ترجمة سورة الفرقان

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة الفرقان باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

शुभ है वह (अल्लाह), जिसने फ़ुर्क़ान[1] अवतरित किया अपने भक्त[2] पर, ताकि पूरे संसार-वासियों को सावधान करने वाला हो।
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1. फ़ुर्क़ान का अर्थ वह पुस्तक है जिस के द्वारा सच्च और झूठ में विवेक किया जाये और इस से अभिप्राय क़ुर्आन है। 2. भक्त से अभिप्राय मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं, जो पूरे मानव संसार के लिये नबी बना कर भेजे गये हैं। ह़दीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया कि मुझ से पहले नबी अपनी विशेष जाति के लिये भेजे जाते थे, और मुझे सर्व साधारण लोगों की ओर नबी बना कर भेजा गया है। (सह़ीह़ बुख़ारीः 335, सह़ीह़ मुस्लिमः521)
जिसके लिए आकाशों तथा धरती का राज्य है तथा उसने अपने लिए कोई संतान नहीं बनायी और न उसका कोई साझी है राज्य में तथा उसने प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति की, फिर उसे एक निर्धारित रूप दिया।
और उन्होंने उसके अतिरिक्त अनेक पूज्य बना लिए हैं, जो किसी चीज़ की उत्पत्ति नहीं कर सकते और वे स्वयं उत्पन्न किये जाते हैं और न वे अधिकार रखते हैं अपने लिए किसी हानि का, न अधिकार रखते हैं किसी लाभ का, न अधिकार रखते हैं मरण और न जीवन और न पुनः[1] जीवित करने का।
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1. अर्थात प्रलय के पश्चात्।
तथा काफ़िरों ने कहाः ये[1] तो बस एक मनघड़त बात है, जिसे इस[2] ने स्वयं घड़ लिया है और इसपर अन्य लोगों ने उसकी सहायता की है। तो वास्तव में, वो काफ़िर बड़ा अत्याचार और झूठ बना लाये हैं।
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1. अर्थात क़ुर्आन। 2. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने।
और कहा कि ये तो पूर्वजों की कल्पित कथायें हैं जिन्हें उसने स्वयं लिख लिया है और वह पढ़ी जाती हैं, उसके समक्ष प्रातः और संध्या।
आप कह दें कि इसे उसने अवतरित किया है, जो आकाशों तथा धरती का भेद जानता है। वास्तव में, वह[1] अति क्षमाशील, दयावान् है।
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1. इसी लिये क्षमा याचना का अवसर देता है।
तथा उन्होंने कहाः ये कैसा रसूल है, जो भोजन करता है तथा बाज़ारों में चलता है? क्यों नहीं उतार दिया गया उसकी ओर कोई फ़रिश्ता, तो वह उसके साथ सावधान करने वाला होता?
अथवा उसकी ओर कोई कोष उतार दिया जाता अथवा उसका कोई बाग़ होता, जिसमें से वह खाता? तथा अत्याचारियों ने कहाः तुमतो बस एक जादू किये हुए व्यक्ति का अनुसरण कर रहे हो।
देखो! आपके संबन्ध में ये कैसी कैसी बातें कर रहे हैं? अतः, वे कुपथ हो गये हैं, वे सुपथ पा ही नहीं सकते।
शुभकारी है वह (अल्लाह), जो यदि चाहे, तो बना दे आपके लिए इससे[1] उत्तम बहुत-से बाग़, जिनमें नहरें प्रवाहित हों और बना दे आपके लिए बहुत-से भवन।
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1. अर्थात उन के विचार से उत्तम।
वास्तविक बात ये है कि उन्होंने झुठला दिया है क़्यामत (प्रलय) को और हमने तैयार किया है, उसके लिए, जो प्रलय को झुठलाये, भड़कती हुई अग्नि।
जब वह ( नरक) उन्हें दूर स्थान से देखेगी, तो (प्रलय के झुठलाने वाले) सुन लेंगे उसके क्रोध तथा आवेग की ध्वनि को।
और जब वह फेंक दिये जायेंगे उसके किसी संकीर्ण स्थान में बंधे हुए, (तो) वहाँ विनाश को पुकारेंगे।
(उनसे कहा जायेगाः) आज एक विनाश को मत पुकारो, बहुत-से विनाशों को पुकारो[1]।
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1. अर्थात आज तुम्हारे लिये विनाश ही विनाश है।
(हे नबी!) आप उनसे कहिए कि क्या ये अच्छा है या स्थायी स्वर्ग, जिसका वचन आज्ञाकारियों को दिया गया है, जो उनका प्रतिफल तथा आवास है?
उन्हीं को उसमें जो इच्छा वे करेंगे, मिलेगा। वे सदावासी होंगे, आपके पालनहार पर (ये) वचन (पूरा करना) अनिवार्य है।
तथा जिस दिन वह एकत्र करेगा उन्हें और जिसकी वे इबादत (वंदना) करते थे अल्लाह के सिवाय, तो वह (अल्लाह) कहेगाः क्या तुमही ने मेरे इन भक्तों को कुपथ किया है अथवा वे स्वयं कुपथ हो गये?
वे कहेंगेः तू पवित्र है! हमारे लिए ये योग्य नहीं था कि तेरे सिवा कोई संरक्षक[1] बनायें, परन्तु तूने सुखी बना दिया उनको तथा उनके पूर्वजों को, यहाँ तक कि वे शिक्षा को भूल गये और वे थे ही विनाश के योग्य।
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1. अर्थात जब हम स्वयं दूसरे को अपना संरक्षक नहीं समझे, तो फिर अपने विषय में यह कैसे कह सकते हैं कि हमें अपना रक्षक बना लो?
उन्हों[1] ने तो तुम्हें झुठला दिया तुम्हारी बातों में, तो तुम न यातना को फेर सकोगे और न अपनी सहायता कर सकोगे और जो भी अत्याचार[2] करेगा तुममें से, हम उसे घोर यातना चखायेंगे।
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1. यह अल्लाह का कथन है, जिसे वह मिश्रणवादियों से कहेगा कि तुम्हारे पूज्यों ने स्वयं अपने पूज्य होने को नकार दिया। 2. अत्याचार से तात्पर्य शिर्क (मिश्रणवाद) है। (सूरह लुक़्मान, आयतः 13)
और नहीं भेजा हमने आपसे पूर्व किसी रसूल को, परन्तु वे भोजन करते और बाज़ारों में (भी) चलते[1] फिरते थे तथा हमने बना दिया तुममें से एक को दूसरे के लिए परीक्षा का साधन, तो क्या तुम धैर्य रखोगे? तथा आपका पालनहार सब कुछ देखने[2] वाला है।
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1. अर्थात वे मानव पुरुष थे। 2. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह चाहता तो पूरा संसार रसूलों का साथ देता। परन्तु वह लोगों की रसूलों द्वारा तथा रसूलों की लोगों द्वारा परीक्षा लेना चाहता है कि लोग ईमान लाते हैं या नहीं और रसूल धैर्य रखते हैं या नहीं।
तथा उन्होंने कहा जो हमसे मिलने की आशा नहीं रखतेः हमपर फ़रिश्ते क्यों नहीं उतारे गये या हम अपने पालनहार को देख लेते? उन्होंने अपने में बड़ा अभिमान कर लिया है तथा बड़ी अवज्ञा[1] की है।
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1. अर्थात ईमान लाने के लिये अपने समक्ष फ़रिश्तों के उतरने तथा अल्लाह को देखने की माँग कर के।
जिस दिन[1] वे फ़रिश्तों को देख लेंगे, उस दिन कोई शुभ सूचना नहीं होगी अपराधियों के लिए तथा वे कहेंगेः[2] वंचित, वंचित है!!
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1. अर्थात मरने के समय। ( देखियेः अन्फ़ालः13) अथवा प्रलय के दिन। 2. अर्थात वह कहेंगे कि हमारे लिये सफलता तथा स्वर्ग निषेधित है।
और उनके कर्मों[1] को हम लेकर धूल के समान उड़ा देंगे।
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1. अर्थात ईमान न होने के कारण उन के पुण्य के कार्य व्यर्थ कर दिये जायेंगे।
स्वर्ग के अधिकारी, उस दिन अच्छे स्थान तथा सुखद शयनकक्ष में होंगे।
जिस दिन, चिर जायेगा आकाश बादल के साथ[1] और फ़रिश्ते निरन्तर उतार दिये जायेंगे।
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1. अर्थात आकाश चीरता हुआ बादल छा जायेगा और अल्लाह अपने फ़रिश्तों के साथ लोगों का ह़िसाब करने के लिये ह़श्र के मैदान में आ जायेगा। (देखियेः सूरह बक़रह, आयतः210)
उस दिन, वास्तविक राज्य अति दयावान का होगा और काफ़िरों पर एक कड़ा दिन होगा।
उस दिन, अत्याचारी अपने दोनों हाथ चबायेगा, वह कहेगाः क्या ही अच्छा होता कि मैंने रसूल का साथ दिया होता।
हाय मेरा दुर्भाग्य! काश मैंने अमुक को मित्र न बनाया होता।
उसने मुझे कुपथ कर दिया शिक्षा (क़ुर्आन) से, इसके पश्चात् कि मेरे पास आयी और शैतान मनुष्य को (समय पर) धोखा देने वाला है।
तथा रसूल[1] कहेगाः हे मेरे पालनहार! मेरी जाति ने इस क़ुर्आन को त्याग[2] दिया।
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1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात इसे मिश्रण्वादियों ने न ही सुना और न माना।
और इसी प्रकार, हमने बना दिया प्रत्येक का शत्रु, कुछ अपराधियों को और आपका पालनहार मार्गदर्शन देने तथा सहायता करने को बहुत है।
तथा काफ़िरों ने कहाः क्यों नहीं उतार दिया गया आपपर क़ुर्आन पूरा एक ही बार[1]? इसी प्रकार, (इसलिए किया गया) ताकि हम आपके दिल को दृढ़ता प्रदान करें और हमने इसे क्रमशः प्रस्तुत किया है।
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1. अर्थात तौरात तथा इंजील के समान एक ही बार क्यों नहीं उतारा गया, आगामी आयतों में उस का कारण बताया जा रहा है कि क़ुर्आन 23 वर्ष में क्रमशः आवश्यक्तानुसार क्यों उतारा गया।
(और इसलिए भी कि) वे आपके पास कोई उदाहरण लायें, तो हम आपके पास सत्य ले आयें और उत्तम व्याख्या।
जो अपने मुखों के बल, नरक की ओर एकत्र किये जायेंगे, उन्हीं का सबसे बुरा स्थान है तथा सबसे अधिक कुपथ हैं।
तथा हमने ही मूसा को पुस्तक (तौरात) प्रदान की और उसके साथ उसके भाई हारून को सहायक बनाया।
फिर हमने कहाः तुम दोनों उस जाति की ओर जाओ, जिसने हमारी आयतों (निशानियों) को झुठला दिया। अन्ततः, हमने उन्हें ध्वस्त-निरस्त कर दिया।
और नूह़ की जाति ने जब रसूलों को झुठलाया, तो हमने उन्हें डुबो दिया और लोगों के लिए उन्हें शिक्षाप्रद प्रतीक बना दिया तथा हमने[1] तैयार की है, अत्याचारियों के लिए दुःखदायी यातना।
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1. अर्थात प्रलोक में नरक की यातना।
तथा आद, समूद, कुवें वालों तथा बहुत-से समूदायों को, इसके बीच।
और प्रत्येक को हमने उदाहरण दिये तथा प्रत्येक को पूर्णतः नाश कर[1] दिया।
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1. सत्य को स्वीकार न करने पर।
तथा ये[1] लोग उस बस्ती[2] पर आये गये हैं, जिनपर बुरी वर्षा की गयी, तो क्या उन्होंने उसे नहीं देखा? बल्कि ये लोग पुनः जीवित होने का विश्वास नहीं रखते।
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1. अर्थात मक्का के मुश्रिक। 2. अर्थात लूत जाति की बस्ती पर जिस का नाम "सदूम" था जिस पर पत्थरों की वर्षा हुई। फिर भी शिक्षा ग्रहण नहीं की।
और (हे नबी!) जब वे आपको देखते हैं, तो आपको उपहास बना लेते हैं (और कहते हैं) कि क्या यही है, जिसे अल्लाह ने रसूल बनाकर भेजा है?
इसने तो हमें अपने पूज्यों से कुपथ कर दिया होता, यदि हम उनपर अडिग न रहते और वे शीघ्र ही जान लेंगे, जिस समय यातना देखेंगे कि कौन अधिक कुपथ है?
क्या आपने उसे देखा, जिसने अपना पूज्य अपनी अभिलाषा को बना लिया है, तो क्या आप उसके संरक्षक[1] हो सकते हैं?
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1. अर्थात उसे सुपथ दर्शा सकते हैं?
क्या आप समझते हैं कि उनमें से अधिक्तर सुनते और समझते हैं? वे पशुओं के समान हैं, बल्कि उनसे भी अधिक कुपथ हैं।
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1. अर्थात उसे सुपथ दर्शा सकते हैं?
क्या आपने उसे नहीं देखा कि आपके पालनहार ने कैसे छाया को फैला दिया और यदि वह चाहता, तो उसे स्थिर[1] बना देता, फिर हमने सूर्य को उसपर प्रमाण[2] बना दिया।
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1. अर्थात सदा छाया ही रहती। 2. अर्थात छाया सूर्य के साथ फैलती तथा सिमटती है। और यह अल्लाह के सामर्थ्य तथा उस के एक मात्र पूज्य होने का प्रामाण है।
फिर हम उस (छाया को) समेट लेते हैं, अपनी ओर धीरे-धीरे।
और वही है, जिसने रात्रि को तुम्हारे लिए वस्त्र[1] बनाया तथा निद्रा को शान्ति तथा दिन को जागने का समय।
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1. अर्थात रात्रि का अंधेरा वस्त्र के समान सब को छुपा लेता है।
तथा वही है, जिसने वायुयों को भेजा शुभ सूचना बनाकर, अपनी दया (वर्षा) से पूर्व तथा हमने आकाश से स्वच्छ जल बरसाया।
ताकि जीवित कर दें उसके द्वारा निर्जीव नगर को तथा उसे पिलायें उनमें से, जिन्हें हमने पैदा किया है; बहुत-से पशुओं तथा मानव को।
तथा हमने विभिन्न प्रकार से इसे वर्णन कर दिया है, ताकि वे शिक्षा ग्रहण करें। परन्तु, अधिक्तर लोगों ने अस्वीकार करते हुए कुफ़्र ग्रहण कर लिया।
और यदि हम चाहते, तो भेज देते प्रत्येक बस्ती में एक सचेत करने[1] वाला।
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1. अर्थात रसूल। इस में यह संकेत है कि मुह़म्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पूरे मनुष्य विश्व के लिये एक अन्तिम रसूल हैं।
अतः, आप काफ़िरों की बात न मानें और इस (क़ुर्आन के) द्वारा उनसे भारी जिहाद (संघर्ष)[1] करें।
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1. अर्थात क़ुर्आन के प्रचार-प्रसार के लिये भरपूर प्रयास करें।
वही है, जिसने मिला दिया दो सागरों को, ये मीठा रुचिकार है और वो नमकीन खारा और उसने बना दिया दोनों के बीच एक पर्दा[1] एवं रोक।
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1. ताकि एक का पानी और स्वाद दूसरे में न मिले।
तथा वही है, जिसने पानी (वीर्य) से मनुष्य को उत्पन्न किया, फिर उसके वंश तथा ससुराल के संबंध बना दिये, आपका पालनहार अति सामर्थ्यवान है।
और वे लोग इबादत (वंदना) करते हैं अल्लाह के सिवा उनकी, जो न उन्हें लाभ पहुँचा सकते हैं और न हानि पहुँचा सकते हैं और काफ़िर अपने पालनहार का विरोधी बन गया है।
और हमने आपको बस शुभसूचना देने, सावधान करने वाला बनाकर भेजा है।
आप कह दें: मैं इस[1] पर तुमसे कोई बदला नहीं माँगता, परन्तु ये कि जो चाहे अपने पालनहार की ओर मार्ग बना ले।
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1. अर्थात क़ुर्आन पहुँचाने पर।
तथा आप भरोसा कीजिए उस नित्य जीवी पर, जो मरेगा नहीं और उसकी पवित्रता का गान कीजिए उसकी प्रशंसा के साथ और आपका पालनहार प्रयाप्त है, अपने भक्तों के पापों से सूचित होने को।
जिसने उत्पन्न कर दिया आकाशों तथा धरती को और जो कुछ उनके बीच है, छः दिनों में, फिर (सिंहासन) पर स्थिर हो गया, अति दयावान्, उसकी महिमा किसी ज्ञानी से पूछो।
और जब, उनसे कहा जाता है कि रह़मान (अति दयावान्) को सज्दा करो, तो कहते हैं कि रह़मान क्या है? क्या हम (उसे) सज्दा करने लगें, जिसे आप आदेश दें? और (दरअसल) इस (आमंत्रण) ने उनको और अधिक भड़का दिया।
शूभ है वह, जिसने आकाश में राशि चक्र बनाये तथा उसमें सूर्य और प्रकाशित चाँद बनाया।
वही है, जिसने रात्रि तथा दिन को, एक-दूसरे के पीछे आते-जाते बनाया, उसके लिए, जो शिक्षा ग्रहण करना चाहे या कृतज्ञ होना चाहे।
और अति दयावान् के भक्त वो हैं, जो धरती पर नम्रता से चलते[1] हैं और जब अशिक्षित (अक्खड़) लोग उनसे बात करते हैं, तो सलाम करके अलग[2] हो जाते हैं।
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1. अर्थात घमंड से अकड़ कर नहीं चलते। 2. अर्थात उन से उलझते नहीं।
और जो रात्रि व्यतीत करते हैं, अपने पालनहार के लिए सज्दा करते हुए तथा खड़े[1] होकर।
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1. अर्थात अल्लाह की इबादत करते हुये।
तथा जो प्रार्थना करते हैं कि हे हमारे पालनहार! फेर दे हमसे नरक की यातना को, वास्तव में, उसकी यातना चिपक जाने वाली है।
वास्तव में, वह बुरा आवास और स्थान है।
तथा जो व्यय (खर्च) करते समय अपव्यय नहीं करते और न कृपण (कंजूसी) करते हैं और वह इसके बीच, संतुलित रहता है।
और जो नहीं पुकारते हैं, अल्लाह के साथ किसी दूसरे[1] पूज्य को और न वध करते हैं, उस प्राण को, जिसे अल्लाह ने वर्जित किया है, परन्तु उचित कारण से और न व्यभिचार करते हैं और जो ऐसा करेगा, वह पाप का सामना करेगा।
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1. अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि मैं ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रश्न किया कि कौन सा पाप सब से बड़ा है? फ़रमायाः यह कि तुम अल्लाह का साझी बनाओ जब कि उस ने तुम्हें पैदा किया है। मैं ने कहाः फिर कौन सा? फरमायाः अपनी संतान को इस भय से मार दो कि वह तुम्हारे साथ खायेगी। मैं ने कहाः फिर कौन सा? फरमायाः अपने पड़ोसी की पत्नी से व्यभिचार करना। यह आयत इसी पर उतरी। (देखियेः सह़ीह़ बुख़ारीः4761)
दुगनी की जायेगी उसके लिए यातना, प्रलय के दिन तथा सदा उसमें अपमानित[1] होकर रहेगा।
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1. इब्ने अब्बास ने कहाः जब यह आयत उतरी तो मक्का वासियों ने कहाः हम ने अल्लाह का साझी बनाया है और अवैध जान भी मारी है तथा व्यभिचार भी किया है। तो अल्लाह ने यह आयत उतारी। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4765)
उसके सिवा, जिसने क्षमा याचना कर ली और ईमान लाया तथा कर्म किया अच्छा कर्म, तो वही हैं, बदल देगा अल्लाह, जिनके पापों को पुण्य से तथा अल्लाह अति क्षमी, दयावान् है।
और जिसने क्षमा याचना करली और सदाचार किये, तो वास्तव में, वही अल्लाह की ओर झुक जाता है।
तथा जो मिथ्या साक्ष्य नहीं देते और जब व्यर्थ के पास से गुज़रते हैं, तो सज्जन बनकर गुज़र जाते हैं।
और जब उन्हें शिक्षा दी जाये उनके पालनहार की आयतों द्वारा, उनपर नहीं गिरते अन्धे तथा बहरे हो[1] कर।
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1. अर्थात आयतों में सोच विचार करते हैं।
तथा जो प्रार्थना करते हैं कि हे हमारे पालनहार! हमें हमारी पत्नियों तथा संतानों से आँखों की ठंडक प्रदान कर और हमें आज्ञाकारियों का अग्रणी बना दे।
यही लोग, उच्च भवन अपने धैर्य के बदले में पायेंगे और स्वागत किये जायेंगे, उसमें आशीर्वाद तथा सलाम के साथ।
वे उसमें सदावासी होंगे। वह अच्छा निवास तथा स्थान है!
(हे नबी!) आप कह दें कि यदि तुम्हारा, उसे पुकारना न[1] हो, तो मेरा पालनहार तुम्हारी क्या परवाह करेगा? तुमने तो झुठला दिया है, तो शीघ्र ही (उसका दण्ड) चिपक जाने वाला होगा।
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1. अर्थात उस से प्रार्थना तथा उस की इबादत न करो।
سورة الفرقان
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سورةُ (الفُرْقان) من السُّوَر المكِّية التي تحدَّثتْ عن معجزةِ النبي صلى الله عليه وسلم، وما أيَّده اللهُ به؛ وهو هذا القرآنُ الكريم، ودلَّلت السورة على أن هذا الكتابَ جاء فُرْقانًا بين الحق والباطل؛ فلم يترُكْ خيرًا إلا دلَّ عليه، ولم يترُكْ شرًّا إلا حذَّر منه، وقد جاءت هذه السورة بشُبهاتِ الكفار والمعانِدين، ورَدَّتْها بما يؤيد صِدْقَ رسالته صلى الله عليه وسلم، وقد أقامت الحُجَّةَ على كلِّ مَن ترك الحقَّ ومال إلى الباطل؛ لأن اللهَ أوضَحَ طريقَ الحق، وأبانه أيَّما بيانٍ؛ فللهِ الحُجَّةُ البالغة!

ترتيبها المصحفي
25
نوعها
مكية
ألفاظها
897
ترتيب نزولها
42
العد المدني الأول
77
العد المدني الأخير
77
العد البصري
77
العد الكوفي
77
العد الشامي
77

* قوله تعالى: {وَاْلَّذِينَ لَا يَدْعُونَ مَعَ اْللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ وَلَا يَقْتُلُونَ اْلنَّفْسَ اْلَّتِي حَرَّمَ اْللَّهُ إِلَّا بِاْلْحَقِّ وَلَا يَزْنُونَۚ} [الفرقان: 68]:

عن عبدِ اللهِ بن مسعودٍ رضي الله عنه، قال: «سألتُ أو سُئِلَ رسولُ اللهِ ﷺ: أيُّ الذَّنْبِ عند اللهِ أكبَرُ؟ قال: «أن تَجعَلَ للهِ نِدًّا وهو خلَقَك»، قلتُ: ثم أيٌّ؟ قال: «ثم أن تقتُلَ ولَدَك خشيةَ أن يَطعَمَ معك»، قلتُ: ثم أيٌّ؟ قال: أن تُزَانِيَ بحَلِيلةِ جارِك»، قال: ونزَلتْ هذه الآيةُ تصديقًا لقولِ رسولِ اللهِ ﷺ: {وَاْلَّذِينَ لَا يَدْعُونَ مَعَ اْللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ وَلَا يَقْتُلُونَ اْلنَّفْسَ اْلَّتِي حَرَّمَ اْللَّهُ إِلَّا بِاْلْحَقِّ وَلَا يَزْنُونَۚ} [الفرقان: 68]». أخرجه البخاري (٤٧٦١).

وفيها سببٌ آخَرُ:

عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ رضي الله عنهما: «أنَّ ناسًا مِن أهلِ الشِّرْكِ كانوا قد قتَلوا وأكثَروا، وزَنَوْا وأكثَروا، فأتَوْا مُحمَّدًا صلى الله عليه وسلم، فقالوا: إنَّ الذي تقولُ وتدعو إليه لَحسَنٌ، لو تُخبِرُنا أنَّ لِما عَمِلْنا كفَّارةً؛ فنزَلَ: {وَاْلَّذِينَ لَا يَدْعُونَ مَعَ اْللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ وَلَا يَقْتُلُونَ اْلنَّفْسَ اْلَّتِي حَرَّمَ اْللَّهُ إِلَّا بِاْلْحَقِّ وَلَا يَزْنُونَۚ} [الفرقان: 68]، ونزَلتْ: {قُلْ ‌يَٰعِبَادِيَ ‌اْلَّذِينَ ‌أَسْرَفُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِهِمْ لَا تَقْنَطُواْ مِن رَّحْمَةِ اْللَّهِۚ} [الزمر: 53]». أخرجه البخاري (٤٨١٠).

* قوله تعالى: {إِلَّا ‌مَن ‌تَابَ ‌وَءَامَنَ ‌وَعَمِلَ ‌عَمَلٗا ‌صَٰلِحٗا فَأُوْلَٰٓئِكَ يُبَدِّلُ اْللَّهُ سَيِّـَٔاتِهِمْ حَسَنَٰتٖۗ وَكَانَ اْللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا} [الفرقان: 70]:

عن سعيدِ بن جُبَيرٍ رحمه الله، قال: «قال ابنُ أَبْزَى: سَلِ ابنَ عباسٍ عن قولِه تعالى: {وَمَن ‌يَقْتُلْ مُؤْمِنٗا مُّتَعَمِّدٗا فَجَزَآؤُهُۥ جَهَنَّمُ خَٰلِدٗا فِيهَا} [النساء: 93]، وقولِه: {وَلَا ‌يَقْتُلُونَ ‌اْلنَّفْسَ ‌اْلَّتِي حَرَّمَ اْللَّهُ إِلَّا بِاْلْحَقِّ} [الفرقان: 68] حتى بلَغَ: {إِلَّا مَن تَابَ وَءَامَنَ} [الفرقان: 70]،  فسألْتُه، فقال: لمَّا نزَلتْ، قال أهلُ مكَّةَ: فقد عدَلْنا باللهِ، وقد قتَلْنا النَّفْسَ التي حرَّمَ اللهُ إلا بالحقِّ، وأتَيْنا الفواحشَ؛ فأنزَلَ اللهُ: {إِلَّا مَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ عَمَلٗا صَٰلِحٗا} إلى قولِه: {غَفُورٗا رَّحِيمٗا} [الفرقان: 70]». أخرجه البخاري (٤٧٦٥).

* سورة (الفُرْقان):

سُمِّيت سورةُ (الفُرْقان) بهذا الاسم؛ لذِكْرِ (الفُرْقان) في افتتاحها، وهو اسمٌ من أسماء القرآن الكريم.

تضمَّنتْ سورةُ (الفُرْقان) عِدَّة موضوعات؛ جاءت على النحو الآتي:

1. صفات الإلهِ الحقِّ، وعَجْزُ الآلهة المزيَّفة (١-٣).

2. شُبهاتهم حول القرآن، وردُّها (٤-٦).

3. شُبهاتهم حول الرسول، وردُّها (٧-١٠).

4. الدوافع الحقيقية وراء تكذيبهم (١١-١٩).

5. سُنَّة الله في اختيار المرسَلين، وعادة المكذِّبين (٢٠-٢٩).

6. شكوى الرسول من قومه، وتَسْليتُه (٣٠-٤٠).

7. الاستهزاء والسُّخْريَّة سلاح العاجز (٤١-٤٤).

8. الحقائق الكونية في القرآن من دلائل النُّبوة (٤٥-٥٥).

9. مهمة الرسول ونهجُه في دعوة المعانِدين (٥٦-٦٢).

10. ثمرات الرسالة الربانية (٦٣-٧٧).

ينظر: "التفسير الموضوعي للقرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (5 /270).

مقصدُ السُّورة الأعظم: إظهارُ شَرَفِ الداعي صلى الله عليه وسلم؛ بإنذارِ المكلَّفين عامةً بما له سبحانه من القدرة الشاملة، المستلزم للعلم التامِّ، المدلول عليه بهذا القرآنِ المبين، المستلزم لأنه لا موجودَ على الحقيقة سِوى مَن أنزله؛ فهو الحقُّ، وما سِواه باطلٌ.

وتسميتُها بـ(الفُرْقان) واضحُ الدَّلالة على ذلك؛ فإن الكتابَ ما نزل إلا للتفرقة بين الملتبِسات، وتمييزِ الحقِّ من الباطل؛ ليَهلِكَ مَن هلَك عن بيِّنة، ويَحيَى مَن حَيَّ عن بيِّنة؛ فلا يكون لأحدٍ على الله حُجَّةٌ، وللهِ الحُجَّة البالغة!

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /317).