि ने पकड़ लिया और वे अपने घरों में औंधे पड़े रह गये।
जैसै वे वहाँ कभी बसे ही नहीं थे। सावधान! समूद ने अपने पालनहार को अस्वीकार कर दिया। सुन लो! समूद के लिए दूरी हो।
और हमारे फ़रिश्ते इब्राहीम के पास शुभ सूचना लेकर आये। उन्होंने सलाम किया, तो उसने उत्तर में सलाम किया। फिर देर न हुई कि वह एक भुना हुआ वछड़ा[1] ले आये।
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1. अर्थात अतिथि सत्कार के लिये।
फिर जब देखा कि उनके हाथ उसकी ओर नहीं बढ़ते, तो उनकी ओर से संशय में पड़ गया और उनसे दिल में भय का अनुभव किया। उन्होंने कहाः भय न करो। हम लूत[1] की जाति की ओर भेजे गये हैं।
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1. लूत अलैहिस्सलाम को भाष्यकारों ने इब्राहीम अलैहिस्सलाम का भतीजा बताया है, जिन को अल्लाह ने सदूम की ओर नबी बना कर भेजा।
और उस (इब्राहीम) की पत्नी खड़ी होकर सुन रही थी। वह हँस पड़ी[1], तो उसे हमने इस्ह़ाक़ (के जन्म) की शुभ सूचना[2] दी और इस्ह़ाक़ के पश्चात् याक़ुब की।
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1. कि भय की कोई बात नहीं है। 2. फ़रिश्तों द्वारा।
वह बोलीः हाय मेरा दुर्भाग्य! क्या मेरी संतान होगी, जबकि मैं बुढ़िया हूँ और मेरा ये पति भी बूढ़ा है? वास्तव में, ये बड़े आश्चर्य की बात है।
फ़रिश्तों ने कहाः क्या तू अल्लाह के आदेश से आश्चर्य करती है? हे घर वालो! तुम सब पर अल्लाह की दया तथा सम्पन्नता है, निसंदेह वह अति प्रशंसित, श्रेष्ठ है।
फिर जब इब्राहीम से भय दूर हो गया और उसे शुभ सूचना मिल गयी, तो वह लूत की जाति के बारे में हमसे आग्रह करने लगा[1]।
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1. अर्थात प्रार्थना करने लगा कि लूत की जाति को और संभलने का अवसर दिया जाये। हो सकता है कि वह ईमान लायें।
वास्तव में, इब्राहीम बड़ा सहनशील, कोमल हृदय तथा अल्लाह की ओर ध्यानमग्न रहने वाला था।
(फ़रिश्तों ने कहाः) हे इब्राहीम! इस बात को छोड़ो, वास्तव में, तेरे पालनहार का आदेश[1] आ गया है तथा उनपर ऐसी यातना आने वाली, है जो टलने वाली नहीं है।
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1. आर्थात यातना का आदेश।
और जब हमारे फ़रिश्ते लूत के पास आये, तो उनका आना उसे बुरा लगा और उनके कारण व्याकूल हो गया और कहाः ये तो बड़ी विपता का[1] दिन है।
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1. फ़रिश्ते सुन्दर किशोरों के रूप में आये थे। और लूत अलैहिस्सलाम की जाति का आचरण यह था कि वह बालमैथुन में रूचि रखती थी। इस लिये उन्हों ने उन को पकड़ने की कोशिश की। इसी लिये इन अतिथियों के आने पर लूत अलैहिस्सलाम व्याकूल हो गये थे।
और उसकी जाति के लोग दौड़ते हुए उसके पास आ गये और इससे पूर्व वह कुकर्म[1] किया करते थे। लूत ने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! ये मेरी[2] पुत्रियाँ हैं, वे तुम्हारे लिए अधिक पवित्र हैं, अतः अल्लाह से डरो और मेरे अतिथियों के बारे में मुझे अपमानित न करो। क्या तुममें कोई भला मनुष्य नहीं है?
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1. अर्थात बालमैथुन। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी) 2. अर्थात बस्ती की स्त्रियाँ। क्यों कि जाति का नबी उन के पिता के समान होता है। (तफ़्सीरे क़ुर्तुबी)
उन लोगों ने कहाः तुमतो जानते ही हो कि हमारा तुम्हारी पुत्रियों में कोई अधिकार नहीं[1]। तथा वास्तव में, तुम जानते ही हो कि हम क्या चाहते हैं।
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1. अर्थात हमें स्त्रियों में कोई रूचि नहीं है।
उस (लूत) ने कहाः काश मेरे पास बल होता! या कोई दृढ़ सहारा होता, जिसकी शरण लेता!
फ़रिश्तों ने कहाः हे लूत! हम तेरे पालनहार के भेजे हुए (फ़रिश्ते) हैं। वे कदापि तुझतक नहीं पहुँच सकेंगे। जब कुछ रात रह जाये, तो अपने परिवार के साथ निकल जा और तुममें से कोई फिरकर न देखे। परन्तु तेरी पत्नी (साथ नहीं जायेगी)। उसपर भी वही बीतने वाला है, जो उनपर बीतेगा। उनकी यातना का निर्धारित समय प्रातः काल है। क्या प्रातः काल समीप नहीं है?
फिर जब हमारा आदेश आ गया, तो हमने उस बस्ती को तहस-नहस कर दिया और उनपर पकी हुई कंकरियों की बारिश कर दी।
जो तेरे पालनहार के यहाँ चिन्ह लगायी हुयी थी और वह[1] (बस्ती) अत्याचारियों[2] से कोई दूर नहीं है।
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1. अर्थात सदूम, जो समूद की बस्ती थी। 2. अर्थात आज भी जो उन की नीति पर चल रहे हैं उन पर ऐसी ही यातना आ सकती है।
और मद्यन की ओर उनके भाई शोऐब को भेजा। उसने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! अल्लाह की इबादत (वंदना) करो। उसके सिवा कोई तुम्हारा पूज्य नहीं है और नाप-तोल में कमी न करो[1]। मैं तुम्हें सम्पन्न देख रहा हूँ। इसलिए मुझे डर है कि तुम्हें कहीं यातना न घेर ले।
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1. शोऐब की जाति में शिर्क (मिश्रणवाद) के सिवा नाप तौल में कमी करने का रोग भी था।
हे मेरी जाति के लोगो! नाप-तोल न्यायपुर्वक पूरा करो और लोगों को उनकी चीज़ कम न दो तथा धरती में उपद्रव फैलाते न फिरो।
अल्लाह की दी हुई बचत, तुम्हारे लिए अच्छी है, यदि तुम ईमान वाले हो और मैं तुमपर कोई रक्षक नहीं हूँ।
उन्होंने कहाः हे शोऐब! क्या तेरी नमाज़ (इबादत) तुझे आदेश दे रही है कि हम उसे त्याग दें, जिसकी पूजा हमारे बाप-दादा करते रहे? अथवा अपने धनों में जो चाहें करें? वास्तव में, तू बड़ा ही सहनशील तथा भला व्यक्ति है!
शोऐब ने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! तुम बताओ, यदि मैं अपने पालनहार की ओर से प्रत्यक्ष प्रमाण पर हूँ और उसने मुझे अच्छी जीविका प्रदान की हो, (तो कैसे तुम्हारा साथ दूँ?) मैं नहीं चाहता कि उसके विरुध्द करूँ, जिससे तुम्हें रोक रहा हूँ। मैं जहाँ तक हो सके, सुधार ही चाहता हूँ और ये जो कुछ करना चाहता हूँ, अल्लाह के योगदान पर निर्भर करता है। मैंने उसीपर भरोसा किया है और उसी की ओर ध्यानमग्न रहता हूँ।
हे मेरी जाति के लोगो! तुम्हें मेरा विरोध इस बात पर न उभार दे कि तुमपर वही यातना आ पड़े, जो नूह़ की जाति, हूद की जाति अथवा सालेह़ की जाति पर आई और लूत की जाति तुमसे कुछ दूर नहीं है।
और अपने पालनहार से क्षमा माँगो, फिर उसी की ओर ध्यानमग्न हो जाओ। वास्तव में, मेरा पालनहार अति क्षमाशील तथा प्रेम करने वाला है।
उन्होंने कहाः हे शोऐब! तुम्हारी बहुत-सी बात हम नहीं समझते और हम, तुम्हें अपने बीच निर्बल देख रहे हैं और यदि, भाई बन्धु न होते, तो हम तुम्हें पथराव करके मार डालते और तुम, हमपर कोई भारी तो नहीं हो।
शोऐब ने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! क्या मेरे भाई बन्धु तुमपर अल्लाह से अधिक भारी हैं कि तुमने उसे पीठ पीछे डाल दिया है[1]? निश्चय मेरा पालनहार उसे (अपने ज्ञान के) घेरे में लिए हुए है, जो तुम कर रहे हो।
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1. अर्थात तुम मेरे भाई बन्धु के भय से मेरे विरुध्द कुछ करने से रुक गये तो क्या वह तुम्हारे विचार में अल्लाह से अधिक प्रभाव रखते हैं?
और हे मेरी जाति के लोगो! तुम अपने स्थान पर काम करो, मैं (अपने स्थान पर) काम कर रहा हूँ। तुम्हें शीघ्र ही ज्ञान हो जायेगा कि किसपर ऐसी यातना आयेगी, जो उसे अपमानित कर दे तथा कौन झूठा है? तुम प्रतीक्षा करो, मैं (भी) तुम्हारे साथ प्रतीक्षा करने वाला हूँ।
और जब हमारा आदेश आ गया, तो हमने शोऐब को और जो उसके साथ ईमान लाये थे, अपनी दया से बचा लिया और अत्याचारियों को बड़ी ध्वनि ने पकड़ लिया। फिर वे अपने घरों में औंधे मुँह पड़े रह गये।
जैसे वे कभी उनमें बसे ही न रहे हों। सुन लो! मद्यन वाले भी वैसे ही दूर फेंक दिये गये, जैसे समूद दूर फेंक दिये गये।
और हमने मूसा को अपनी निशानियों (चमत्कार) तथा खुले तर्क के साथ भेजा।
फ़िरऔन और उसके प्रमुखों की ओर। तो उन्होंने फ़िरऔन की आज्ञा का अनुसरण (पालन) किया। जबकि फ़िरऔन की आज्ञा सुधरी हुई न थी।
वह प्रलय के दिन अपनी जाति के आगे चलेगा और उनको नरक में उतारेगा और वह क्या ही बुरा उतरने का स्थान है?
और वे धिक्कार के पीछे लगा दिये गये, इस संसार में भी और प्रलय के दिन भी। कैसा बुरा पुरस्कार है, जो उन्हें दिया जायेगा?
हे नबी! ये उन बस्तियों के समाचार हैं, जिनका वर्णन हम आपसे कर रहे हैं। उनमें से कुछ निर्जन खड़ी और कुछ उजड़ चुकी हैं।
और हमने उनपर अत्याचार नहीं किया, परन्तु उन्होंने स्वयं अपने ऊपर अत्याचार किया। तो उनके वे पूज्य, जिन्हें व अल्लाह के सिवा पुकार रहे थे, उनके कुछ काम नहीं आये, जब आपके पालनहार का आदेश आ गया और उन्होंने उन्हें हानि पहुँचाने के सिवा और कुछ नहीं किया[1]।
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1. अर्थात यह जातियाँ अपने देवी-देवता की पूजा इस लिये करती थीं कि वह उन्हें लाभ पहुँचायेंगे। किन्तु उन की पूजा ही उन पर अधिक यातना का कारण बन गई।
और इसी प्रकार, तेरे पालनहार की पकड़ होती है, जब वह किसी अत्याचार करने वालों की बस्ती को पकड़ता है। निश्चय उसकी पकड़ दुःखदायी और कड़ी होती[1] है।
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1. नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन है कि अल्लाह अत्याचारी को अवसर देता है, यहाँ तक कि जब उसे पकड़ता है तो उस से बचता नहीं, और आप ने फिर यही आयत पढ़ी। (सह़ीह़ बुख़ारी, ह़दीस संख्याः4686)
निश्चय इसमें एक निशानी है, उसके लिए जो परलोक की यातना से डरे। वह ऐसा दिन होगा, जिसके लिए सभी लोग एकत्र होंगे तथा उस दिन सब उपस्थित होंगे।
और उसे हम केवल एक निर्धारित अवधि के लिए देर कर रहे हैं।
जब वह दिन आ जायेगा, तो अल्लाह की अनुमति बिना कोई प्राणी बात नहीं करेगा, फिर उनमें से कुछ अभागे होंगे और कुछ भाग्यवान होंगे।
फिर जो भाग्यहीन होंगे, वही नरक में होंगे, उन्हीं की उसमें चीख और पुकार होगी।
वे उसमें सदावासी होंगे, जब तक आकाश तथा धरती अवस्थित हैं। परन्तु ये कि आपका पालनहार कुछ और चाहे। वास्तव में, आपका पालनहार जो चाहे, करने वाला है।
और जो भाग्यवान हैं, वे स्वर्ग ही में सदैव रहेंगे, जब तक आकाश तथा धरती स्थित हैं। परन्तु आपका पालनहर कुछ और चाहे, ये प्रदान है अनवरत (निरन्तर)।
अतः (हे नबी!) आप उसके बारे में किसी संदेह में न हों, जिसे वे पूजते हैं। वे उसी प्रकार पूजते हैं, जैसे इससे पहले इनके बाप-दादा पूजते[1] रहे हैं। वस्तुतः, हम उन्हें उनका बिना किसी कमी के पूरा भाग देने वाले हैं।
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1. अर्थात इन की पूजा निर्मूल और बाप दादा की परम्परा पर आधारित है, जिस का सत्य से कोई संबंध नहीं है।
और हमने मूसा को पुस्तक (तौरात) प्रदान की। तो उसमें विभेद किया गया और यदि आपके पालनहार ने पहले से एक बात[1] निश्चित न की होती, तो उनके बीच निर्णय कर दिया गया होता और वास्तव में, वे[2] उसके बारे में संदेह और शंका में हैं।
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1. अर्थात यह कि संसार में प्रत्येक को अपनी इच्छानुसार कर्म करने का अवसर दिया जायेगा। 2. अर्थात मिश्रणवादी क़ुर्आन के विषय में।
और प्रत्येक को आपका पालनहार अवश्य उनके कर्मों का पूरा बदला देगा। क्योंकि वह उनके कर्मों से सूचित है।
अतः (हे नबी!) जैसे आपको आदेश दिया गया है, उसपर सुदृढ़ रहिये और वे भी जो आपके साथ तौबा (क्षमा याचना) करके हो लिए हैं और सीमा का उल्लंघन न[1] करो, क्योंकि वह (अल्लाह) तुम्हारे कर्मों को देख रहा है।
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1. अर्थात धर्मादेश की सीमा का।
और अत्याचारियों की ओर न झुक पड़ो। अन्यथा तुम्हें भी अग्नि स्पर्श कर लेगी और अल्लाह के सिवा तुम्हारा कोई सहायक नहीं, फिर तुम्हारी सहायता नहीं की जायेगी।
तथा आप नमाज़ की स्थापना करें, दिन के सिरों पर और कुछ रात बीतने[1] पर। वास्तव में, सदाचार दुराचारों को दूर कर देते[2] हैं। ये एक शिक्षा है, शिक्षा ग्रहण करने वालों के लिए।
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1. नमाज़ के समय के सविस्तार विवरण के लिये देखियेः सूरह बनी इस्राईल, आयतः78, सूरह ताहा, आयतः130, तथा सूरह रूम, आयतः 17-18 2. ह़दीस में आता है कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमायाः यदि किसी के द्वार पर एक नहर जारी हो जिस में वह पाँच बार स्नान करता हो तो क्या उस के शरीर पर कुछ मैल रह जायेगा? इसी प्रकार पाँचों नमाज़ों से अल्लाह भूल-चूक को दूर (क्षमा) कर देता है। (बुख़ारीः528, मुस्लिमः667) किन्तु बड़े-बड़े पाप जैसे शिर्क, हत्या इत्यादि बिना तौबा के क्षमा नहीं किये जाते।
तथा आप धैर्य से काम लें, क्योंकि अल्लाह सदाचारियों का प्रतिफल व्यर्थ नहीं करता।
तो तुमसे पहले युगों में ऐसे सदाचारी क्यों नहीं हुए, जो धरती में उपद्रव करने से रोकते? परन्तु ऐसा बहुत थोड़े युगों में हुआ, जिन्हें हमने बचा लिया और अत्याचारी उस स्वाद के पीछे पड़े रहे, जो धन-धान्य दिये गये थे और वे अपराधि बन कर रहे।
और आपका पालनहार ऐसा नहीं है कि बस्तियों को अत्याचार से ध्वस्त कर दे, जबकि उनके वासी सुधारक हूँ।
और यदि आपका पालनहार चाहता, तो सब लोगों को एक समुदाय बना देता और वे सदा विचार विरोधी रहेंगे।
परन्तु जिसपर आपका पालनहार दया करे और इसीके लिए उन्हें पैदा किया है[1] और आपके पालनहार की बात पूरी हो गयी कि मैं नरक को सब जिन्नों तथा मानवों से अवश्य भर दूँगा[2]।
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1. अर्थात एक ही सत्धर्म पर सब को कर देता। परन्तु उस ने प्रत्येक को अपने विचार की स्वतंत्रता दी है कि जिस धर्म या विचार को चाहे अपनाये ताकि प्रलय के दिन सत्धर्म को ग्रहण न करने पर उन्हें यातना का स्वाद चखाया जाये। 2. क्योंकि इस स्वतंत्रता का ग़लत प्रयोग कर के अधिक्तर लोग सत्धर्म को छोड़ बैठे।
और (हे नबी!) ये नबियों की सब कथाएं हम आपको सुना रहे हैं, जिनके द्वारा आपके दिल को सुदृढ़ कर दें और इस विषय में आपके पास सत्य आ गया है और ईमान वालों के लिए एक शिक्षा और चेतावनी है।
और (हे नबी!) आप उनसे कह दें, जो ईमान नहीं लाते कि तुम अपने स्थान पर काम करते रहो। हम अपने स्थान पर काम करते हैं।
तथा तुम प्रतीक्षा[1] करो, हमभी प्रतीक्षा करने वाले हैं।
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1. अर्थात अपने परिणाम की।
अल्लाह ही के अधिकार में आकाशों तथा धरती की छिपी हुई चीज़ों का ज्ञान है और प्रत्येक विषय उसी की ओर लोटाये जाते हैं। अतः आप उसी की इबादत (वंदना) करें और उसीपर निर्भर रहें। आपका पालनहार उससे अचेत नहीं है, जो तुम कर रहे हो।
سورة هود
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التفسيرات

سورةُ (هُودٍ) من السُّوَر المكية، وقد افتُتِحت بتعظيمِ الكتاب ووصفِه بالإحكام والتفصيل، واشتملت على حقائقِ العقيدة وأصولِ الدعوة إلى الله، مرغِّبةً ومرهِّبةً، واصفةً أهوالَ ومشاهد يوم القيامة التي شيَّبتْ رسولَ الله صلى الله عليه وسلم؛ كما جاء في الأثر، وقد جاء في السورةِ كثيرٌ من قصص الأنبياء؛ تسليةً للنبي صلى الله عليه وسلم، ولأخذِ العِبَر من حال الأنبياء، ودعوتِهم مع أقوامهم.

ترتيبها المصحفي
11
نوعها
مكية
ألفاظها
1946
ترتيب نزولها
52
العد المدني الأول
122
العد المدني الأخير
121
العد البصري
121
العد الكوفي
123
العد الشامي
122

* قوله تعالى: {أَلَآ إِنَّهُمْ يَثْنُونَ صُدُورَهُمْ لِيَسْتَخْفُواْ مِنْهُۚ أَلَا حِينَ يَسْتَغْشُونَ ثِيَابَهُمْ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعْلِنُونَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ اْلصُّدُورِ} [هود: 5]:

عن محمَّدِ بن عبَّادِ بن جعفرٍ: أنَّه سَمِعَ ابنَ عباسٍ يَقرأُ: {أَلَآ إِنَّهُمْ يَثْنُونَ صُدُورَهُمْ} [هود: 5]، قال: سألتُه عنها، فقال: «أناسٌ كانوا يَستحيُون أن يَتخلَّوْا فيُفضُوا إلى السماءِ، وأن يُجامِعوا نساءَهم فيُفضُوا إلى السماءِ؛ فنزَلَ ذلك فيهم». أخرجه البخاري (4681).

* قوله تعالى: {وَأَقِمِ اْلصَّلَوٰةَ طَرَفَيِ اْلنَّهَارِ وَزُلَفٗا مِّنَ اْلَّيْلِۚ إِنَّ اْلْحَسَنَٰتِ يُذْهِبْنَ اْلسَّيِّـَٔاتِۚ ذَٰلِكَ ذِكْرَىٰ لِلذَّٰكِرِينَ} [هود: 114]:

عن ابنِ مسعودٍ رضي الله عنه: «أنَّ رجُلًا أصابَ مِن امرأةٍ قُبْلةً، فأتى النبيَّ صلى الله عليه وسلم، فأخبَرَه؛ فأنزَلَ اللهُ عز وجل: {أَقِمِ اْلصَّلَوٰةَ طَرَفَيِ اْلنَّهَارِ وَزُلَفٗا مِّنَ اْلَّيْلِۚ إِنَّ اْلْحَسَنَٰتِ يُذْهِبْنَ اْلسَّيِّـَٔاتِۚ} [هود: ١١٤]، فقال الرَّجُلُ: يا رسولَ اللهِ، أَلِي هذا؟ قال: «لجميعِ أُمَّتي كلِّهم»». أخرجه البخاري (526).

وفي روايةٍ عنه رضي الله عنه، قال: «جاء رجُلٌ إلى النبيِّ صلى الله عليه وسلم، فقال: يا رسولَ اللهِ، إنِّي أصَبْتُ مِن امرأةٍ كلَّ شيءٍ، إلا أنِّي لم أُجامِعْها، قال: فأنزَلَ اللهُ: {أَقِمِ اْلصَّلَوٰةَ طَرَفَيِ اْلنَّهَارِ وَزُلَفٗا مِّنَ اْلَّيْلِۚ إِنَّ اْلْحَسَنَٰتِ يُذْهِبْنَ اْلسَّيِّـَٔاتِۚ} [هود: ١١٤]». أخرجه أحمد (3854).

سُمِّيتْ سورةُ (هُودٍ) بهذا الاسمِ؛ لتكرُّرِ اسمه فيها خمسَ مرَّات، ولأنَّ ما حُكِي عنه فيها أطوَلُ مما حُكِي عنه في غيرها.

جاء في فضلِ سورة (هُودٍ): أنها السُّورة التي شيَّبتْ رسولَ الله صلى الله عليه وسلم:

عن أبي بكرٍ الصِّدِّيقِ رضي الله عنه، قال: يا رسولَ اللهِ، قد شِبْتَ! قال: «شيَّبتْني هُودٌ وأخواتُها». أخرجه البزار (٩٢).

جاءت موضوعاتُ سورةِ (هُودٍ) على النحو الآتي:

1. حقائق العقيدة (١-٢٤).

2. أصول الدعوة الإسلامية (١-٤).

3. مشهدٌ فريد ترجُفُ له القلوب (٥-٦).

4. اضطراب نفوس الكافرين (٧-١١).

5. تسلية الرسول (١٢-١٧).

6. حال الفريقين: الكافرين، والمؤمنين (١٨-٢٤).

7. حركة حقائقِ العقيدة (٢٥-٩٩).

8. قصة نوح مع قومه (٢٥-٤٩).

9. قصة هود مع قومه (٥٠-٦٠).

10. قصة صالح مع قومه (٦١-٦٨).

11. تبشير الملائكةِ لإبراهيم عليه السلام (٦٩-٧٦).

12. إجرام قوم لوط (٧٧-٨٣).

13. قصة شُعَيب مع قومه (٨٤-٩٥).

14. مُوجَز قصة موسى مع فِرْعون (٩٦-٩٩).

15. التعقيب على حقيقة العقيدة (١٠٠-١٢٣).

16. العِبْرة فيما قص الله علينا دنيا وآخرة (١٠٠-١٠٩).

17. الاختلاف في الحق، والركون إلى الظَّلمة (١١٠- ١١٥).

18. الفتنة تعُمُّ بسكوت الصالحين (١١٦-١١٩).

19. في القصص تثبيتٌ وتسلية للقلب (١٢٠-١٢٣).

ينظر: "التفسير الموضوعي للقرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (3 /445).

أشارت بدايةُ السُّورة بافتتاحها بـ(الأحرُفِ المقطَّعة: {الٓر}) إلى أن مقصدَها تعظيمُ هذا الكتاب، ووصفُ الكتاب بالإحكامِ والتفصيل، في حالتَيِ البِشارة والنِّذارة، المقتضي لوضعِ كلِّ شيء في أتَمِّ مَحالِّه، وإنفاذه - مهما أريدَ -، المُوجِب للقدرة على كل شيء، وفي ذلك تسليةُ النبي صلى الله عليه وسلم، وتثبيتٌ له على الحق: {فَاْصْبِرْۖ إِنَّ اْلْعَٰقِبَةَ لِلْمُتَّقِينَ} [هود: 49].

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /175).