ترجمة سورة التوبة

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة التوبة باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .
अल्लाह तथा उसके रसूल की ओर से संधि मुक्त होने की घोषणा है, उन मिश्रणवादियों के लिए जिनसे तुमने संधि (समझौता) किया[1] था।
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1. यह सूरह सन 9 हिजरी में उतरी। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना पहुँचे तो आप ने अनेक जातियों से समझौता किया था। परन्तु सभी ने समय समय से समझौते का उल्लंघन किया। लेकिन आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) बराबर उस की पालन करते रहे। और अब यह घोषणा कर दी गई कि मिश्रणवादियों से कोई समझौता नहीं रहेगा।
तो (हे कीफ़िरो!) तुम धरती में चार महीने (स्वतंत्र होकर) फिरो तथा जान लो कि तुम अल्लाह को विवश नहीं कर सकोगे और निश्चय अल्लाह, काफ़िरों को अपमानित करने वाला है।
तथा अल्लाह और उसके रसूल की ओर से सार्वजनिक सूचना है, महा ह़ज[1] के दिन कि अल्लाह मिश्रणवादियों (मुश्रिकों) से अलग है तथा उसका रसूल भी। फिर यदि तुम तौबा (क्षमा याचना) कर लो, तो वह तुम्हारे लिए उत्तम है और यदि तुमने मुँह फेरा, तो जान लो कि तुम अल्लाह को विवश करने वाले नहीं हो और आप उन्हें जो काफ़िर हो गये, दुःखदायी यातना का शुभ समाचार सुना दें।
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1. यह एलान ज़िल-ह़िज्जा सन् (10) हिजरी को मिना में किया गया कि अब काफ़िरों से कोई संधि नहीं रहेगी। इस वर्ष के बाद कोई मुश्रिक ह़ज्ज नहीं करेगा और न कोई काबा का नंगा तवाफ़ करेगा। (बुख़ारीः4655)
सिवाय उन मुश्रिकों के, जिनसे तुमने संधि की, फिर उन्होंने तुम्हारे साथ कोई कमी नहीं की और न तुम्हारे विरुध्द किसी की सहायता की, तो उनसे उनकी संधि उनकी अवधि तक पूरी करो। निश्चय अल्लाह आज्ञाकारियों से प्रेम करता है।
अतः जब सम्मानित महीने बीत जायें, तो मिश्रणवादियों (मुश्रिकों) का वध करो, उन्हें जहाँ पाओ और उन्हें पकड़ो और घेरो[1] और उनकी घात में रहो। फिर यदि वे तौबा कर लें और नमाज़ की स्थापना करें तथा ज़कात दें, तो उन्हें छोड़ दो। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
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1. यद आदेश मक्का के मुश्रिकों के बारे में दिया गया है, जो इस्लाम के विरोधी थे और मुसलमानों पर आक्रमण कर रहे थे।
और यदि मुश्रिकों में से कोई तुमसे श्रण माँगे, तो उसे श्रण दो, यहाँ तक कि अल्लाह की बातें सुन ले। फिर उसे पहुँचा दो, उसके शान्ति के स्थान तक। ये इसलिए कि वे ज्ञान नहीं रखते।
इन मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) की कोई संधि अल्लाह और उसके रसूल के पास कैसे हो सकती है? उनके सिवाय जिनसे तुमने सम्मानित मस्जिद (काबा) के पास संधि[1] की थी। तो जब तक वे तुम्हारे लिए सीधे रहें, तो तुम भी उनके लिए सीधे रहो। वास्तव में, अल्लाह आज्ञाकारियों से प्रेम करता है।
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1. इस से अभिप्रेत ह़ुदैबिया की संधि है, जो सन् (6) हिजरी में हुई थी। जिसे काफ़िरों ने तोड़ दिया। और यही सन् (8) हिजरी में मक्का के विजय का कारण बना।
और उनकी संधि कैसे रह सकती है, जबकि वे यदि तुमपर अधिकार पा जायें, तो किसी संधि और किसी वचन का पालन नहीं करेंगे। वे तुम्हें अपने मुखों से प्रसन्न करते हैं, जबकि उनके दिल इन्कार करते हैं और उनमें अधिकांश वचनभंगी हैं।
उन्होंने अल्लाह की आयतों के बदले तनिक मूल्य ख़रीद लिया[1], और (लोगों को) अल्लाह की राह (इस्लाम) से रोक दिया। वास्तव में, वे बड़ा कुकर्म कर रहे हैं।
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1. अर्थात संसारिक स्वार्थ के लिये सत्धर्म इस्लाम को नहीं माना।
वह किसी ईमान वाले के बारे में किसी संधि और वचन का पालन नहीं करते और वही उल्लंघनकारी हैं।
तो यदि वे (शिर्क से) तौबा कर लें, नमाज़ की स्थापना करें और ज़कात दें, तो तुम्हारे धर्म-बंधु हैं और हम उन लोगों के लिए आयतों का वर्णन कर हे हैं, जो ज्ञान रखते हों।
तो यदि वे अपनी शपथें अपना वचन देने के पश्चात तोड़ दें और तुम्हारे धर्म की निंदा करें, तो कुफ़्र के प्रमुखों से युध्द करो। क्योंकि उनकी शपथों का कोई विश्वास नहीं, ताकि वे (अत्याचार से) रुक जायेँ।
तुम उन लोगों से युध्द क्यों नहीं करते, जिन्होंने अपने वचन भंग कर दिये तथा रसूल को निकालने का निश्चय किया और उन्होंने ही युध्द का आरंभ किया है? क्या तुम उनसे डरते हो? तो अल्लाह अधिक योग्य है कि तुम उससे डरो, यदि तुम ईमान[1] वाले हो।
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1. आयत संख्या 7 से लेकर 13 तक यह बताया गया है कि शत्रु ने निरन्तर संधि को तोड़ा है। और तुम्हें युध्द के लिये बाध्य कर दिया है। अब उन के अत्याचार और आक्रमण को रोकने का यही उपाय रह गया है कि उन से युध्द किया जाये।
उनसे युध्द करो, उन्हें अल्लाह तुम्हारे हाथों दण्ड देगा, उन्हें अपमानित करेगा, उनके विरुध्द तुम्हारी सहायता करेगा और ईमान वालों के दिलों का सब दुःख दूर करेगा।
और उनके दिलों की जलन दूर कर देगा और जिसपर चाहेगा, दया करेगा और अल्लाह अति ज्ञानी, नीतिज्ञ है।
क्या तुमने समझा है कि यूँ ही छोड़ दिये जाओगे, जबकि (परीक्षा लेकर) अल्लाह ने उन्हें नहीं जाना है, जिसने तुममें से जिहाद किया तथा अल्लाह और उसके रसूल और ईमान वालों के सिवाय किसी को भेदी मित्र नहीं बनाया? और अल्लाह उससे सूचित है, जो तुम कर रहे हो।
मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) के लिए योग्य नहीं है कि वे अल्लाह की मस्जिदों को आबाद करें, जबकि वे स्वयं अपने विरुध कुफ़्र (अधर्म) के साक्षी हैं। इन्हींके कर्म व्यर्थ हो गये और नरक में यही सदावासी होंगे।
वास्तव में, अल्लाह की मस्जिदों को वही आबाद करता है, जो अल्लाह पर और अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान लाया, नमाज़ की स्थापना की, ज़कात दी और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरा। तो आशा है कि वही सीधी राह चलेंगे।
क्या तुम ह़ाजियों को पानी पिलाने और सम्मानित मस्जिद (काबा) की सेवा को, उसके (ईमान के) बराबर समझते हो, जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लाया तथा अल्लाह की राह में जिहाद किया? अल्लाह के समीप दोनों बराबर नहीं हैं तथा अल्लाह अत्याचारियों को सुपथ नहीं दिखाता!
जो लोग ईमान लाये तथा हिजरत कर गये और अल्लाह की राह में अपने धनों और प्राणों से जिहाद किया, अल्लाह के यहाँ उनका बहुत बड़ा पद है और वही सफल होने वाले हैं।
उन्हें उनका पालनहार शुभ सूचना देता है अपनी दया और प्रसन्नता की तथा ऐसे स्वर्गों की, जिनमें स्थायी सुख के साधन हैं।
जिनमें वे सदावासी होंगे। वास्तव में, अल्लाह के यहाँ (सत्कर्मियों के लिए) बड़ा प्रतिफल है।
हे ईमान वालो! अपने बापों और भाईयों को अपना सहायक न बनाओ, यदि वे ईमान की अपेक्षा कुफ़्र से प्रेम करें और तुममें से जो उन्हें सहायक बनाएँगे, तो वही अत्याचारी होंगे।
हे नबी! कह दो कि यदि तुम्हारे बाप, तुम्हारे पुत्र, तुम्हारे भाई, तुम्हारी पत्नियाँ, तुम्हारे परिवार, तुम्हारा धन जो तुमने कमाया है और जिस व्यपार के मंद हो जाने का तुम्हें भय है तथा वो घर जिनसे मोह रखते हो, तुम्हें अल्लाह तथा उसके रसूल और अल्लाह की राह में जिहाद करने से अधिक प्रिय हैं, तो प्रतीक्षा करो, यहाँ तक कि अल्लाह का निर्णय आ जाये और अल्लाह उल्लंघनकारियों को सुपथ नहीं दिखाता।
अल्लाह बहुत-से स्थानों पर तथा ह़ुनैन[1] के दिन, तुम्हारी सहायता कर चुका है, जब तुम्हें तुम्हारी अधिक्ता पर गर्व था, तो वह तुम्हारे कुछ काम न आई तथा तुमपर धरती अपने विस्तार के होते हुए संकीर्ण (तंग) हो गई, फिर तुम पीठ दिखाकर भागे।
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1. "ह़ुनैन" मक्का तथा ताइफ़ के बीच एक वादी है। वहीं पर यह युध्द सन् 8 हिजरी में मक्का की विजय के पश्चात् हुआ। आप को मक्का में यह सूचना मिली के हवाज़िन और सक़ीफ़ क़बीले मक्का पर आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहे हैं। जिस पर आप बारह हज़ार की सेना ले कर निकले। जब की शत्रु की संख्या केवल चार हज़ार थी। फिर भी उन्हों ने अपनी तीरों से मुसलमानों का मुँह फेर दिया। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आप के कुछ साथी रणक्षेत्र में रह गये, अन्ततः फिर इस्लामी सेना ने व्यवस्थित हो कर विजय प्राप्त की। (इब्ने कसीर)
फिर अल्लाह ने अपने रसूल और ईमान वालों पर शान्ति उतारी तथा ऐसी सेनायें उतारीं, जिन्हें तुमने नहीं देखा[1] और काफ़िरों को यातना दी और यही काफ़िरों का प्रतिकार (बदला) है।
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1. अर्थात फ़रिश्ते भी उतारे गये जो मुसलमानों के साथ मिल कर काफ़िरों से जिहाद कर रहे थे। जिन के कारण मुसलमान विजय हुये और काफ़िरों को बंदी बना लिया गया, जिन को बाद में मुक्त कर दिया गया।
फिर अल्लाह इसके पश्चात् जिसे चाहे, क्षमा कर दे[1] और अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान है।
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1. अर्थात उस के सत्धर्म इस्लाम को स्वीकार कर लेने के कारण।
हे ईमान वालो! मुश्रिक (मिश्रणवादी) मलीन हैं। अतः इस वर्ष[1] के पश्चात् वे सम्मानित मस्जिद (काबा) के समीप भी न आयें और यदि तुम्हें निर्धनता का भय[2] हो, तो अल्लाह तुम्हें अपनी दया से धनी कर देगा, यदि वह चाहे। वास्तव में, अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।
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1. अर्थात सन् 9 हिजरी के पश्चात्। 2. अर्थात उन से व्यपार न करने के कारण। अपवित्र होने का अर्थ शिर्क के कारण मन की मलीनता है। (इब्ने कसीर)
(हे ईमान वालो!) उनसे युध्द करो, जो न तो अल्लाह (सत्य) पर ईमान लाते हैं और न अन्तिम दिन (प्रलय) पर और न जिसे, अल्लाह और उसके रसूल ने ह़राम (वर्जित) किया है, उसे ह़राम (वर्जित) समझते हैं, न सत्धर्म को अपना धर्म बनाते हैं, उनमें से जो पुस्तक दिये गये हैं, यहाँ तक कि वे अपने हाथ से जिज़या[1] दें और वे अपमानित होकर रहें।
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1. जिज़या अर्थात रक्षा-कर, जो उस रक्षा का बदला है जो इस्लामी देश में बसे हुये अह्ले किताब से इस लिये लिया जाता है ताकि वह यह सोचें कि अल्लाह के लिये ज़कात न देने और गुमराही पर अड़े रहने का मूल्य चुकाना कितना बड़ा दुर्भाग्य है जिस में वह फंसे हुये हैं।
तथा यहूद ने कहा कि उज़ैर अल्लाह का पुत्र है और नसारा (ईसाईयों) ने कहा कि मसीह़ अल्लाह का पुत्र है। ये उनके अपने मुँह की बातें हैं। वे उनके जैसी बातें कर रहे हैं, जो इनसे पहले काफ़िर हो गये। उनपर अल्लाह की मार! वे कहाँ बहके जा रहे हैं?
उन्होंने अपने विद्वानों और धर्माचारियों (संतों) को अल्लाह के सिवा पूज्य[1] बना लिया तथा मर्यम के पुत्र मसीह़ को, जबकि उन्हें जो आदेश दिया गया था, वो इसके सिवा कुछ न था कि एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें। कोई पूज्य नहीं है, परन्तु वही। वह उससे पवित्र है, जिसे उसका साझी बना रहे हैं।
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1. ह़दीस में है कि उन के बनाये हुये वैध तथा अवैध को मानना ही उन को पूज्य बनाना है। (तिर्मिज़ीः2471, यह सह़ीह़ ह़दीस है।)
वे चाहते हैं कि अल्लाह के प्रकाश को अपनी फूकों से बुझा[1] दें और अल्लाह अपने प्रकाश को पूरा किये बिना नहीं रहेगा, यद्यपि काफ़िरों को बुरा लगे।
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1. आयत का अर्थ यह है कि यहूदी, ईसाई तथा काफ़िर स्वयं तो कुपथ हैं ही वह सत्धर्म इस्लाम से रोकने के लिये भी धोखा-धड़ी से काम लेते हैं, जिस में वह कदापि सफल नहीं होंगे।
उसीने अपने रसूल[1] को मार्गदर्शन तथा सत्धर्म (इस्लाम) के साथ भेजा है, ताकि उसे प्रत्येक धर्म पर प्रभुत्व प्रदान कर दे[2], यद्यपि मिश्रणवादियों को बुरा लगे।
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1. रसूल से अभिप्रेत मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं। 2. इस का सब से बड़ा प्रमाण यह है कि इस समय पूरे संसार में मुसलमानों की संख्या लग-भग दो अरब है। और अब भी इस्लाम पूरी दुनिया में तेज़ी से फैलता जा रहा है।
हे ईमान वालो! बहुत-से (अह्ले किताब के) विद्वान तथा धर्माचारी (संत) लोगों का धन अवैध खाते हैं और (उन्हें) अल्लाह की राह से रोकते हैं तथा जो सोना-चाँदी एकत्र करके रखते हैं और उसे अल्लाह की राह में दान नहीं करते, उन्हें दुःखदायी यातना की शुभ सूचना सुना दें।
जिस (प्रलय के) दिन उसे नरक की अग्नि में तपाया जायेगा, फिर उससे उनके माथों, पार्शवों (पहलू) और पीठों को दागा जायेगा ( और कहा जायेगाः) यही है, जिसे तुम एकत्र कर रहे थे, तो (अब) अपने संचित किये धनों का स्वाद चखो।
वास्तव में, महीनों की संख्या बारह महीने हैं, अल्लाह के लेख में, जिस दिन से उसने आकाशों तथा धरती की रचना की है। उनमें से चार ह़राम (सम्मानित)[1] महीने हैं। यही सीधा धर्म है। अतः अपने प्राणों पर अत्याचार[2] न करो तथा मिश्रणवादियों से सब मिलकर युध्द करो।, जैसे वे तुमसे मिलकर युध्द करते हैं और विश्वास रखो कि अल्लाह आज्ञाकीरियों के साथ है।
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1. जिन में युध्द निषेध है। और वह ज़ुलक़ादा, ज़ुल ह़िज्जा, मुह़र्रम तथा रजब के अर्बी महीने हैं। (बुख़ारीः4662) 2. अर्थात इन में युध्द तथा रक्तपात न करो, इन का आदर करो।
नसी[1] (महीनों को आगे-पीछे करना) कुफ़्र (अधर्म) में अधिक्ता है। इससे काफ़िर कुफथ किये जाते हैं। एक ही महीने को एक वर्ष ह़लाल (वैध) कर देते हैं तथा उसी को दूसरे वर्ष ह़राम (अवैध) कर देते हैं। ताकि अल्लाह ने सम्मानित महीनों की जो गिनती निश्चित कर दी है, उसे अपनी गिनती के अनुसार करके, अवैध महीनों को वैध कर लें। उनके लिए उनके कुकर्म सुन्दर बना दिये गये हैं और अल्लाह काफ़िरों को सुपथ नहीं दर्शाता।
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1. इस्लाम से पहले मक्का के मिश्रणवादी अपने स्वार्थ के लिये सम्मानित महीनों साधारणतः मुह़र्रम के महीने को सफ़र के महीने से बदल कर युध्द कर लेते थे। इसी प्रकार प्रत्येक तीन वर्ष पर एक महीना अधिक कर लिया जाता था ताकि चाँद का वर्ष सूर्य के वर्ष के अनुसार रहे। क़ुर्आन ने इस कुरीति का खण्डन किया है, और इसे अधर्म कहा है। (इब्ने कसीर)
हे ईमान वालो! तुम्हें क्या हो गया है कि जब तुमसे कहा जाये कि अल्लाह की राह में निकलो, तो धरती के बोझ बन जाते हो, क्या तुम आख़िरत (परलोक) की अपेक्षा सांसारिक जीवन से प्रसन्न हो गये हो? जबकि परलोक की अपेक्षा सांसारिक जीवन के लाभ बहुत थोड़े हैं[1]।
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1. यह आयतें तबूक के युध्द से संबन्धित हैं। तबूक मदीने और शाम के बीच एक स्थान का नाम है। जो मदीने से 610 किलो मीटर दूर है। सन् 9 हिजरी में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह सूचना मिली कि रोम के राजा क़ैसर ने मदीने पर आक्रमण करने का आदेश दिया है। यह मुसलमानों के लिये अरब से बाहर एक बड़ी शक्ति से युध्द करने का प्रथम अवसर था। अतः आप ने तैयारी और कूच का एलान कर दिया। यह बड़ा भीषण समय था, इस लिये मुसलमानों को प्रेरणा दी जा रही है कि इस युध्द के लिये निकलें। तबूक का युध्दः- मक्का की विजय के पश्चात् ऐसे समाचार मिलने लगे कि रोम का राजा क़ैसर मुसलमानों पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहा है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब यह सुना तो आप ने भी मुसलमानों को तैयारी का आदेश दे दिया। उस समय स्थिति बड़ी गंभीर थी। मदीना में अकाल था। कड़ी धूप तथा खजूरों के पकने का समय था। सवारी तथा यात्रा के संसाधन की कमी थी। मदीना के मुनाफ़िक़ अबु आमिर राहिब के द्वारा ग़स्सान के ईसाई राजा और क़ैसर मिले हुये थे। उन्हों ने मदीना के पास अपने षड्यंत्र के लिये एक मस्जिद भी बना ली थी। और चाहते थे कि मुसलमान पराजित हो जायें। वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म और मुसलमानों का उपहास करते थे। और तबूक की यात्रा के बीच आप पर प्राण-घातक आक्रमण भी किया। और बहुत से द्विधावादियों ने आप का साथ भी नहीं दिया और झूठे बहाने बना लिये। रजब सन् 9 हिजरी में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तीस हज़ार मुसलमानों के साथ निकले। इन में दस हज़ार सवार थे। तबूक पहुँच कर पता लगा कि क़ैसर और उस के सहयोगियों ने साहस खो दिया है। क्यों कि इस से पहले मूता के रणक्षेत्र में तीन हज़ार मुसलमानों ने एक लाख ईसाईयों का मुक़ाबला किया था। इस लिये क़ैसर तीस हज़ार की सेना से भिड़ने का साहस न कर सका। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तबूक में बीस दिन रह कर रूमियों के अधीन इस क्षेत्र के राज्यों को अपने अधीन बनाया। जिस से इस्लामी राज्य की सीमायें रूमी राज्य की सीमा तक पहुँच गईं। जब आप मदीना पहुँचे तो द्विधावादियों ने झूठे बहाने बना कर क्षमा माँग ली। तीन मुसलमान जो आप के साथ आलस्य के कारण नहीं जा सके थे और अपना दोष स्वीकार कर लिया था आप ने उन का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। किन्तु अल्लाह ने उन तीनों को भी उन के सत्य के कारण क्षमा कर दिया। आप ने उस मस्जिद को भी गिराने का आदेश दिया, जिसे मुनाफ़िक़ों ने अपने षड्यंत्र का केंद्र बनाया था।
यदि तुम नहीं निकलोगे, तो तुम्हें अल्लाह दुःखदायी यातना देगा, तथा तुम्हारे सिवाय दूसरे लोगों को लायेगा। और तुम उसे कोई हानि नहीं पहुँचा सकोगे। और अल्लाह जो चाहे कर सकता है।
यदि तुम उस (नबी) की सहायता नहीं करोगे, तो अल्लाह ने उसकी सहायता उस समय[1] की है, जब काफ़िरों ने उसे (मक्का से) निकाल दिया। वह दो में दूसरे थे। जब दोनों गुफा में थे, जब वह अपने साथी से कह रहे थेः उदासीन न हो, निश्चय अल्लाह हमारे साथ है[2]। तो अल्लाह ने अपनी ओर से शान्ति उतार दी और आपको ऐसी सेना से समर्थन दिया, जिसे तुमने नहीं देखा और काफ़िरों की बात नीची कर दी और अल्लाह की बात ही ऊँची रही और अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।
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1. यह उस अवसर की चर्चा है जब मक्का के मिश्रणवादियों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का वध कर देने का निर्णय किया। उसी रात आप मक्का से निकल कर सौर पर्वत नामक गुफा में तीन दिन तक छुपे रहे। फिर मदीना पहुँचे। उस समय गुफा में केवल आदरणीय अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु आप के साथ थे। 2. ह़दीस में है कि अबू बक्र (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा कि मैं गुफा में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के साथ था। और मैं ने मुश्रिकों के पैर देख लिये। और आप से कहाः यदि इन में से कोई अपना पैर उठा दे तो हमें देख लेगा। आप ने कहाः उन दो के बारे में तुम्हारा क्या विचार है जिन का तीसरा अल्लाह है। ( सह़ीह़ बुख़ारीः4663)
हल्के[1] होकर और बोझल (जैसे हो) निकल पड़ो। और अपने धनों तथा प्राणों से अल्लाह की राह में जिहाद करो। यही तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम ज्ञान रखते हो।
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1. संसाधन हो या न हो।
(हे नबी!) यदि लाभ समीप और यात्रा सरल होती, तो ये (मुनाफ़िक़) अवश्य आपके साथ हो जाते। परन्तु उन्हें मार्ग दूर लगा और (अब) अल्लाह की शपथ लेंगे कि यदि हम निकल सकते, तो अवश्य तुम्हारे साथ निकल पड़ते, वे अपना विनाश स्वयं कर रहे हैं और अल्लाह जानता है कि वे वास्तव में झूठे हैं।
(हे नबी!) अल्लाह आपको क्षमा करे! आपने उन्हें अनुमति क्यों दे दी? यहाँ तक कि आपके लिए जो सच्चे हैं, उजागर हो जाते और झूठों को जान लेते?
आपसे (पीछे रह जाने की) अनुमति वह नहीं माँग रहे हैं, जो अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान रखते हों कि अपने धनों तथा प्राणों से जिहाद करेंगे और अल्लाह आज्ञाकारियों को भलि-भाँति जानता है।
आपसे अनुमति वही माँग रहे हैं, जो अल्लाह तथा अन्तिम दिवस (परलोक) पर ईमान नहीं रखते और अपने संदेह में पड़े हुए हैं।
यदि वे निकलना चाहते, तो अवश्य उसके लिए कुछ तैयारी करते। परन्तु अल्लाह को उनका जाना अप्रिय था, अतः उन्हें आलसी बना दिया तथा कह दिया गया कि बैठने वालों के साथ बैठे रहो।
और यदि वे तुममें निकलते, तो तुममें बिगाड़ ही अधिक करते और तुम्हारे बीच उपद्रव के लिए दौड़ धूप करते और तुममें वह भी हैं, जो उनकी बातों पर ध्यान देते हैं और अल्लाह अत्याचारियों को भली-भाँति जानता है।
(हे नबी!) वे इससे पहले भी उपद्रव का प्रयास कर चुके हैं तथा आपके लिए बातों में हेर-फेर कर चुके हैं। यहाँ तक कि सत्य आ गया और अल्लाह का आदेश प्रभुत्वशाली हो गया और ये बात उन्हें अप्रिय है।
उनमें से कोई ऐसा भी है, जो कहता है कि आप मुझे अनुमति दे दें और परीक्षा में न डालें। सुन लो! परीक्षा में तो ये पहले ही से पड़े हुए हैं और वास्तव में, नरक काफ़िरों को घेरी हुई है।
(हे नबी!) यदि आपका कुछ भला होता है, तो उन (द्विधावादियों) को बुरा लगता है और यदि आपपर कोई आपदा आ पड़े, तो कहते हैं: हमने पहले ही अपनी सावधानी बरत ली थी और प्रसन्न होकर फिर जाते हैं।
आप कह दें: हमें कदापि कोई आपदा नहीं पहुँचेगी, परन्तु वही जो अल्लाह ने हमारे भाग्य में लिख दी है। वही हमारा सहायक है और अल्लाह ही पर ईमान वालों को निर्भर रहना चाहिए।
आप उनसे कह दें कि तुम हमारे बारे में जिसकी प्रतीक्षा कर रहे हो, वह यही है कि हमें दो[1] भलाईयों में से एक मिल जाये और हम तुम्हारे बारे में इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं कि अल्लाह तुम्हें अपने पास से यातना देता है या हमारे हाथों से। तो तुम प्रतीक्षा करो। हम भी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा कर रहे हैं।
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1. दो भलाईयों से अभिप्राय विजय या अल्लाह की राह में शहीद होना है। (इब्ने कसीर)
आप (मुनाफ़िक़ों से) कह दें कि तुम स्वेच्छा दान करो अथवा अनिच्छा, तुमसे कदापि स्वीकार नहीं किया जायेगा। क्योंकि तुम अवज्ञाकारी हो।
और उनके दानों के स्वीकार न किये जाने का कारण, इसके सिवाय कुछ नहीं है कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया है और वे नमाज़ के लिए आलसी होकर आते हैं तथा दान भी करते हैं, तो अनिच्छा करते हैं।
अतः आपको उनके धन तथा उनकी संतान चकित न करे। अल्लाह तो ये चाहता है कि उन्हें इनके द्वारा सांसारिक जीवन में यातना दे और उनके प्राण इस दशा में निकलें कि वे काफ़िर हों।
वे (मुनाफ़िक़) अल्लाह की शपथ लेकर कहते हैं कि वे तुम में से हैं, जबकि वे तुममें से नहीं हैं, परन्तु भयभीत लोग हैं।
यदि वे कोई शरणगार, गुफा या प्रवेश स्थान पा जायेँ, तो उसकी ओर भागते हुए फिर जायेंगे।
(हे नबी!) उन (मुनाफ़िक़ों) में से कुछ ज़कात के वितरण में आपपर आक्षेप करते हैं। फिर यदि उन्हें उसमें से कुछ दे दिया जाये, तो प्रसन्न हो जाते हैं और यदि न दिया जाये, तो तुरन्त अप्रसन्न हो जाते हैं।
और क्या ही अच्छा होता, यदि वे उससे प्रसन्न हो जाते, जो उन्हें अल्लाह और उसके रसूल ने दिया है तथा कहते कि हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है। हमें अपने अनुग्रह से (बहुत कुछ) प्रदान करेगा तथा उसके रसूल भी, हम तो उसी की ओर रूचि रखते हैं।
ज़कात (देय, दान) केवल फ़क़ीरों[1], मिस्कीनों, कार्य-कर्ताओं[2] तथा उनके लिए जिनके दिलों को जोड़ा जा रहा है[3] और दास मुक्ति, ऋणियों (की सहायता), अल्लाह की राह में तथा यात्रियों के लिए है। अल्लाह की ओरसे अनिवार्य (देय) है[4] और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।
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1. क़ुर्आन ने यहाँ फ़क़ीर और मिस्कीन के शब्दों का प्रयोग किया है। फ़क़ीर का अर्थ है जिस के पास कुछ न हो। परन्तु मिस्कीन वह है जिस के पास कुछ धन हो, मगर उस की आवश्यक्ता की पूर्ति न होती हो। 2. जो ज़कात के काम में लगे हों। 3. इस से अभिप्राय वह हैं जो नये नये इस्लाम लाये हों। तो उन के लिये भी ज़कात है। या जो इस्लाम में रूचि रखते हों, और इस्लाम के सहायक हों। 4.संसार में कोई धर्म ऐसा नहीं है जिस ने दीन दुःखियों की सहायता और सेवा की प्रेरणा न दी हो। और उसे इबादत (वंदना) का अनिवार्य अंश न कहा हो। परन्तु इस्लाम की यह विशेषता है कि उस ने प्रत्येक धनी मुसलमान पर एक विशेष कर निरिधारित कर दिया है जो उस पर अपनी पूरी आय का ह़िसाब कर के प्रत्येक वर्ष देना अनिवार्य है। फिर उसे इतना महत्व दिया है कि कर्मों में नमाज़ के पश्चात् उसी का स्थान है। और क़ुर्आन में दोनों कर्मों की चर्चा एक साथ करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि किसी समुदाय में इस्लामी जीवन के सब से पहले यही दो लक्षण हैं, नमाज़ तथा ज़कात। यदि इस्लाम में ज़कात के नियम का पालन किया जाये तो समाज में कोई ग़रीब नहीं रह जायेगा। और धनवानों तथा निर्धनों के बीच प्रेम की ऐसी भावना पैदा हो जायेगी कि पूरा समाज सुखी और शान्तिमय बन जायेगा। ब्याज का भी निवारण हो जायेगा। तथा धन कुछ हाथों में सीमित नहीं रह कर उस का लाभ पूरे समाज को मिलेगा। फिर इस्लाम ने इस का नियम निर्धारित किया है। जिस का पूरा विवरण ह़दीसों में मिलेगा और यह भी निश्चित कर दियया है कि ज़कात का धन किन को दिया जायेगा और इस आयत में उन्हीं की चर्चा की गई है, जो यह हैः1. फ़क़ीर 2. मिस्कीन, 3. ज़कात के कार्यकर्ता, 4. नये मुसलमान, 5. दास-दासी, 6. ऋणी, 7. धर्म के रक्षक, 8. और यात्री। अल्लाह की राह से अभिप्राय वह लोग हैं जो धर्म की रक्षा के लिये काम कर रहे हैं।
तथा उन (मुनाफ़िक़ों) में से कुछ नबी को दुःख देते हैं और कहते हैं कि वह बड़े सुनवा[1] हैं। आप कह दें कि वह तुम्हारी भलाई के लिए ऐसे हैं। वह अल्लाह पर ईमान रखते हैं और ईमान वालों की बात का विश्वास करते है और उनके लिए दया हैं, जो तुममें से ईमान लाये हैं और जो अल्लाह के रसूल को दुःख देते हैं, उनके लिए दुःखदायी यातना है।
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1. अर्थात जो कहो मान लेते हैं।
वे तुम्हारे समक्ष अल्लाह की शपथ लेते हैं, ताकि तुम्हें प्रसन्न कर लें। जबकि अल्लाह और उसके रसूल इसके अधिक योग्य हैं कि उन्हें प्रसन्न करें, यदि वे वास्तव में, ईमान वाले हैं।
क्या वे नहीं जानते कि जो अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करता है, उसके लिए नरक की अग्नि है, जिसमें वे सदावासी होंगे और ये बहुत बड़ा अपमान है?
मुनाफ़िक़ (द्विधावादी) इससे डरते हैं कि उन[1] पर कोई ऐसी सूरह न उतार दी जाये, जो उन्हें इनके दिलों की दशा बता दे। आप कह दें कि हँसी उड़ा लो। निश्चय अल्लाह उसे खोलकर रहेगा, जिससे तुम डर रहे हो।
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1. ईमान वालों पर।
और यदि आप उनसे प्रश्न करें, तो वे अवश्य कह देंगे कि हमतो यूँ ही बातें तथा उपहास कर रहे थे। आप कह दें कि क्या अल्लाह, उसकी आयतों और उसके रसूल के ही साथ उपहास कर रहे थे?
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1. तबूक की यात्रा के बीच मुनाफ़िक़ लोग, नबी तथा इस्लाम के विरुध्द बहुत सी दुःखदायी बातें कर रहे थे।
तुम बहाने न बनाओ, तुमने अपने ईमान के पश्चात् कुफ़्र किया है। यदि हम तुम्हारे एक गिरोह को क्षमा कर दें, तो भी एक गिरोह को अवश्य यातना देंगे। क्योंकि वही अपराधी हैं।
मुनाफ़िक़ पुरुष तथा स्त्रियाँ, सब एक-दूसरे जैसे हैं। वे बुराई का आदेश देते तथा भलाई से रोकते हैं और अपने हाथ बंद किये रहते[1] हैं। वे अल्लाह को भूल गये, तो अल्लाह ने भी उन्हें भुला[2] दिया। वास्तव में, मुनाफ़िक़ ही भ्रषटाचारी हैं।
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1. अर्थात दान नहीं करते। 2. अल्लाह के भुला देने का अर्थ है उन पर दया न करना।
अल्लाह ने मुनाफ़िक़ पुरुषों तथा स्त्रियों और काफ़िरों को नरक की अग्नि का वचन दिया है, जिसमें सदावासी होंगे। वही उन्हें प्रयाप्त है और अल्लाह ने उन्हें धिक्कार दिया है और उन्हीं के लिए स्थायी यातना है।
इनकी दशा वही हुई, जो इनसे पहले के लोगों की हुई। वे बल में इनसे कड़े और धन तथा संतान में इनसे अधिक थे। तो उन्होंने अपने (सांसारिक) भाग का आनंद लिया, अतः तुमभी अपने भाग का आनंद लो, जैसे तुमसे पूर्व के लोगों ने आनंद लिया और तुमभी उलझते हो, जैसे वे उलझते रहे, उन्हीं के कर्म लोक तथा परलोक में व्यर्थ गये और वही क्षति में हैं।
क्या इन्हें उनके समाचार नहीं पहुँचे, जो इनसे पहले थे; नूह़, आद, समूद तथा इब्राहीम की जाति के और मद्यन[1] के वासियों और उन बस्तियों के, जो पलट दी[2] गईं? उनके पास उनके रसूल खुली निशानियाँ लाये और ऐसा नहीं हो सकता था कि अल्लाह उनपर अत्याचार करता, परन्तु वे स्वयं अपने ऊपर अत्याचार[3] कर रहे थे।
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1. मद्यन के वासी शोऐब अलैहिस्सलाम की जाति थे। 2. इस से अभिप्राय लूत अलैहिस्सलाम की जाति है। (इब्ने कसीर) 3. अपने रसूलों को अस्वीकार कर के।
तथा ईमान वाले पुरुष और स्त्रियाँ एक-दूसरे के सहायक हैं। वे भलाई का आदेश देते तथा बुराई से रोकते हैं, नामज़ की स्थापना करते तथा ज़कात देते हैं और अल्लाह तथा उसके रसूल की आज्ञा का पालन करते हैं। इन्हीं पर अल्लाह दया करेगा, वास्तव में, अल्लाह प्रभुत्वशाली, त्तवज्ञ है।
अल्लाह ने ईमान वाले पुरुषों तथा ईमान वाली स्त्रियों को ऐसे स्वर्गों का वचन दिया है, जिनमें नहरें प्रवाहित होंगी, वे उनमें सदावासी होंगे और स्थायी स्वर्गों में, पवित्र आवासों का। और अल्लाह की प्रसन्नता इनसबसे बड़ा प्रदान होगी, यही बहुत बड़ी सफलता है।
हे नबी! काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों से जिहाद करो और उनपर सख़्ती करो, उनका आवास नरक है और वह बहुत बुरा स्थान है।
वे अल्लाह की शपथ लेते हैं कि उन्होंने ये[1] बात नहीं कही। जबकि वास्तव में, उन्होंने कुफ़्र की बात कही[2] है और इस्लाम ले आने के पश्चात् काफ़िर हो गये हैं और उन्होंने ऐसी बात का निश्चय किया था, जो वे कर नहीं सके और उन्हें यही बात बुरी लगी कि अल्लाह और उसके रसूल ने उन्हें अपने अनुग्रह से धनी[3] कर दिया। अब यदि वे क्षमा याचना कर लें, तो उनके लिए उत्तम है और यदि विमुःख हों, तो अल्लाह उन्हें दुःखदायी यातना लोक तथा प्रलोक में देगा और उनका धरती में कोई संरक्षक और सहायक न होगा।
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1. अर्थात ऐसी बात जो रसूल और मुसलमानों को बुरी लगे। 2. यह उन बातों की ओर संकेत हैं जो द्विधावादियों ने तबूक की मुहिम के समय की थीं। (उन की ऐसी बातों के विवरण के लिये देखियेः सूरह मुनाफ़िक़ून, आयतः 7-8) 3. नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना आने से पहले मदीने का कोई महत्व न था। आर्थिक दशा भी अच्छी नहीं थी। जो कुछ था यहूदियों के अधिकार में था। वह ब्याज भक्षी थे, शराब का व्यापार करते थे, और अस्त्र-शस्त्र बनाते थे। आप के आगमन के पश्चात आर्थिक दशा सुधर गई, और व्यवसायिक उन्नति हुई।
उनमें से कुछ ने अल्लाह को वचन दिया था कि यदि वे अपनी दया से हमें (धन-धान्य) प्रदान करेगा, तो हम अवश्य दान करेंगे और सुकर्मियों में हो जायेंगे।
फिर जब अल्लाह ने अपनी दया से उन्हें प्रदान कर दिया, तो उससे कंजूसी कर गये और वचन से विमुख होकर फिर गये।
तो इसका परिणाम ये हुआ कि उनके दिलों में द्विधा का रोग, उस दिन तक के लिए हो गया, जब ये अल्लाह से मिलेंगे। क्योंकि उन्होंने उस वचन को भंग कर दिया, जो अल्लाह से किया था और इसलिए कि वे झूठ बोलते रहे।
क्या उन्हें इसका ज्ञान नहीं हुआ कि अल्लाह उनके भेद की बातें तथा सुनगुन को भी जानता है और वह सभी भेदों का अति ज्ञानी है?
जिनकी दशा ये है कि वे ईमान वालों में से स्वेच्छा दान करने वालों पर, दानों के विषय में आक्षेप करते हैं तथा उन्हें जो अपने परिश्रम ही से कुछ पाते (और दान करते हैं), ये (मुनाफ़िक़) उनसे उपहास करते हैं, अल्लाह उनसे उपहास करता[1] है और उन्हीं के लिए दुःखदायी यातना है।
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1. अर्थात उन के उपहास का कुफल दे रहा है। अबू मस्ऊद रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि जब हमें दान देने का आदेश दिया गया तो हम कमाने के लिये बोझ लादने लगे, ताकि हम दान कर सकें। और अबू अक़ील (रज़ियल्लाहु अन्हु) आधा साअ (सवा किलो) लाये। और एक व्यक्ति उन से अधिक ले कर आया। तो मुनाफ़िक़ों ने कहाः अल्लाह को उस के थोड़े से दान की ज़रूरत नहीं। और यह दिखाने के लिये (अधिक) लाया है। इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4668)
(हे नबी!) आप उनके लिए क्षमा याचना करें अथवा न करें, यदि आप उनके लिए सत्तर बार भी क्षमा याचना करें, तो भी अल्लाह उन्हें क्षमा नहीं करेगा, इस कारण कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और अल्लाह अवज्ञाकीरियों को मार्गदर्शन नहीं देता।
वे प्रसन्न[1] हुए, जो पीछे कर दिये गये, अपने बैठे रहने के कारण अल्लाह के रसूल के पीछे और उन्हें बुरा लगा कि जिहाद करें अपने धनों तथा प्राणों से अल्लाह की राह में और उन्होंने कहा कि गर्मी में न निकलो। आप कह दें कि नरक की अग्नि गर्मी में इससे भीषण है, यदि वे समझते (तो ऐसी बात न करते)।
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1. अर्थात मुनाफ़िक़ जो मदीना में रह गये और तबूक की यात्रा में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ नहीं गये।
तो उन्हें चाहिए कि हँसें कम और रोयें अधिक। जो कुछ वे कर रहे हैं, उसका बदला यही है।
तो (हे नबी!) यदि आपको अल्लाह इन (द्विधावादियों) के किसी गिरोह के पास (तबूक से) वापस लाये और वे आपसे (किसी दूसरे युध्द में) निकलने की अनुमति माँगें, तो आप कह दें कि तुम मेरे साथ कभी न निकलोगे और न मेरे साथ किसी शत्रु से युध्द कर सकोगे। तुम प्रथम बार बैठे रहने पर प्रसन्न थे, तो अबभी पीछे रहने वालों के साथ बैठे रहो।
(हे नबी!) आप उनमें से कोई मर जाये, तो उसके जनाज़े की नमाज़ कभी न पढ़ें और न उसकी समाधि (क़ब्र) पर खड़े हों। क्योंकि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया है और अवज्ञाकारी रहते हुए मरे[1] हैं।
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1. सह़ीह़ ह़दीस में है कि जब नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मुनाफ़िक़ों के मुख्या अब्दुल्लाह बिन उबय्य का जनाज़ा पढ़ा तो यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4672)
आपको उनके धन तथा उनकी संतान चकित न करे, अल्लाह तो चाहता है कि इनके द्वारा उन्हें संसार में यातना दे और उनके प्राण इस दशा में निकलें कि वे काफ़िर हों।
तथा जब कोई सूरह उतारी गयी कि अल्लाह पर ईमान लाओ तथा उसके रसूल के साथ जिहाद करो, तो आपसे उन (मुनाफ़िक़ों) में से समाई वालों ने अनुमति ली और कहा कि आप हमें छोड़ दें। हम बैठने वालों के साथ रहेंगे।
तथा प्रसन्न हो गये कि स्त्रियों के साथ रहें और उनके दिलों पर मुहर लगा दी गई। अतः वे नहीं समझते।
परन्तु रसूल ने और जो आपके साथ ईमान लाये, अपने धनों और प्राणों से जिहाद किया और उन्हीं के लिए भलाईयाँ हैं और वही सफल होने वाले हैं।
अल्लाह ने उनके लिए ऐसे स्वर्ग तैयार कर दिये हैं, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं। वे उनमें सदावासी होंगे और यही बड़ी सफता है।
और देहातियों में से कुछ बहाना करने वाले आये, ताकि आप उन्हें अनुमति दें तथा वह बैठे रह गये, जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से झूठ बोला। तो इनमें से काफ़िरों को दुःखदायी यातना पहुँचेगी।
निर्बलों तथा रोगियों और उनपर, जो इतना नहीं पाते कि (तैयारी के लिए) व्यय कर सकें, कोई दोष नहीं, जब अल्लाह और उसके रसूल के भक्त हों, तो उनपर (दोषारोपण) की कोई राह नहीं।
और उनपर, जो आपके पास जब आयें कि आप उनके लिए सवारी की व्यवस्था कर दें और आप कहें कि मेरे पास इतना नहीं कि तुम्हारे लिए सवारी की व्यवस्था करूँ, तो वे इस दशा में वापस हुए कि शोक के कारण, उनकी आँखें आँसू बहा रही[1] थीं।
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1. यह विभिन्न क़बीलों के लोग थे, जो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सेवा में उपस्थित हुये कि आप हमारे लिये सवारी का प्रबंध कर दें। हम भी आप के साथ तबूक के जिहाद में जायेंगे। परन्तु आप सवारी का कोई प्रबंध न कर सके और वह रोते हुये वापिस हो गये। (इब्ने कसीर)
दोष केवल उनपर है, जो आपसे अनुमति माँगते हैं, जबकि वे धनी हैं और वे इससे प्रसन्न हो गये कि स्त्रियों के साथ रह जायेंगे और अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी, इसलिए, वे कुछ नहीं जानते।
वे तुमसे बहाने बनायेंगे, जब तुम उनके पास (तबूक से) वापस आओगे। आप कह दें कि बहाने न बनाओ, हम तुम्हारा विश्वास नहीं करेंगे। अल्लाह ने हमें तुम्हारी दशा बता दी है तथा भविष्य में भी अल्लाह और उसके रसूल तुम्हारा कर्म देखेंगे। फिर तुम परोक्ष और प्रत्यक्ष के ज्ञानी (अल्लाह) की ओर फेरे जाओगे। फिर वह तुम्हें बता देगा कि तुम क्या कर रहे थे।
वे तुमसे अल्लाह की शपथ लेंगे, जब तुम उनकी ओर वापस आओगे, ताकि तुम उनसे विमुख हो जाओ। तो तुम उनसे विमुख हो जाओ। वास्तव में, वे मलीन हैं और उनका आवास नरक है, उसके बदले, जो वे करते रहे।
वे तुम्हारे लिए शपथ लेंगे, ताकि तुम उनसे प्रसन्न हो जाओ, तो यदि तुम उनसे प्रसन्न हो गये, तबभी अल्लाह उल्लंघनकारी लोगों से प्रसन्न नहीं होगा।
देहाती[1] अविश्वास तथा द्विधा में अधिक कड़े और अधिक योग्य हैं कि उस (धर्म) की सीमाओं को न जानें, जिसे अल्लाह ने उतारा है और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।
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1. इस से अभिप्राय मदीना के आस पास के क़बीले हैं।
देहातियों में कुछ ऐसे भी हैं, जो अपने दिये हुए दान को अर्थदण्ड समझते हैं और तुमपर कालचक्र की प्रतीक्षा करते हैं। उन्हींपर कालकुचक्र आ पड़ा है और अल्लाह सबकुछ सुनने-जानने वाला है।
और देहातियों में कुछ ऐसे भी हैं, जो अल्लाह तथा अन्तिम दिन (प्रलय) पर ईमान (विश्वास) रखते हैं और अपने दिये हुए दान को अल्लाह की समीप्ता तथा रसूल के आशीर्वादों का साधन समझते हैं। सुन लो! ये वास्तव में, उनके लिए समीप्य का साधन है। शीघ्र ही अल्लाह उन्हें अपनी दया में प्रवेश देगा, वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
तथा प्रथम अग्रसर मुहाजिरीन[1] और अन्सार और जिन लोगों ने सुकर्म के साथ उनका अनुसरण किया, अल्लाह उनसे प्रसन्न हो गया और वे उससे प्रसन्न हो गये तथा उसने उनके लिए ऐसे स्वर्ग तैयार किये हैं, जिनमें नहरें प्रवाहित हैं। वे उनमें सदावासी होंगे, यही बड़ी सफलता है।
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1. प्रथम अग्रसर मुहाजिरीन उन को कहा गया है जो मक्का से हिजरत कर के ह़ुदैबिया की संधि सन् 6 से पहले मदीना आ गये थे। और प्रथम अग्रसर अन्सार मदीना के वह मुसलमान हैं जो मुहाजिरीन के सहायक बने और ह़ुदैबिया में उपस्थित थे। (इब्ने कसीर)
और जो तुम्हारे आस-पास ग्रामीन हैं, उनमें से कुछ मुनाफ़िक़ (द्विधावादी) हैं और कुछ मदीने में हैं। जो (अपने) निफ़ाक़ में अभ्यस्त (निपुण) हैं। आप उन्हें नहीं जानते, उन्हें हम जानते हैं। हम उन्हें दो बार[1] यातना देंगे। फिर घोर यातना की ओर फेर दिये जायेंगे।
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1. संसार में तथा क़ब्र में। फिर प्रलोक की घोर यातना होगी। (इब्ने कसीर)
और कुछ दूसरे भी हैं, जिन्होंने अपने पापों को स्वीकार कर लिया है। उन्होंने कुछ सुकर्म और कुछ दूसरे कुकर्म को मिश्रित कर दिया है। आशा है कि अल्लाह उन्हें क्षमा कर देगा। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमी, दयावान् है।
(हे नबी!) आप उनके धनों से दान लें और उसके द्वारा उन (के धनों) को पवित्र और उन (के मनों) को शुध्द करें और उन्हें आशीर्वाद दें। वास्तव में, आपका आशीर्वाद उनके लिए संतोष का कारण है और अल्लाह सब सुनने-जानने वाला है।
क्या वे नहीं जानते कि अल्लाह ही अपने भक्तों की क्षमा स्वीकार करता तथा (उनके) दानों को अंगीकार करता है और वास्तव में, अल्लाह अति क्षमी दयावान् है?
और (हे नबी!) उनसे कहो कि कर्म करते जाओ। अल्लाह, उसके रसूल और ईमान वाले तुम्हारा कर्म देखेंगे। (फिर) उस (अल्लाह) की ओर फेरे जाओगे, जो परोक्ष तथा प्रत्यक्ष (छुपे तथा खुले) का ज्ञानी है। तो वह तुम्हें बता देगा, जो तुम करते रहे।
और (इनके सिवाय) कुछ दूसरे भी हैं, जो अल्लाह के आदेश के लिए विलंबित[1] हैं। वह उन्हें दण्ड दे अथवा उन्हें क्षमा कर दे, अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।
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1. अर्थात अपने विषय में अल्लाह के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह तीन व्यक्ति थे जिन्हों ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तबूक से वापिस आने पर यह कहा कि वह अपने आलस्य के कारण आप का साथ नहीं दे सके। आप ने उन से कहा कि अल्लाह के आदेश की प्रतीक्षा करो। और आगामी आयत 117 में उन के बारे में आदेश आ रहा है।
तथा (द्विधावादियों में) वे भी हैं, जिन्होंने एक मस्जिद[1] बनाई; इसलिए कि (इस्लाम को) हानि पहुँचायें, कुफ़्र करें, ईमान वालों में विभेद उतपन्न करें तथा उसका घात-स्थल बनाने के लिए, जो इससे पूर्व अल्लाह और उसके रसूल से युध्द कर[2] चुका है और वे अवश्य शपथ लेंगे कि हमारा संकल्प भलाई के सिवा और कुछ न था तथा अल्लाह साक्ष्य देता है कि वे निश्चय मिथ्यावादी हैं।
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1. इस्लामी इतिहास में यह "मस्जिदे ज़िरार" के नाम से याद की जाती है। जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना आये तो आप के आदेश से "क़ुबा" नाम के स्थान में एक मस्जिद बनाई गई। जो इस्लामी युग की प्रथम मस्जिद है। कुछ मुनाफ़िक़ों ने उसी के पास एक नई मस्जिद का निर्मान किया। और जब आप तबूक के लिये निकल रहे थे तो आप से कहा कि आप एक दिन उस में नमाज़ पढ़ा दें। आप ने कहा कि यात्रा से वापसी पर देखा जायेगा। और जब वापिस मदीना के समीप पहुँचे तो यह आयत उतरी, और आप के आदेश से उसे ध्वस्त कर दिया गया। (इब्ने कसीर) 2. इस से अभीप्रेत अबू आमिर राहिब है। जिस ने कुछ लोगों से कहा कि एक मस्जिद बनाओ और जितनी शक्ति और अस्त्र-शस्त्र हो सके तैयार कर लो। मैं रोम के राजा क़ैसर के पास जा रहा हूँ। रोमियों की सेना लाऊँगा, और मुह़म्मद तथा उस के साथियों को मदीना से निकाल दूँगा। (इब्ने कसीर)
(हे नबी!) आप उसमें कभी खड़े न हों। वास्तव में, वो मस्जिद[1] जिसका शिलान्यास प्रथम दिन से अल्लाह के भय पर किया गया है, वो अधिक योग्य है कि आप उसमें (नमाज़ के लिए) खड़े हों। उसमें ऐसे लोग हैं, जो स्वच्छता से प्रेम[2] करते हैं और अल्लाह स्वच्छ रहने वालों से प्रेम करता है।
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1. इस मस्जिद से अभिप्राय क़ुबा की मस्जिद है। तथा मस्जिद नबवी शरीफ़ भी इसी में आती है। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात शुध्दता के लिये जल का प्रयोग करते हैं।
तो क्या जिसने अपने निर्माण का शिलान्यास अल्लाह के भय और प्रसन्नता के आधार पर किया हो, वह उत्तम है अथवा जिसने उसका शिलान्यास एक खाई के गिरते हुए किनारे पर किया हो, जो उसके साथ नरक की अग्नि में गिर पड़ा? और अल्लाह अत्याचारियों को मार्गदर्शन नहीं देता।
ये निर्माण जो उन्होंने किया, बराबर उनके दिलों में एक संदेह बना रहेगा, परन्तु ये कि उनके दिलों को खण्ड-खण्ड कर दिया जाये और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।
निःसंदेह अल्लाह ने ईमान वालों के प्राणों तथा उनके धनों को इसके बदले ख़रीद लिया है कि उनके लिए स्वर्ग है। वे अल्लाह की राह में युध्द करते हैं, वे मारते तथा मरते हैं। ये अल्लाह पर सत्य वचन है, तौरात, इंजील और क़ुर्आन में और अल्लाह से बढ़कर अपना वचन पूरा करने वाला कौन हो सकता है? अतः, अपने इस सौदे पर प्रसन्न हो जाओ, जो तुमने किया और यही बड़ी सफलता है।
जो क्षमा याचना करने, वंदना करने तथा अल्लाह की स्तुति करने वाले, रोज़ा रखने तथा रुकूअ और सज्दा करने वाले, भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने वाले तथा अल्लाह की सीमाओं की रक्षा करने वाले हैं और (हे नबी!) आप ऐसे ईमान वालों को शुभ सूचना सुना दें।
किसी नबी तथा[1] उनके लिए जो ईमान लाये हों, योग्य नहीं है कि मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) के लिए क्षमा की प्रार्थना करें। यद्यपि वे उनके समीपवर्ती हों, जब ये उजागर हो गया कि वास्तव में, वह नारकी[2] हैं।
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1. ह़दीस में है कि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के चाचा अबू तालिब के निधन का समय आया तो आप उस के पास गये। और कहाः चाचा! "ला इलाहा इल्लल्लाह" पढ़ लो। मैं अल्लाह के पास तुम्हारे लिये इस को प्रमाण बना लूँगा। उस समय अबू जह्ल और अब्दुल्लाह बिन उमय्या ने कहाः क्या तुम अब्दुल मुत्तलिब के धर्म से फिर जाओगे? (अतः वह काफ़िर ही मरा।) तब आप ने कहाः मैं तुम्हारे लिये क्षमा की प्रार्थना करता रहूँगा, जब तक उस से रोक न दिया जाऊँ। और इसी पर यह आयत उतरी। (सह़ीह़ बुख़ारीः4675) 2. देखियेः सूरह माइदा, आयतः72, तथा सूरह निसा, आयतः48,116
और इब्राहीम का अपने बाप के लिए क्षमा की प्रार्थना करना, केवल इसलिए हुआ की उसने उसे, इसका वचन दिया[1] था और जब उसके लिए उजागर हो गया कि वह अल्लाह का शत्रु है, तो उससे विरक्त हो गया। वास्तव में, इब्राहीम बड़ा कोमल हृदय, सहनशील था।
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1. देखियेः सूरह मुमतह़िना, आयतः4
अल्लाह ऐसा नहीं है कि किसी जाति को, मार्गदर्शन देने के पश्चात् कुपथ कर दे, जब तक उनके लिए जिससे बचना चाहिए, उसे उजागर न कर दे। वास्तव में, अल्लाह प्रत्येक वस्तु को भली-भाँति जानने वाला है।
वास्तव में, अल्लाह ही है, जिसके अधिकार में आकाशों तथा धरती का राज्य है। वही जीवन देता तथा मारता है और तुम्हारे लिए उसके सिवा कोई संरक्षक और सहायक नहीं है।
अल्लाह ने नबी तथा मुहाजिरीन और अन्सार पर दया की, जिन्होंने तंगी के समय आपका साथ दिया, इसके पश्चात् कि उनमें से कुछ लोगों के दिल कुटिल होने लगे थे। फिर उनपर दया की। निश्चय वह उनके लिए अति करुणामय, दयावान् है।
तथा उन तीनों[1] पर जिनका मामला विलंबित कर दिया गाय था, जब उनपर धरती अपने विस्तार के होते सिकुड़ गयी और उनपर उनके प्राण संकीर्ण[2] हो गये और उन्हें विश्वास था कि अल्लाह के सिवा उनके लिए कोई शरणागार नहीं, परन्तु उसी की ओर। फिर उनपर दया की, ताकि तौबा (क्षमा याचना) कर लें। वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।
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1. यह वही तीन हैं जिन की चर्चा आयत संख्या 106 में आ चुकी है। इन के नाम थेः1-काब बिन मालिक, 2-हिलाल बिन उमय्या, 3- मुरारह बिन रबीअ। (सह़ीह़ बुख़ारीः 4677) 2. क्यों कि उन का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था।
हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो तथा सचों के साथ हो जाओ।
मदीना के वासियों तथा उनके आस-पास के देहातियों के लिए उचित नहीं था कि अल्लाह के रसूल से पीछे रह जायें और अपने प्राणों को आपके प्राण से प्रिय समझें। ये इसलिए कि उन्हें अल्लाह की राह में कोई प्यास और थकान तथा भूक नहीं पहुँचती है और न वे किसी ऐसे स्थान को रोंदते हैं, जो काफ़िरों को अप्रिय हो या किसी शत्रु से वह कोई सफलता प्राप्त नहीं करते हैं, परन्तु उनके लिए एक सत्कर्म लिख दिया जाता है। वास्तव में, अल्लाह सत्कर्मियों का फल व्यर्थ नहीं करता।
और वे (अल्लाह की राह में) थोड़ा या अधिक, जो भी व्यय करते हैं, और जो भी घाटी पार करते हैं, उसे उनके लिए लिख दिया जाता है, ताकि वह उन्हें उससे उत्तम प्रतिफल प्रदान करे, जो वे कर रहे थे।
ईमान वालों के लिए उचित नहीं कि सब एक साथ निकल पड़ें; तो क्यों नहीं प्रत्येक समुदाय से एक गिरोह निकलता, ताकि धर्म में बोध ग्रहण करें और ताकि अपनी जाति को सावधान करें, जब उनकी ओर वापस आयें, संभवतः वे (कुकर्मों से) बचें[1]।
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1. इस आयत में यह संकेत है कि धार्मिक शिक्षा की एक साधारण व्यवस्था होनी चाहिये। और यह नहीं हो सकता कि सब धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के लिये निकल पड़ें। इस लिये प्रत्येक समुदाय से कुछ लोग जा कर धर्म की शिक्षा ग्रहण करें। फिर दूसरों को धर्म की बातें बताये। क़ुर्आन के इसी संकेत ने मुसलमानों में शिक्षा ग्रहण करने की ऐसी भावना उत्पन्न कर दी कि एक शताब्दी के भीतर उन्होंने शीक्षा ग्रहण करने की ऐसी व्यवस्था बना दी जिस का उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं मिलता।
हे ईमान वलो! अपने आस-पास के काफ़िरों से युध्द करो[1] और चाहिए कि वे तुममें कुटिलता पायें तथा विश्वास रखो कि अल्लाह आज्ञाकारियों के साथ है।
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1. जो शत्रु इस्लामी केंद्र के समीप के क्षेत्रों में हों पहले उन से अपनी रक्षा करो।
और जब (क़ुर्आन की) कोई आयत उतारी जाती है, तो इन (द्विधावादियों में) से कुछ कहते हैं कि तुममें से किसका ईमान (विश्वास) इसने अधिक किया[1]? तो वास्तव में, जो ईमान रखते हैं, उनका विश्वास अवश्य अधिक कर दिया और वे इसपर प्रसन्न हो रहे हैं।
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1. अर्थात उपहास करते हैं।
परन्तु, जिनके दिलों में (द्विधा) का रोग है, तो उसने उनकी गंदगी और अधिक बढ़ा दी और वे काफ़िर रहते हुए ही मर गये।
क्या वे नहीं देखते कि उनकी परीक्षा प्रत्येक वर्ष एक बार अथवा दो बार ली जाती[1] है? फिर भी वे तौबा (क्षमा याचना) नहीं करते और न शिक्षा ग्रहण करते हैं!
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1. अर्थात उन पर आपदा आती है तथा अपमानित किये जाते हैं। (इब्ने कसीर)
और जब कोई सूरह उतारी जाये, तो वे एक-दूसरे की ओर देखते हैं कि तुम्हें कोई देख तो नहीं रहा है? फिर मुँह फेरकर चल देते हैं। अल्लाह ने उनके दिलों को (ईमान से)[1] फेर दिया है। इस कारण कि वे समझ-बूझ नहीं रखते।
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1. इस से अभिप्राय मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं।
(हे ईमान वालो!) तुम्हारे पास तुम्हीं में से अल्लाह का एक रसूल आ गया है। उसे वो बात भारी लगती है, जिससे तुम्हें दुःख हो, वह तुम्हारी सफलता की लालसा रखते हैं और ईमान वालों के लिए करुणामय दयावान् हैं।
(हे नबी!) फिर भी यदि वे आपसे मुँह फेरते हों, तो उनसे कह दो कि मेरे लिए अल्लाह (का सहारा) बस है। उसके अतिरिक्त कोई ह़क़ीक़ी पूज्य नहीं और वही महासिंहासन का मालिक (स्वामी) है।
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سورةُ (التَّوْبةِ) ارتبَطتِ ارتباطًا وثيقًا بسورة (الأنفال)، حتى ظنَّ بعضُ الصَّحابة أنهما سورةٌ واحدة؛ فقد أكمَلتِ الحديثَ عن أحكام الحرب والأَسْرى. وسُمِّيتْ بـ (الفاضحةِ)؛ لأنها فضَحتْ سرائرَ المنافقين، وأحوالَهم، وصفاتِهم. وقد نزَلتْ سورة (التَّوْبةِ) في غزوتَيْ (حُنَينٍ)، و(تَبُوكَ). وأعلَنتْ هذه السورةُ البراءةَ من الشركِ والمشركين وأفعالهم، وبيَّنتْ أحكامَ المواثيق والعهود مع المشركين، معلِنةً في خاتمتها التوبةَ على مَن تاب وتخلَّف من الصحابة - رضي الله عنهم - عن الغزوِ: {ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْ لِيَتُوبُوٓاْۚ} [التوبة: 118].

ترتيبها المصحفي
9
نوعها
مدنية
ألفاظها
2505
ترتيب نزولها
113
العد المدني الأول
130
العد المدني الأخير
130
العد البصري
130
العد الكوفي
129
العد الشامي
130

تعلَّقتْ سورةُ (التوبة) بأحداثٍ كثيرة، وهي (الفاضحةُ)؛ لذا صحَّ في أسبابِ نزولها الكثيرُ؛ من ذلك:

* قوله تعالى: {أَجَعَلْتُمْ سِقَايَةَ اْلْحَآجِّ وَعِمَارَةَ اْلْمَسْجِدِ اْلْحَرَامِ كَمَنْ ءَامَنَ بِاْللَّهِ وَاْلْيَوْمِ اْلْأٓخِرِ وَجَٰهَدَ فِي سَبِيلِ اْللَّهِۚ لَا يَسْتَوُۥنَ عِندَ اْللَّهِۗ وَاْللَّهُ لَا يَهْدِي اْلْقَوْمَ اْلظَّٰلِمِينَ} [التوبة: 19]:

عن النُّعمانِ بن بشيرٍ رضي الله عنهما، قال: «كنتُ عند مِنبَرِ رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم، فقال رجُلٌ: ما أُبالي ألَّا أعمَلَ عمَلًا بعد الإسلامِ إلا أن أَسقِيَ الحاجَّ، وقال آخَرُ: ما أُبالي ألَّا أعمَلَ عمَلًا بعد الإسلامِ إلا أن أعمُرَ المسجدَ الحرامَ، وقال آخَرُ: الجهادُ في سبيلِ اللهِ أفضَلُ ممَّا قُلْتم، فزجَرَهم عُمَرُ، وقال: لا تَرفَعوا أصواتَكم عند مِنبَرِ رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم، وهو يومُ الجمعةِ، ولكن إذا صلَّيْتُ الجمعةَ دخَلْتُ فاستفتَيْتُه فيما اختلَفْتم فيه؛ فأنزَلَ اللهُ عز وجل: {أَجَعَلْتُمْ سِقَايَةَ اْلْحَآجِّ} [التوبة: 19] الآيةَ إلى آخِرِها». أخرجه مسلم (١٨٧٩).

* قوله تعالى: {اْلَّذِينَ يَلْمِزُونَ اْلْمُطَّوِّعِينَ مِنَ اْلْمُؤْمِنِينَ فِي اْلصَّدَقَٰتِ وَاْلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ إِلَّا جُهْدَهُمْ} [التوبة: 79]:

عن أبي مسعودٍ عُقْبةَ بن عمرٍو رضي الله عنه، قال: «لمَّا نزَلتْ آيةُ الصَّدقةِ كنَّا نُحامِلُ، فجاءَ رجُلٌ فتصدَّقَ بشيءٍ كثيرٍ، فقالوا: مُرائي، وجاءَ رجُلٌ فتصدَّقَ بصاعٍ، فقالوا: إنَّ اللهَ لَغنيٌّ عن صاعِ هذا؛ فنزَلتِ: {اْلَّذِينَ يَلْمِزُونَ اْلْمُطَّوِّعِينَ مِنَ اْلْمُؤْمِنِينَ فِي اْلصَّدَقَٰتِ وَاْلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ إِلَّا جُهْدَهُمْ} [التوبة: 79] الآية». أخرجه البخاري (١٤١٥).

* قوله تعالى: {وَلَا تُصَلِّ عَلَىٰٓ أَحَدٖ مِّنْهُم مَّاتَ أَبَدٗا وَلَا تَقُمْ عَلَىٰ قَبْرِهِۦٓۖ} [التوبة: 84]:

عن عبدِ اللهِ بنِ عُمَرَ رضي الله عنهما: «أنَّ عبدَ اللهِ بنَ أُبَيٍّ لمَّا تُوُفِّيَ جاءَ ابنُه إلى النبيِّ ﷺ، فقال: يا رسولَ اللهِ، أعطِني قميصَك أُكفِّنْهُ فيه، وصَلِّ عليه، واستغفِرْ له، فأعطاه النبيُّ ﷺ قميصَه، فقال: آذِنِّي أُصلِّي عليه، فآذَنَه، فلمَّا أراد أن يُصلِّيَ عليه جذَبَه عُمَرُ رضي الله عنه، فقال: أليس اللهُ نهاك أن تُصلِّيَ على المنافِقين؟ فقال: أنا بين خِيرَتَينِ، قال: {اْسْتَغْفِرْ لَهُمْ أَوْ لَا تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ إِن تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ سَبْعِينَ مَرَّةٗ فَلَن يَغْفِرَ اْللَّهُ لَهُمْۚ} [التوبة: 80]، فصلَّى عليه؛ فنزَلتْ: {وَلَا تُصَلِّ عَلَىٰٓ أَحَدٖ مِّنْهُم مَّاتَ أَبَدٗا وَلَا تَقُمْ عَلَىٰ قَبْرِهِۦٓۖ} [التوبة: 84]». أخرجه البخاري (١٢٦٩).

* قوله تعالى: {مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَاْلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن يَسْتَغْفِرُواْ لِلْمُشْرِكِينَ وَلَوْ كَانُوٓاْ أُوْلِي قُرْبَىٰ مِنۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمْ أَنَّهُمْ أَصْحَٰبُ اْلْجَحِيمِ} [التوبة: 113]:

عن المسيَّبِ بن حَزْنٍ رضي الله عنه، قال: «لمَّا حضَرتْ أبا طالبٍ الوفاةُ جاءَه رسولُ اللهِ ﷺ، فوجَدَ عنده أبا جهلٍ، وعبدَ اللهِ بنَ أبي أُمَيَّةَ بنِ المُغيرةِ، فقال رسولُ اللهِ ﷺ: «يا عَمِّ، قُلْ: لا إلهَ إلا اللهُ، كلمةً أشهَدُ لك بها عند اللهِ»، فقال أبو جهلٍ وعبدُ اللهِ بنُ أبي أُمَيَّةَ: يا أبا طالبٍ، أتَرغَبُ عن مِلَّةِ عبدِ المطَّلِبِ؟ فلَمْ يَزَلْ رسولُ اللهِ ﷺ يَعرِضُها عليه، ويُعِيدُ له تلك المقالةَ، حتى قال أبو طالبٍ آخِرَ ما كلَّمهم: هو على مِلَّةِ عبدِ المطَّلِبِ، وأبى أن يقولَ: لا إلهَ إلا اللهُ، فقال رسولُ اللهِ ﷺ: «أمَا واللهِ لَأستغفِرَنَّ لك ما لم أُنْهَ عنك»؛ فأنزَلَ اللهُ عز وجل: {مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَاْلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَن يَسْتَغْفِرُواْ لِلْمُشْرِكِينَ وَلَوْ كَانُوٓاْ أُوْلِي قُرْبَىٰ مِنۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمْ أَنَّهُمْ أَصْحَٰبُ اْلْجَحِيمِ} [التوبة: 113]». أخرجه مسلم (٢٤).

* قوله تعالى: {وَعَلَى اْلثَّلَٰثَةِ اْلَّذِينَ خُلِّفُواْ حَتَّىٰٓ إِذَا ضَاقَتْ عَلَيْهِمُ اْلْأَرْضُ بِمَا رَحُبَتْ وَضَاقَتْ عَلَيْهِمْ أَنفُسُهُمْ وَظَنُّوٓاْ أَن لَّا مَلْجَأَ مِنَ اْللَّهِ إِلَّآ إِلَيْهِ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْ لِيَتُوبُوٓاْۚ إِنَّ اْللَّهَ هُوَ اْلتَّوَّابُ اْلرَّحِيمُ} [التوبة: 118]:

نزَلتْ في (كعبِ بن مالكٍ)، و(مُرَارةَ بنِ الرَّبيعِ)، و(هلالِ بنِ أُمَيَّةَ).

والحديثُ يَروِيه عبدُ اللهِ بن كعبٍ، عن أبيه كعبِ بن مالكٍ رضي الله عنه، قال: «لم أتخلَّفْ عن رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم في غزوةٍ غزاها قطُّ، إلا في غزوةِ تَبُوكَ، غيرَ أنِّي قد تخلَّفْتُ في غزوةِ بَدْرٍ، ولم يُعاتِبْ أحدًا تخلَّفَ عنه، إنَّما خرَجَ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم والمسلمون يُريدون عِيرَ قُرَيشٍ، حتى جمَعَ اللهُ بَيْنهم وبين عدوِّهم على غيرِ ميعادٍ، ولقد شَهِدتُّ مع رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم ليلةَ العَقَبةِ، حِينَ تواثَقْنا على الإسلامِ، وما أُحِبُّ أنَّ لي بها مَشهَدَ بَدْرٍ، وإن كانت بَدْرٌ أذكَرَ في الناسِ منها، وكان مِن خَبَري حِينَ تخلَّفْتُ عن رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم في غزوةِ تَبُوكَ: أنِّي لم أكُنْ قطُّ أقوى ولا أيسَرَ منِّي حِينَ تخلَّفْتُ عنه في تلك الغزوةِ، واللهِ ما جمَعْتُ قَبْلها راحلتَينِ قطُّ، حتى جمَعْتُهما في تلك الغزوةِ، فغزَاها رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم في حَرٍّ شديدٍ، واستقبَلَ سفَرًا بعيدًا ومَفازًا، واستقبَلَ عدوًّا كثيرًا، فجَلَا للمسلمين أمْرَهم لِيتأهَّبوا أُهْبةَ غَزْوِهم، فأخبَرَهم بوجهِهم الذي يريدُ، والمسلمون مع رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم كثيرٌ، ولا يَجمَعُهم كتابٌ حافظٌ، يريدُ بذلك الدِّيوانَ، قال كعبٌ: فقَلَّ رجُلٌ يريدُ أن يَتغيَّبَ، يظُنُّ أنَّ ذلك سيَخفَى له، ما لم يَنزِلْ فيه وَحْيٌ مِن اللهِ عز وجل، وغزَا رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم تلك الغزوةَ حِينَ طابتِ الثِّمارُ والظِّلالُ، فأنا إليها أصعَرُ، فتجهَّزَ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم والمسلمون معه، وطَفِقْتُ أغدو لكي أتجهَّزَ معهم، فأرجِعُ ولم أقضِ شيئًا، وأقولُ في نفسي: أنا قادرٌ على ذلك إذا أرَدتُّ، فلم يَزَلْ ذلك يَتمادى بي حتى استمَرَّ بالناسِ الجِدُّ، فأصبَحَ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم غاديًا والمسلمون معه، ولم أقضِ مِن جَهازي شيئًا، ثم غدَوْتُ فرجَعْتُ ولم أقضِ شيئًا، فلم يَزَلْ ذلك يَتمادى بي حتى أسرَعوا، وتفارَطَ الغَزْوُ، فهمَمْتُ أن أرتحِلَ فأُدرِكَهم، فيا لَيْتني فعَلْتُ، ثم لم يُقدَّرْ ذلك لي، فطَفِقْتُ إذا خرَجْتُ في الناسِ بعد خروجِ رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم يحزُنُني أنِّي لا أرى لي أُسْوةً إلا رجُلًا مغموصًا عليه في النِّفاقِ، أو رجُلًا ممَّن عذَرَ اللهُ مِن الضُّعفاءِ، ولم يذكُرْني رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم حتى بلَغَ تَبُوكَ، فقال وهو جالسٌ في القومِ بتَبُوكَ: «ما فعَلَ كعبُ بنُ مالكٍ؟»، قال رجُلٌ مِن بَني سَلِمةَ: يا رسولَ اللهِ، حبَسَه بُرْداه والنَّظرُ في عِطْفَيهِ، فقال له مُعاذُ بنُ جبلٍ: بئسَ ما قلتَ، واللهِ يا رسولَ اللهِ، ما عَلِمْنا عليه إلا خيرًا، فسكَتَ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم، فبينما هو على ذلك، رأى رجُلًا مُبيِّضًا، يزُولُ به السَّرابُ، فقال رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم: «كُنْ أبا خَيْثمةَ»، فإذا هو أبو خَيْثمةَ الأنصاريُّ، وهو الذي تصدَّقَ بصاعِ التَّمْرِ حِينَ لمَزَه المنافِقون».

فقال كعبُ بن مالكٍ: فلمَّا بلَغَني أنَّ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم قد توجَّهَ قافلًا مِن تَبُوكَ، حضَرَني بَثِّي، فطَفِقْتُ أتذكَّرُ الكَذِبَ وأقولُ: بِمَ أخرُجُ مِن سَخَطِه غدًا؟ وأستعينُ على ذلك كلَّ ذي رأيٍ مِن أهلي، فلمَّا قيل لي: إنَّ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم قد أظَلَّ قادمًا، زاحَ عنِّي الباطلُ، حتى عرَفْتُ أنِّي لن أنجوَ منه بشيءٍ أبدًا، فأجمَعْتُ صِدْقَه، وصبَّحَ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم قادمًا، وكان إذا قَدِمَ مِن سَفَرٍ، بدَأَ بالمسجدِ فركَعَ فيه ركعتَينِ، ثم جلَسَ للناسِ، فلمَّا فعَلَ ذلك جاءه المخلَّفون، فطَفِقوا يَعتذِرون إليه، ويَحلِفون له، وكانوا بِضْعةً وثمانين رجُلًا، فقَبِلَ منهم رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم علانيتَهم، وبايَعَهم، واستغفَرَ لهم، ووكَلَ سرائرَهم إلى اللهِ، حتى جئتُ، فلمَّا سلَّمْتُ تبسَّمَ تبسُّمَ المُغضَبِ، ثم قال: «تعالَ»، فجئتُ أمشي حتى جلَسْتُ بين يدَيهِ، فقال لي: «ما خلَّفَك؟ ألم تكُنْ قد ابتَعْتَ ظَهْرَك؟»، قال: قلتُ: يا رسولَ اللهِ، إنِّي واللهِ لو جلَسْتُ عند غيرِك مِن أهلِ الدُّنيا، لَرأَيْتُ أنِّي سأخرُجُ مِن سَخَطِه بعُذْرٍ، ولقد أُعطِيتُ جدَلًا، ولكنِّي واللهِ لقد عَلِمْتُ، لَئِنْ حدَّثْتُك اليومَ حديثَ كَذِبٍ تَرضَى به عنِّي، لَيُوشِكَنَّ اللهُ أن يُسخِطَك عليَّ، ولَئِنْ حدَّثْتُك حديثَ صِدْقٍ تجدُ عليَّ فيه، إنِّي لَأرجو فيه عُقْبى اللهِ، واللهِ ما كان لي عُذْرٌ، واللهِ ما كنتُ قطُّ أقوى ولا أيسَرَ منِّي حين تخلَّفْتُ عنك، قال رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم: «أمَّا هذا فقد صدَقَ؛ فقُمْ حتى يَقضِيَ اللهُ فيك»، فقُمْتُ، وثارَ رجالٌ مِن بَني سَلِمةَ فاتَّبَعوني، فقالوا لي: واللهِ ما عَلِمْناك أذنَبْتَ ذَنْبًا قبل هذا، لقد عجَزْتَ في ألَّا تكونَ اعتذَرْتَ إلى رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم بما اعتذَرَ به إليه المخلَّفون، فقد كان كافيَك ذَنْبَك استغفارُ رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم لك، قال: فواللهِ ما زالوا يُؤنِّبوني حتى أرَدتُّ أن أرجِعَ إلى رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم فأُكذِّبَ نفسي، قال: ثم قلتُ لهم: هل لَقِيَ هذا معي مِن أحدٍ؟ قالوا: نَعم، لَقِيَه معك رجُلانِ، قالا مِثْلَ ما قلتَ، فقيل لهما مثلُ ما قيل لك، قال: قلتُ: مَن هما؟ قالوا: مُرَارةُ بنُ الرَّبيعِ العامريُّ، وهِلالُ بنُ أُمَيَّةَ الواقِفيُّ، قال: فذكَروا لي رجُلَينِ صالحَينِ قد شَهِدا بَدْرًا، فيهما أُسْوةٌ، قال: فمضَيْتُ حين ذكَروهما لي.

قال: ونهَى رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم المسلمين عن كلامِنا - أيُّها الثلاثةُ - مِن بَيْنِ مَن تخلَّفَ عنه.

قال: فاجتنَبَنا الناسُ، وقال: تغيَّروا لنا، حتى تنكَّرتْ لي في نفسي الأرضُ، فما هي بالأرضِ التي أعرِفُ، فلَبِثْنا على ذلك خَمْسين ليلةً، فأمَّا صاحبايَ فاستكانا وقعَدا في بيوتِهما يَبكيانِ، وأمَّا أنا فكنتُ أشَبَّ القومِ وأجلَدَهم، فكنتُ أخرُجُ فأشهَدُ الصَّلاةَ، وأطُوفُ في الأسواقِ، ولا يُكلِّمُني أحدٌ، وآتي رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم فأُسلِّمُ عليه وهو في مَجلِسِه بعد الصَّلاةِ، فأقولُ في نفسي: هل حرَّكَ شَفَتَيهِ برَدِّ السلامِ أم لا؟ ثم أُصلِّي قريبًا منه، وأُسارِقُه النَّظرَ، فإذا أقبَلْتُ على صلاتي نظَرَ إليَّ، وإذا التفَتُّ نحوَه أعرَضَ عنِّي، حتى إذا طالَ ذلك عليَّ مِن جَفْوةِ المسلمين، مشَيْتُ حتى تسوَّرْتُ جدارَ حائطِ أبي قَتادةَ، وهو ابنُ عَمِّي، وأحَبُّ الناسِ إليَّ، فسلَّمْتُ عليه، فواللهِ ما رَدَّ عليَّ السلامَ، فقلتُ له: يا أبا قَتادةَ، أنشُدُك باللهِ هل تَعلَمَنَّ أنِّي أُحِبُّ اللهَ ورسولَه؟ قال: فسكَتَ، فعُدتُّ فناشَدتُّه، فسكَتَ، فعُدتُّ فناشَدتُّه، فقال: اللهُ ورسولُهُ أعلَمُ، ففاضت عينايَ، وتولَّيْتُ حتى تسوَّرْتُ الجدارَ.

فبَيْنا أنا أمشي في سوقِ المدينةِ، إذا نَبَطيٌّ مِن نََبَطِ أهلِ الشامِ، ممَّن قَدِمَ بالطعامِ يَبِيعُه بالمدينةِ، يقولُ: مَن يدُلُّ على كعبِ بن مالكٍ؟ قال: فطَفِقَ الناسُ يُشيرون له إليَّ، حتى جاءَني، فدفَعَ إليَّ كتابًا مِن مَلِكِ غسَّانَ، وكنتُ كاتبًا، فقرَأْتُه، فإذا فيه: أمَّا بعدُ، فإنَّه قد بلَغَنا أنَّ صاحِبَك قد جفَاك، ولم يَجعَلْك اللهُ بدارِ هوانٍ ولا مَضِيعةٍ، فالحَقْ بنا نُواسِك، قال: فقلتُ حين قرَأْتُها: وهذه أيضًا مِن البلاءِ، فتيامَمْتُ بها التَّنُّورَ، فسجَرْتُها بها.

حتى إذا مضَتْ أربعون مِن الخَمْسين، واستلبَثَ الوَحْيُ؛ إذا رسولُ رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم يأتيني، فقال: إنَّ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم يأمُرُك أن تعتزِلَ امرأتَك، قال: فقلتُ: أُطلِّقُها أم ماذا أفعَلُ؟ قال: لا، بل اعتزِلْها، فلا تَقرَبَنَّها، قال: فأرسَلَ إلى صاحِبَيَّ بمِثْلِ ذلك، قال: فقلتُ لامرأتي: الحَقِي بأهلِكِ فكُوني عندهم حتى يَقضِيَ اللهُ في هذا الأمرِ، قال: فجاءت امرأةُ هلالِ بنِ أُمَيَّةَ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم، فقالت له: يا رسولَ اللهِ، إنَّ هلالَ بنَ أُمَيَّةَ شيخٌ ضائعٌ ليس له خادمٌ، فهل تَكرَهُ أن أخدُمَه؟ قال: لا، ولكن لا يَقرَبَنَّكِ، فقالت: إنَّه واللهِ ما به حركةٌ إلى شيءٍ، وواللهِ ما زالَ يَبكي منذ كان مِن أمرِه ما كان إلى يومِه هذا، قال: فقال لي بعضُ أهلي: لو استأذَنْتَ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم في امرأتِك؟ فقد أَذِنَ لامرأةِ هلالِ بنِ أُمَيَّةَ أن تخدُمَه، قال: فقلتُ: لا أستأذِنُ فيها رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم، وما يُدرِيني ماذا يقولُ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم إذا استأذَنْتُه فيها، وأنا رجُلٌ شابٌّ، قال: فلَبِثْتُ بذلك عَشْرَ ليالٍ، فكمَلَ لنا خمسون ليلةً مِن حِينَ نُهِيَ عن كلامِنا، قال: ثم صلَّيْتُ صلاةَ الفجرِ صباحَ خَمْسين ليلةً على ظَهْرِ بيتٍ مِن بيوتِنا، فبَيْنا أنا جالسٌ على الحالِ التي ذكَرَ اللهُ عز وجل منَّا، قد ضاقَتْ عليَّ نفسي، وضاقَتْ عليَّ الأرضُ بما رحُبَتْ؛ سَمِعْتُ صوتَ صارخٍ أوفَى على سَلْعٍ، يقولُ بأعلى صوتِه: يا كعبُ بنَ مالكٍ، أبشِرْ، قال: فخرَرْتُ ساجدًا، وعرَفْتُ أنْ قد جاء فَرَجٌ.

قال: فآذَنَ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم الناسَ بتوبةِ اللهِ علينا حِينَ صلَّى صلاةَ الفجرِ، فذهَبَ الناسُ يُبشِّروننا، فذهَبَ قِبَلَ صاحَبَيَّ مبشِّرون، وركَضَ رجُلٌ إليَّ فرَسًا، وسعى ساعٍ مِن أسلَمَ قِبَلي، وأوفى الجبلَ، فكان الصوتُ أسرَعَ مِن الفرَسِ، فلمَّا جاءني الذي سَمِعْتُ صوتَه يُبشِّرُني، فنزَعْتُ له ثَوْبَيَّ، فكسَوْتُهما إيَّاه ببِشارتِه، واللهِ ما أملِكُ غيرَهما يومَئذٍ، واستعَرْتُ ثَوْبَيْنِ فلَبِسْتُهما، فانطلَقْتُ أتأمَّمُ رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم، يَتلقَّاني الناسُ فوجًا فوجًا، يُهنِّئوني بالتوبةِ، ويقولون: لِتَهْنِئْكُ توبةُ اللهِ عليك، حتى دخَلْتُ المسجدَ، فإذا رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم جالسٌ في المسجدِ، وحَوْله الناسُ، فقام طَلْحةُ بنُ عُبَيدِ اللهِ يُهَروِلُ حتى صافَحَني وهنَّأني، واللهِ ما قامَ رجُلٌ مِن المهاجِرين غيرُه.

قال: فكان كعبٌ لا يَنساها لطَلْحةَ.

قال كعبٌ: فلمَّا سلَّمْتُ على رسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم، قال وهو يبرُقُ وجهُه مِن السُّرورِ، ويقولُ: «أبشِرْ بخيرِ يومٍ مَرَّ عليك منذُ ولَدَتْك أمُّك»، قال: فقلتُ: أمِنْ عندِك يا رسولَ اللهِ، أم مِن عندِ اللهِ؟ فقال: «لا، بل مِن عندِ اللهِ»، وكان رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم إذا سُرَّ استنارَ وجهُه، كأنَّ وَجْهَه قطعةُ قمَرٍ، قال: وكنَّا نَعرِفُ ذلك.

قال: فلمَّا جلَسْتُ بين يدَيهِ، قلتُ: يا رسولَ اللهِ، إنَّ مِن تَوْبتي أن أنخلِعَ مِن مالي صدقةً إلى اللهِ، وإلى رسولِه صلى الله عليه وسلم، فقال رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم: «أمسِكْ بعضَ مالِك؛ فهو خيرٌ لك»، قال: فقلتُ: فإنِّي أُمسِكُ سَهْمي الذي بخَيْبرَ.

قال: وقلتُ: يا رسولَ اللهِ، إنَّ اللهَ إنَّما أنجاني بالصِّدْقِ، وإنَّ مِن تَوْبتي ألَّا أُحدِّثَ إلا صِدْقًا ما بَقِيتُ.

قال: فواللهِ ما عَلِمْتُ أنَّ أحدًا مِن المسلمين أبلاه اللهُ في صِدْقِ الحديثِ، منذُ ذكَرْتُ ذلك لرسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم إلى يومي هذا، أحسَنَ ممَّا أبلاني اللهُ به، واللهِ ما تعمَّدتُّ كَذْبةً منذُ قلتُ ذلك لرسولِ اللهِ صلى الله عليه وسلم إلى يومي هذا، وإنِّي لأرجو أن يَحفَظَني اللهُ فيما بَقِيَ.

قال: فأنزَلَ اللهُ عز وجل: {لَّقَد تَّابَ اْللَّهُ عَلَى اْلنَّبِيِّ وَاْلْمُهَٰجِرِينَ وَاْلْأَنصَارِ اْلَّذِينَ اْتَّبَعُوهُ فِي سَاعَةِ اْلْعُسْرَةِ مِنۢ بَعْدِ مَا كَادَ يَزِيغُ قُلُوبُ فَرِيقٖ مِّنْهُمْ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْۚ إِنَّهُۥ بِهِمْ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ١١٧ وَعَلَى اْلثَّلَٰثَةِ اْلَّذِينَ خُلِّفُواْ حَتَّىٰٓ إِذَا ضَاقَتْ عَلَيْهِمُ اْلْأَرْضُ بِمَا رَحُبَتْ وَضَاقَتْ عَلَيْهِمْ أَنفُسُهُمْ} [التوبة: 117-118] حتى بلَغَ: {يَٰٓأَيُّهَا اْلَّذِينَ ءَامَنُواْ اْتَّقُواْ اْللَّهَ وَكُونُواْ مَعَ اْلصَّٰدِقِينَ} [التوبة: 119].

قال كعبٌ: واللهِ ما أنعَمَ اللهُ عليَّ مِن نعمةٍ قطُّ، بعد إذ هداني اللهُ للإسلامِ، أعظَمَ في نفسي مِن صِدْقي رسولَ اللهِ صلى الله عليه وسلم، ألَّا أكونَ كذَبْتُه فأهلِكَ كما هلَكَ الذين كذَبوا؛ إنَّ اللهَ قال لِلَّذين كذَبُوا حِينَ أنزَلَ الوَحْيَ شرَّ ما قال لأحدٍ، وقال اللهُ: {سَيَحْلِفُونَ ‌بِاْللَّهِ ‌لَكُمْ إِذَا اْنقَلَبْتُمْ إِلَيْهِمْ لِتُعْرِضُواْ عَنْهُمْۖ فَأَعْرِضُواْ عَنْهُمْۖ إِنَّهُمْ رِجْسٞۖ وَمَأْوَىٰهُمْ جَهَنَّمُ جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَكْسِبُونَ ٩٥ يَحْلِفُونَ لَكُمْ لِتَرْضَوْاْ عَنْهُمْۖ فَإِن تَرْضَوْاْ عَنْهُمْ فَإِنَّ اْللَّهَ لَا يَرْضَىٰ عَنِ اْلْقَوْمِ اْلْفَٰسِقِينَ} [التوبة: 95-96].

قال كعبٌ: كنَّا خُلِّفْنا - أيُّها الثلاثةُ - عن أمرِ أولئك الذين قَبِلَ منهم رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم حِينَ حلَفوا له، فبايَعَهم، واستغفَرَ لهم، وأرجأَ رسولُ اللهِ صلى الله عليه وسلم أمْرَنا حتى قضى اللهُ فيه، فبذلك قال اللهُ عز وجل: {وَعَلَى ‌اْلثَّلَٰثَةِ ‌اْلَّذِينَ ‌خُلِّفُواْ} [التوبة: 118]، وليس الذي ذكَرَ اللهُ ممَّا خُلِّفْنا تخلُّفَنا عن الغَزْوِ، وإنَّما هو تخليفُه إيَّانا، وإرجاؤُه أمْرَنا عمَّن حلَفَ له واعتذَرَ إليه فقَبِلَ منه». أخرجه مسلم (٢٧٦٩).

* سورةُ (التوبة):

سُمِّيتْ بذلك لكثرةِ ذِكْرِ التوبة وتَكْرارها فيها، وذِكْرِ توبة الله على الثلاثة الذين تخلَّفوا يومَ غزوة (تَبُوكَ)، ولها عِدَّةُ أسماءٍ؛ من ذلك:

* سورةُ (براءةَ):

وقد اشتهَر هذا الاسمُ بين الصحابة؛ فعن البَراء رضي الله عنه، قال: «آخِرُ سورةٍ نزَلتْ كاملةً براءةُ». أخرجه البخاري (٤٣٦٤).

* (الفاضحةُ):

فعن سعيدِ بن جُبَيرٍ رحمه الله، قال: «قلتُ لابنِ عباسٍ: سورةُ التَّوبةِ، قال: آلتَّوبةُ؟ قال: بل هي الفاضحةُ؛ ما زالت تَنزِلُ: {وَمِنْهُمْ} {وَمِنْهُمْ} حتى ظَنُّوا أن لا يَبقَى منَّا أحدٌ إلا ذُكِرَ فيها». أخرجه مسلم (٣٠٣١).

قال ابنُ عاشورٍ: «ولهذه السورةِ أسماءٌ أُخَرُ، وقَعتْ في كلام السلف، من الصحابة والتابعين؛ فرُوي عن ابن عمرَ، عن ابن عباسٍ: كنَّا ندعوها - أي سورةَ (براءةَ) -: «المُقَشقِشَة» - بصيغةِ اسم الفاعل وتاء التأنيث، مِن قَشْقَشَه: إذا أبرَاه مِن المرضِ -، كان هذا لقبًا لها ولسورة (الكافرون)؛ لأنهما تُخلِّصان مَن آمن بما فيهما من النفاق والشرك؛ لِما فيهما من الدعاء إلى الإخلاص، ولِما فيهما من وصفِ أحوال المنافقين ...

وعن حُذَيفةَ: أنه سمَّاها سورة (العذاب)؛ لأنها نزلت بعذاب الكفار؛ أي: عذاب القتلِ والأخذِ حين يُثقَفون.

وعن عُبَيد بن عُمَير: أنه سمَّاها (المُنقِّرة) - بكسرِ القاف مشدَّدةً -؛ لأنها نقَّرتْ عما في قلوب المشركين...». "التحرير والتنوير" (10 /96).

وقد بلغ عددُ أسمائها (21) اسمًا في موسوعة "التفسير الموضوعي" (3 /187 وما بعدها).

* أمَر عُمَرُ بن الخطَّابِ رضي الله عنه أن يَتعلَّمَها الرِّجالُ لِما فيها من أحكام الجهاد:

فقد كتَب عُمَرُ بنُ الخطَّابِ رضي الله عنه: «تعلَّمُوا سورةَ براءةَ، وعَلِّموا نساءَكم سورةَ النُّورِ». "فضائل القرآن" للقاسم بن سلَّام (ص241).

جاءت موضوعاتُ سورة (التَّوبة) على الترتيب الآتي:

1. نبذُ العهد مع المشركين (١-٢٤).

2. غزوة (حُنَين) (٢٥-٢٧).

3. قتال أهل الكتاب لفساد عقيدتهم (٢٨-٣٥).

4. تحديد الأشهُرِ الحُرُم (٣٦-٣٧).

5. غزوة تَبُوكَ (٣٨- ١٢٧).

6. صفات المؤمنين، وعقدُ البَيْعة مع الله تعالى.

7. أنواع المنافقين، والمعذِّرون من الأعراب.

8. صفات المنافقين والمؤمنين، وجزاؤهم.

9. أصناف أهل الزكاة.

10. فضحُ المتخلِّفين عن الجهاد، وصفاتهم.

11. النفير العام، والجهاد في سبيل الله.

12. علوُّ مكانة النبيِّ عليه السلام (١٢٨-١٢٩).

ينظر: "التفسير الموضوعي" لمجموعة من العلماء (3 /178).

إنَّ مقصدَ السورة الأعظم أبانت عنه أولُ كلمةٍ في السورة؛ وهي {بَرَآءَةٞ} [التوبة: 1]؛ فقد جاءت للبراءةِ من الشرك والمشركين، ومعاداةِ مَن أعرض عما دعَتْ إليه السُّوَرُ الماضية؛ مِن اتباعِ الداعي إلى الله في توحيده، واتباعِ ما يُرضيه، كما جاءت بموالاةِ مَن أقبل على الله تعالى، وأعلن توبته؛ كما حصَل مع الصحابة الذين تخلَّفوا عن الغزوِ، ثم تاب اللهُ عليهم ليتوبوا.

ينظر: "مصاعد النظر للإشراف على مقاصد السور" للبقاعي (2 /154).