ترجمة سورة الفجر

الترجمة الهندية

ترجمة معاني سورة الفجر باللغة الهندية من كتاب الترجمة الهندية.
من تأليف: مولانا عزيز الحق العمري .

शपथ है भोर की!
तथा दस रात्रियों की!
और जोड़े तथा अकेले की!
और रात्रि की जब जाने लगे!
क्या उसमें किसी मतिमान (समझदार) के लिए कोई शपथ है?[1]
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1. (1-5) इन आयतों में प्रथम परलोक के सुफल विष्यक चार संसारिक लक्षणों को साक्ष्य (गवाह) के रूप में परस्तुत किया गया है। जिस का अर्थ यह है कि कर्मों का फल सत्य है। रात तथा दिन का यह अनुक्रम जिस व्यवस्था के साथ चल रहा है उस से सिध्द होता है कि अल्लाह ही इसे चला रहा है। "दस रात्रियों" से अभिप्राय "ज़ुल ह़िज्जा" मास की प्रारम्भिक दस रातें हैं। सह़ीह़ ह़दीसों में इन की बड़ी प्रधानता बताई गई है।
क्या तुमने नहीं देखा कि तुम्हारे पालनहार ने "आद" के सात क्या किया?
स्तम्भों वाले "इरम" के साथ?
जिनके समान देशों में लोग नहीं पैदा किये गये।
तथा "समूद" के साथ जिन्होंने घाटियों मे चट्टानों को काट रखा था।
और मेखों वाले फ़िरऔन के साथ।
जिन्होंने नगरों में उपद्रव कर रखा था।
और नगरों में बड़ा उपद्रव फैला रखा था।
फिर तेरे पालनहार ने उनपर दण्ड का कोड़ा बरसा दिया।
वास्तव में, तेरा पालनहार घात में है।[1]
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1. (6-14) इन आयतों में उन जातियों की चर्चा की गई है जिन्हों ने माया मोह में पड़ कर परलोक और प्रतिफल का इन्कार किया, और अपने नैतिक पतन के कारण धरती में उग्रवाद किया। "आद, इरम" से अभिप्रेत वह पूरानी जाती है जिसे क़ुर्आन तथा अरब में "आदे ऊला" (प्रथम आद) कहा गया है। यह वह प्राचीन जाति है जिस के पास हूद (अलैहिस्सलाम) को भेजा गया। और इन को "आदे इरम" इस लिये कहा गया है कि यह शामी वंशक्रम की उस शाखा से संबंधित थे जो इरम बिन शाम बिन नूह़ से चली आती थी। आयत संख्या 11 में इस का संकेत है कि उग्रवाद का उद्गम भौतिकवाद एवं सत्य विश्वास का इन्कार है जिसे वर्तमान युग में भी प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है।
परन्तु, जब इन्सान की उसका पालनहार परीक्षा लेता है और उसे सम्मान और धन देता है, तो कहता है कि मेरे पालनहार ने मेरा सम्मान किया।
परन्तु, जब उसकी परीक्षा लेने के लिए उसकी जीविका संकीर्ण (कम) कर देता है, तो कहता है कि मेरे पालनहार ने मेरा अपमान किया।
ऐसा नहीं, बल्कि तुम अनाथ का आदर नहीं करते।
तथा ग़रीब को खाना खिलाने के लिए एक-दूसरे को नहीं उभारते।
और मीरास (मृतक सम्पत्ति) के धन को समेट-समेट कर खा जाते हो।
और धन से बड़ा मोह रखते हो।[1]
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1. (15-20) इन आयतों में समाज की साधारण नैतिक स्थिति की परीक्षा (जायज़ा) ली गई, और भौतिकवादी विचार की आलोचना की गई है जो मात्र सांसारिक धन और मान मर्य़ादा को सम्मान तथा अपमान का पैमाना समझता है और यह भूल गया है कि न धनी होना कोई पुरस्कार है और न निर्धन होना कोई दण्ड है। अल्लाह दोनों स्थितियों में मानव जाति (इन्सान) की परीक्षा ले रहा है। फिर यह बात किसी के बस में हो तो दूसरे का धन भी हड़प कर जाये, क्या ऐसा करना कुकर्म नहीं जिस का ह़िसाब लिया जाये?
सावधान! जब धरती खण्ड-खण्ड कर दी जायेगी।
और तेरा पालनहार स्वयं पदार्वण करेगा और फ़रिश्ते पंक्तियों में होंगे।
और उस दिन नरक लायी जायेगी, उस दिन इन्सान सावधान हो जायेगा, किन्तु सावधानी लाभ-दायक न होगी।
वह कामना करेगा के काश! अपने सदा कि जीवन के लिए कर्म किये होते।
उस दिन (अल्लाह) के दण्ड के समान कोई दण्ड नहीं होगा।
और न उसके जैसी जकड़ कोई जकड़ेगा।[1]
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1. (21-26) इन आयतों मे बताया गया है कि धन पूजने और उस से परलोक न बनाने का दुष्परिणाम नरक की घोर यातना के रूप में सामने आयेगा तब भौतिकवादी कुकर्मियों की समझ में आयेगा कि क़ुर्आन को न मान कर बड़ी भूल हुई और हाथ मलेंगे।
हे शान्त आत्मा!
अपने पालनहार की ओर चल, तू उससे प्रसन्न, और वह तुझ से प्रसन्न।
तू मेरे भक्तों में प्रवेश कर जा।
और मेरे स्वर्ग में प्रवेश कर जा।[1]
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1. (27-30) इन आयतों में उन के सुख और सफलता का वर्णन किया गया है जो क़ुर्आन की शिक्षा का अनुपालन करते हुये आत्मा की शाँति के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
سورة الفجر
معلومات السورة
الكتب
الفتاوى
الأقوال
التفسيرات

سورة (الفجر) من السُّوَر المكية، نزلت بعد سورة (الليل)، وقد افتُتحت بقَسَمِ الله عز وجل بـ(الفجر)، وجاءت على ذكرِ ما عذَّب اللهُ به عادًا وثمودَ وقوم فرعون؛ ليعتبِرَ بذلك مشركو قريش، وفي ذلك تثبيتٌ للنبي صلى الله عليه وسلم على طريق الدعوة، وخُتمت السورة الكريمة بتقسيم الناس إلى أهل الشقاء وأهل السعادة.

ترتيبها المصحفي
89
نوعها
مكية
ألفاظها
139
ترتيب نزولها
10
العد المدني الأول
32
العد المدني الأخير
32
العد البصري
29
العد الكوفي
30
العد الشامي
30

* سورة (الفجر):

سُمِّيت سورة (الفجر) بهذا الاسم؛ لافتتاحها بقَسَمِ الله عز وجل بـ(الفجر)؛ قال تعالى: {وَاْلْفَجْرِ} [الفجر: 1].

1. في التاريخ عِبْرة وعِظة (١-١٤).

2. أهل الشقاء وأهل السعادة (١٥- ٣٠).

ينظر: "التفسير الموضوعي لسور القرآن الكريم" لمجموعة من العلماء (9 /127).

مقصدُ السورة هو إنذارُ قُرَيش بعذاب الآخرة عن طريقِ ضربِ المثَلِ في إعراضهم عن قَبول رسالة ربهم بمثَلِ عادٍ وثمودَ وقومِ فرعون، وما أوقَعَ اللهُ بهم من عذاب، وفي ذلك تثبيتُ النبي صلى الله عليه وسلم على هذه الدعوة.

ينظر: "التحرير والتنوير" لابن عاشور (30 /312).