ترجمة سورة طه

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة طه باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

ता, हा।
हमने नहीं अवतरित किया है आपपर क़ुर्आन इस लिए कि आप दुःखी हों[1]।
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1. अर्थात विरोधियों के ईमान न लाने पर।
परन्तु ये उसकी शिक्षा के लिए है, जो डरता[1] हो।
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1. अर्थात ईमान न लाने तथा कुकर्मों के दुष्परिणाम से।
उतारा जाना उस ओर से है, जिसने उत्पत्ति की है धरती तथा उच्च आकाशों की।
जो अत्यंत कृपाशील, अर्श पर स्थिर है।
उसी का[1] है, जो आकाशों, जो धरती में, जो दोनों के बीच तथा जो भूमि के नीचे है।
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1. अर्थात उसी के स्वामित्व में तथा उसी के अधीन है।
यदि तुम उच्च स्वर में बात करो, तो वास्तव में, वह जानता है भेद को तथा अत्यधिक छुपे भेद को।
वही अल्लाह है, नहीं है कोई वंदनीय (पूज्य) परन्तु वही। उसी के उत्तम नाम हैं।
और (हे नबी!) क्या आपको मूसा की बात पहुँची?
जब उसने देखी एक अग्नि, फिर कहा अपने परिवार सेः रुको, मैंने एक अग्नि देखी है, सम्भव है कि मैं तुम्हारे पास उसका कोई अंगार लाऊँ अथवा पा जाऊँ आग पर मार्ग की कोई सूचना[1]।
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1. यह उस समय की बात है, जब मूसा अपने परिवार के साथ मद्यन नगर से मिस्र आ रहे थे और मार्ग भूल गये थे।
फिर जब वहाँ पहुँचा, तो पुकारा गयाः हे मूसा!
वास्तव में, मैं ही तेरा पालनहार हूँ, तू उतार दे अपने दोनों जूते, क्योंकि तू पवित्र वादी (उपत्यका) "तुवा" में है।
और मैंने तुझे चुन[1] लिया है। अतः ध्यान से सुन, जो वह़्यी की जा रही है।
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1. अर्थात नबी बना दिया।
निःसंदेह मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं, तो मेरी ही इबादत (वंदना) कर तथा मेरे स्मरण (याद) के लिए नमाज़ की स्थापना[1] कर।
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1. इबादत में नमाज़ सम्मिलित है, फिर भी उस का महत्व दिखाने के लिये उस का विशेष आदेश दिया गया है।
निश्चय प्रलय आने वाली है, मैं उसे गुप्त रखना चाहता हूँ, ताकि प्रतिकार (बदला) दिया जाये, प्रत्येक प्राणी को उसके प्रयास के अनुसार।
अतः, तुम्हें न रोक दे, उस ( के विश्वास) से, जो उसपर ईमान (विश्वास) नहीं रखता और अनुसरण किया अपनी इच्छा का, अन्यथा तेरा नाश हो जायेगा।
और हे मूसा! ये तेरे दाहिने हाथ में क्या है?
उत्तर दियाः ये मेरी लाठी है; मैं इसपर सहारा लेता हूँ, इससे अपनी बकरियों के लिए पत्ते झाड़ता हूँ तथा मेरी इसमें दूसरी आवश्यक्तायें (भी) हैं।
कहाः इसे फेंकिए, हे मूसा!
तो उसने उसे फेंक दिया और सहसा वह एक सर्प थी, जो दोड़ रहा था।
कहाः पकड़ ले इसे, और डर नहीं, हम इसे फेर देंगे, इसकी प्रथम स्थिति की ओर।
और अपना हाथ लगा दे अपनी कांख (बग़ल) की ओर, वह निकलेगा चमकता हुआ बिना किसी रोग के, ये दूसरा चमत्कार है।
ताकि हम तुझे दिखायें, अपनी बड़ी निशानियाँ।
तुम फ़िरऔन के पास जाओ, वह विद्रोही हो गया है।
मूसा ने प्रार्थना कीः हे मेरे पालनहार! खोल दे, मेरे लिए मेरा सीना।
तथा सरल कर दे, मेरे लिए मेरा काम।
और खोल दे, मेरी ज़ुबान की गाँठ।
ताकि लोग मेरी बात समझें।
तथा बना दे, मेरा एक सहायक मेरे परिवार में से।
मेरे भीई हारून को।
उसके द्वारा दृढ़ कर दे मेरी शक्ति को।
और साझी बना दे, उसे मेरे काम में।
ताकि हम दोनों तेरी पवित्रता का गान अधिक करें।
तथा तुझे अधिक स्मरण (याद) करें।
निःसंदेह, तू हमें भली प्रकार देखने-भालने वाला है।
अल्लाह ने कहाः हे मूसा! तेरी सब माँग पूरी कर दी गयी।
और हम उपकार कर चुके हैं तुमपर एक बार और[1] (भी)।
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1. यह उस समय की बात है जब मूसा का जन्म हुआ। उस समय फ़िरऔन का आदेश था कि बनी इस्राईल में जो भी शिशु जन्म ले, उसे वध कर दिया जाये।
जब हमने उतार दिया, तेरी माँ के दिल में, जिसकी वह़्यी (प्रकाश्ना) की जा रही है।
कि इसे रख दे ताबूत (सन्दूक़) में, फिर उसे नदी में डाल दे, फिर नदी उसे किनारे लगा देगी, जिसे उठा लेगा मेरा शत्रु तथा उसका शत्रु[1] और मैंने डाल दिया तुझपर अपनी ओर से विशेष[2] प्रेम, ताकि तेरा पालन-पोषण मेरी रक्षा में हो।
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1. इस से तात्पर्य मिस्र का राजा फ़िरऔन है। 2. अर्थात तुम्हें सब का प्रिय अथवा फ़िरऔन का भी प्रिय बना दिया।
जब चल रही थी तेरी बहन[1], फिर कह रही थीः क्या मैं तुम्हें उसे बता दूँ, जो इसका लालन-पालन करे? फिर हमने पुनः तुम्हें पहुँचा दिया तुम्हारी माँ के पास, ताकि उसकी आँख ठण्डी हो और उदासीन न हो तथा हे मूसा! तूने मार दिया एक व्यक्ति को, तो हमने तुझे मुक्त कर दिया चिन्ता[2] से और हमने तेरी भली-भाँति परीक्षा ली। फिर तू रह गया वर्षों मद्यन के लोगों में, फिर तू (मद्यन से) अपने निश्चित समय पर आ गया।
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1. अर्थात संदूक़ के पीछे नदी के किनारे। 2. अर्थात एक फ़िरऔनी को मारा और वह मर गया, तो तुम मद्यन चले गये, इस का वर्णन सूरह क़स़स़ में आयेगा।
और मैंने बना लिया है तुझे विश्ष अपने लिए।
जा तू और तेरा भाई, मेरी निशानियाँ लेकर और दोनों आलस्य न करना मेरे स्मरण (याद) में।
तुम दोनों फ़िरऔन के पास जाओ, वास्तव में, वह उल्लंघन कर गया है।
फिर उससे कोमल बोल बोलो, कदाचित् वह शिक्षा ग्रहण करे अथवा डरे।
दोनों ने कहाः हे हमारे पालनहार! हमें भय है कि वह हमपर अत्याचार अथवा अतिक्रमण कर दे।
उस (अल्लाह) ने कहाः तुम भय न करो, मैं तुम दोनों के साथ हूँ, सुनता तथा देखता हूँ।
तुम उसके पास जाओ और कहो कि हम तेरे पालनहार के रसूल हैं। अतः, हमारे साथ बनी इस्राईल को जाने दे और उन्हें यातना न दे, हम तेरे पास तेरे पालनहार की निशानी लाये हैं और शान्ति उसके लिए है, जो मार्गदर्शन का अनुसरण करे।
वास्तव में, हमारी ओर वह़्यी (प्रकाशना) की गई है कि यातना उसी के लिए है, जो झुठलाये और मुख फेरे।
उसने कहाः हे मूसा! कौन है तुम दोनों का पालनहार?
मूसा ने कहाः हमारा पालनहार वह है, जिसने प्रत्येक वस्तु को उसका विशेष रूप प्रदान किया, फिर मार्गदर्शन[1] दिया।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह ने प्रत्येक जीव जन्तु के योग्य उस का रूप बनाया है। और उस के जीवन की आवश्यक्ता के अनुसार उसे खाने पीने तथा निवास की विधि समझा दी है।
उसने कहाः फिर उनकी दशा क्या होनी है, जो पूर्व के लोग हैं?
मूसा ने कहाः उसका ज्ञान मेरे पालनहार के पास एक लेख्य में सुरक्षित है, मेरा पालनहार न तो चूकता है और न[1] भूलता है।
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1. अर्थात उन्हों ने जैसा किया होगा, उन के आगे उन का परिणाम आयेगा।
जिसने तुम्हारे लिए धरती को बिस्तर बनाया और तुम्हारे चलने के लिए उसमें मार्ग बनाये और तुम्हारे लिए आकाश से जल बरसाया, फिर उसके द्वारा विभिन्न प्रकार की उपज निकाली।
तुम स्वयं खाओ तथा अपने पशुओं को चराओ, वस्तुतः, इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं बुध्दिमानों के लिए।
इसी (धरती) से हमने तुम्हारी उत्पत्ति की है, इसीमें तुम्हें वापस ले जायेंगे और इसीसे तुम सबको पुनः[1] निकालेंगे।
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1. अर्थात प्रलय के दिन पुनः जीवित निकालेंगे।
और हमने उसे दिखा दी अपनी सभी निशानियाँ, फिर भी उसने झुठला दिया और नहीं माना।
उसने कहाः क्या तू हमारे पास इसलिए आया है कि हमें हमारी धरती (देश) से अपने जादू (के बल) से निकाल दे, हे मूसा?
फिर तो हम तेरे पास अवश्य इसीके समान जादू लायेंगे, अतः हमारे और अपने बीच एक समय निर्धारित कर ले, जिसके विरुध्द न हम करेंगे और न तुम, एक खुले मैदान में।
मूसा ने कहाः तुम्हारा निर्धारित समय शोभा (उत्सव) का दिन[1] है तथा ये कि लोग दिन चढ़े एकत्र हो जायेँ।
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1. इस से अभिप्राय उन का कोई वार्षिक उत्सव (मेले) का दिन था।
फिर फ़िरऔन लौट गया,[1] अपने हथकण्डे एकत्र किये और फिर आया।
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1. मूसा के सत्य को न मान कर, मुक़ाबले की तैयारी में व्यस्त हो गया।
मूसा ने उन (जादूगरों) से कहाः तुम्हारा विनाश हो! अल्लाह पर मिथ्या आरोप न लगाओ कि वह तुम्हारा किसी यातना द्वारा सर्वनाश कर दे और वह निष्फल ही रहा है, जिसने मिथ्यारोपण किया।
फिर[1] उनके बीच विवाद हो गया और वे चुपके-चुपके गुप्त मंत्रणा करने लगे।
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1. अर्थात मूसा (अलैहिस्सलाम) की बात सुन कर उन में मतभेद हो गया। कुछ ने कहा कि यह नबी की बात लग रही है। और कुछ ने कहा कि यह जादूगर है।
कुछ ने कहाः ये दोनों वास्तव में, जादूगर हैं, दोनों चाहते हैं कि तुम्हें तुम्हारी धरती से अपने जादू द्वारा निकाल दें और तुम्हारी आदर्श प्रणाली का अन्त कर दें।
अतः अपने सब उपाय एकत्र कर लो, फिर एक पंक्ति में होकर आ जाओ और आज वही सफल हो गया, जो ऊपर रहा।
उन्होंने कहाः हे मूसा! तू फेंकता है या पहले हम फेंकें?
मूसा ने कहाः बल्कि तुम्हीं फेंको। फिर उनकी रस्सियाँ तथा लाठियाँ उसे लग रही थीं कि उनके जादू (के बल) से दौड़ रही हैं।
इससे मूसा अपने मन में डर गया[1]।
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1. मूसा अलैहिस्सलाम को यह भय हुआ कि लोग जादूगरों के धोखे में न आ जायें।
हमने कहाः डर मत, तूही ऊपर रहेगा।
और फेंक दे, जो तेरे दायें हाथ में है, वह निगल जायेगा, जो कुछ उन्होंने बनाया है। वह केवल जादू का स्वाँग बनाकर लाए हैं तथा जादूगर सफल नहीं होता, जहाँ से आये।
अन्ततः, जादूगर सज्दे में गिर गये, उन्होंने कहा कि हम ईमान लाये हारून तथा मूसा के पालनहार पर।
फ़िरऔन बालाः क्या तुमने उसका विश्वास कर लिया, इससे पूर्व कि मैं तुम्हें आज्ञा दूँ? वास्तव में, वह तुम्हारा बड़ा (गुरू) है, जिसने तुम्हें जादू सिखाया है। तो मैं अवश्य कटवा दूँगा तुम्हारे हाथों तथा पावों को, विपरीत दिशा[1] से और तुम्हें सूली दे दूँगा खजूर के तनों पर तथा तुम्हें अवश्य ज्ञान हो जायेगा कि हममें से किसकी यातना अधिक कड़ी तथा स्थायी है।
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1. अर्थात दाहिना हाथ और बायाँ पैर अथवा बायाँ हाथ और दाहिना पैर।
उन्होंने कहाः हम तुझे कभी उन खुली निशानियों (तर्कों) पर प्रधानता नहीं देंगे, जो हमारे पास आ गयी हैं और न उस (अल्लाह) पर, जिसने हमें पैदा किया है, तू जो करना चाहे, कर ले, तू बस इसी सांसारिक जीवन में आदेश दे सकता है।
हम तो अपने पालनहार पर ईमान लाये हैं, ताकि वह क्षमा कर दे, हमारे लिए, हमारे पापों को तथा जिस जादू पर तूने हमें बाध्य किया और अल्लाह सर्वोत्तम तथा अनन्त[1] है।
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1. और तेरा राज्य तथा जीवन तो साम्यिक है।
वास्तव में, जो जायेगा अपने पालनहार के पास पापी बनकर, तो उसी के लिए नरक है, जिसमें न वह मरेगा और न जीवित रहेगा[1]।
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1. अर्थात उसे जीवन का कोई सुख नहीं मिलेगा।
तथा जो उसके पास ईमान लेकर आयेगा, तो उन्हीं के लिए उच्च श्रेणियाँ होंगी।
स्थायी स्वर्ग, जिनमें नहरें बहती होंगी, जिनमें सदा वासी होंगे और यही उसका प्रतिफल है, जो पवित्र हो गया।
और हमने मूसी की ओर वह़्यी की कि रातों-रात चल पड़ मेरे भक्तों को लेकर और उनके लिए सागर में सूखा मार्ग बना ले[1], तुझे पा लिए जाने का कोई भय नहीं होगा और न डरेगा।
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1. इस का सविस्तार वर्णन सूरह शुअराः 26 में आ रहा है।
फिर उनका पीछा किया फ़िरऔन ने अपनी सेना के साथ, तो उनपर सागर छा गया, जैसा कुछ छा गया।
और कुपथ कर दिया फ़िरऔन ने अपनी जाति को और सुपथ नहीं दिखाया।
हे इस्राईल के पुत्रो! हमने तुम्हें मुक्त कर दिया तुम्हारे शत्रु से और वचन दिया तुम्हें तूर पर्वत से दाहिनी[1] ओर का तथा तुमपर उतारा "मन्न" तथा "सल्वा"[2]।
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1. अर्ताथ तुम पर तौरात उतारने के लिये। 2. मन्न तथा सल्वा के भाष्य के लिये देखियेः बक़रा, आयतः57
खाओ उन स्वच्छ चीज़ों में से, जो जीविका हमने तुम्हें दी है तथा उल्लंघन न करो उसमें, अन्यथा उतर जायेगा तुमपर मेरा प्रकोप तथा जिसपर उतर जायेगा मेरा प्रकोप, तो निःसंदेह वह गिर गया।
और मैं निश्चय बड़ा क्षमाशील हूँ उसके लिए, जिसने क्षमा याचना की तथा ईमान लाया और सदाचार किया फिर सुपथ पर रहा।
और हे मूसा! क्या चीज़ तुम्हें ले आई अपनी जाति से पहले[1]?
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1. अर्थात तुम पर्वत की दाहिनी ओर अपनी जाति से पहले क्यों आ गये और उन्हें पीछे क्यों छोड़ दिया?
उसने कहाः वे मेरे पीछे आ ही रहे हैं और मैं तेरी सेवा में शीघ्र आ गया, हे मेरे पालनहार! ताकि तू प्रसन्न हो जाये।
अल्लाह ने कहाः हमने परीक्षा में डाल दिया तेरी जाति को तेरे (आने के) पश्चात् और कुपथ कर दिया है उन्हें सामरी[1] ने।
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1. सामरी बनी इस्राईल के एक व्यक्ति का नाम है।
तो मूसा वापस आया अपनी जाति की ओर अति क्रुध्द-शोकातुर होकर। उसने कहाः हे मेरी जाति के लोगो! क्या तुम्हें वचन नहीं दिया था तुम्हारे पालनहार ने एक अच्छा वचन[1]? तो क्या तुम्हें बहुत दिन लग[2] गये? अथवा तुमने चाहा कि उतर जाये कोई प्रकोप तुम्हारे पालनहार की ओर से? अतः तुमने मेरे वचन[3] को भंग कर दिया।
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1. अर्थात धर्म-पुस्तक तौरात देने का वचन। 2. अर्थात वचन की अवधि दीर्घ प्रतीत होने लगी। 3. अर्थात मेरे वापिस आने तक, अल्लाह की इबादत पर स्थिर रहने की जो प्रतिज्ञा की थी।
उन्होंने उत्तर दिया हमने नहीं भंग किया है तेरा वचन अपनी इच्छा से, परन्तु हमपर लाद दिया गया था जाति[1] के आभूषणों का बोझ, तो हमने उसे फेंक[2] दिया और ऐसे ही फेंक[3] दिया सामरी ने।
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1. जाति से अभिप्रेत फ़िरऔन की जाति है, जिन के आभूषण उन्हों ने उधार ले रखे थे। अर्थात अपने पास रखना नहीं चाहा, और एक अग्नि कुण्ड में फेंक दिया। 3. अर्थात जो कुछ उस के पास था।
फिर वह[1] निकाल लाया उनके लिए एक बछड़े की मूर्ति, जिसकी गाय जैसी ध्वनि (आवाज़) थी, तो सबने कहाः ये है तुम्हारा पूज्य तथा मूसा का पूज्य, (परन्तु) मूसा इसे भूल गया है।
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1. अर्थात सामरी ने आभूषणों को पिघला कर बछड़ा बना लिया।
तो क्या वे नहीं देखते कि वह न उनकी किसी बात की उत्तर देता है और न अधिकार रखता है, उनके लिए किसी हानि का, न किसी लाभ का[1]?
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1. फिर वह पूज्य कैसे हो सकता है?
और कह दिया था हारून ने इससे पहले ही कि हे मेरी जाति के लोगो! तुम्हारी परीक्षा की गयी है इसके द्वारा और वास्तव में तुम्हारा पालनहार अत्यंत कृपाशील है। अतः मेरा अनुसरण करो तथा मेरे आदेश का पालन करो।
उन्होंने कहाः हमसब उसी के पुजारी रहेंगे, जब तक (तूर से) हमारे पास मूसा वापस न आ जाये।
मूसा ने कहाः हे हारून! किस बात ने तुझे रोक दिया, जब तूने उन्हें देखा कि कुपथ हो गये?
कि मेरा अनुसरण न करे? क्या तूने अवज्ञा कर दी मेरे आदेश की?
उसने कहाः मेरे माँ जाये भाई! मेरी दाढ़ी न पकड़ और न मेरा सिर। वास्तव में, मुझे भय हुआ कि आप कहेंगे कि तूने विभेद उत्पन्न कर दिया बनी इस्राईल में और[1] प्रतीक्षा नहीं की मेरी बात (आदेश) की।
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1. देखियेः सूरह आराफ़, आयतः142
(मूसा ने) पूछाः तेरा समाचार क्या है, हे सामरी?
उसने कहाः मैंने वह चीज़ देखी, जिसे उन्होंने नहीं देखा, तो मैंने ले ली एक मुट्ठी रसूल के पद्चिन्ह से, फिर उसे फेंक दिया और इसी प्रकार सुझा दिया मुझे[1] मेरे मन ने।
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1. अधिकांश भाष्यकारों ने रसूल से अभिप्राय जिब्रील (फ़रिश्ता) लिया है। और अर्थ यह है कि सामरी ने यह बात बनाई कि जब उस ने फ़िरऔन और उस की सेना के डूबने के समय जिब्रील (अलैहिस्सलाम) को घोड़े पर सवार वहाँ देखा तो उन के घोड़े के पद्चिन्ह की मिट्टी रख ली। और जब सोने का बछड़ा बना कर उस धूल को उस पर फेंक दिया तो उस के प्रभाव से उस में से एक प्रकार की आवाज़ निकलने लगी जो उन के कुपथ होने का कारण बनी।
मूसा ने कहाः जा तेरे लिए जीवन में ये होना है कि तू कहता रहेः मुझे स्पर्श न करना[1]। तथा तेरे लिए एक और[2] वचन है, जिसके विरुध्द कदापि न होगा और अपने पूज्य को देख, जिसका पुजारी बना रहा, हम अवश्य उसे जला देंगे, फिर उसे उड़ा देंगे नदी में चूर-चूर करके।
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1. अर्थात मेरे समीप न आना और न मुझे छूना, मैं अछूत हूँ। 2. अर्थात प्रलोक की यातना का।
निःसंदेह तुम सभी का पूज्य, बस अल्लाह है, कोई पूज्य नहीं है, उसके सिवा। वह समोये हुए है, प्रत्येक वस्तु को (अपने) ज्ञान में।
इसी प्रकार, (हे नबी!) हम आपके समक्ष विगत समाचारों में से कुछ का वर्णन कर रहे हैं और हमने आपको प्रदान कर दी है अपने पास से एक शिक्षा (क़ुर्आन)।
जो उससे मुँह फेरेगा, तो वह निश्चय प्रलय के दिन लादे हुए होगा, भारी[1] बोझ।
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3. अर्थात पापों का बोझ।
वे सदा रहन वाले होंगे उसमें और प्रलय के दिन उनके लिए बुरा बोझ होगा।
जिस दिन फूंक दिया जायेगा सूर[1] (नरसिंघा) में, और हम एकत्र कर देंगे उस दिन पापियों को, इस दशा में कि उनकी आँखें (भय से) नीली होंगी।
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1. "सूर" का अर्थ नरसिंघा है, जिस में अल्लाह के आदेश से एक फ़रिश्ता इस्राफ़ील अलैहिस्सलाम फूँकेगा, और प्रलय आ जायेगी। (मुस्नद अह़्मदः 2191) और पुनः फूँकेगा तो सब जीवित हो कर हश्र के मैदान में आ जायेंगे।
वे आपस में चुपके-चुपके कहेंगे कि तुम (संसार में) बस दस दिन रहे हो।
हम भली-भाँति जानते हैं, जो कुछ वे कहेंगे, जिस समय कहेगा उनमें से सबसे चतुर कि तुम केवल एक ही दिन रहे[1] हो।
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1. अर्थात उन्हें संसारिक जीवन क्षण दो क्षण प्रतीत होगा।
वे आपसे प्रश्न कर रहे हैं पर्वतों के संबन्ध में? आप कह दें कि उड़ा देगा उन्हें मेरा पालनहार चूर-चूर करके।
फिर धरती को छोड़ देगा, समतल मैदान बनाकर।
तुम नहीं देखोगे उसमें कोई टेढ़ापन और न नीच-ऊँच।
उस दिन लोग पीछे चलेंगे पुकारने वाले के, कोई उससे कतरायेगा नहीं और धीमी हो जायेँगी आवाजें अत्यंत कृपाशील के लिए, फिर तुम नहीं सुनोगे कानाफूँसी की आवाज़ के सिवा।
उस दिन लाभ नहीं देगी सिफ़ारिश, परन्तु जिसे आज्ञा दे अत्यंत कृपाशील और प्रसन्न हो उसके[1] लिए बात करने से।
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1. अर्थात जिस के लिये सिफ़ारिश कर रहा है।
वह जानता है, जो कुछ उनके आगे तथा पीछे है और वे उसका पूरा ज्ञान नहीं रखते।
तथा सभी के सिर झुक जायेंगे, जीवित नित्य स्थायी (अल्लाह) के लिए और निश्चय वह निष्फल हो गया, जिसने अत्याचार लाद[1] लिया।
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1. संसार में किसी पर अत्याचार, तथा अल्लाह के साथ शिर्क किया हो।
तथा जो सदाचार करेगा और वह ईमान वाला भी हो, तो वह नहीं डरेगा अत्याचार से, न अधिकार हनन से।
और इसी प्रकार, हमने इस अरबी क़ुर्आन को अवतरित किया है तथा विभिन्न प्रकार से वर्णन कर दिया है उसमें चेतावनी का, ताकि लोग आज्ञाकारी हो जायेँ अथवा वह उनके लिए उत्पन्न कर दे एक शिक्षा।
अतः, उच्च है अल्लाह वास्तविक स्वामी और (हे नबी!) आप शीघ्रता[1] न करें क़ुर्आन के साथ इससे पूर्व कि पूरी कर दी जाये आपकी ओर इसकी वह़्यी (प्रकाशना) तथा प्रार्थना करें कि हे मेरे पालनहार! मुझे अधिक ज्ञान प्रदान कर।
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1. जब जिब्रील अलैहिस्सलाम नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास वह़्यी (प्रकाशना) लाते, तो आप इस भय से कि कुछ भूल न जायें, उन के साथ-साथ ही पढ़ने लगते। अल्लाह ने आप को ऐसा करने से रोक दिया। इस का वर्णन सूरह क़ियामा, आयतः75 में आ रहा है।
और हमने आदेश दिया आदम को इससे पहले, तो वह भूल गया और हमने नहीं पाया उसमें कोई दृढ़ संकल्प[1]।
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1. अर्थात वह भूल से शैतान की बात में आ गया, उस ने जान बूझ कर हमारे आदेश का उल्लंघन नहीं किया।
तथा जब हमने कहा फ़रिश्तों से कि सज्दा करो आदम को, तो सबने सज्दा किया इब्लीस के सिवा, उसने इन्कार कर दिया।
तब हमने कहाः हे आदम! वास्तव में, ये शत्रु है तेरा और तेरी पत्नी का, तो ऐसा न हो कि तुम दोनों को निकलवा दे स्वर्ग से और तू आपदा में पड़ जाये।
यहाँ तुझे ये सुविधा है कि न भूखा रहता है और न नग्न रहता है।
और न प्यासा होता है और न तुझे धूप सताती है।
तो फुसलाया उसे शैतान ने, कहाः हे आदम! क्या मैं तुझे न बताऊँ, शाश्वत जीवन का वृक्ष तथा ऐसा राज्य, जो पतनशील न हो?
तो दोनों ने उस (वृक्ष) से खा लिया, फिर उनके गुप्तांग उन दोनों के लिए खुल गये और दोनों चिपकाने लगे अपने ऊपर स्वर्ग के पत्ते और आदम अवज्ञा कर गया अपने पालनहार की और कुपथ हो गया।
फिर उस (अल्लाह) ने उसे चुन लिया और उसे क्षमा कर दिया और सुपथ दिखा दिया।
कहाः तुम दोनों (आदम तथा शैतान) यहाँ से उतर जाओ, तुम एक-दूसरे के शत्रु हो। अब यदि आये तुम्हारे पास मेरी ओर से मार्गदर्शन, तो जो अनुपालन करेगा मेरे मार्गदर्शन का, वह कुपथ नहीं होगा और न दुर्भाग्य ग्रस्त होगा।
तथा जो मुख फेर लेगा मेरे स्मरण से, तो उसी का सांसारिक जीवन संकीर्ण (तंग)[1] होगा तथा हम उसे उठायेंगे प्रलय के दिन अन्धा करके।
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1. अर्थात वह संसार में धनी हो तब भी उसे संतोष नहीं होगा। और सदा चिन्तित और व्याकूल रहेगा।
वह कहेगाः मेरे पालनहार! मुझे अन्धा क्यों उठाया, मैं तो (संसार में) आँखों वाला था?
अल्लाह कहेगाः इसी प्रकार, तेरे पास हमारी आयतें आयीं, तो तूने उन्हें भुला दिया। अतः इसी प्रकार, आज तू भुला दिया जायेगा।
तथा इसी प्रकार, हम बदला देते हैं उसे, जो सीमा का उल्लंघन करे और ईमान न लाये अपने पालनहार की आयतों पर और निश्चय आख़िरत की यातना अति कड़ी तथा अधिक स्थायी है।
तो क्या उन्हें मार्गदर्शन नहीं दिया इस बात ने कि हमने ध्वस्त कर दिया, इनसे पहले बहुत-सी जातियों को, जो चल-फिर रही थीं अपनी बस्तियों में, निःसंदेह इसमें निशानियाँ हैं बुध्दिमानों के लिए।
और यदि, एक बात पहले से निश्चित न होती आपके पालनहार की ओर से, तो यातना आ चुकी होती और एक निर्धारित समय न होता[1]।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह का यह निर्णय है कि वह किसी जाति का उस के विरुध्द तर्क तथा उस की निश्चित अवधि पूरी होने पर ही विनाश करता है, यदि यह बात न होती तो इन मक्का के मिश्रणवादियों पर यातना आ चुकी होती।
अतः आप सहन करें उनकी बातों को तथा अपने पालनहार की पवित्रता का वर्णन उसकी प्रशंसा के साथ करते रहें, सूर्योदय से पहले[1], सुर्यास्त से[2] पहले, रात्रि के क्षणों[3] में और दिन के किनारों[4] में, ताकि आप प्रसन्न हो जायेँ।
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1. अर्थात फ़ज्र की नमाज में। 2. अर्थात अस्र की नमाज़ में। 3. अर्थात इशा की नमाज़ में। 4. अर्थात ज़ुह्र तथा मग़्रिब की नमाज़ में।
और कदापि न देखिए आप, उस आनन्द की ओर, जो हमने उन[1] में से विभिन्न प्रकार के लोगों को दे रखा है, वे सांसारिक जीवन की शोभा है, ताकि हम उनकी परीक्षा लें और आपके पालनहार का प्रदान[2] ही उत्तम तथा अति स्थायी है।
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1. अर्थात मिश्रणवादियों में से। 2. अर्थात प्रलोक का प्रतिफल।
और आप अपने परिवार को नमाज़ का आदेश दें और स्वयं भी उसपर स्थित रहें, हम आपसे कोई जीविका नहीं माँगते, हम ही आपको जीविका प्रदान करते हैं और अच्छा परिणाम आज्ञाकारियों के लिए है।
तथा उन्होंने कहाः क्यों वह हमारे पास कोई निशानी अपने पालनहार की ओर से नहीं लाता? क्या उनके पास उसका प्रत्यक्ष प्रमाण (क़र्आन) नहीं आ गया, जिसमें अगली पुस्तकों की (शिक्षायें) हैं?
और यदि हम ध्वस्त कर देते उन्हें, किसी यातना से, इससे[1] पहले, तो वे अवश्य कहते कि हे हमारे पालनहार! तूने हमारी ओर कोई रसूल क्यों नहीं भेजा कि हम तेरी आयतों का अनुपालन करते, इससे पहले कि हम अपमानित और हीन होते।
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1. अर्थात नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और क़ुर्आन के आने से पहले।
आप कह दें कि प्रत्येक, (परिणाम की) प्रतीक्षा में है। अतः तुमभी प्रतीक्षा करो, शीघ्र ही तुम्हें ज्ञान हो जायेगा कि कौन सीधी राह वाले हैं, और किसने सीधी राह पायी है।
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سورةُ (طه) من السُّوَر المكية التي افتُتِحت بتعظيمِ القرآن الكريم، وبيَّنتْ أن هذا الكتابَ هو كتابُ سعادة وهناءٍ، ولم يُنزِلْهُ اللهُ عز وجل للتعاسةِ والشَّقاء، كما اشتملت على تعظيمِ الله عز وجل؛ ببيانِ عُلُوِّه فوق خَلْقه: عُلُوِّ قهرٍ وغَلَبة، وعُلُوِّ استواءٍ على عرشه كما يليقُ بجلاله، كما تطرَّقتِ الآياتُ لقصة موسى عليه السلام، وفيها تكليمُ اللهِ موسى عليه السلام، ورعايتُه له، وذكَرتْ مشاهدَ من يومِ القيامة وأهواله.

ترتيبها المصحفي
20
نوعها
مكية
ألفاظها
1351
ترتيب نزولها
45
العد المدني الأول
134
العد المدني الأخير
134
العد البصري
132
العد الكوفي
135
العد الشامي
140

* سورة (طه):

سُمِّيتْ سورة (طه) بهذا الاسمِ؛ لافتتاحِها به.

 * سورة (طه) من العِتَاق الأُوَل التي تعلَّمها الصحابة :

عن عبد الرَّحمنِ بن يَزيدَ بن جابرٍ، قال: «سَمِعْتُ ابنَ مسعودٍ يقولُ في (بَنِي إسرائِيلَ)، و(الكَهْفِ)، و(مَرْيَمَ)، و(طه)، و(الأنبياءِ) : إنَّهُنَّ مِن العِتَاقِ الأُوَلِ، وهُنَّ مِن تِلادي». أخرجه البخاري (4994).

قال أبو عُبَيدٍ: «قولُه: «مِن تِلَادي» : يعني: مِن قديمِ ما أخَذْتُ مِن القرآنِ؛ وذلك أنَّ هذه السُّوَرَ نزَلتْ بمكَّةَ». "فضائل القرآن" للقاسم بن سلام (ص247).

* فيها اسمُ اللهِ الأعظَمُ:

فعن أبي أُمَامةَ الباهليِّ رضي الله عنه، قال: «اسمُ اللهِ الأعظَمُ الذي إذا دُعِيَ به أجابَ في ثلاثِ سُوَرٍ مِن القُرْآنِ: في (البقرةِ)، و(آلِ عِمْرانَ)، و(طه)». أخرجه الطبراني (٧٩٢٥).

وقد التمَسها بعضُ العلماء في هذه السُّوَرِ؛ فوجَدها في:

- (البقرةِ): {اْللَّهُ ‌لَآ ‌إِلَٰهَ ‌إِلَّا ‌هُوَ اْلْحَيُّ اْلْقَيُّومُۚ} [البقرة: 255].

- وفاتحةِ (آلِ عِمْرانَ): {اْللَّهُ ‌لَآ ‌إِلَٰهَ ‌إِلَّا ‌هُوَ اْلْحَيُّ اْلْقَيُّومُ} [آل عمران: 2].

- وفي (طه): {وَعَنَتِ اْلْوُجُوهُ لِلْحَيِّ اْلْقَيُّومِۖ} [طه: 111].

ورَدتْ في سورة (طه) الموضوعات الآتية:

1. الافتتاحية (١-٨).

2. قصة موسى عليه السلام (٩-٩٨).

3. جزاء المُعرِضين عن القرآن (٩٩-١٠٤).

4. مَشاهِدُ يوم القيامة (١٠٥-١١٢).

5. مُحمَّد عليه السلام والقرآن (١١٣-١١٤).

6. آدَمُ وعداوة إبليس له ولذريته (١١٥-١٢٧).

7. إنذارٌ للمشركين، وإرشادٌ للنبي صلى الله عليه وسلم (١٢٨-١٣٥).

ينظر: "التفسير الموضوعي للقرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (4 /490).

احتوت السورةُ على مقاصدَ عظيمةٍ؛ منها:

* التحدِّي بالقرآن؛ بذِكْرِ (الحروف المُقطَّعة) في مُفتتَحِها.

* والتنويه بأنه تنزيلٌ من الله لِهَدْيِ القابلين للهداية؛ فأكثرها في هذا الشأن.

* والتنويه بعظمةِ الله تعالى، وإثبات رسالة مُحمَّد صلى الله عليه وسلم؛ بأنها تُماثِل رسالةَ أعظَمِ رسولٍ قبله شاع ذِكْرُه في الناس؛ فضرب المَثَل لنزول القرآن على مُحمَّد صلى الله عليه وسلم بكلام اللهِ موسى عليه السلام.

* وتذكير الناس بعداوة الشيطان للإنسان بما تضمَّنتْهُ قصةُ خَلْقِ آدمَ.

* ورُتِّب على ذلك سُوءُ الجزاء في الآخرة لمن جعلوا مَقادتَهم بيد الشيطان، وإنذارُهم بسُوءِ العقاب في الدنيا.

* وتسلية النبيِّ صلى الله عليه وسلم على ما يقولونه، وتثبيته على الدِّين.

ينظر: "التحرير والتنوير" لابن عاشور (16 /182).