ترجمة سورة الذاريات

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة الذاريات باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

शपथ है (बादलों को) बिखेरने वालियों की!
फिर (बादलों का) बोझ लादने वालियों की!
फिर धीमी गति से चलने वालियों की!
फिर (अल्लाह का) आदेश बाँटने वाले (फ़रिश्तों की)!
निश्चय जिस (प्रलय) से तुम्हें डराया जा रहा है, वह सच्ची है।[1]
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1. इन आयतों में हवाओं की शपथ ली गई है कि हवा (वायु) तथा वर्षा की यह व्यवस्था गवाह है कि प्रलय तथा परलोक का वचन सत्य तथा न्याय का होना आवश्यक है।
तथा कर्मों का फल अवश्य मिलने वाला है।
शपथ है रास्तों वाले आकाश की!
वास्तव में, तुम विभिन्न[1] बातों में हो।
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1. अर्थात क़ुर्आन तथा प्रलय के विषय में विभिन्न बातें कर रहे हैं।
उससे वही फेर दिया जाता है, जो (सत्य से) फिरा हुआ हो।
नाश कर दिये गये अनुमान लगाने वाले।
जो अपनी अचेतना में भूले हुए हैं।
वे प्रश्न[1] करते हैं कि प्रतिकार का दिन कब है?
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1. अर्थात उपहास स्वरूप प्रश्न करते हैं।
(उस दिन है) जिस दिन वह अग्नि पर तपाये जायेंगे।
(उनसे कहा जायेगाः) स्वाद चखो अपने उपद्रव का। यही वह है, जिसकी तुम शीघ्र माँग कर रहे थे।
वास्तव में, आज्ञाकारी स्वर्गों तथा जल स्रोतों में होंगे।
लेते हुए जो कुछ प्रदान किया है उनहें, उनके पालनहारन ने। वस्तुतः, वे इससे पहले (संसार में) सदाचारी थे।
वे रात्रि में बहुत कम सोया करते थे।[1]
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1. अर्थात अपना अधिक समय अल्लाह के स्मरण में लगाते थे। जैसे तहज्जुद की नमाज़ और तस्बीह़ आदि।
तथा भोरों[1] में क्षमा माँगते थे।
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1. ह़दीस में है कि अल्लाह प्रत्येक रात में जब तिहाई रात रह जाये तो संसार के आकाश की ओर उतरता है। और कहता हैः है कोई जो मुझे पुकारे तो मैं उस की पुकार सुनूँ? है कोई जो माँगे तो मैं उसे दूँ? है कोई जो मुझ से क्षमा माँगे तो मैं उसे क्षमा करूँ? ( बुख़ारीः 1145, मुस्लिमः758)
और उनके धनों में माँगने वाले[1] तथा न पाने वाले का ह़क़ था।
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1. अर्थात जो निर्धन होते हुये भी नहीं माँगता था इस लिये उसे नहीं मिलता था।
तथा धरती में बहुत-सी निशानियाँ हैं विश्वास करने वालों के लिए।
तथा स्वयं तुम्हारे भीतर (भी)। फिर क्यों तुम देखते नहीं?
और आकाश में तुम्हारी जीविका[1] है तथा जिसका तुम्हें वचन दिया जा रहा है।
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1. अर्थात आकाश की वर्षा तुम्हारी जीविका का साधन बनती है। तथा स्वर्ग और नरक आकाशों में हैं।
तो शपथ है आकाश एवं धरती के पालनहार की! ये (बात) ऐसे ही सच है, जैसे तुम बोल रहे हो।[1]
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1. अर्थात अपने बोलने का विश्वास है।
(हे नबी!) क्या आयी आपके पास इब्राहीम के सम्मानित अतिथियों की सूचना?
जब वे आये उसके पास, तो सलाम किया। इब्राहीम ने (भी) सलाम किया (तथा कहाः) अपरिचित लोग हैं।
फिर चुपके से अपने परिजनों की ओर गया और एक मोटा (भुना हुआ) बछड़ा लाया।
फिर रख दिया उनके पास, उसने कहाः तुम क्यों नहीं खाते हो?
फिर अपने दिल में उनसे कुछ डरा, उन्होंने कहाः डरो नहीं और उसे शुभ सूचना दी एक ज्ञानी पुत्र की।
तो सामने आयी उसकी पत्नी और उसने मार लिया (आश्चर्य से) अपने मुँह पर हाथ तथा कहाः मैं बाँझ बुढ़िया हूँ।
उन्होंने कहाः इसी प्रकार, तेरे पालनहार ने कहा है। वास्तव में, वह सब गुण और सब कुछ जानने वाला है।
उस (इब्राहीम) ने कहाः तो तुम्हारा क्या अभियान है, हे भेजे हुए (फ़रिश्तो)!
उन्होंने कहाः वास्तव में, हम भेजे गये हैं एक अपरीधी जाति की ओर।
ताकि हम बरसायें उनपर पत्थर की कंकरी।
नामांकित[1] तुम्हारे पालनहार की ओर से उल्लंघनकारियों के लिए।
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1. अर्थात प्रत्येक पत्थर पर पापी का नाम है।
फिर हमने निकाल दिया जो भी उस (बस्ती) में ईमान वाले थे।
और हमने उसमें मोमिनों का केवल एक ही घर[1] पाया।
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1. जो आदरणीय लूत (अलैहिस्सलाम) का घर था।
तथा छोड़ दी हमने उस (बस्ती) में एक निशानी उनके लिए, जो डरते हों दुःखदायी यातना से।
तथा मूसा (की कथा) में, जब हमने भेजा उसे फ़िरऔन की ओर प्रत्यक्ष (खुले) प्रमाण के साथ।
तो वह विमुख हो गया अपने बल-बूते के कारण और कह दिया कि जादूगर अथवा पागल है।
अन्ततः, हमने पकड़ लिया उसको तथा उसकी सेनाओं को, फिर फेंक दिया उन्हें सागर में और वह निन्दित होकर रह गया।
तथा आद में (शिक्षाप्रद निशानी है)। जब हमने भेज दी उनपर बाँझ[1] आँधी।
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1. अर्थात अशुभ। (देखियेः सूरह ह़ाक़्क़ा, आयतः7)
वह नहीं छोड़ती थी किसी वस्तु को जिसपर गुज़रती, परन्तु उसे बना देती थी जीर्ण चूर-चूर हड्डी के समान।
तथा समूद में जब उनसे कहा गया कि लाभान्वित हो लो, एक निश्चित समय तक।
तो उन्होंने अवज्ञा की अपने पालनहार के आदेश की, तो सहसा पकड़ लिया उन्हें कड़क ने और वे देखते रह गये।
तो वे न खड़े हो सके और न (हमसे) बदला ले सके।
तथा नूह़[1] की जाति को इससे पहले (याद करो)। वास्तव में, वे अवज्ञाकारी जाति थे।
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1. आयत 31 से 46 तक नबियों तथा विगत जातियों के परिणाम की ओर निरन्तर संकेत कर के सावधान किया गया है कि अल्लाह के बदले का नियम बराबर काम कर रहा है।
तथा आकाश को हमने बनाया है हाथों[1] से और हम निश्चय विस्तार करने वाले हैं।
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1. अर्थात अपनी शक्ति से।
तथा धरती को हमने बिछाया है, तो हम क्या[1] ही अच्छे बिछाने वाले हैं।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि जब सब जिन्नों तथा मनुष्यों को अल्लाह ने अपनी वंदना के लिये उत्पन्न किया है तो अल्लाह के सिवा या उस के साथ किसी जिन्न या मनुष्य अथवा फ़रिश्ते और देवी-देवता की वंदना अवैध और शिर्क है। जिस के लिये क्षमा नहीं है। (देखियेः सूरह निसा, आयतः 48,116)। और जो व्यक्ति शिर्क कर लेता है तो उस के लिये स्वर्ग निषेध है। (देखियेःसूरह माइदा,आयतः72)
तथा प्रत्येक वस्तु को हमने उत्पन्न किया है जोड़ा, ताकि तुम शिक्षा ग्रहण करो।
तो तुम दौड़ो अल्लाह की ओर, वास्तव में, मैं तुम्हें उसकी ओर से प्रत्यक्ष रूप से (खुला) सावधान कर ने वाला हूँ।
और मत बनाओ अल्लाह के साथ कोई दूसरा पूज्य। वास्तव में, मैं तुम्हें इससे खुला सावधान करने वाला हूँ।
इसी प्रकार नहीं आया उनके पास जो इन (मक्का वासियों) से पूर्व रहे कोई रसूल, परन्तु उन्होंने कहा कि जादूगर या पागल है।
क्या वे एक-दूसरे को वसिय्यत[1] कर चुके हैं इसकी? बल्कि वे उल्लंघनकारी लोग हैं।
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1. वसिय्यत का अर्थ है मरणसन्न आदेश। अर्थ यह है कि वे रसूलों के इन्कार का अपने मरण के समय आदेश देते आ रहे हैं कि यह भी अपने पूर्व के लोगों के समान रसूल का इन्कार कर रहे हैं?
तो आप मुख फेर लें उनसे। आपकी कोई निन्दा नहीं है।
और आप शिक्षा देते रहें। इसलिए कि शिक्षा लाभप्रद है इमान वालों के लिए।
और नहीं उत्पन्न किया है मैंने जिन्न तथा मनुष्य को, परन्तु ताकि मेरी ही इबादत करें।
मैं नहीं चाहता हूँ उनसे कोई जीविका और न चाहता हूँ कि वे मुझे खिलायें।
अवश्य अल्लाह ही जीविका दाता, शक्तिशाली, बलवान् है।
तो इन अत्याचारियों के पाप हैं इनके साथियों के पापों के समान, अतः उतावले न बनें।
अन्ततः, विनाश है काफ़िरों के लिए उनके उस दिन[1] से, जिससे हे डराये जा रहे हैं।
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1. अर्थात प्रलय के दिन।
سورة الذاريات
معلومات السورة
الكتب
الفتاوى
الأقوال
التفسيرات

سورة (الذَّاريَات) من السُّوَر المكية، نزلت بعد سورة (الأحقاف)، وقد جاءت ببيانِ عظمة الله، وقُدْرتِه على التصرُّف في الكون، وإنزالِ العذاب بمَن شاء، كيف شاء، متى شاء، ومِن ذلك قَسَمُه بـ(الذَّاريَات)، وهي: الرِّياح، وهي آيةٌ من آيات الله، يُصرِّفها اللهُ إن شاء للرَّحمة، وإن شاء للعذاب؛ فعلى الناسِ الفرارُ إلى الله، الذي هو طريقُ النجاة.

ترتيبها المصحفي
51
نوعها
مكية
ألفاظها
360
ترتيب نزولها
67
العد المدني الأول
60
العد المدني الأخير
60
العد البصري
60
العد الكوفي
60
العد الشامي
60

* سورة (الذَّاريَات):

سُمِّيت سورةُ (الذَّاريَات) بهذا الاسم؛ لافتتاحها بالقَسَم بـ(الذَّاريَات)؛ وهي: الرِّياح.

* أُثِر عن النبي صلى الله عليه وسلم قراءتُه لسورة (الذَّاريَات) في صلاة الظُّهر:

عن البراءِ بن عازبٍ رضي الله عنهما، قال: «كُنَّا نُصلِّي خلفَ النبيِّ ﷺ الظُّهْرَ، فيُسمِعُنا الآيةَ بعد الآياتِ مِن لُقْمانَ والذَّاريَاتِ». أخرجه النسائي (٩٧١).

1. وقوع البعثِ والجزاء (١-٢٣).

2. دلائل القدرة الإلهية (٢٤-٤٦).

3. الفرارُ إلى الله طريق النجاة (٤٧- ٦٠).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (7 /443).

مقصودُ سورة (الذَّاريَات) هو الدعوةُ إلى طاعة الله، والاستجابة لأمره؛ من خلال التحذير من وقوع العذاب بالأقوام؛ فإن اللهَ في هذه السورة أقسَمَ بـ(الذَّاريَات)، وهي الرِّياح التي يُعذِّب الله بها من يشاء من عباده، يقول البِقاعي: «مقصودها: الدلالة على صدقِ ما أنذَرتْ به سورةُ (ق) تصريحًا، وبشَّرت به تلويحًا، ولا سيما من مُصاب الدنيا، وعذابِ الآخرة.

واسمها (الذَّاريَات): ظاهرٌ في ذلك، بملاحظة جواب القَسَم؛ فإنه - لِشِدة الارتباط - كالآية الواحدة وإن كان خمسًا.

وللتعبير عن الرِّياح بـ(الذَّاريَات) أتمُّ إشارةٍ إلى ذلك؛ فإن تكذيبَهم بالوعيد لكونهم لا يشعُرون بشيءٍ من أسبابه، وإن كانت موجودةً معهم». "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (3 /25).