ترجمة سورة المؤمنون

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة المؤمنون باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

सफल हो गये ईमान वाले।
जो अपनी नमाज़ों में विनीत रहने वाले हैं।
और जो व्यर्थ[1] से विमुख रहने वाले हैं।
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1. अर्थात प्रत्येक व्यर्थ कार्य तथा कथन से। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः जो अल्लाह और प्रलय के दिन पर ईमान रखता हो वह अच्छी बात बोले अन्यथा चुप रहे। (सह़ीह़ बुख़ारीः6019, मुस्लिमः 48)
तथा जो ज़कात देने वाले हैं।
और जो अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले हैं।
परन्तु अपनी पत्नियों तथा अपने स्वामित्व में आयी दासियों से, तो वही निन्दित नहीं हैं।
फिर जो इसके अतिरिक्त चाहें, तो वही उल्लंघनकारी हैं।
और जो अपनी धरोहरों तथा वचन का पालन करने वाले हैं।
तथा जो अपनी नमाज़ों की रक्षा करने वाले हैं।
यही उत्तराधिकारी हैं।
जो उत्तराधिकारी होंगे फ़िर्दौस[1] के, जिसमें वे सदावासी होंगे।
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1. फ़िर्दौस, स्वर्ग का सर्वोच्च स्थान।
और हमने उत्पन्न किया है मनुष्य को मिट्टी के सार[1] से।
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1. अर्थात वीर्य से।
फिर हमने उसे वीर्य बनाकर रख दिया एक सुरक्षित स्थान[1] में।
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1. अर्थात गर्भाशय में।
फिर बदल दिया वीर्य को जमे हुए रक्त में, फिर हमने उसे मांस का लोथड़ा बना दिया, फिर हमने लोथड़े में हड्डियाँ बनायीं, फिर हमने पहना दिया हड्डियों को मांस, फिर उसे एक अन्य रूप में उत्पन्न कर दिया। तो शुभ है अल्लाह, जो सबसे अच्छी उत्पत्ति करने वाला है।
फिर तुमसब इसके पश्चात् अवश्य मरने वाले हो।
फिर निश्चय तुमसब (प्रलय) के दिन जीवित किये जाओगे।
और हमने बना दिये तुम्हारे ऊपर सात आकाश और हम उत्पत्ति से अचेत नहीं[1] हैं।
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1. अर्थात उत्पत्ति की आवश्यक्ता तथा जीवन के संसाधन की व्यवस्था भी कर रहे हैं।
और हमने आकाश से उचित मात्रा में पानी बरसाया और उसे धरती में रोक दिया तथा हम उसे विलुप्त कर देने पर निश्चय सामर्थ्यवान हैं।
फिर हमने उपजा दिये तुम्हारे लिए उस (पानी) के द्वारा खजूरों तथा अंगूरों के बाग़, तुम्हारे लिए उसमें बहुत-से फल हैं और उसीमें से तुम खाते हो।
तथा वृक्ष जो निकलता है सैना पर्वत से, जो तेल लिए उगता है तथा सालन है खाने वालों के लिए।
और वास्तव में, तुम्हारे लिए पशुओं में एक शिक्षा है, हम तुम्हें पिलाते हैं, उसमें से, जो उनके पेटों में[1] है तथा तुम्हारे लिए उनमें अन्य बहुत-से लाभ हैं और उनमें से कुछ को तुम खाते हो।
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1. अर्थात दूध।
तथा उनपर और नावों पर तुम सवार किये जाते हो।
तथा हमने भेजा नूह़[1] को उसकी जाति की ओर, उसने कहाः हे मेरी जाति को लोगो! इबादत (वंदना) अल्लाह की करो, तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है उसके सिवा, तो क्या तुम डरते नहीं हो?
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1. यहाँ यह बताया जा रहा है कि अल्लाह ने जिस प्रकार तुम्हारे आर्थिक जीवन के साधन बनाये उसी प्रकार तुम्हारे आत्मिक मार्ग दर्शन की व्यवस्था की और रसूलों को भेजा जिन में नूह़ अलैहिस्सलाम प्रथम रसूल थे।
तो उन प्रमुखों ने कहा, जो काफ़िर हो गये उसकी जाति में से, ये तो एक मनुष्य है, तुम्हारे जैसा, ये तुमपर प्रधानता चाहता है और यदि अल्लाह चाहता, तो किसी फ़रिश्ते को उतारता, हमने तो इसे[1] सुना ही नहीं अपने पूर्वजों में।
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1. अर्थात एकेश्वरवाद की बात अपने पूर्वजों के समय में सुनी ही नहीं।
ये बस एक ऐसा पुरुष है, जो पागल हो गया है, तो तुम उसकी प्रतीक्षा करो कुछ समय तक।
नूह़ ने कहाः हे मेरे पालनहार! मेरी सहायता कर, उनके मुझे झुठलाने पर।
तो हमने उसकी ओर वह़्यी की कि नाव बना हमारी रक्षा में हमारी वह्यी के अनुसार और जब हमारा आदेश आ जाये तथा तन्नूर उबल पड़े, तो रख ले प्रत्येक जीव के एक-एक जोड़े तथा अपने परिवार को, उसके सिवा जिसपर पहले निर्णय हो चुका है उनमें से, और मुझे संबोधित न करना उनके विषय में जिन्होंने अत्याचार किये हैं, निश्चय वे डुबो दिये जायेंगे।
और जब स्थिर हो जाये तू और जो तेरे साथी हैं नाव पर, तो कहः सब प्रशंसा उस अल्लाह के लिए है, जिसने हमें मुक्त किया अत्याचारी लोगों से।
तथा कहः हे मेरे पालनहार! मुझे शुभ स्थान में उतार और तू उत्तम स्थान देने वाला है।
निश्चय इसमें कई निशानियाँ हैं तथा निःसंदेह हम परीक्ष लेने[1] वाले हैं।
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1. अर्थात रसूलों के द्वारा परीक्षा लेते रहे हैं।
फिर हमने पैदा किया उनके पश्चात् दूसरे समुदाय को।
फिर हमने भेजा उनमें रसूल उन्हीं में से कि तुम इबादत (वंदना) करो अल्लाह की, तुम्हारा कोई ( सच्चा) पूज्य नहीं है उसके सिवा, तो क्या तुम डरते नहीं हो?
और उसकी जाति के प्रमुखों ने कहा, जो काफ़िर हो गये तथा आख़िरत (परलोक) का सामना करने को झुठला दिया तथा हमने उन्हें सम्पन्न किया था, सांसारिक जीवन में: ये तो बस एक मनुष्य है तुम्हारे जैसा, खाता है, जो तुम खाते हो और पीता है, जो तुम पीते हो।
और यदि तुमने मान लिया अपने जैसे एक मनुज को, तो निश्चय तुम क्षतिग्रस्त हो।
क्या वह तुम्हें वचन देता है कि जब तुम मर जाओगे और धूल तथा हड्डियाँ हो जाओगे, तो तुम, फिर जीवित निकाले जाओगे?
बहुत दूर की बात है, जिसका तुम्हें वचन दिया जा रहा है।
जीवन तो बस सांसारिक जीवन है, हम मरते-जीते हैं और हम फिर जीवित नहीं किये जायेंगे।
ये तो बस एक व्यक्ति है, जिसने अल्लाह पर एक झूठ घड़ लिया है और हम उसका विश्वास करने वाले नहीं हैं।
नबी ने प्रार्थना कीः मेरे पालनहार! मेरी सहायता कर, उनके झुठलाने पर मुझे।
(अल्लाह ने) कहाः शीघ्र ही वे (अपने किये पर) पछतायेंगे।
अन्ततः पकड़ लिया उन्हें कोलाहल ने सत्यानुसार और हमने उन्हें कचरा बना दिया, तो दूरी हो अत्याचारियों के लिए।
फिर हमने पैदा किया उनके पश्चात् दूसरे युग के लोगों को।
नहीं आगे होती है, कोई जाति अपने समय से और न पीछे[1]।
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1. अर्थात किसी जाति के विनाश का समय आ जाता है तो एक क्षण की भी देर-सवेर नहीं होती।
फिर, हमने भेजा अपने रसूलों को निरन्तर, जब-जबकिसी समुदाय के पास उसका रसूल आया, उन्होंने उसे झुठला दिया, तो हमने पीछे लगा[1] दिया उनके, एक को दूसरे के और उन्हें कहानी बना दिया। तो दूरी है उनके लिए, जो ईमान नहीं लाते।
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1. अर्थात विनाश में।
फिर हमने भेजा मूसा तथा उसके भाई हारून को अपनी निशानियों तथा खुले तर्क के साथ।
फ़िरऔन और उसके प्रमुखों की ओर, तो उन्होंने गर्व किया तथा वे थे ही अभिमानी लोग।
उन्होंने कहाः क्या हम ईमान लायें अपने जैसे दो व्यक्तियों पर, जबकि उन दोनों की जाति हमारे अधीन है?
तो उन्होंने दोनों को झुठला दिय, तथा हो गये विनाशों में।
और हमने प्रदान की मूसा को पुस्तक[1], ताकि वे मार्गदर्शन पा जायें।
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1. अर्थात तौरात।
और हमने बना दिया मर्यम के पुत्र तथा उसकी माँ को एक निशानी तथा दोनों को शरण दी एक उच्च बसने योग्य तथा प्रवाहित स्रोत के स्थान की ओर[1]।
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1. इस से अभिप्राय बैतुल मक़्दिस है।
हे रसूलो! खाओ स्वच्छ[1] चीज़ों में से तथा अच्छे कर्म करो, वास्तव में, मैं उससे, जो तुम कर रहे हो, भली-भाँति अवगत हूँ।
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1. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः अल्लाह स्वच्छ है और स्वच्छ ही को स्वीकार करता है। और ईमान वालों को वही आदेश दिया है जो रसूलों को दिया है। फिर आप ने यही आयत पढ़ी। (संक्षिप्त अनुवाद मुस्लिमः1015)
और वास्तव में, तुम्हारा धर्म एक ही धर्म है और मैं ही तुम सबका पालनहार हूँ, अतः मुझी से डरो।
तो उन्होंने खण्ड कर लिया, अपने धर्म का, आपस में कई खण्ड, प्रत्येक सम्प्रदाय उसीमें जो उनके पास[1] है, मगन है।
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1. इन आयतों में कहा गया है कि सब रसूलों ने यही शिक्षा दी है कि स्वच्छ पवित्र चीज़ें खाओ और सदाचार करो। तुम्हारा पालनहार एक है और तुम सभी का धर्म एक है। परन्तु लोगों ने धर्म में विभेद कर के बहुत से सम्प्रदाय बना लिये. और अब प्रत्येक सम्प्रदाय अपने विश्वास तथा कर्म में मग्न है भले ही वह सत्य से दूर हो।
अतः (हे नबी!) आप उन्हें छोड़ दें, उनकी अचेतना में कुछ समय तक।
क्या वे समझते हैं कि हम, जो सहायता कर रहे हैं उनकी धन तथा संतान से।
शीघ्रता कर रहे हैं उनके लिए भलाईयों में? बल्कि वे समझते नहीं हैं[1]।
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1. अर्थात यह कि हम उन्हें अवसर दे रहे हैं।
वास्तव में, जो अपने पालनहार के भय से डरने वाले हैं।
और जो अपने पालनहार की आयतों पर ईमान रखते हैं।
और जो अपने पालनहार का साझी नहीं बनाते हैं।
और जो करते हैं, जो कुछ भी करें और उनके दिल काँपते रहते हैं कि वे अपने पालनहार की ओर फिरकर जाने वाले हैं।
वही शीघ्रता कर रहे हैं भलाईयों में तथा वही उनके लिए अग्रसर हैं।
और हम बोझ नहीं रखते किसी प्राणी पर, परन्तु उसके सामर्थ्य के अनुसार तथा हमारे पास एक पुस्तक है, जो सत्य बोलती है और उनपर अत्याचार नहीं किया[1] जायेगा।
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1. अर्थात प्रत्येक का कर्म लेख है जिस के अनुसार ही उसे बदला दिया जायेगा।
बल्कि उनके दिल अचेत हैं इससे तथा उनके बहुत-से कर्म हैं इसके सिवा, जिन्हें वे करने वाले हैं।
यहाँतक कि जब हम पकड़ लेंगे उनके सुखियों को यातना में, तो वे विलाप करने लगेंगे।
आज विलाप न करो, निःसंदेह तुम हमारी ओर से सहायता नहीं दिये जाओगे।
मेरी आयतें तुम्हें सुनायी जाती रहीं, तो तुम एड़ियों के बल फिरते रहे।
अभिमान करते हुए, उसे कथा बनाकर बकवास करते रहे।
क्या उन्होंने इस कथन (क़ुर्आन) पर विचार नहीं किया अथवा इनके पास वह[1] आ गया, जो उनके पूर्वजों के पास नहीं आया?
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1. अर्थात् कुर्आन तथा रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आ गये। इस पर तो इन्हें अल्लाह का कृतज्ञ होना और इसे स्वीकार करना चाहिये।
अथवा वह अपने रसूल से परिचित नहीं हुए, इसलिए वे उसका इन्कार कर रहे[1] हैं?
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1. इस में चेतावनी है कि वह अपने रसूल की सत्यता, अमानत तथा उन के चरित्र और वंश से भली भाँति अवगत हैं।
अथवा वे कहते हैं कि वह पागल है? बल्कि वह तो उनके पास सत्य लाये हैं और उनमें से अधिक्तर को सत्य अप्रिय है।
और यदि अनुसरण करने लगे सत्य उनकी मनमानी का, तो अस्त-व्यस्त हो जाये आकाश तथा धरती और जो उनके बीच है, बल्कि हमने दे दी है उन्हें उनकी शिक्षा, फिर (भी) वे अपनी शिक्षा से विमुख हो रहे हैं।
(हे नबी!) क्या आप उनसे कुछ धन माँग रहे हैं? आपके लिए तो आपके पालनहार का दिया हुआ ही उत्तम है और वह सर्वोत्तम जीविका देने वाला है।
निश्चय आप तो उन्हें सुपथ की ओर बुला रहे हैं।
और जो आख़िरत (परलोक) पर ईमान नहीं रखते, वे सुपथ से कतराने वाले हैं।
और यदि हम उनपर दया करें और दूर करें, जो दुःख उनके साथ है,[1] तो वे अपने कुकर्मों में और अधिक बहकते जायेंगे।
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1. इस से अभिप्राय वह अकाल है जो मक्का के काफ़िरों पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की अवज्ञा के कारण आ पड़ा था। (देखियेः बुख़ारीः4823)
और हमने उन्हें यातना में ग्रस्त (भी) किया, तो अपने पालनहार के समक्ष नहीं झुके और न विनय करते हैं।
यहाँतक कि जब हम उनपर खोल देंगे कड़ी यातना के[1] द्वार, तो सहसा वे उस समय निराश हो जायेंगे[2]।
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1. कड़ी यातना से अभिप्राय परलोक की यातना है। 2. अर्थात प्रत्येक भलाई से।
वही है, जिसने बनाये हैं तुम्हारे लिए कान तथा आँखें और दिल[1], (फिर भी) तुम बहुत कम कृतज्ञ होते हो।
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1. सत्य को सुनने, देखने और उस पर विचार कर के उसे स्वीकार करने के लिये।
और उसीने तुम्हें धरती में फैलाया है और उसी की ओर एकत्र किये जाओगे।
तथा वही है, जो जीवन देता और मारता है और उसी के अधिकार में है रात्रि तथा दिन का फेर-बदल, तो क्या तुम समझ नहीं रखते?
बल्कि उन्होंने वही बात कही, जो अगलों ने कही।
उन्होंने कहाः क्या जब हम मर जायेंगे और मिट्टी तथा हड्डियाँ हो जायेंगे, तो क्या हम फिर अवश्य जीवित किये जायेंगे?
हमें तथा हमारे पूर्वजों को इससे पहले यही वचन दिया जा चुका है, ये तो बस अगलों की कल्पित कथाएँ हैं।
(हे नबी!) उनसे कहोः किसकी है धरती और जो उसमें है, यदि तुम जानते हो?
वे कहेंगे कि अल्लाह की। आप कहिएः फिर तुम क्यों शिक्षा ग्रहण नहीं करते?
आप पूछिए कि कौन है सातों आकाशों का स्वामी तथा महा सिंहासन का स्वामी?
वे कहेंगेः अल्लाह है। आप कहिएः फिर तुम उससे डरते क्यों नहीं हो?
आप उनसे कहिए कि किसके हाथ में है, प्रत्येक वस्तु का अधिकार? और वह शरण देता है और उसे कोई शरण नहीं दे सकता, यदि तुम ज्ञान रखते हो?
वे अवश्य कहेंगे कि (ये सब गुण) अल्लाह ही के हैं। आप कहिएः फिर तुमपर कहाँ से जादू[1] हो जाता है?
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1. अर्थात जब यह मानते हो कि सब अधिकार अल्लाह के हाथ में है और शरण भी वही देता है तो फिर उस के साझी कहाँ से आ गये और उन्हें कहाँ से अधिकार मिल गया?
बल्कि हमने उन्हें सत्य पहुँचा दिया है और निश्चय यही मिथ्यावादी हैं।
अल्लाह ने नहीं बनाया है अपनी कोई संतान और न उसके साथ कोई अन्य पूज्य है। यदि ऐसा होता, तो प्रत्येक पूज्य अलग हो जाता अपनी उत्पत्ति को लेकर और एक-दूसरे पर चढ़ दौड़ता। पवित्र है अल्लाह उन बातों से, जो ये सब लोग बनाते हैं।
वह परोक्ष (छुपे) तथा प्रत्यक्ष (खुले) का ज्ञानी है तथा उच्च है, उस शिर्क से, जो वे करते हैं।
(हे नबी!) आप प्रार्थना करें कि हे मेरे पालनहार! यदि तू मुझे वह दिखाये, जिसकी उन्हें धमकी दी जा रही है।
तो मेरे पालनहार! मुझे इन अत्याचारियों में सम्मिलित न करना।
तथा वास्तव में, हम आपको उसे दिखाने पर, जिसकी उन्हें धमकी दी जा रही है, अवश्य सामर्थ्यवान हैं।
(हे नबी!) आप दूर करें उस (व्यवहार) से जो उत्तम हो, बुराई को। हम भली-भाँति अवगत हैं, उन बातों से जो वे बनाते हैं।
तथा आप प्रार्थना करें कि हे मेरे पालनहार! मैं तेरी शरण माँगता हूँ, शैतानों की शंकाओं से।
तथा मैं तेरी शरण माँगता हूँ, मेरे पालनहार! कि वे मेरे पास आयें।
यहाँतक कि जब उनमें किसी की मौत आने लगे, तो कहता हैः मेरे पालनहार! मुझे (संसार में) वापस कर दे[1]।
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1. यहाँ मरण के समय काफ़िर की दशा को बताया जा रहा है। (इब्ने कसीर)
संभवतः, मैं अच्छा कर्म करूँगा, उस (संसार में) जिसे छोड़ आया हूँ! कदापि ऐसा नहीं होगा! वह केवल एक कथन है, जिसे वह कह रहा[1] है और उनके पीछे एक आड़[2] है, उनके पुनः जीवित किये जाने के दिन तक।
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1. अर्थात उस के कथन का कोई प्रभाव नहीं होगा। 2. आड़ जिस के लिये बर्ज़ख शब्द आया है, उस अवधि का नाम है जो मृत्यु तथा प्रलय के बीच होगी।
तो जब नरसिंघा में फूँक दिया जायेगा, तो कोई संबन्ध नहीं होगा, उनके बीच, उस[1] दिन और न वे एक-दूसरे को पूछेंगे।
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1. अर्थात प्रलय के दिन। उस दिन भय के कारण सब को अपनी चिन्ता होगी।
फिर जिसके पलड़े भारी होंगे, वही सफल होने वाले हैं।
और जिसके पलड़े हल्क होंगे, तो उन्होंने ही स्वयं को क्षतिग्रस्त कर लिया, (तथा वे) नरक में सदावासी होंगे।
झुलसा देगी उनके चेहरों को अग्नि तथा उसमें उनके जबड़े (झुलसकर) बाहर निकले होंगे।
(उनसे कहा जायेगाः) क्या जब मेरी आयतें तुम्हें सुनाई जाती थीं, तो तुम उनको झुठलाते नहीं थे?
वे कहेंगेःहमारे पालनहार! हमरा दुर्भाग्य हमपर छा गया[1] और वास्तव में, हम कुपथ थे।
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1. अर्थात अपने दुर्भाग्य के कारण हम ने तेरी आयतों को अस्वीकार कर दिया।
हमारे पालनहार! हमें इससे निकाल दे, यदि अब हम ऐसा करें, तो निश्चय हम अत्याचारी होंगे।
वह (अल्लाह) कहेगाः इसीमें अपमानित होकर पड़े रहो और मुझसे बात न करो।
मेरे भक्तों में एक समुदाय था, जो कहता था कि हमारे पालनहार! हम ईमान लाये। तू हमें क्षमा कर दे और हमपर दया कर और तू सब दयावानों से उत्तम है।
तो तुमने उनका उपहास किया, यहाँ तक कि उन्होंने तुम्हें मेरी याद भुला दी और तुम उनपर हँसते रहे।
मैंने उन्हें आज बदला (प्रतिफल) दे दिया है उनके धैर्य का, वास्तव में, वही सफल हैं।
(अल्लाह) उनसे कहेगाः तुम धरती में कितने वर्ष रहे?
वे कहेंगेः हम एक दिन या दिन के कुछ भाग रहे। तो गणना करने वालों से पूछ लें।
वह कहेगाः तुम नहीं रहे, परन्तु बहुत कम। क्या ही अच्छा होता कि तुमने (पहले ही) जान लिया[1] होता।
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1. आयत का भावार्थ यह है कि यदि तुम यह जानते कि परलोक का जीवन स्थायी है तथा संसार का अस्थायी तो आज तुम भी ईमान वालों के समान अल्लाह की आज्ञा का पालन कर के सफल हो जाते, और अवज्ञा तथा दुराचार न करते।
क्या तुमने समझ रखा है कि हमने तुम्हें व्यर्थ पैदा किया है और तुम हमारी ओर फिर नहीं लाये[1] जाओगे?
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1. अर्थात परलोक में।
तो सर्वोच्च है अल्लाह वास्तविक अधिपति। नहीं है कोई सच्चा पूज्य, परन्तु वही महिमावान अर्श (सिंहासन) का स्वामी।
और जो (भी) पुकारेगा अल्लाह के साथ किसी अन्य पूज्य को, जिसके लिए उसके पास कोई प्रमाण नहीं, तो उसका ह़िसाब केवल उसके पालनहार के पास है, वास्तव में, काफ़िर सफव नहीं[1] होंगे।
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1. अर्थात परलोक में उन्हें सफलता प्राप्त नहीं होगी, और न मुक्ति ही मिलेगी।
तथा आप प्रार्थना करें कि मेरे पालनहार! तू क्षमा कर तथा दया कर और तू ही सब दयावानों से उत्तम (दयावान्) है।
سورة المؤمنون
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سورةُ (المؤمنون) من السُّوَر المكية التي اهتمت بذِكْرِ دلائل وَحْدانية الله تعالى، كما اهتمت بذِكْرِ صفاتِ المؤمنين المفلحين؛ كما في فاتحة السورة الكريمة، وقد صح عن النبيِّ صلى الله عليه وسلم: أنَّ مَن أقامَ أوَّلَ عَشْرِ آياتٍ من سورة (المؤمنون) دخَلَ الجنَّةَ، وبالأخذِ بهذه الصفات التي ذكَرها الله للمؤمنين، تصلُحُ للعبد دنياه وآخرتُه، ويحقِّقُ معنى التوحيد التام.

ترتيبها المصحفي
23
نوعها
مكية
ألفاظها
1052
ترتيب نزولها
74
العد المدني الأول
119
العد المدني الأخير
119
العد البصري
119
العد الكوفي
118
العد الشامي
119

* قوله تعالى: {وَلَقَدْ أَخَذْناهُمْ بِالْعَذابِ فَما اسْتَكانُوا لِرَبِّهِمْ وَما يَتَضَرَّعُونَ} [المؤمنون: ٧٦]:

عن عبدِ اللهِ بن عباسٍ رضي الله عنهما، قال: «جاء أبو سُفْيانَ بنُ حَرْبٍ إلى رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم، فقال: يا مُحمَّدُ، أنشُدُك اللهَ والرَّحِمَ؛ فقد أكَلْنا العِلْهِزَ - يعني: الوَبَرَ والدَّمَ -؛ فأنزَلَ اللهُ: {وَلَقَدْ أَخَذْناهُمْ بِالْعَذابِ فَما اسْتَكانُوا لِرَبِّهِمْ وَما يَتَضَرَّعُونَ} [المؤمنون: ٧٦]». أخرجه ابن حبان (٩٦٧).

* سورةُ (المؤمنون):

سُمِّيت سورة (المؤمنون) بذلك؛ لأنَّ فاتحتها أفصَحتْ عن ذِكْرِ صفات المؤمنين.

 * أنَّ مَن أقام أوَّلَ عَشْرِ آياتٍ من سورة (المؤمنون) دخَل الجنَّة:

عن عُمَرَ بن الخطَّابِ رضي الله عنه، قال: «كان إذا نزَلَ على رسولِ اللهِ ﷺ الوحيُ يُسمَعُ عند وجهِه دَوِيٌّ كدَوِيِّ النَّحْلِ، فمكَثْنا ساعةً، فاستقبَلَ القِبْلةَ، ورفَعَ يدَيهِ، فقال: «اللهمَّ زِدْنا ولا تنقُصْنا، وأكرِمْنا ولا تُهِنَّا، وأعطِنا ولا تَحرِمْنا، وآثِرْنا ولا تُؤثِرْ علينا، وارضَ عنَّا وأرضِنا»، ثم قال: «لقد نزَلتْ عليَّ عَشْرُ آياتٍ، مَن أقامَهنَّ دخَلَ الجنَّةَ»، ثم قرَأَ علينا: {قَدْ أَفْلَحَ اْلْمُؤْمِنُونَ} [المؤمنون: 1] حتى ختَمَ العَشْرَ». أخرجه الترمذي (3097).

* كانت تَتجلَّى صفاتُ رسول الله ﷺ من خلالِ هذه السورة:

فعن يَزيدَ بن بابَنُوسَ، قال: «دخَلْنا على عائشةَ، فقُلْنا: يا أمَّ المؤمنين، ما كان خُلُقُ رسولِ اللهِ ﷺ؟ قالت: كان خُلُقُه القُرْآنَ، تَقرَؤون سورةَ المؤمنين؟ قالت: اقرَأْ {قَدْ أَفْلَحَ اْلْمُؤْمِنُونَ}، قال يَزيدُ: فقرَأْتُ {قَدْ أَفْلَحَ اْلْمُؤْمِنُونَ} [المؤمنون: 1] إلى: {لِفُرُوجِهِمْ حَٰفِظُونَ} [المؤمنون: 5]، قالت: هكذا كان خُلُقُ رسولِ اللهِ ﷺ». أخرجه البخاري في " الأدب المفرد" (٤٨).

* هي السورةُ التي قرأها النبيُّ صلى الله عليه وسلم يومَ الفتحِ:

عن عبدِ اللهِ بن السائبِ رضي الله عنه، قال: «حضَرْتُ رسولَ اللهِ ﷺ يومَ الفتحِ وصلَّى في الكعبةِ، فخلَعَ نَعْلَيهِ فوضَعَهما عن يسارِه، ثم افتتَحَ سورةَ (المؤمنون)، فلمَّا بلَغَ ذِكْرَ عيسى أو موسى، أخَذَتْهُ سَعْلةٌ، فركَعَ». أخرجه أبو داود (٦٤٨).

جاءت سورةُ (المؤمنون) على ذِكْرِ الموضوعات الآتية:

1. صفات المؤمنين (١-١١).

2. أدلة وَحْدانية الله (١٢-٢٢).

3. الإيمان بالرسل، ومواقف أقوامهم منهم (٢٣-٥٢).

4. تفرُّق الأُمَم بعد رسلهم (٥٣-٧٧).

5. أدلة إثبات وَحْدانية الله وقدرته (٧٨-٩٨).

6. مِن مشاهِدِ يوم القيامة (٩٩- ١١٨).

ينظر: "التفسير الموضوعي للقرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (5 /124).

ظهَر مقصودُ سورة (المؤمنون) في اسمها؛ وهو اختصاصُ المؤمنين بالفلاح، وقد دارت آيُها حول مِحوَرِ تحقيقِ الوَحْدانية، وإبطالِ الشرك ونقضِ قواعده، والتنويه بالإيمان وشرائعه؛ فكان افتتاحُها بالبشارة للمؤمنين بالفلاح العظيم على ما تحلَّوْا به من أصول الفضائل الرُّوحية والعلمية، التي بها تزكيةُ النَّفس، واستقامةُ السلوك.

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /303)، و"التحرير والتنوير" لابن عاشور (18 /6).