ترجمة سورة نوح

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة نوح باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

निःसंदेह, हमने भेजा नूह़ को उसकी जाति की ओर कि सावधान कर अपनी जाति को, इससे पूर्व कि आये उनके पास, दूःखदायी यातना।
उसने कहाः हे मेरी जाति! वास्तव में, मैं खुला सावधान करने वाला हूँ, तुम्हें।
कि इबादत (वंदना) करो अल्लाह की तथा डरो उससे और बात मानो मेरी।
वह क्षमा कर देगा तुमहारे लिए तुम्हारे पापों को तथा अवसर देगा तुम्हें निर्धारित समय[1] तक। वास्तव में, जब अल्लाह का निर्धारित समय आ जायेगा, तो उसमें देर न होगी। काश तुम जानते!
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1. अर्थात तुम्हारी निश्चित आयु तक।
नूह़ ने कहाः मेरे पालनहार! मैंने बुलाया अपनी जाति को (तेरी ओर) रात और दिन।
तो मेरे बुलावे ने उनके भागने ही को अधिक किया।
और मैंने जब-जब उन्हें बुलाया, तो उन्होंने दे लीं अपनी उँगलियाँ अपने कानों में तथा ओढ़ लिए अपने कपड़े[1] तथा अड़े रह गये और बड़ा घमण्ड किया।
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1. ताकि मेरी बात न सुन सकें।
फिर मैंने उन्हें उच्च स्वर में बुलाया।
फिर मैंने उनसे खुलकर कहा और उनसे धीरे-धीरे (भी) कहा।
मैंने कहाः क्षमा माँगो अपने पालनहार से, वास्तव में वह बड़ा क्षमाशील है।
वह वर्षा करेगा आकाश से तुमपर धाराप्रवाह वर्षा।
तथा अधिक देगा तुम्हें पुत्र तथा धन और बना देगा तुम्हारे लिए बाग़ तथा नहरें।
क्या हो गया है तुम्हें कि नहीं डरते हो अल्लाह की महिमा से?
जबकि उसने पैदा किया है तुम्हें विभिन्न प्रकार[1] से।
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1. अर्थात वीर्य से, फिर रक्त से, फिर माँस और हड्डियों से।
क्या तुमने नहीं देखा कि कैसे पैदा किये हैं अल्लाह ने सात आकाश, ऊपर-तले?
और बनाया है चन्द्रमा को उनमें प्रकाश और बनाया है सूर्य को प्रदीप।
और अल्लाह ही ने उगाया है तुम्हें धरती[1] से अद्भुत रूप से।
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1. अर्थात तुम्हारे मूल आदम (अलैहिस्सलाम) को।
फिर वह वापस ले जायेगा तुम्हें उसमें और निकालेगा तुम्हें उससे।
और अल्लाह ने बनाया है तुम्हारे लिए धरती को बिस्तर।
ताकि तुम चलो उसकी खुली राहों में।
नूह ने निवेदन कियाः मेरे पालनहार! उन्होंने मेरी अवज्ञा की और अनुसरण किया उसका[1] जिसके धन और संतान ने उसकी क्षति ही को बढ़ाया।
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1. अर्थात अपने प्रमुखों का।
और उन्होंने बड़ी चाल चली।
और उन्होंने कहाः तुम कदापि न छोड़ना अपने पूज्यों को और कदापि न छोड़ना वद्द को, न सुवाअ को और न यग़ूस को और न यऊक़ को तथा न नस्र[1] को।
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1. यह सभी नूह़ (अलैहिस्सलाम) की जाति के बुतों के नाम हैं। यह पाँच सदाचारी व्यक्ति थे जिन के मरने के पश्चात् शैतान ने उन्हें समझाया कि इन की मूर्तियाँ बना लो। जिस से तुम्हें इबादत की प्रेरणा मिलेगी। फिर कुछ युग व्यतीत होने के पश्चात् समझाया कि यही पूज्य हैं। उन की पूजा अरब तक फैल गई।
और कुपथ (गुमराह) कर दिया है उन्होंने बहुतों को और अधिक कर दे तू भी अत्याचारियों के कुपथ[1] (कुमार्ग) को।
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1. नूह़ (अलैहिस्सलाम) ने 950 वर्ष तक उन्हें समझाया। (देखियेः सूरह अन्कबूत, आयतः14) और जब नहीं माने तो यह निवेदन किया।
वे अपने पापों के कारण डुबो दिये गये, फिर पहुँचा दिये गये नरक में और नहीं पाया उन्होंने अपने लिए अल्लाह के मुक़ाबले में कोई सहायक।
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1. इस का संकेत नूह़ के तूफ़ान की ओर है। (देखियेः सूरह हूद, आयतः40,44)
तथा कहा नूह़ नेः मेरे पालनहार! न छोड़ धरती पर काफ़िरों का कोई घराना।
क्योंकि यदि तू उन्हें छोड़ेगा, तो वे कुपथ करेंगे तेरे भक्तों को और नहीं जन्म देंगे, परन्तु दुष्कर्मी, बड़े काफ़िर को।
मेर पालनहार! क्षमा कर दे मुझे तथा मेरे माता-पिता को और उसे, जो प्रवेश करे मेरे घर में ईमान लाकर तथा ईमान वालों और ईमान वालियों को तथा काफ़िरों के विनाश ही को अधिक कर।
سورة نوح
معلومات السورة
الكتب
الفتاوى
الأقوال
التفسيرات

سورة (نوح) من السُّوَر المكية، وقد جاءت على ذكرِ قصة (نوح) مع قومه، وما عاناه في طريق الدعوة إلى الله من عنادهم وتكبُّرهم، مع بيانِ موقف الكافرين ومآلهم، وفي ذلك تسليةٌ للنبي صلى الله عليه وسلم، وتحذيرٌ للكافرين أن يُنزِلَ الله بهم ما أنزله بقوم (نوح) عليه السلام، كما ثبَّتتِ السورةُ كلَّ من هو على طريق الدعوة إلى الله؛ ليكون (نوح) أسوةً له بعد النبي صلى الله عليه وسلم.

ترتيبها المصحفي
71
نوعها
مكية
ألفاظها
227
ترتيب نزولها
71
العد المدني الأول
30
العد المدني الأخير
30
العد البصري
29
العد الكوفي
28
العد الشامي
29

* سورة (نوح):

سُمِّيت سورة (نوح) بهذا الاسم؛ لورود قصةِ نوح عليه السَّلام فيها.

1. نوح عليه السلام يدعو قومه (١-٢٠).

2. موقف الكافرين ومآلهم (٢١-٢٧).

3. الخاتمة (٢٨).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (8 /367).

يقول ابن عاشور رحمه الله: «أعظمُ مقاصدِ السورة ضربُ المثَلِ للمشركين بقوم نوح، وهم أول المشركين الذين سُلِّط عليهم عقابٌ في الدنيا، وهو أعظم عقابٍ؛ أعني: الطوفان.

وفي ذلك تمثيلٌ لحال النبي صلى الله عليه وسلم مع قومه بحالهم». "التحرير والتنوير" لابن عاشور (29 /186).