ترجمة سورة المزّمّل

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة المزّمّل باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

हे चादर ओढ़ने वाले!
खड़े रहो (नमाज़ में) रात्रि के समय, परन्तु कुछ[1] समय।
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1. ह़दीस में है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) रात में इतनी नमाज़ पढ़ते थे कि आप के पैर सूज जाते थे। आप से कहा गयाः ऐसा क्यों करते हैं? जब कि अल्लाह ने आप के पहले और पिछले गुनाह क्षमा कर दिये हैं? आप ने कहाः क्या मैं उस का कृतज्ञ भक्त न बनूँ? (बुख़ारीः 1130, मुस्लिमः 2819)
(अर्थात) आधी रात अथवा उससे कुछ कम।
या उससे कुछ अधिक और पढ़ो क़ुर्आन रुक-रुक कर।
हम उतारेंगे (हे नबी!) आप पर एक भारी बात (क़ुर्आन)।
वास्तव में, रात में जो इबादत होती है, वह अधिक प्रभावी है (मन को) एकाग्र करने में तथा अधिक उचित है बात प्रार्थना के लिए।
आपके लिए दिन में बहुत-से कार्य हैं।
और स्मरण (याद) करें अपने पालनहार के नाम की और सबसे अलग होकर उसी के हो जायें।
वह पूर्व तथा पश्चिम का पालनहार है। नहीं है कोई पूज्य (वंदनीय) उसके सिवा, अतः, उसी को अपना करता-धरता बना लें।
और सहन करें उन बातों को, जो वे बना रहे हैं[1] और अलग हो जायें उनसे सुशीलता के साथ।
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1. अर्थात आप के तथा सत्धर्म के विरुध्द।
तथा छोड़ दें मुझे तथा झुठलाने वाले सुखी (सम्पन्न) लोगों को और उन्हें अवसर दें कुछ देर।
वस्तुतः, हमारे पास (उनके लिए) बहुत-सी बेड़ियाँ तथा दहकती अग्नि है।
और भोजन, जो गले में फंस जाये और दुःखदायी यातना है।
जिस दिन काँपेगी धरती और पर्वत तथा हो जायेंगे पर्वत, भुरभुरे रेत के ढेर।
हमने भेजा है तुम्हारी ओर एक रसूल[1] तुमपर गवाह (साक्षी) बनाकर, जैसे फ़िरऔन की ओर एक रसूल (मूसा) को।
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1. अर्थात मूह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को। गवाह होने के अर्थ के लिये देखियेः सूरह बक़रह, आयतः 143, तथा सूरह ह़ज्ज, आयतः 78। इस में चेतावनी है कि यदि तुमने अवैज्ञा की तो तुम्हारी दशा भी फ़िरऔन जैसी होगी।
तो अवज्ञा की फ़िरऔन ने उस रसूल की और हमने पकड़ लिया उसे कड़ी पकड़।
तो कैसे बचोगे, यदि कुफ़्र किया तुमने उस दिन से, जो बना देगा बच्चों को (शोक के कारण) बूढ़ा?
आकाश फट जायेगा उस दिन। उसका वचन पूरा होकर रहेगा।
वास्तव में, ये (आयतें) एक शिक्षा हैं। तो जो चाहे, अपने पालनहार की ओर राह बना ले।[1]
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1. अर्थात इन आयतों का पालन कर के अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त कर ले।
निःसंदेह, आपका पालनहार जानता है कि आप खड़े होते हैं (तहुज्जुद की नमाज़ के लिए) दो तिहाई रात्रि के लग-भग तथा आधी रात और तिहाई रात तथा एक समूह उन लोगों का, जो आपके साथ हैं और अल्लाह ही ह़िसाब रखता है रात तथा दिन का। वह जानता है कि तुम पूरी रात नमाज़ के लिए खड़े नहीं हो सकोगे, अतः, उसने दया कर दी तुमपर। तो पढ़ो जितना सरल हो क़ुर्आन में से।[1] वह जानता है कि तुममें कुछ रोगी होंगे और कुछ दुसरे यात्रा करेंगे धरती में खोज करते हुए अल्लाह के अनुग्रह (जीविका) की और कुछ दूसरे युध्द करेंगे अल्लाह की राह में, अतः, पढ़ो जितना सरल हो उसमें से तथा स्थापना करो नमाज़ की, ज़कात देते रहो और ऋण दो अल्लाह को अच्छा ऋण[2] तथा जो भी आगे भेजोगे भलाई में से, तो उसे अल्लाह के पास पाओगे। वही उत्तम और उसका बहुत बड़ा प्रतिफल होगा और क्षमा माँगते रहो अल्लाह से, वास्तव में वह अति क्षमाशील, दयावान् है।
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1. क़ुर्आन पढ़ने से अभिप्राय तहज्जुद की नमाज़ है। और अर्थ यह है कि रात्रि में जितनी नमाज़ हो सके पढ़ लो। ह़दीस में है कि भक्त अल्लाह के सब से समीप अन्तिम रात्रि में होता है। तो तुम यदि हो सके कि उस समय अल्लाह को याद करो तो याद करो। (तिर्मिज़ीः 3579, यह ह़दीस सह़ीह़ है।) 2.अच्छे ऋण से अभिप्राय अपने उचित साधन से अर्जित किये हुये धन को अल्लाह की प्रसन्नता के लिये उस के मार्ग में ख़र्च करना है। इसी को अल्लाह अपने ऊपर ऋण क़रार देता है। जिस का बदला वह सात सौ गुना तक बल्कि उस से भी अधिक प्रदान करेगा। (देखियेः सूरह बक़रा, आयतः 261)
سورة المزمل
معلومات السورة
الكتب
الفتاوى
الأقوال
التفسيرات

سورة (المُزمِّل) سورة مكية، نزلت بعد سورة (القلم)، وقد ابتدأت بملاطفةِ النبي صلى الله عليه وسلم بوصفِه بـ(المُزمِّل)، وتثبيتِه وتهيئته لحَمْلِ هذه الدعوةِ العظيمة؛ بأن يَتجرَّدَ لله، ويُحسِنَ التوكل عليه، لا سيما في قيامه الليل، وكما أرشدت النبيَّ صلى الله عليه وسلم إلى بَدْءِ الدعوة، فإنها جاءت بتهديدِ الكفار ووعيدهم.

ترتيبها المصحفي
73
نوعها
مكية
ألفاظها
200
ترتيب نزولها
3
العد المدني الأول
20
العد المدني الأخير
18
العد البصري
19
العد الكوفي
20
العد الشامي
20

* كان بين نزولِ أول (المُزمِّلِ) وآخرِها سنةٌ:

عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ رضي الله عنهما، قال: «لمَّا نزَلتْ أوَّلُ المُزمِّلِ، كانوا يقومون نحوًا مِن قيامِهم في شهرِ رمضانَ، حتى نزَلَ آخِرُها، وكان بَيْنَ أوَّلِها وآخِرِها سنةٌ». أخرجه أبو داود (١٣٠٥).

* (المُزمِّل):

سُمِّيت سورة (المُزمِّل) بهذا الاسم؛ لافتتاحها بوصفِ النبي صلى الله عليه وسلم بـ(المُزمِّل)؛ قال تعالى: {يَٰٓأَيُّهَا اْلْمُزَّمِّلُ} [المزمل: 1].

1. إرشاد النبيِّ صلى الله عليه وسلم في بَدْءِ الدعوة (١-١٠).

2. تهديد الكفار وتوعُّدُهم (١١-١٩).

3. تذكيرٌ وإرشاد بأنواع الهداية (٢٠).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (8 /430).

مقصدُ السورة ملاطفةُ النبي صلى الله عليه وسلم بوصفه بـ(المُزمِّل)، وتثبيتُه على حَمْلِ رسالة هذا الدِّين؛ بالالتزام بمحاسنِ الأعمال، ولا سيما الصلاة في جوف الليل؛ ليَتجرَّدَ لله، ويُحسِنَ الالتجاء إليه؛ ليُكمِل تبيلغَ هذه الرسالة الثقيلة العظيمة، التي يَخِفُّ حَمْلُها بحُسْنِ التوكل على الله.

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (3 /131)، "التحرير والتنوير" لابن عاشور (29 /255).